- राम अवतार सचान
भारतीय लोकतंत्र में आम आदमी का विश्वास सभी व्यवस्थाओं से उठ जाने के बावजूद न्याय व्यवस्था में उसका विश्वास कहीं न कहीं कायम था। परन्तु पिछले कुछ समय से न्याय के क्षेत्र में घुस आए भ्रष्टाचार से आम भारतीय नागरिक को बेहद निराशा हुई है। उसके पास एक मात्र न्याय प्रणाली ही बची थी जहाँ से वह न्याय पाने की उम्मीद रखता था। आज जिसके पास पैसा नही है न्याय पा ही नहीं सकता और ऊपर के न्यायालयों में वह जा नहीं सकता क्योंकि वहां एक- एक पेशी की फीस पचास हजार से लेकर पाँच- पाँच लाख तक तय है। आम भारतीय वह तो दे नहीं सकता, ऐसे में वह न्याय की गुहार कहां करे?
भारतीय लोकतंत्र से मेरा तात्पर्य कानून के उस प्रशासन से है जिसमें नागरिकों को उचित एवं त्वरित न्याय मिलना चाहिए। लेकिन विडम्बना यह है कि विश्व में सबसे बड़े लोकतंत्र होने का दावा करने के बावजूद यहां कानून की प्रक्रिया बेहद ढीली और गैर- जिम्मेदाराना है। यही वजह है कि संविधान में उल्लिखित समता सिद्धांत मात्र कागजों की शोभा मात्र बनकर रह गया है, जहां पर धनी और प्रभावशाली व्यक्तियों के लिए कानून का मतलब अलग होता है तथा गरीब और असहाय के लिए अलग। उदाहरण स्वरूप हसन अली पर पचासों करोड़ कर का बकाया होते हुए भी उसकी गिरफ्तारी नहीं की जाती लेकिन एक किसान को फसली ऋण की अदायगी न किए जाने पर तुरंत रिकवरी जारी कर जेल में डाल दिया जाता है। इसे भला कैसे न्यायसंगत कहा जाएगा। एक किसान के लिए फसलों को उगाने से लेकर बिक्री करने तक बीसों कारक काम करते हैं जो किसान के बस में नहीं होते जैसे खाद, बीज, मानसून, बाजार भाव तथा सरकार द्वारा मूल्य निर्धारण आदि।
इसका मुख्य कारण है हमारे देश में न्याय की धीमी प्रक्रिया क्योंकि यहां जितने जजों की आवश्यकता है उसकी तुलना में उपलब्ध संख्या बहुत कम है। परिणामस्वरूप आज हमारी न्यायपालिका की यह व्यवस्था ब्रिटिश समय के पुराने कानूनों के बोझ तले दबकर लडख़ड़ा गई है। उस समय यह कानून एक बाहरी शासक द्वारा अपने फायदों के लिए बनाया गया था जिसमें अब पूर्ण संशोधन की जरूरत है।
न्याय प्रक्रिया की धीमी चाल की वजह से आज विभिन्न अदालतों में लगभग तीन करोड़ से अधिक मामले विगत कई वर्षों से लंबित पड़े हैं। न्याय और न्याय प्रक्रिया का इससे बड़ा मखौल और क्या हो सकता है कि इसे लेकर भारत के मुख्य न्यायाधीश तथा राष्ट्रपति तक ने चिंता जाहिर की है।
न्याय में देरी की दूसरी मुख्य वजह- न्यायपालिका में उच्च पदों पर बैठे जजों की जवाबदेही न होना है। नागरिकों के प्रति जिम्मेदारी लोकतंत्र के तमाम प्रमुख स्तंभों पर केंद्रित है लेकिन ये सभी स्तंभ आज नकारा, भ्रष्ट और निहित स्वार्थों में लिप्त हो चुके हंै। विधायिका तो अपने स्वार्थ के लिए सबसे आगे है चाहे वेतन का मामला हो या अन्य कोई।
इन सबके चलते कानूनी प्रतिक्रिया आज इतनी जटिल कर दी गई है कि शीघ्र न्याय होने ही नहीं दिया जाता। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है- सत्र के दौरान होने वाला अपराध, न्यायाधीश की उपस्थिति में सब घटता है लेकिन अपराधी को सजा नहीं होती है क्योंकि न्याय करने वाला असहाय होता है कि वह आखिर सजा किसे और क्यों दे क्योंकि अपराध की प्रथम सूचना ही दर्ज नहीं हुई होती है। इसके विपरीत अन्य देशों में तुरंत न्यायिक क्रिया होती है जिसकी वजह से वहां पर 95 प्रतिशत अपराधी को सजा मिलती है। लेकिन भारत में ठीक इसके उल्टा होता है यहां पर 95 प्रतिशत को सजा नहीं हो पाती है। इसलिए यहां अपराधी अपराध दर अपराध करते चले जाता है और उसका कद दिन प्रतिदिन बढ़ता जाता है। यहां तक कि वह स्यवं कानून बनाने लग जाता है। इस तरह अपराधी को समाज में मान्यता मिल जाती है और यही अपराधी समाज के माननीय बन बैठते हैं, जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण है वर्तमान में ऐसे जनप्रतिनिधियों की बढ़ती संख्या।
ऐसी परिस्थिति से बाहर निकलने के लिए बेहतर है कि जिम्मेदार पदों पर बैठे लोग यह समझें कि शिथिल न्याय प्रक्रिया को सुधार कर उसे जिम्मेदार कैसे बनाएं, ताकि सड़ती जा रही व्यवस्था का उपचार हो, साथ ही योजनाओं तथा परियोजनाओं का क्रियान्वन करने वाले लोगों की जवाबदेही तय की सके।
हमारा अभिप्राय उच्च पदों पर बैठे ऐसे राजनयिकों और उन जिम्मेदार व्यक्तियों से है जो कानून बनाने, संशोधन करने और उसका क्रियान्वन समूल निष्ठा के साथ लागू करने की स्थिति में हंै। वे जब जनता व देश के साथ जवाबदेही का रवैया अपनाएंगे तभी लोकतंत्र, जनता और देश का कल्याण सुनिश्चित होगा अन्यथा आज अदालत से कुछ भी नहीं मिलता, केवल मिलती है तारीख पर तारीख, जहां पर गवाह खरीदे और बेचे जाते हैं और वह भी नहीं होता तो मार दिए जाते हैं।
न्याय शीघ्र न होने की वजह से ऐसे लोगों की लम्बी कतार खड़ी हो गई है जो देश और समाज के लिए घातक है।
संपर्क- 13/1 बलरामपुर हाउस, मम्फोर्डगंज इलाहाबाद (उ.प्र.) 211002, मो. 09628216646
भारतीय लोकतंत्र में आम आदमी का विश्वास सभी व्यवस्थाओं से उठ जाने के बावजूद न्याय व्यवस्था में उसका विश्वास कहीं न कहीं कायम था। परन्तु पिछले कुछ समय से न्याय के क्षेत्र में घुस आए भ्रष्टाचार से आम भारतीय नागरिक को बेहद निराशा हुई है। उसके पास एक मात्र न्याय प्रणाली ही बची थी जहाँ से वह न्याय पाने की उम्मीद रखता था। आज जिसके पास पैसा नही है न्याय पा ही नहीं सकता और ऊपर के न्यायालयों में वह जा नहीं सकता क्योंकि वहां एक- एक पेशी की फीस पचास हजार से लेकर पाँच- पाँच लाख तक तय है। आम भारतीय वह तो दे नहीं सकता, ऐसे में वह न्याय की गुहार कहां करे?
भारतीय लोकतंत्र से मेरा तात्पर्य कानून के उस प्रशासन से है जिसमें नागरिकों को उचित एवं त्वरित न्याय मिलना चाहिए। लेकिन विडम्बना यह है कि विश्व में सबसे बड़े लोकतंत्र होने का दावा करने के बावजूद यहां कानून की प्रक्रिया बेहद ढीली और गैर- जिम्मेदाराना है। यही वजह है कि संविधान में उल्लिखित समता सिद्धांत मात्र कागजों की शोभा मात्र बनकर रह गया है, जहां पर धनी और प्रभावशाली व्यक्तियों के लिए कानून का मतलब अलग होता है तथा गरीब और असहाय के लिए अलग। उदाहरण स्वरूप हसन अली पर पचासों करोड़ कर का बकाया होते हुए भी उसकी गिरफ्तारी नहीं की जाती लेकिन एक किसान को फसली ऋण की अदायगी न किए जाने पर तुरंत रिकवरी जारी कर जेल में डाल दिया जाता है। इसे भला कैसे न्यायसंगत कहा जाएगा। एक किसान के लिए फसलों को उगाने से लेकर बिक्री करने तक बीसों कारक काम करते हैं जो किसान के बस में नहीं होते जैसे खाद, बीज, मानसून, बाजार भाव तथा सरकार द्वारा मूल्य निर्धारण आदि।
इसका मुख्य कारण है हमारे देश में न्याय की धीमी प्रक्रिया क्योंकि यहां जितने जजों की आवश्यकता है उसकी तुलना में उपलब्ध संख्या बहुत कम है। परिणामस्वरूप आज हमारी न्यायपालिका की यह व्यवस्था ब्रिटिश समय के पुराने कानूनों के बोझ तले दबकर लडख़ड़ा गई है। उस समय यह कानून एक बाहरी शासक द्वारा अपने फायदों के लिए बनाया गया था जिसमें अब पूर्ण संशोधन की जरूरत है।
न्याय प्रक्रिया की धीमी चाल की वजह से आज विभिन्न अदालतों में लगभग तीन करोड़ से अधिक मामले विगत कई वर्षों से लंबित पड़े हैं। न्याय और न्याय प्रक्रिया का इससे बड़ा मखौल और क्या हो सकता है कि इसे लेकर भारत के मुख्य न्यायाधीश तथा राष्ट्रपति तक ने चिंता जाहिर की है।
न्याय में देरी की दूसरी मुख्य वजह- न्यायपालिका में उच्च पदों पर बैठे जजों की जवाबदेही न होना है। नागरिकों के प्रति जिम्मेदारी लोकतंत्र के तमाम प्रमुख स्तंभों पर केंद्रित है लेकिन ये सभी स्तंभ आज नकारा, भ्रष्ट और निहित स्वार्थों में लिप्त हो चुके हंै। विधायिका तो अपने स्वार्थ के लिए सबसे आगे है चाहे वेतन का मामला हो या अन्य कोई।
इन सबके चलते कानूनी प्रतिक्रिया आज इतनी जटिल कर दी गई है कि शीघ्र न्याय होने ही नहीं दिया जाता। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है- सत्र के दौरान होने वाला अपराध, न्यायाधीश की उपस्थिति में सब घटता है लेकिन अपराधी को सजा नहीं होती है क्योंकि न्याय करने वाला असहाय होता है कि वह आखिर सजा किसे और क्यों दे क्योंकि अपराध की प्रथम सूचना ही दर्ज नहीं हुई होती है। इसके विपरीत अन्य देशों में तुरंत न्यायिक क्रिया होती है जिसकी वजह से वहां पर 95 प्रतिशत अपराधी को सजा मिलती है। लेकिन भारत में ठीक इसके उल्टा होता है यहां पर 95 प्रतिशत को सजा नहीं हो पाती है। इसलिए यहां अपराधी अपराध दर अपराध करते चले जाता है और उसका कद दिन प्रतिदिन बढ़ता जाता है। यहां तक कि वह स्यवं कानून बनाने लग जाता है। इस तरह अपराधी को समाज में मान्यता मिल जाती है और यही अपराधी समाज के माननीय बन बैठते हैं, जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण है वर्तमान में ऐसे जनप्रतिनिधियों की बढ़ती संख्या।
ऐसी परिस्थिति से बाहर निकलने के लिए बेहतर है कि जिम्मेदार पदों पर बैठे लोग यह समझें कि शिथिल न्याय प्रक्रिया को सुधार कर उसे जिम्मेदार कैसे बनाएं, ताकि सड़ती जा रही व्यवस्था का उपचार हो, साथ ही योजनाओं तथा परियोजनाओं का क्रियान्वन करने वाले लोगों की जवाबदेही तय की सके।
हमारा अभिप्राय उच्च पदों पर बैठे ऐसे राजनयिकों और उन जिम्मेदार व्यक्तियों से है जो कानून बनाने, संशोधन करने और उसका क्रियान्वन समूल निष्ठा के साथ लागू करने की स्थिति में हंै। वे जब जनता व देश के साथ जवाबदेही का रवैया अपनाएंगे तभी लोकतंत्र, जनता और देश का कल्याण सुनिश्चित होगा अन्यथा आज अदालत से कुछ भी नहीं मिलता, केवल मिलती है तारीख पर तारीख, जहां पर गवाह खरीदे और बेचे जाते हैं और वह भी नहीं होता तो मार दिए जाते हैं।
न्याय शीघ्र न होने की वजह से ऐसे लोगों की लम्बी कतार खड़ी हो गई है जो देश और समाज के लिए घातक है।
संपर्क- 13/1 बलरामपुर हाउस, मम्फोर्डगंज इलाहाबाद (उ.प्र.) 211002, मो. 09628216646
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