- पंकज मल्लिक (संगीत निर्देशक)
नितिन बोस, जिन्हें सब लोग प्यार से पुतुल दा कहते थे, न्यू थियेटर्स के कैमरा विभाग का काम देख रहे थे। बाद में धीरे- धीरे उन्होंने पूरी फिल्म का काम देखना शुरु कर दिया। उनकी उन्नति से, उन्हें मिल रही मान्यता से मैं खुश था। हम लोग एक ही इलाके में रहते थे। मैं मानिक टोला के पास चलता बागान में था और वे पुराने माडर्न इंस्टीट्यूट, जो अब एमहस्र्ट स्ट्रीट के नाम से जाना जाता है, के उत्तर में रहते थे। स्टूडियो जाते समय पुतुल दा मुझे भी अपने साथ ले लेते थे और इस तरह हम एक ही कार में सफर किया करते थे। हमारे बीच संबंध प्रगाढ़ होते गए।
'भाग्यचक्र' पुतुल दा की दूसरी (बांग्ला) फिल्म थी। इसे हिन्दी में 'धूपछांव' के नाम से बनाया गया। जहां तक मुझे याद आता है यह सन् 1935 की बात है। इस फिल्म में प्रमुख भूमिका में थे पहाड़ी सान्याल और उमा शशि देवी। भाग्यचक्र के निर्देशन के रूप में उनकी जिम्मेदारी बढ़ गई थी। वे सुबह जरा जल्दी स्टूडियो पहुंचते थे।
एक दिन की बात है, पुतुल दा हमेशा की तरह मेरे घर आए। उस समय मैं स्नानघर में था। मेरे पड़ोस के घर में एक अंग्रेजी फिल्म का रेकार्ड बज रहा था। जहां तक मुझे याद है, उसके बोल थे- come with me when moon beams...
रेकार्ड के साथ- साथ: मैंने भी सुर में सुर मिला कर गाना शुरु कर दिया। मैं गाने में इतना तन्मय था कि पुतुल दा की आवाज ही नहीं सुनाई पड़ी। वे मुझे पुकार रहे थे - पंकज, ओ पंकज, आखिरकार मेरे पिताजी को आकर मुझे टोकना पड़ा। मैं तुरंत बाहर आया। सामने गंभीर मुद्रा बनाए पुतुल दा खड़े थे। मुझे लगा पुतुल दा को कोई गंभीर बात परेशान किए हुए है। पर मैंने कुछ न कहा और पीछे बैठ गया। पुतुल दा ड्राइवर की सीट पर जा बैठे। उनकी बगल में उनके भाई मुकुल दा थे।
चुप्पी जो भारी पड़ी- कार चल पड़ी, सबकी चुप्पी मुझे भारी पड़ रही थी। मैंने क्षमा याचना के स्वरों में कहा पुतुल दा, मुझे माफ कर दीजिए। मैं उस अंगे्रजी गाने में खो गया था, नहीं तो मैं आपकी पुकार का जवाब अवश्य देता।
पुतुल दा ने कोई जवाब न दिया। बस अपनी सिगरेट पीते रहे। मैंने फिर एक बार उन्हें अपनी बात समझाने की कोशिश की पर फिर असफल रहा।
चौरंगी पर लाइट हाउस के पास एक सिग्नल पर कार रूकी तो पुतुल दा उससे नीचे उतर पड़े। उन्होंने अपने भाई मुकुल दा को निर्देश दिया कि वे कार लेकर म्यूजियम में उनकी प्रतीक्षा करें। थोड़ी देर बाद वे वहां पहुंचे। उनके बगल में एक पार्सल दबा हुआ था। स्वभाव के विपरीत पुतुल दा आज बहुत गंभीर थे। मैं सोच नहीं पा रहा था कि मैंने ऐसा क्या किया जो वे इतने नाराज हैं।
हम सब टालीगंज, फिर स्टूडियो पहुंचे। कार रुकते ही पुतुल दा उतरे और तेजी से चल पड़े। अपने कमरे में जाने के अलावा मेरे पास कोई चारा नहीं था।
वह नया आइडिया- कुछ देर बाद सहसा पुतुल दा ने मुझे बुलवाया। मैंने फिर सुबह की घटना के लिए क्षमा मांगने की कोशिश की पर पुतुल दा ने मुझे चुप रहने का निर्देश दिया। पुतुल दा किसी नए आइडिया पर सोच विचार में मग्न थे और मैं उसमें विघ्न डाल रहा था, इसलिए उन्होंने मुझे चुप रहने को कहा था। मुझे चुप रहने का निर्देश देकर ग्रामोफोन पर रेकार्ड चढ़ा दिया। यह क्या। यह तो वही प्रेमगीत था जिसे मैंने सुबह सुना था। मैं आश्चर्य में डूब गया। पुतुल दा ने मुझे भी साथ- साथ गाने के लिए कहा। केवल उन्हें खुश करने के लिए मैंने गाना शुरु कर दिया। मैंने देखा, वे मुझे ध्यान से देख रहे हैं। मैं कुछ समझ नहीं पा रहा था। और उसके बाद जो घटा, वह तो पागलपन की सीमा ही थी। पुतुल दा कुरसी से लपक कर उठे और मेरा हाथ पकड़ कर कमरे में यहां वहां नृत्य करने लगे। नाचते- नाचते उन्होंने कहा- पंकज, मैंने उसे पा लिया। यह भाग्य की बात थी कि मैंने सुबह तुम्हें इस रेकोर्ड के गीत के साथ गाते हुए सुना। एक गंभीर समस्या का अन्तत: हल हो गया।
पुतुल दा की बातों से मुझे बेहद आश्चर्य हो रहा था। सहसा मुझे लगा कि मैं एक ऐतिहासिक घटना का साक्षी बन रहा था। ऐसी घटना जो भारतीय सिनेमा में क्रांति ला देगी। तब मैं एक मूक दर्शक था और बिना किसी पूर्व निर्धारित योजना के बजाए संयोगवश ही मैं इसमें मुख्य भूमिका निभा रहा था। पर यह कहने में कोई संकोच नहीं कि पार्श्वगायन केवल नितिन बोस का ही आविष्कार था। अब अभिनय के साथ- साथ गायन में भी प्रवीण अभिनेता- अभिनेत्रियों का जमाना खत्म हो गया था. अब अभिनेता अभिनेत्रियों को बस बोल के अनुसार ओंठ हिलाने थे। पर मैं यहां बताना चाहूंगा कि उन दिनों यह कोई आसान काम नहीं था। जहां तक मुझे याद है, पुतुल दा की फिल्म भाग्यचक्र में ही सर्वप्रथम पार्श्वगायन का प्रयोग हुआ। इससे फिल्म निर्माण के संबंध में नई- नई धारण का जन्म हुआ। न्यू थियेटर्स की चारदीवारी के भीतर उनका परीक्षण भी किया गया।
भारतीय सिनेमा की प्रथम पार्श्व गायिकाएं- 1931 में भारतीय सिनेमा में ध्वनि का प्रयोग शुरु हुआ था। चार वर्ष बाद पार्श्वगायन के प्रयोग ने भारतीय सिनेमा में क्रांति ला दी। प्रारंभ में संगीत- निर्देशकों को ऐसे अभिनय- प्रवीण कलाकारों से गीत गवाने पड़ते थे जो गाना नहीं जानते थे, जैसे मोतीलाल, अशोक कुमार, देविका रानी, माया बनर्जी आदि। दूसरी ओर गायन में प्रवीण ऐसे कलाकारों से अभिनय कराना पड़ता था जो इस कला में विशेष दक्षता नहीं रखते थे। जैसे कुंदनलाल सहगल, नूरजहां, शांता आप्टे, के.सी.डे, खुर्शीद, उमा शशि आदि।
सन् 1935 में पार्श्वगायन की सफलता ने सिनेमा- निर्माण में नए- नए प्रयासों को जन्म दिया। धूपछांव (बंगला चित्र भाग्यचक्र का हिन्दी संस्करण) में सर्वप्रथम पार्श्वगायन की कला का उपयोग किया गया। निर्देशक थे नितिन बोस और संगीत निर्देशक थे पंकज मलिक। नर्तकियों के एक नृत्य गान को अपना स्वर देने वाली प्रथम पार्श्व गायिकाएं थीं- सुप्रभा सरकार, पुरुल घोष और उमा शशि। बाद में बाम्बे टाकीज की फिल्म अछूत कन्या (सन् 1936) में सरस्वती देवी ने और सागर मुवीटोन महागीत (सन् 1938) में अनिल विश्वास ने इस तकनीक का प्रयोग किया। (लिस्नर्स बुलेटिन से साभार)
पुतुल दा की बातों से मुझे बेहद आश्चर्य हो रहा था। सहसा मुझे लगा कि मैं एक ऐतिहासिक घटना का साक्षी बन रहा था। ऐसी घटना जो भारतीय सिनेमा में क्रांति ला देगी। तब मैं एक मूक दर्शक था और बिना किसी पूर्व निर्धारित योजना के बजाए संयोगवश ही मैं इसमें मुख्य भूमिका निभा रहा था। पर यह कहने में कोई संकोच नहीं कि पार्श्वगायन केवल नितिन बोस का ही आविष्कार था।
'भाग्यचक्र' पुतुल दा की दूसरी (बांग्ला) फिल्म थी। इसे हिन्दी में 'धूपछांव' के नाम से बनाया गया। जहां तक मुझे याद आता है यह सन् 1935 की बात है। इस फिल्म में प्रमुख भूमिका में थे पहाड़ी सान्याल और उमा शशि देवी। भाग्यचक्र के निर्देशन के रूप में उनकी जिम्मेदारी बढ़ गई थी। वे सुबह जरा जल्दी स्टूडियो पहुंचते थे।
एक दिन की बात है, पुतुल दा हमेशा की तरह मेरे घर आए। उस समय मैं स्नानघर में था। मेरे पड़ोस के घर में एक अंग्रेजी फिल्म का रेकार्ड बज रहा था। जहां तक मुझे याद है, उसके बोल थे- come with me when moon beams...
रेकार्ड के साथ- साथ: मैंने भी सुर में सुर मिला कर गाना शुरु कर दिया। मैं गाने में इतना तन्मय था कि पुतुल दा की आवाज ही नहीं सुनाई पड़ी। वे मुझे पुकार रहे थे - पंकज, ओ पंकज, आखिरकार मेरे पिताजी को आकर मुझे टोकना पड़ा। मैं तुरंत बाहर आया। सामने गंभीर मुद्रा बनाए पुतुल दा खड़े थे। मुझे लगा पुतुल दा को कोई गंभीर बात परेशान किए हुए है। पर मैंने कुछ न कहा और पीछे बैठ गया। पुतुल दा ड्राइवर की सीट पर जा बैठे। उनकी बगल में उनके भाई मुकुल दा थे।
चुप्पी जो भारी पड़ी- कार चल पड़ी, सबकी चुप्पी मुझे भारी पड़ रही थी। मैंने क्षमा याचना के स्वरों में कहा पुतुल दा, मुझे माफ कर दीजिए। मैं उस अंगे्रजी गाने में खो गया था, नहीं तो मैं आपकी पुकार का जवाब अवश्य देता।
पुतुल दा ने कोई जवाब न दिया। बस अपनी सिगरेट पीते रहे। मैंने फिर एक बार उन्हें अपनी बात समझाने की कोशिश की पर फिर असफल रहा।
चौरंगी पर लाइट हाउस के पास एक सिग्नल पर कार रूकी तो पुतुल दा उससे नीचे उतर पड़े। उन्होंने अपने भाई मुकुल दा को निर्देश दिया कि वे कार लेकर म्यूजियम में उनकी प्रतीक्षा करें। थोड़ी देर बाद वे वहां पहुंचे। उनके बगल में एक पार्सल दबा हुआ था। स्वभाव के विपरीत पुतुल दा आज बहुत गंभीर थे। मैं सोच नहीं पा रहा था कि मैंने ऐसा क्या किया जो वे इतने नाराज हैं।
हम सब टालीगंज, फिर स्टूडियो पहुंचे। कार रुकते ही पुतुल दा उतरे और तेजी से चल पड़े। अपने कमरे में जाने के अलावा मेरे पास कोई चारा नहीं था।
वह नया आइडिया- कुछ देर बाद सहसा पुतुल दा ने मुझे बुलवाया। मैंने फिर सुबह की घटना के लिए क्षमा मांगने की कोशिश की पर पुतुल दा ने मुझे चुप रहने का निर्देश दिया। पुतुल दा किसी नए आइडिया पर सोच विचार में मग्न थे और मैं उसमें विघ्न डाल रहा था, इसलिए उन्होंने मुझे चुप रहने को कहा था। मुझे चुप रहने का निर्देश देकर ग्रामोफोन पर रेकार्ड चढ़ा दिया। यह क्या। यह तो वही प्रेमगीत था जिसे मैंने सुबह सुना था। मैं आश्चर्य में डूब गया। पुतुल दा ने मुझे भी साथ- साथ गाने के लिए कहा। केवल उन्हें खुश करने के लिए मैंने गाना शुरु कर दिया। मैंने देखा, वे मुझे ध्यान से देख रहे हैं। मैं कुछ समझ नहीं पा रहा था। और उसके बाद जो घटा, वह तो पागलपन की सीमा ही थी। पुतुल दा कुरसी से लपक कर उठे और मेरा हाथ पकड़ कर कमरे में यहां वहां नृत्य करने लगे। नाचते- नाचते उन्होंने कहा- पंकज, मैंने उसे पा लिया। यह भाग्य की बात थी कि मैंने सुबह तुम्हें इस रेकोर्ड के गीत के साथ गाते हुए सुना। एक गंभीर समस्या का अन्तत: हल हो गया।
पुतुल दा की बातों से मुझे बेहद आश्चर्य हो रहा था। सहसा मुझे लगा कि मैं एक ऐतिहासिक घटना का साक्षी बन रहा था। ऐसी घटना जो भारतीय सिनेमा में क्रांति ला देगी। तब मैं एक मूक दर्शक था और बिना किसी पूर्व निर्धारित योजना के बजाए संयोगवश ही मैं इसमें मुख्य भूमिका निभा रहा था। पर यह कहने में कोई संकोच नहीं कि पार्श्वगायन केवल नितिन बोस का ही आविष्कार था। अब अभिनय के साथ- साथ गायन में भी प्रवीण अभिनेता- अभिनेत्रियों का जमाना खत्म हो गया था. अब अभिनेता अभिनेत्रियों को बस बोल के अनुसार ओंठ हिलाने थे। पर मैं यहां बताना चाहूंगा कि उन दिनों यह कोई आसान काम नहीं था। जहां तक मुझे याद है, पुतुल दा की फिल्म भाग्यचक्र में ही सर्वप्रथम पार्श्वगायन का प्रयोग हुआ। इससे फिल्म निर्माण के संबंध में नई- नई धारण का जन्म हुआ। न्यू थियेटर्स की चारदीवारी के भीतर उनका परीक्षण भी किया गया।
भारतीय सिनेमा की प्रथम पार्श्व गायिकाएं- 1931 में भारतीय सिनेमा में ध्वनि का प्रयोग शुरु हुआ था। चार वर्ष बाद पार्श्वगायन के प्रयोग ने भारतीय सिनेमा में क्रांति ला दी। प्रारंभ में संगीत- निर्देशकों को ऐसे अभिनय- प्रवीण कलाकारों से गीत गवाने पड़ते थे जो गाना नहीं जानते थे, जैसे मोतीलाल, अशोक कुमार, देविका रानी, माया बनर्जी आदि। दूसरी ओर गायन में प्रवीण ऐसे कलाकारों से अभिनय कराना पड़ता था जो इस कला में विशेष दक्षता नहीं रखते थे। जैसे कुंदनलाल सहगल, नूरजहां, शांता आप्टे, के.सी.डे, खुर्शीद, उमा शशि आदि।
सन् 1935 में पार्श्वगायन की सफलता ने सिनेमा- निर्माण में नए- नए प्रयासों को जन्म दिया। धूपछांव (बंगला चित्र भाग्यचक्र का हिन्दी संस्करण) में सर्वप्रथम पार्श्वगायन की कला का उपयोग किया गया। निर्देशक थे नितिन बोस और संगीत निर्देशक थे पंकज मलिक। नर्तकियों के एक नृत्य गान को अपना स्वर देने वाली प्रथम पार्श्व गायिकाएं थीं- सुप्रभा सरकार, पुरुल घोष और उमा शशि। बाद में बाम्बे टाकीज की फिल्म अछूत कन्या (सन् 1936) में सरस्वती देवी ने और सागर मुवीटोन महागीत (सन् 1938) में अनिल विश्वास ने इस तकनीक का प्रयोग किया। (लिस्नर्स बुलेटिन से साभार)
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