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Oct 1, 2024

अनकहीः घर से उजाला जा रहा है...


 - डॉ. रत्ना वर्मा

पारम्परिक पर्व त्योहारों को मनाते हुए हम क्या कुछ खोते चले जा रहे हैं, यह आज चिंतन का विषय होते जा रहा है। एक जमाना था, जब पर्व त्योहार का मतलब  परिवार, समाज और  पूरे विश्व को लेकर प्यार, भाईचारा तथा सहयोग की भावना के साथ अपने सांस्कृतिक मूल्यों को पुनर्स्थापित करना हुआ करता था। घर में बनाई गई मिठाई व स्वादिष्ट व्यंजनों से परिवार में खुशहाली छा जाती थी और सब लोग मिल-जुलकर आनंद मनाते थे। रोजमर्रा के दुःख-दर्द भूल कर एक दिन के लिए ही सही, अपने रिश्तेदारों और मित्रों  के साथ मुस्कुराते और सबकी अच्छी सेहत व खुशहाली के लिए मंगल कामना करते थे।   

आज त्योहारों का मतलब क्या रह गया है- भीड़ से भरा बाजार, माल या ऑनलाइन में खुशियाँ खरीदने का दिखावा करते हुए, पैसे को पानी की तरह बहाते लोग। इन सबमें व्यापारी तो भरपूर कमाई करते ही हैं, अमीर अपना धन अपने शौक पूरे करने के लिए उड़ाते हैं, साधारण और मध्यमवर्ग अपनी गाढ़ी कमाई को थोड़ी- सी खुशियाँ खरीदने के लिए सोच समझकर खर्च करते हैं और गरीब वर्ग खर्च न कर पाने पर भी कभी उधार लेकर, तो कभी ओवरटाइम काम करके, खुशियाँ खरीदते हैं। यह तो हुई व्यक्तिगत खुशियों की बात; परंतु बात जब सार्वजनिक रूप से मनाए जाने वाले पर्व- त्योहारों की बात आती है, तब मामला सर्वजन हिताय और सर्वजन सुखाय का हो जाता है। 

 पिछले माह हमने गणेशोत्सव का पर्व धूम- धाम से मनाकर- ‘गणपति बप्पा मोरया, अगले बरस तू जल्दी आ’- कहते हुए उनका विसर्जन किया है; फिर पितरों को अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए दुर्गा पूजन की तैयारी में जुट गए हैं। इसके बाद दशहरा और दीपावली की धूम रहेगी। जाहिर है, ये सब हमें अपनी धरती, अपनी संस्कृति से जुड़े रहने का अहसास कराते हैं। इन सबके माध्यम से भारतीय परम्परा और संस्कृति पल्लवित, पुष्पित, होती है जिसपर हमें गर्व  है।  

एक वह भी समय था, जब चाहे गणपति जी को विराजित करना हो या दुर्गा माता को या रावण दहन का कार्यक्रम,  गाँव या शहर से कुछ दूर खुले मैदान पर इनका आयोजन किया जाता था। दूर- दूर से लोग वहाँ इकट्ठा होते। मेले जैसा माहौल होता। मनोरंजन के साधन होते, लोगों से मेल- मिलाप होता। न सड़कें जाम होने की समस्या, न धक्का- मुक्की, न शोर- शराबा। परंतु अब तो प्रत्येक गली- मोहल्ले में गणेश जी विराजित होते हैं, दुर्गा माता बिठाई जाती हैं और रावण का पुतला जलाया जाता है। ऐसा लगता है यह सब सार्वजनिक उत्सव न होकर अपनी -अपनी गली और कॉलोनी का उत्सव बन गया है। लोगों को यह कहते भी देखा जाता है कि देखो हमारा गणेश तुम्हारे गणेश से कितना भव्य है। इस बात की परवाह किसी को नहीं होती कि दिन रात के शोर- शराबा और कानफोड़ू डीजे की आवाज से लोगों के दिमाग की नसें फटने लगी हैं । बच्चों की पढ़ाई बाधित हो रही है। चारों तरफ गंदगी फैल रही है, जबकि महापर्व दीपावली में तो साल भर की गंदगी को साफ करके देवी लक्ष्मी का आह्वान किया जाता है।

 दीपों का यह पर्व तो हमारी धरती से, फसल से, धन और ऐश्वर्य की देवी लक्ष्मी की पूजा से और 14 वर्षों के वनवास के बाद लंका पर विजय प्राप्त करके लौटे श्रीराम के स्वागत से जुड़ा हुआ है। जब चारों तरफ मिट्टी के दिए जलाकर अमावस्या की रात को जगमगा दिया जाता था। अब सिर्फ परम्परा का निर्वहन करने के लिए गिनती के दीए खरीद कर लाए जाते हैं और बाकी जगमगाहट बिजली के बल्बों और झालर से की जाती है। पटाखों पर प्रतिबंध के बावजूद, इतने पटाखे फोड़े जाते हैं कि पूरा शहर पटाखों के धुएँ से ढक जाता है।  अब तो इन सभी पारम्परिक त्योहारों में राजनीति का प्रदूषण भी घुलता जा रहा है। दशहरे के दिन रामलीला का आयोजन तो होता है; पर रावण वध करने का महत्त्वपूर्ण कार्य धनुषबाण लेकर क्षेत्र के नेता करते दिखाई देते हैं और न जाने किस बुराई पर विजय प्राप्त करने का नारा लगाते हैं। तात्पर्य यही कि अब किसी भी मौके को, जहाँ भीड़ इकठ्ठा होती है, उसे वोट बैंक के रूप में भुनाने की कोशिश की जाती है। 

इसमें कोई दो मत नहीं कि बहुत कुछ बदल गया है, बदलाव प्रकृति का नियम है और समाज के रहन- सहन से लेकर रीति रिवाजों और पर्व त्योहारों में भी परिवर्तन हो रहे हैं और होते हैं। लेकिन इस तरह के विनाशकारी पर्यावरण और सामाजिक बदलाव के लिए क्या हम स्वयं ही जिम्मेदार नहीं हैं? समय के अनुसार सामाजिक बदलाव जरूरी तो हैं;  परंतु यह तभी स्वीकार्य होना चाहिए जब यह मानवता, समाज और हमारे देश की संस्कृति- सभ्यता को समृद्ध करने वाला हो, सकारात्मक हो,  न कि उसे पतन की दिशा में ले जाने वाला।   

जैसे हम ध्वनि प्रदूषण को तो बहुत हल्के में लेते हैं, जबकि आजकल इन सभी पर्व- उत्सव में ध्वनि प्रदूषण अपने चरम पर होता है।  इस वर्ष गणेश पूजा के दौरान डीजे की तेज आवाज के चलते एक व्यक्ति के दिमाग की नस फटने से उसकी मृत्यु ही हो गई। क्या इस विषय को मुद्दा बनाकर देश भर में ध्वनि प्रदूषण को कम करने के लिए कोई पहल होगी और सख्त कदम उठाए जाएँगे?  इसी तरह न पटाखों की आवाज में कमी आ रही है और न बिजली से जलने वाले लट्टूओं की झालर की ल़ड़ियाँ कम हो रही हैं। ऐसे माहौल में आप ही बताइए, हम अपनी संस्कृति, परम्परा, भाईचारा और एकता को किस माहौल में ढूँढे ? जबकि हम अपनी धरती को, अपने रहने वाली जगह को किसी भी तरह के प्रदूषण से मुक्त ही नहीं रख पा रहे हैं। परिणाम तो पूरे विश्व में दिखाई दे रहा है। ग्लोबल वार्मिंग से दिखाई दे रहा तबाही का मंजर किसी को क्यों नजर नहीं आता?

 अब विश्व प्रसिद्ध तिरुपति बालाजी मंदिर के प्रसाद में मांसाहार मिलावट की बड़ी धोखाधड़ी के मामले को ही  लें, यह भी तो भ्रष्टाचार रूपी एक प्रदूषण ही है। मिलावट का यह प्रदूषण सिर्फ प्रसाद में ही नहीं, यह मिलावट तो हमारे जीवन के हर क्षेत्र में न जाने कब से घुस चुका है और सबसे खतरनाक खबर तो नकली दवाइयाँ और उसमें हो रही मिलावट की है। सोचने वाली बात यह है कि जितनी तेजी से प्रसाद में हो रहे मिलावट को लेकर त्वरित कार्यवाही की गई, क्या उतनी ही तेजी से दवाओं में हो रही मिलावट या नकली दवाइयों के मामले में तुरंत कार्यवाही होगी? क्या हमारी सरकार, हमारा प्रशासन अपने राजनीतिक फायदे और अपनी कुर्सी बचाने से इतर जनता की सेहत के बारे  में सोचते हुए मामले को गंभीरता से लेंगे?  क्या मौत के इन सौदागरों खिलाफ कड़े कदम कदम उठाए जाएँगे? या यूँ ही चुप बैठ कर इस अँधियारे पक्ष में कृत्रिम रोशनी के नीचे बैठकर बस मूक दर्शक बने रहेंगे?

 ऐसे में फ़ना निज़ामी कानपुरी का ये शेर याद आ रहा है- 

अँधेरों को निकाला जा रहा है,

मगर घर से उजाला जा रहा है ।

4 comments:

विजय जोशी said...

आदरणीया,
बिल्कुल सही नब्ज़ पर हाथ रखा है आपने इस बार। जो त्यौहार पहले एकता, सामाजिक समरसता के प्रतीक थे, वे अब खो गए हैं। सच कहें तो आधुनिकता एवं दिखावे की दुनिया की बलिवेदी पर कुर्बान हो चुके हैं। तेरी कमीज से मेरी कमीज अधिक सफेद और महंगी।
खासकर हिंदुओं में यह प्रवृत्ति गहराई तक काबिज हो चुकी है। और तिरुपति प्रसंग तो इसकी पराकाष्ठा। सच कहें तो :
- तुम कभी थे सूर्य लेकिन अब दियों तक आ गये
- थे कभी मुखपृष्ठ पर अब हाशियों तक आ गये
- वक्त का पहिया किसे कुचले कहाँ कब क्या पता
- थे कभी रथवान अब बैसाखियों तक आ गये
आपका आलेख एक अभियान स्वरूप है स्वार्थी एवं खुदगर्ज़ समुदाय को सही राह दिखाने का।
इस हेतु हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं। सादर

Anonymous said...

रत्ना जी आपने जिस समसामयिक रोज़ मर्रा की तकलीफों को अनकही के माध्यम से अभिव्यक्त किया है यह मेरे दिल की बात कही है डीजे की समस्या ,गली -गली मे गणेश जी का रखना ,उत्सव का जो रूप अभी विकृत हो रहा है कि पहले जो हम 1 साथ मिलकर मनाते थे और सभी से मिलते जुलते थे काश इस बात को सब लोग फिर से विचार करके सुनते और त्योहार मनाने की परंपरा के वास्तविक मूल्यों तक हम पहुँच पाते पहुँच पाते ।
अनकही के माध्यम से हमारे बीच होने वाली समस्याओं पर आपके तीक्ष्ण नज़र की मैं हमेशा क़ायल रही हूँ। आप हमेशा लिखती रहें आपको हार्दिक शुभकामनाएँ।

Bharti chandrker said...
This comment has been removed by the author.
रत्ना वर्मा said...

आपके उत्तम विचारों के लिए अभार के साथ अपका हार्दिक धन्यवाद जोशी जी 🙏