मार्च अंक में प्रकाशित लोकेन्द्र सिंह का लेख विशेषाधिकार नहीं समान
अधिकार चाहिए के संदर्भ में मेरी राय कुछ इस तरह है-
कहते
हैं कि शिक्षित वर्ग समाज की सबसे सशक्त कड़ी है और यह एक सभ्य समाज की रचना करता
है, पर क्या आज जो कुछ इस सभ्य
कहे जाने वाले समाज में घटित हो रहा है... क्या ये शिक्षित वर्ग जनित है क्या यही
शिक्षा प्राप्त कर रहा है हमारा समाज..? इस पुरुष प्रधान देश में
कोई ऐसा नियम पुरुषों के लिए क्यों नहीं बनाया जाता है जिससे इन पर अंकुश लगाया जा
सके। कभी कोई नियम बना भी तो वह पूरी तरह लागू नहीं हो सका! एक टेलीविजन एड की ये पंक्तियाँ
मुझे इसका एक मात्र हल लगती है कि ‘डर के आगे जीत है’ और ये डर ही हमारे समाज से निकल-सा गया है, जब तक ये डर उस विकृत
मानसिकता में घर नहीं करेगा कोई सुधार नहीं होगा। हमें कुछ ऐसे नियमों को कड़ाई से
लागू करना होगा जो इस समाज में उन लोगों के लिए खौफ़ का पर्याय बन जाए जो अपनी
विकृत मानसिकता से इस तरह के कृत्यों को सिर्फ अपने मजे के लिए अंजाम दे रहे हैं।
पर ये सब लागू कौन करेगा? शायद यह तब तक मुमकिन न
होगा , जब तक भारतीय सविधान में संशोधन न हो।
इसी अंक की अनकही में जो उदाहरण आपने दिया है,
वह वास्तव में अपने आप में एक अनुकरणीय पहल है, । इस पहल को मेरा सलाम! हम सब डबल स्टैंडर्ड में जीते हैं, । दूसरों के लिए एक मापदंड होता है, अपने लिए दूसरा। जैसा की अपने लिए कहूँ तो- मेरा क्रोध परिस्थिति की
वजह से हुई भूल है, और दूसरे के लिए कहूँ तो- वह है ही बड़ा क्रोधी। कोई चीज टूट गई, तो मैं अपने लिए कहूँगा कि
मुझसे टूट गई और दूसरे के लिए उसने तोड़ दी। पहल की अपेक्षा सदैव हमें दूसरो से
रहती है।
दिखावटी व महँगी परम्पराएँ
मार्च अंक की साजा-सज्जा सदैव की तरह आकर्षक है और विषय वस्तु का चयन भी
रोचक एवं सम-सामयिक है।
लोकेन्द्र
सिंह का आलेख विशेष अधिकार नहीं सामान अधिकार-विचार मंथन के लिए पर्याप्त सामग्री
देता है। वास्तव में विशेषाधिकार के कारण ही समाज के पिछड़े में आत्मविश्वास नहीं
आ सका है समान अधिकार की ही बात करनी होगी पर समानता की व्याख्या उतनी आसान नहीं
है जितनी कि दिखती है- जों बहुत पीछे हैं उन्हें अधिक साधन सम्पन्नता देनी ही
होगी- इक्वीटेबल डिस्ट्रीब्यूशन आफ जस्टिस भी यही कहता है।
होली
पर बच्चन जी की पंक्तियाँ आज के माहौल में और भी प्रासंगिक हो गईं हैं
'एक
अनुकरणीय पहल’ में संपादिका महोदया ने ठीक ही कहा है कि जों प्रथाएँ समाप्त हो जानी
चाहिए या सादगी से संपन्न होना चाहिए वे ही और दिखावटी व महँगी होती जा रही हैं।
छत्तीसगढ़
की बारह मासी फाग पढ़कर बहुत अच्छा लगा- इस के लिए जी.के.अवधिया जी को धन्यवाद।
मैंने भी सोचा है बेटे के विवाह में धन
का अपव्यय नहीं होने दूँगा
का अपव्यय नहीं होने दूँगा
8 मार्च विश्व महिला दिवस पर
प्रकाशित बेला गर्ग का लेख ‘औरत को हाशिया नहीं पूरा पृष्ठ चाहिए’ एक चिंतनीय विषय है कि जिस
देश में स्त्रियों को विशेष सम्मान के योग्य प्रतिष्ठित किया गया है ,उसी देश में
आज स्त्रियों की स्थिति अपमानजनक बन गई है। कारण हमारे ही समाज में कहीं छिपे हुए
हैं, कहीं पुरुष की पाशविकता तो
कहीं इस पाशविकता के प्रतिरोध का अभाव। स्त्री को सशक्त होना होगा... किंतु इसका मार्ग भी स्वयं
उसे ही चुनना होगा।
विशेषाधिकार
नहीं समान अधिकार चाहिए पर मेरी राय है कि- अधिकारों की स्वतंत्रता को समझे बिना
अधिकार और स्वतंत्रता की बात की जा रही है। मैंने कुछ महिलाओं से पूछा- युवती, प्रौढ़ा और वृद्धा से भी; कि क्या उन्हें अपने घर की
बच्चियों/ किशोरियों/ बहुओं को कम कपड़ों में देखने में कोई ऐतराज़ है? सब का उत्तर एक ही था -'बिल्कुल ऐतराज़ है।‘ मैंने तर्क दिया कि
आदिवासी स्त्रियाँ तो बहुत कम कपड़े पहनती हैं। उत्तर मिला- 'किंतु वे भी जब शहर आती
हैं तो कपड़े पहनकर ही आती हैं’। तब ये कौन स्त्रियाँ हैं, जो अंगप्रदर्शन को अपनी स्वतंत्रता की
राह में अवरोध मानती हैं? मैं समझ नहीं पाता हूँ कि नारी स्वतंत्रता को कम कपड़ों के पैमाने से
क्यों देखा जा रहा है? क्यों इस बात पर बल दिया जा रहा है कि कम कपड़े पहनने से ही नारी
स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति हो सकेगी? देह के केन्द्र से बाहर आए बिना सारी बहस निरर्थक है। स्त्रियों को
बाजार और विज्ञापन की दुनिया से स्वयं को पहले मुक्त करना होगा। इसके पश्चात्
ही उसका पथ प्रशस्त हो सकेगा। इस
विचारोत्तेजक लेख के लिए लोकेन्द्र सिंह जी को साधुवाद!
अनकही
अनुकरणीय पहल... टीवी सीरियल्स की तो बात ही मत कीजिए। बौद्धिक प्रदूषण
फैलाने में इनका प्रमुख योगदान है। विवाह/यज्ञोपवीत संस्कार में अपने मिथ्या वैभव
प्रदर्शन से लोग गौरवांवित हो रहे हैं किंतु इससे कुप्रथाओं और धन के अपव्यय को ही
बढ़ावा मिल रहा है। मैंने भी सोच रखा है, अपने बेटे के यज्ञोपवीत/विवाह संस्कारों में धन का अपव्यय नहीं होने
दूँगा। प्रेरक प्रसंग देने के लिये सम्पादिका जी को साधुवाद!
समान अधिकार चाहिए लेकिन...
उदंती
में 8 मार्च विश्व महिला दिवस
पर लोकेन्द्र सिंह ने अपने लेख में जो मुद्दे उठाए हैं, यद्यपि वे सभी
महत्त्वपूर्ण हैं किन्तु वर्तमान परिस्थितियों में यह भी जरूरी है कि जब तक समाज
का चरित्र नहीं बदलता है, महिलाओं को हमें कतिपय विशेषाधिकार देने होंगे ताकि वह आने वाले
वर्षों में उस स्थिति में पहुँच जाए, जहाँ वह यथार्थ में पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल सके। ऐसे सभी अधिकार महिलाओं की
सुरक्षा से सम्बंधित होने चाहिए। मेरे विचार से अभी हमारे समाज का एक बड़ा हिस्सा
जिसमें दुर्भाग्य से स्वयं महिलाएँ भी शामिल हैं, नारी पर यत्र-तत्र अंकुश लगाने में यकीन रखता है। उदहारण के तौर पर
माँ यह कभी नहीं चाहती है कि उसकी बेटी उसी तरह से अपनी सहेलियों के साथ घूमती रही
जैसे उनका बेटा अपने दोस्तों के साथ घूमता रहता है। घड़ी में शाम के आठ बजे नहीं
कि हम सभी अभिभावक घर से अकेले बाहर गई बेटी के वापस आने की प्रतीक्षा व्यग्रता से
करने लगते हैं। हमारे देश में इस समय जो
हालात हैं, उसमें बेटियाँ या बहुएँ ही नहीं, प्रौढ़ा महिलाएँ भी घर से अकेले बाहर जाने से पहले सौ बार सोचती हैं।
इस
विषय पर विचार करते समय मुझे आधुनिक ओलंपिक खेलों के जन्मदाता कुबैर्तिन के वे
शब्द याद आ रहे हैं जो उन्होंने अपनी पुस्तक
'रिव्यू
ओलंपिक’ में लिखे हैं- 'महिलाओं का सिर्फ एक ही
कार्य है और वह है खेलों में विजयी पुरुषों को हार पहनाना..!’ दरअसल, मानव सभ्यता के प्रारंभ से
ही महिलाओं को नैतिकता एवं अन्य दूसरे शारीरिक- सामाजिक कारणों की दुहाई देकर
पशुओं की तरह एक बाड़े के भीतर रखने के प्रयास किए जाने लगे थे। इस तथ्य से इंकार
नहीं किया जा सकता है कि इस सोच के पीछे कुछ हद तक वे कारण थे जो महिलाओं को
पुरुषों से विशेषकर शारीरिक हिसाब से भिन्न बनाते हैं। सोचने की बात सिर्फ यह है
कि अन्य सभी जीवधारियों में नर और मादा का जीवन एक जैसा नजर आता है। सिर्फ इस धरती
पर मानव ही लिंग को आधार बनाकर नारियों को कतिपय बंधनों में रखना चाहता है। इसकी
वजह भी हैं। मैंने विगत चालीस वर्षों में अनेक बार यह देखा है कि भीड़ भरी बसों
में महिलाओं को क्या कुछ झेलना पड़ता है। हम अपने को आधुनिक तो कहते हैं किन्तु
हमारी आधुनिकता का स्तर क्या है, इस सवाल का उत्तर देने के लिए इतना बताना काफी होगा कि आधुनिकता की
प्रतीक दिल्ली मेट्रो में महिलाओं के लिए अलग से डिब्बे लगाने पड़े। यथार्थ के धरातल पर उतरने पर पता
चलता है कि तमाम सरकारी और गैर सरकारी कोशिशों के बावजूद आज भी हम पुरुषों का और
यहाँ तक कि स्वयं महिलाओं का महिलाओं को देखने का नजरिया नहीं बदला है। भारतीय समाज
में महिलाओं को पंच- सरपंच तो बनाया जाता है लेकिन उनके सारे अधिकार उनके पतियों
की जेब में रहते हैं।
इस
तर्क में दम है कि विशेषाधिकार की माँग
विकलांगता को जन्म देती है। निसंदेह, महिलाएँ और पुरुष, दोनों यदि एक ही 'क्यू’ में खड़े होकर अपना काम
निपटाएँ तो वह एक आदर्श स्थिति होगी। अमेरिका सहित कई देशों में ऐसा ही होता है।
फर्क सिर्फ इतना है कि वहाँ 'क्यू’ में खड़े लोग एक दूसरे से सम्मानजनक दूरी बनाये रखते हैं। अपने यहाँ
ऐसा नहीं है। यहाँ लोग धक्का-मुक्की करने तक से परहेज नहीं करते हैं। नारी स्पर्श
के लिए लालायित लोग कोई ऐसा मौका नहीं गँवाना चाहते जब उन्हें दूसरे की बहन, बेटी या बहू से किसी बहाने
शारीरिक स्पर्श का मौका मिल रहा हो।
नारी
सम्मान की हकदार है और उसे इसके लिए याचना करने की जरूरत नहीं है। हमारे यहाँ नारी
को लेकर बहुत अच्छी बातें कही जाती हैं; किन्तु ऐसा सब मंचों/ लेखों/ धारावाहिकों या नाटकों तक सीमित रहता
है। यथार्थ के धरातल पर हम उसे सदियों से भोग की वस्तु मानते चले आ रहे हैं।
कुल
मिलाकर, सरकार और समाज, दोनों को अपने स्तर पर महिलाओं को कुछ ऐसे विशेषाधिकार देने होंगे जो
उनकी सुरक्षा को सुनिश्चित करने में सहायक हों। साथ ही हमें ऐसे सामाजिक आन्दोलनों
की जरूरत है जो हमारे समाज में महिलाओं को सम्मानजनक ढंग से जीने की आजादी दिलाने
में सहायक हों।
सराहनीय पहल
अन्तराष्ट्रीय महिला दिवस और होली पर विशेष पठनीय समाग्री के साथ उदंती का मार्च
अंक मिला। अनकही में विवाह में फिजूलखर्ची करने के बजाय उपहार के रूप में पुस्तक
देना निश्चित रूप से सराहनीय और अनुकरणीय पहल है। माटी समाज सेवी संस्था का जन
जागरण- होली खेलें पर पानी बचाएँ और होली में अपनाये जाने वाले उपायों पर सार्थक
प्रयास की हम सराहना करते हैं। भाई जी. के. अवधिया का 'छत्तीसगढ़ में फाग परंपरा’, लोकेन्द्र सिंह का 'विशेषाधिकार नहीं सामान अधिकार चाहिए’ और बेला गर्ग का 'औरत को हाशिया नहीं पूरा पृष्ठ चाहिए’ बहुत अच्छा लगा।
डॉ.
दीप्ति जी को साधुवाद
अनकही
में कही गई बात एक अनुकरणीय पहल है...इसके लिए डॉ. दीप्ति जी को साधुवाद... आपने
इस के बारे में हमें बताया, इसके लिए आप भी बधाई की हकदार हैं... और साथ ही वर-पक्ष भी, क्योंकि डॉ.साहब की इस पहल
को उन्होंने भी अपना सहयोग दिया... और समस्त कार्यक्रम राजी- खुशी निपट गया।
नव-विवाहित जोड़े को हार्दिक शुभकामनाएँ...।
तुहिना
रंजन के 'हाइकु’ बहुत अच्छे लगे...बधाई...।
1 comment:
उदंती का मई अंक काफ़ी अच्छा लगा । गज़ल , कविता , लघुकथायें सभी कोई ना कोई संदेश दे रही हैं और यही लेखन की सार्थकता है।
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