पिछले दो दशकों के दौरान यह तो स्पष्ट हो गया है कि जलवायु बदलाव का संकट अत्यंत गंभीर है परंतु इसे रोकने की असरदार कार्यवाही अभी नहीं हो सकी है। हाल में उपलब्ध हुए आंकड़े यही इंगित करते हैं कि दुनिया ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन को समय पर निर्धारित मात्रा में कम करने के लक्ष्यों से अभी बहुत दूर है।
यह एक अजीब स्थिति है कि किसी समस्या की गंभीरता को तो उच्चतम स्तर पर स्वीकार कर लिया जाए, पर उससे जूझने के उपाय फिर भी पीछे रह जाएं। धनी देशों, विकासशील देशों व अन्य गुटों के बीच चल रहे अंतहीन विवादों के बीच कहीं यह न हो कि धरती को बचाने के सबसे बुनियादी कार्य में ही बहुत देर हो जाए। यदि समाधान की ओर पूरी निष्ठा से बढऩा है तो कुछ बुनियादी मुद्दों पर सहमति बनानी ही होगी। पहली बात तो यह है कि जलवायु बदलाव का संकट इतना बढ़ चुका है कि अब ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन को कम करने में धनी व विकासशील सभी देशों को अधिकतम संभव योगदान देना होगा।
दूसरी महत्वपूर्ण सहमति यह हो जानी चाहिए कि इस क्षेत्र में सबसे बड़ी जिम्मेदारी धनी व औद्योगिक देशों की है। उन्हें उत्सर्जन के अधिक बड़े लक्ष्य स्वीकार करने होंगे व साथ ही विश्व स्तर पर इस संकट के समाधान के लिए अधिक धन भी उपलब्ध करवाना होगा। आखिर यह एक निर्विवाद तथ्य है कि इस सकंट को इतना गंभीर बनाने में सबसे बड़ी ऐतिहासिक जिम्मेदारी इन्हीं धनी देशों की ही है जबकि इन देशों में विश्व की मात्र 20 प्रतिशत जनसंख्या रहती है। पर दुख की बात है कि ये देश इस जिम्मेदारी से पीछे हटते रहे हैं और अब जिस तरह के आर्थिक संकट से वे स्वयं गुजर रहे हैं उसमें उनके द्वारा यह जिम्मेदारी संभालने की संभावना और कम हो गई है। तो फिर आगे का रास्ता कहां है?
यह सादगी और समता की राह अपनाने में है जो महात्मा गांधी का एक मूल संदेश रहा है। विश्व स्तर पर तथा विशेषकर धनी देशों में सरकारी व गैर-सरकारी स्तर पर यह संदेश फैलाना होगा कि सादगी के सिद्धांत को अपनाकर व अंतहीन विलासिता की राह को छोड़कर ही पर्यावरण की रक्षा में बुनियादी सफलता मिल सकती है। यदि इसके साथ सामाजिक समरसता और सेवा भावना का प्रसार हो तो समाज में विलासिता कम करते हुए भी खुशहाली बढ़ सकती हैं और बढ़ती संख्या में लोग इस प्रयास से जुड़ सकते हैं। जहां एक ओर सबसे गरीब और अभावग्रस्त लोगों के लिए बुनियादी सुविधाएं जुटाना जरूरी है, वहीं दूसरी ओर सबसे धनी देशों व वर्गों की विलासिता में कमी लाना भी आवश्यक है। इसी तरह खतरनाक हथियारों के उत्पादन में भी भारी कटौती करना जरूरी है। विलासिता और अंतहीन उपभोग पर अंकुश लगाने से वे तनाव भी अपने आप कम होंगे जो युद्ध व अधिक हथियार उत्पादन की ओर ले जाते हैं।
विश्व स्तर पर बहुत बुनियादी फैसले करने होंगे जो हमें सादगी और समता की ओर ले जाएं क्योंकि सादगी और समता के सिद्धांत अपनाकर ही धरती के पर्यावरण की रक्षा करने के साथ- साथ गरीबी और अभाव भी दूर किए जा सकते हैं। (स्रोत)
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हिमयुग की आहट को पहचानिए
भारत में मार्च के महीने से गर्मी शुरू हो जाती है लेकिन मौसम वैज्ञानिकों के मुताबिक इस साल पूरे मार्च तापमान सामान्य से कम रहने वाला है। मौसम में आ रहे बदलाव से इस साल मार्च में भी सर्दी रहेगी। इस साल देश में बर्फबारी ने रिकॉर्ड तोड़ दिया है। कश्मीर, हिमाचल या फिर उत्तराखंड के मैदानी इलाके, सभी जगह बर्फ ऐसी पड़ी कि लोग हैरान रह गए।
ठंड से सिर्फ उत्तर भारत ही नहीं ठिठुर रहा दक्षिण में भी ऐसी सर्दी पड़ी जैसी पिछले 100 साल में नहीं पड़ी। कर्नाटक में पारा 5 डिग्री के नीचे चला गया। सभी जगहों पर पारा सामान्य से काफी नीचे है। ऐसे में सवाल उठने लगा है कि क्या ला नीना फैक्टर इस बर्फबारी का संकेत है? यह बड़ा बदलाव कहीं हिमयुग की आहट तो नहीं ?
दूसरी महत्वपूर्ण सहमति यह हो जानी चाहिए कि इस क्षेत्र में सबसे बड़ी जिम्मेदारी धनी व औद्योगिक देशों की है। उन्हें उत्सर्जन के अधिक बड़े लक्ष्य स्वीकार करने होंगे व साथ ही विश्व स्तर पर इस संकट के समाधान के लिए अधिक धन भी उपलब्ध करवाना होगा। आखिर यह एक निर्विवाद तथ्य है कि इस सकंट को इतना गंभीर बनाने में सबसे बड़ी ऐतिहासिक जिम्मेदारी इन्हीं धनी देशों की ही है जबकि इन देशों में विश्व की मात्र 20 प्रतिशत जनसंख्या रहती है। पर दुख की बात है कि ये देश इस जिम्मेदारी से पीछे हटते रहे हैं और अब जिस तरह के आर्थिक संकट से वे स्वयं गुजर रहे हैं उसमें उनके द्वारा यह जिम्मेदारी संभालने की संभावना और कम हो गई है। तो फिर आगे का रास्ता कहां है?
यह सादगी और समता की राह अपनाने में है जो महात्मा गांधी का एक मूल संदेश रहा है। विश्व स्तर पर तथा विशेषकर धनी देशों में सरकारी व गैर-सरकारी स्तर पर यह संदेश फैलाना होगा कि सादगी के सिद्धांत को अपनाकर व अंतहीन विलासिता की राह को छोड़कर ही पर्यावरण की रक्षा में बुनियादी सफलता मिल सकती है। यदि इसके साथ सामाजिक समरसता और सेवा भावना का प्रसार हो तो समाज में विलासिता कम करते हुए भी खुशहाली बढ़ सकती हैं और बढ़ती संख्या में लोग इस प्रयास से जुड़ सकते हैं। जहां एक ओर सबसे गरीब और अभावग्रस्त लोगों के लिए बुनियादी सुविधाएं जुटाना जरूरी है, वहीं दूसरी ओर सबसे धनी देशों व वर्गों की विलासिता में कमी लाना भी आवश्यक है। इसी तरह खतरनाक हथियारों के उत्पादन में भी भारी कटौती करना जरूरी है। विलासिता और अंतहीन उपभोग पर अंकुश लगाने से वे तनाव भी अपने आप कम होंगे जो युद्ध व अधिक हथियार उत्पादन की ओर ले जाते हैं।
विश्व स्तर पर बहुत बुनियादी फैसले करने होंगे जो हमें सादगी और समता की ओर ले जाएं क्योंकि सादगी और समता के सिद्धांत अपनाकर ही धरती के पर्यावरण की रक्षा करने के साथ- साथ गरीबी और अभाव भी दूर किए जा सकते हैं। (स्रोत)
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हिमयुग की आहट को पहचानिए
भारत में मार्च के महीने से गर्मी शुरू हो जाती है लेकिन मौसम वैज्ञानिकों के मुताबिक इस साल पूरे मार्च तापमान सामान्य से कम रहने वाला है। मौसम में आ रहे बदलाव से इस साल मार्च में भी सर्दी रहेगी। इस साल देश में बर्फबारी ने रिकॉर्ड तोड़ दिया है। कश्मीर, हिमाचल या फिर उत्तराखंड के मैदानी इलाके, सभी जगह बर्फ ऐसी पड़ी कि लोग हैरान रह गए।
ठंड से सिर्फ उत्तर भारत ही नहीं ठिठुर रहा दक्षिण में भी ऐसी सर्दी पड़ी जैसी पिछले 100 साल में नहीं पड़ी। कर्नाटक में पारा 5 डिग्री के नीचे चला गया। सभी जगहों पर पारा सामान्य से काफी नीचे है। ऐसे में सवाल उठने लगा है कि क्या ला नीना फैक्टर इस बर्फबारी का संकेत है? यह बड़ा बदलाव कहीं हिमयुग की आहट तो नहीं ?
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