- डॉ. शिप्रा मिश्रा
कब तक दौड़ोगी
कब तक भागोगी
कब तक उड़ोगी
सुनो स्त्री!
अपनी बाहों में
क्या सृष्टि बाँध लोगी?
फुनगियों पर बैठने की
ख्वाहिश लिए
कब तक जियोगी?
नीचे तो उतरो
अपनी जड़ों से मिलो
तुम्हें पता है न
संचार नीचे से
ऊपर की ओर होता है
केवल विस्तार ही
उद्देश्य नहीं
जीवन का
संक्षिप्त होना भी है
अंधेरी सुनसान रातों में
अकेला सफर और
तमाम अनसुलझे सवाल
चौराहे पर खड़ी ज़िन्दगी
दिशा बताए कौन
कुछ प्रश्न सोने नहीं देते
काश कुछ दिन और ठहर जाते
शायद बुझ जाती
सारी जिज्ञासाएँ
बहुत कुछ है अनकहा
कह दूँ तो विवाद हो जाए
न कहूँ तो
अंतर्मन छलनी होता है
रीत गईं
रिक्त कर गईं
मेरी हथेलियों के
वे सभी भाव- पुष्प
क्या अब भी
कुछ शेष है!
मेरी संवेदनाएँ..
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