मैं तुलसीदास की रामायण माँगता हूँ
हमारा साहित्य इस समय ऐसा है कि उसमें से जनता एकाध वस्तु भी ग्रहण नहीं कर सकती। उसमें एक भी वस्तु ऐसी नहीं है, जिससे वह एक युग, एक वर्ष अथवा एक सप्ताह तक भी टिक सके।
मुझे खेद है कि हमारे साहित्य में यह बात बहुत कम दिखाई देती है। हमारा साहित्य इस समय ऐसा है कि उसमें से जनता एकाध वस्तु भी ग्रहण नहीं कर सकती। उसमें एक भी वस्तु ऐसी नहीं है, जिससे वह एक युग, एक वर्ष अथवा एक सप्ताह तक भी टिक सके।
अब हम यह देखें कि अनादिकाल से हमारे पास जो गं्रथ चले आ रहे है, उनमें कितना साहित्य है ? हमारे प्राचीन धार्मिक ग्रंथों से हमें जितना संतोष मिलता है, आधुनिक साहित्य से उतना नहीं मिलता। इस साहित्य के मामूली- से- अनुवाद में भी जो रस आ सकता है, वह आज के साहित्य में नहीं आ पाता। यदि कोई कहे कि आधुनिक साहित्य में बहुत कुछ है, तो हम इसे स्वीकार कर सकते हैं, किंतु इस बहुत कुछ को खोज निकालने में मनुष्य थक जाता है। तुलसीदास और कबीर जैसा साहित्य हमें किसने दिया है ?
जा विधि भावे ता विधि रहिए।
जैसे तैसे हरि को लहिए।।
ऐसी बात तो आजकल हमें दिखाई ही नहीं देती। आज के युग में हमें जो कुछ प्राप्त हुआ, वह अब कहाँ हो सकता है? बीस वर्ष दक्षिण अफ्रीका में रहने के बाद मैं भारत आया और मैंने देखा कि हम डरे- डरे जीवन बिता रहे हैं। भयभीत होकर जीने वाला अपने भावों को निर्भयता से प्रकट ही नहीं कर सकता। यदि किसी दबाव में पड़कर हम लिखते है, तो उसमें से कवित्य की धारा नहीं फूटती और उसकी लहरों पर सत्य तिरता हुआ नहीं आ पाता। समाचार पत्रों के संबंध में भी यह बात लागू होती है। जहाँ सिर पर प्रेस अधिनियम झूल रहा हो, वहाँ संपादक बिना पशोपेश के नहीं लिख सकता। साहित्य रसिकों के सिर पर भी प्रेस अधिनियम झूल रहा है और इसलिए एक पंक्ति भी मुक्त भाव से नहीं लिखी जाती और इसी कारण सत्य को जिस तरह से प्रस्तुत करना चाहिए, वह उस तरह नहीं किया जाता।
हिन्दुस्तान में इस समय संक्रातिकाल है। करोड़ों व्यक्तियों को अनुभूति हो रही है कि हमारे यहां बड़े- बड़े परिवर्तन होने वाले हैं। हमारी दरिद्रावस्था मिट जाएगी और समृद्धि तथा वैभव का युग आएगा। हमें अब सत्ययुग की झांकी मिलेगी। मैं स्थान- स्थान पर ऐसे उद्गार सुनता हूं। कितने ही लोग यह समझ रहे है कि अब हिन्दुस्तान के इतिहास का एक नवीन पृष्ठ खुलने जा रहा है। यदि हिन्दुस्तान के इतिहास का नवीन पृष्ठ खुलने वाला है, तो हमें उस पर क्या लिखा हुआ मिलेगा? यदि हमें सुधार लिखे मिले, तब तो यह गले में पट्टा डालने के समान होगा और जैसे हम आज बैल को हांक जाते हैं, वैसे ही हांके जाएँगे। इसी तरह साहित्य की सेवा करने वालों से मैं तो यही मागूँगा कि वे हमें ईश्वर से मिलाएँ, सत्य के दर्शन कराएँ। हमारे साहित्य सेवकों को यह बात सिद्ध कर देनी चाहिए कि हिन्दुस्तानी पापी नहीं है, वह धोखाधड़ी करने वाला देश नहीं है।
पोप- 'इलियड' के रचियता- ने दक्षिण प्रांत की जो सेवा की है, वैसी सेवा किसी मद्रासी ने भी की है। मैं तो प्रेम रंग में डूबा हुआ हँू और प्रत्येक मनुष्य का हृदय चुरा लेना चाहता हूँ दक्षिण प्रांत के भाइयों का हृदय चुराने के लिए मुझे उनकी भाषा सीखनी पड़ी। रेबरेंड पोप ने जो रचनाएँ दी हैं, उनमें से इस समय तो मैं कुछ उद्घृत नहीं कर सकता, लेकिन इतना अवश्य कहूंगा कि तमिल में लिख गई वे रचनाएँ, जिन्हें खेत में पानी देता हुआ किसान भी दुहरा सकता है, अलौकिक है। सूर्योदय के पहले ही खेत में पानी देना प्रारंभ कर दिया जाता है। बाजरा, गेहँू, आदि सब पर ओस के मोती बिखरे हुए होते है। पेड़ों के पत्तों पर से झरता हुआ पानी मोती के समान लगता है। ये व्यक्ति, खेत में पानी देने वाले ये किसान, उस समय कुछ ऐसा ही गाते हैं। मैं जब कोचरब में रहता था, तब खेत में पानी देने वाले किसानों को देखता और उनकी बातें सुनता, लेकिन उनके मुँह से तो अश्लील शब्द ही निकलते थे। इसका क्या कारण है ? इसका उत्तर मैं यहीं बैठे हुए श्री नरसिंहराव तथा अध्यक्ष महोदय से पाना चाहता हूँ। साहित्य परिषद से मैं कहूँगा कि खेतों में पानी देने वाले इन किसानों के मुँह से अपशब्दों का निकलना हटाएँ, नहीं तो हमारी अवनति की जिम्मेदारी साहित्य परिषद के सिर पर होगी। साहित्य के सेवकों से मैं पूछना चाहँूगा कि जनता का अधिकांश भाग कैसा है और आप उसके लिए क्या लिखेंगे?
साहित्य परिषद से भी यही कहूँगा कि परिषद में जो कमियां है उन्हें वह हटाएं। लुई के मन में पुस्तक लिखने का विचार आया तो उसने अपने बच्चों के लिए पुस्तकें लिखीं। उसके बच्चों ने तो उनका लाभ उठाया ही, आज के हमारे स्त्री- पुरुष तथा बालक भी उनसे लाभ उठा रहे हैं। मैं अपने साहित्य लेखकों से ऐसा ही साहित्य चाहता हूँ। मैं उनसे बाण भट्ट की 'कादम्बरी' नहीं, 'तुलसीदास की रामायण' माँगता हूँ। 'कादम्बरी' हमेशा रहेगी अथवा नहीं, इसके विषय में मुझे शंका है, लेकिन तुलसीदास का दिया हुआ साहित्य तो स्थायी है। फिलहाल साहित्य हमें रोटी, घी और दूध ही दे, बाद में हम उसमें बादाम, पिस्ते मिलाकर 'कादम्बरी' जैसा कुछ लिखेंगे।
गुजरात की निरीह जनता, माधुर्य से ओतप्रोत जनता, जिसकी सज्जनता का पार नहीं है, जो अत्यधिक भोली है और जिसे ईश्वर में अखंड विश्वास है, उस जनता की उन्नति तभी होगी, जब साहित्य सेवक किसानों, मजदूरों तथा ऐसे ही अन्य लोगों के लिए काव्य रचना करेंगे, उनके लिए लिखेंगे।
(गुजरात साहित्य परिषद में गांधी जी द्वारा दिया गया भाषण जो हरिजन के 4.4.1920 के अंक में प्रकाशित हुआ)
प्रस्तुति : यशवंत कोठारी
संपर्क- 86, लक्ष्मी नगर, ब्रह्मपुरी, बाहर, जयपुर- 302002,
फोन- 0141-2670596, Email: ykkothari3@gmail.com
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