- अशोक सिंघई
वास्तव में समय और क्या है
हमारी सदी में
एक फिसलन, एक थिरकन
संभावनाओं को जनमता
एक ठहरा बाँझपन
अशान्त शान्ति और प्रकाशित अँधेरे का
सर्द, गर्म ठण्डापन
स्मृतियों की ऑक्सीजन पर जी रहा है प्यार
जहाँ- तहाँ सिर्फ गुस्सा ही गुस्सा जीता है
सब कुछ तोड़- मरोड़ देना चाहता है
यहाँ तक कि अपने-आप को भी
स्वयं का सामना
सबसे कठिन होता है
इसे कौन नहीं जानता
सब कुछ लगने लगता है व्यर्थ
सब कुछ बचने लगता है अव्यक्त
न कोई कहता है कुछ
और न ही कोई चाहता है सुनना कुछ
दरअसल चल नहीं रही है जिन्दगी
सरक रही है हाथों से
फिसल रही है राहों से
खिसक रही है जिन्दगी
पल दर पल हर साल
टकराता है एक मोड़ जैसा
साल दर साल
एक और नया साल
संपर्क: सिंघई विला, सड़क-20, सेक्टर-५, भिलाई (छत्तीसगढ़) 490 006,
Email: ashoksinghai@ymail.com
हर सवाल में
- डॉ. अजय पाठक
स्वप्न आपके
फलीभूत हों, नये साल में!
देश- द्वार पर समृद्घि सूरज बरसाये
संध्या, सुख- सपनों का मंगल गीत सुनाये
अक्षत- रोली,
दीपक- चंदन लिये थाल में!
कल्पतरू पर नयी कोंपले, उगे निरंतर
सिरजे धरा मनोरथ के फल होकर उर्वर
फूल खिलें हो
तरूवर के हर एक डाल में!
बच्चों के अधरों पर हरदम हो मुस्कानें
नये क्षितिज की ओर निरंतर भरें उड़ाने
उलझे मत सब,
दुर्मतियों के चपल चाल में!
आतंकों से मुक्त धरा हो और गगन हो
नदियां हो परिपूर्ण, प्रदूषण मुक्त पवन हो
समरसता का हल
निहित हो हर सवाल में!
संपर्क: संपादक- नये पाठक, एल- 3, विनोबानगर, बिलासपुर (छ।ग.)
Email: kavi_ajaypathak@yahoo.co.in
वास्तव में समय और क्या है
हमारी सदी में
एक फिसलन, एक थिरकन
संभावनाओं को जनमता
एक ठहरा बाँझपन
अशान्त शान्ति और प्रकाशित अँधेरे का
सर्द, गर्म ठण्डापन
स्मृतियों की ऑक्सीजन पर जी रहा है प्यार
जहाँ- तहाँ सिर्फ गुस्सा ही गुस्सा जीता है
सब कुछ तोड़- मरोड़ देना चाहता है
यहाँ तक कि अपने-आप को भी
स्वयं का सामना
सबसे कठिन होता है
इसे कौन नहीं जानता
सब कुछ लगने लगता है व्यर्थ
सब कुछ बचने लगता है अव्यक्त
न कोई कहता है कुछ
और न ही कोई चाहता है सुनना कुछ
दरअसल चल नहीं रही है जिन्दगी
सरक रही है हाथों से
फिसल रही है राहों से
खिसक रही है जिन्दगी
पल दर पल हर साल
टकराता है एक मोड़ जैसा
साल दर साल
एक और नया साल
संपर्क: सिंघई विला, सड़क-20, सेक्टर-५, भिलाई (छत्तीसगढ़) 490 006,
Email: ashoksinghai@ymail.com
हर सवाल में
- डॉ. अजय पाठक
स्वप्न आपके
फलीभूत हों, नये साल में!
देश- द्वार पर समृद्घि सूरज बरसाये
संध्या, सुख- सपनों का मंगल गीत सुनाये
अक्षत- रोली,
दीपक- चंदन लिये थाल में!
कल्पतरू पर नयी कोंपले, उगे निरंतर
सिरजे धरा मनोरथ के फल होकर उर्वर
फूल खिलें हो
तरूवर के हर एक डाल में!
बच्चों के अधरों पर हरदम हो मुस्कानें
नये क्षितिज की ओर निरंतर भरें उड़ाने
उलझे मत सब,
दुर्मतियों के चपल चाल में!
आतंकों से मुक्त धरा हो और गगन हो
नदियां हो परिपूर्ण, प्रदूषण मुक्त पवन हो
समरसता का हल
निहित हो हर सवाल में!
संपर्क: संपादक- नये पाठक, एल- 3, विनोबानगर, बिलासपुर (छ।ग.)
Email: kavi_ajaypathak@yahoo.co.in
1 comment:
दोनों रचनाए अच्छी लगीं ॥
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