आछे दिन पाछे गए
- अशोक भाटिया
कंचे, गीटे, ठीकरे, गायब हुए अनाम।
बैट प्लास्टिक गेंद अब, खेलों के भगवान।।
बीसवीं सदी के सातवें दशक के शुरूआती दिन थे। ये दिन हमारे बचपन की भरी जवानी के दिन थे। तब के पंजाब के इस छोटे से फौजी शहर अम्बाला छावनी का वह मुहल्ला हम हम-उम्र बच्चों के लिए मानो संपूर्ण संसार था। वह आधा मुहल्ला था, जो पीछे गली से जुड़ा था। गली पीछे से बंद थी। इसमें कुल पंद्रह-सोलह घर थे। तब किसी के रहन-सहन में लगा ही नहीं कि दूसरों से कोई फर्क है। एकाध को छोड़ सबके सब करीब एक ही माली हालत में जी रहे थे। उनमें सब्जी वाला, चाय वाला, ठेले वाला, ताँगे वाला, डाकखाने का मुँशी, रेलवे का मुँशी, बूचडख़ाने का मुँशी, रंगसाज, बैंक का क्लर्क, पहरेदार, कबाड़ी वगैरा थे। जमींदार और मिल स्टोर के मालिक भी थे। लेकिन हमें उन सबसे कोई मतलब न था। अब लगता है कि सातवीं-आठवीं क्लास में आने तक हम सबका एक ही मकसद था- खेलना। इसमें न तो अमीर-गरीब का फ़र्क था, न लड़के-लड़की का, न ही छोटे-बड़े का। जो जब घर से बाहर निकल आए, खेल में शामिल हो जाए। स्कूल से आकर बस्ता पटका, कुछ खाया न खाया, और घर से बाहर। कोई खेल हो, कोई खिलाड़ी हो- सब सहज स्वीकार। भक्त वह है जो विभक्त न हो। इस नाते हम पंद्रह-बीस बच्चे खेलों के परम भक्त थे।
एक खेल था-पोशम-पा। इसमें कोई दो बच्चे आमने-सामने हाथ पकड़कर सीधे बाजू कर खड़े हो जाते। दोनों बोलते- ‘ पोशम- पा भई पोशम पा, डाकिए ने क्या किया, सौ रुपये की घड़ी चुराई, अब तो जेल में आना ही पड़ेगा।‘ जब तक यह बोला जाता, सामने पंक्तिबद्ध खड़े सभी बच्चे बारी-बारी से उन जुड़े हाथों के नीचे से एक तरफ से घुसते और दूसरी तरफ से निकल आते। आखिरी लफ्ज़ बोलते हुए जो अंदर फँस जाता, वह आउट हो जाता। सबसे आखिर में जो बच जाता, उसे विजेता घोषित किया जाता।
इसी तरह एक खेल था- लक्कड़-छू। मौहल्ले के किसी भी एक मकान के लकड़ी के दरवाजे से खेल शुरू होता था। एक बच्चे को चोर मान लिया जाता। चोर का मतलब कि पहले उसकी बारी है। बाकी सब बच्चे उस लकड़ी के दरवाजे को पकड़कर खड़े हो जाते और इके बोलते- 'अम्बाँ वाली कोठरी, अनाराँ वाला वेहड़ा, बाबे नानक दा घर केहड़ा।‘ आमों वाली कोठी, अनारों वाला आँगन, बाबा नानक का घर कौन-सा है? बारी देने वाला किसी घर का नाम बोलता और हम सब लकड़िय़ों से बनी चीज़ों को छूते-छूते उस घर तक जाते। इस दौरान जो बच्चा लकड़ी छुए बिना पकड़ा जाता, वह चोर मान लिया जाता और फिर वह बारी देता।
कंचे लड़कों का और गीटे लकडिय़ों का सबसे लोकप्रिय खेल था। गीटे खेलने लड़के भी पहुँच जाते थे। गीटे दो बच्चों का खेल है। यह लकड़ी के चार या पाँच वर्गाकार सुंदर टुकड़ों से खेला जाता था। गेंद उछालकर चारों गीटे ज़मीन पर फेंके जाते और गेंद पकड़ ली जाती। पहले एक-एक गीटा उठाया जाता, फिर दो-दो, फिर तीन-एक, फिर चारों इकट्ठे उठाए जाते। अंत में चारों गीटे उछालकर हाथ उलटा करके उस पर गीटे टिकाते और फिर उन्हें उछालकर पकड़ लेते। अगर हाथ पर आए सारे गीटे पकड़ लिए जाते, तो सामने वाले पर उतने 'बाजे’ चढ़ जाते। एक बच्चा तब तक यह खेलता रहता, जब तक कि उससे कोई गलती नहीं हो जाती थी। अगर हमारे पास गीटे न होते तो, एक आकार के चार-पाँच पत्थरों से ही काम चला लेते थे। इन सब खेलों में हम इस कदर मगन होते थे कि न हममें से कभी कोई रोंची पीटता, न कभी किसी को हार का गम होता था।
एक खेल था-चील-चील काटा। इसमें सारे बच्चे दो टोलियों में बँट जाते। यह दो बच्चों से लेकर कितने भी बच्चों के बीच खेला जा सकता था। इसमें दो टोलियाँ बनायी जाती थीं। दोनों एक-दूसरी टोली से छिपकर मिट्टी के ठीकरों, स्लेट, कॉपी, दीवार वगैरा पर बत्ती, चाक या कोयले वगैरा से लकीरें लगाती थी। लगाकर इन्हें छिपा दिया जाता था। काफी वक्त के बाद एक टोली का बच्चा एक जगह आँख पर हाथ रखकर या दीवार की तरफ मुँह कर तयशुदा गिनती (बीस या पचास) गिनता। इसके बाद एक टोली दूसरी टोली की लकीरों वाली चीजें ढूँढ-ढूँढकर उन्हें काटती जाती। जो चीजें ढूँढने से रह जातीं, उनकी लकीरों की गिनती की जाती। जिस टोली की बची हुई लकीरें ज्यादा निकलतीं, वह जीत जाती।
शाम को हमारा मुहल्ला खेल का मैदान बना होता। कब एक खेल से दूसरे खेल में शिफ्ट हो जाते, पता ही न चलता। कई बार कुल दो ही लड़के या लड़कियाँ होतीं और उनके पास खेलने की कोई चीज़ न होती। तब वे मिलकर गपशप करते, औरों का इंतजार करते या कीकली डालते। कीकली पंजाब की युवा स्त्रियों का सबसे प्रसिद्ध और सबसे सीधा खेल है। दो स्त्रियाँ आमने-सामने खड़ी हो जाएँगीं। अपना दायाँ हाथ दूसरे के दाएँ हाथ से और बायाँ हाथ बाएँ हाथ से पकड़ लेंगी। दोनों तेजी से घूमना शुरू करती हैं और साथ में बोलती हैं- ‘ कीकली कलीर दी, पग्ग (पगड़ी) मेरे वीर दी, दुपा मेरे भाई दा, शेर सिपाही दा।‘ फिर धीरे-से बोलती-फिटे-मुँह जवाई दा (दामाद को लानत है)। मौहल्ले में अगर एक लड़की और एक लड़का हैं, तो यह लड़की की मर्जी पर होता कि वह लड़के से कीकली खेलगी या नहीं।
थोड़ा अँधेरा होने पर हम सब 'आइस-पाइस’ खेला करते। एक बच्चा बारी देने के लिए चोर बनता और एक नुक्कड़ पर जाकर दीवार की तरफ मुँह करके बीस तक गिनती करता और बाकी सब छिप जाते। वह उन्हें ढूँढता हुआ उनका नाम लेकर आइस-पाइस कहता जाता। अगर इस बीच किसी ने चुपके से आकर उसकी पीठ पर हाथ से लिपड़ी (धौल) जमाकर 'ठप्पा’ बोल दिया, तो बाकी सब छिपे रह गए बच्चे बाहर निकल आते और वही बच्चा फिर से बारी देता। अगर वह सबको ढूँढ निकालता, तो जिसे सबसे पहले ढूँढा था, फिर उसको बारी देनी होती थी। यह दिन के वक्त भी खेला जाता था। कोई घर से नमक लगा गीला आटा ले आया है और छिपकर खा रहा है। कोई घास-फूस के बीच बैठा पत्ते तोड़कर उन्हें कटोरी साग कहकर खा रहा है। रात में यह खेल तब तक चलता, जब तक हमें अपने घरों से एक-दो तीन बार बुलावा न आ जाता। स्कूल का काम तो सोने से पहले मजबूरी या रस्म-अदायगी लगता।
एक और खेल था- कड़क्को। इसमें दो से तीन-चार तक बच्चे खेलते थे। इसमें कच्ची जगह पर किसी ठीकरे से छह आयताकार जुड़े हुए खाने बनाए जाते। चौथे और छठे खाने को फिर दो हिस्सों में बाँट लिया जाता। अब पहला बच्चा ठीकरी को पहले खाने में डालता और उस खाने को छोड़ सब खानों में एक पैर से उछल-उछलकर कदम रखता जाता। फिर वापसी पर वह ठीकरी उठा लाता। शर्त यह होती कि बाहर से ठीकरा फेंकने पर वह ठीक उसी खानें में पड़े, जिसकी अब बारी है। दो खानों की लाइन पर न तो ठीकरा आना चाहिए, न ही खाने पार करते हुए लाइन पर पैर आना चाहिए। इस तरह आठों खाने पार लेते तो दूसरे पर एक बाजी हो जाती। यहाँ कह दूँ कि हम बचपन के खिलाड़ी प्रेमचंद की कहानी 'शतरंज के खिलाड़ी’ जितने ही खेल में डूबकर खेलते थे, लेकिन उनकी तरह कभी झगड़े नहीं, न ही खेलने के लिए घरवालों से कभी दूरी बनाई।
छोटे-से मौहल्ले के हम दर्जन-भर बच्चे न जाने कितने खेल खेले। कोकलाछी पाती, ऊँच-नीच, कंचों से नक्का-पूर का खेल, पंतगबाजी, रस्सी टापना- यह सब मिल-जुलकर खेले जाते थे। कुछ न मिला, तो बोतलों के ढक्कनों से ही खेल लिए। वह भी न बना तो सिगरेट की डिब्बियों के ऊपरी कवर भी रिज़र्व में रखे होते थे। लेकिन खेल-खेल में शरारत का एक वाकया रह-रहकर याद आता है। मुहल्ले के बीच में एक तरफ कुआँ होता था। शुरू में घरों में नल नहीं होते थे और सब घर कुएँ से ही पानी लेते थे। बाद में नल आने पर कुएँ से पानी लेना धीरे-धीरे बंद हो गया था। लेकिन कुआँ अभी बंद नहीं हुआ था। कुएँ के ठीक साथ वाले मकान में फकीरचँद नाम का आदमी सपरिवार रहता था। वह चिढ़ता बहुत था, इसलिए हम कुछ लड़के उसे चिढ़ाने के उपाय खोजते रहते थे। गर्मियों की छुट्टियाँ थीं और दोपहर को हम घरों से निकल आते थे। चुपके-से एक ईंट उठाते और कुँए में फेंककर छुप जाते। वह बाहर निकलता, हमें ढूँढता, पर हम कहीं दिखाई न देते। हम कुछ-कुछ दिन बाद ऐसा करके अपना आनन्द बरकरार रखते। एक दिन हमने एक ईंट डाली, तो उस घर का दरवाजा नहीं खुला। फिर दो ईंट इकट्ठी डाली, तो भी उधर कोई असर नहीं हुआ। हम भला कैसे हार मानते। हम चार थे। चारों में मैं थोड़ा बड़ा था पर शायद दु:साहसी भी। एक बड़ा-सा पत्थर उठाने का निर्णय हुआ। पत्थर को कुँए के लोहे के जगत तक हम लाए और मैंने तीनों को पीछे हटने को कहा। बाएँ हाथ की बड़ी उँगली पत्थर के नीचे आ गई थी। पर तब तो सर पर भूत सवार था। पत्थर को कुँए में धकेला। एक ज़ोरदार आवाज़ ने हमारे आनंद के सारे द्वार खोल दिए। 'भड़ाक’ से फकीरचँद का दरवाजा खुला और हम मुहल्ले से बाहर भाग लिए। करीब आधे घंटे बाद चुपके से मौहल्ले में घुसे, यह सोचकर कि अब तक तो वह कमबख़्त अपने घर में चला गया होगा। और मेरी वह उँगली! अपनी उँगली का नाखून उतर गया। माँस फट गया। आज भी जब बायीं मध्यमा पर उस घटना का निशान देखता हूँ तो चेहरे पर मुस्कान तैरने लगती है। फिर मन में खयाल आता है- आछे दिन पाछे गए।
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