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May 15, 2020

उदंती.com, मई- 2020

 वर्ष- 12, अंक- 9

हज़ार योद्धाओं पर विजय पाना आसान है, लेकिन जो अपने ऊपर विजय पाता है वही सच्चा विजयी है। - गौतम बुद्ध

 लघुकथा विशेष

लघुकथा; कुछ अनुत्तरित प्रश्न

लघुकथा; कुछ अनुत्तरित प्रश्न  

-  रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
   
आज लघुकथा ने विषय से लेकर प्रस्तुति तक एक लम्बी यात्रा तय कर ली है, जिसमें प्रबुद्ध लेखकों और सम्पादकों ने पर्याप्त कार्य किया है । इस यात्रा में कौन साथ चला है, कितना साथ चला है, यह व्यक्ति विशेष की क्षमता पर निर्भर है । आगे की यात्रा के लिए वर्त्तमान से सन्तुष्ट होकर बैठ जाना उचित नहीं है । इसी के साथ यह भी समझना ज़रूरी है कि किसी के द्वारा किए गए  प्रत्येक कार्य से सदा असन्तुष्ट रहना भी कल्याणकारी नहीं है । सभी  कार्यों में सदा दोष ही तलाश करना ( अपनी दुर्बलताओं की तरफ़ न देखकर) एक नकारत्मक सोच है। यह धारणा न अतीत में उचित थी और न आज उपयुक्त है । लघुकथा के विकास के लिए निष्पक्ष होकर कार्य करना चाहिए। छिद्रान्वेषण में अपनी शक्ति वही नष्ट करता है, जिसे अपने ऊपर भरोसा नहीं होता ।
    लघुकथा को लेकर कभी-कभी बयानबाजी से नए रचनाकार भ्रमित होने लगते हैं । समय के साथ किसी भी विधा के मानदण्ड बदलते हैं या उनकी युगानुरूप व्याख्या होती रहती है । जीवन्त विधा को कुछ लोग अपने वक्तव्यों से सीमित नहीं कर सकते। विधा का प्रवाह अपने लिए सदैव नए मार्ग तलाशता रहता है । कोई रचना या रचनाकार उत्कृष्ट है या नहीं, इसे समय और सजग पाठक ही तय करते हैं । फिर भी संक्षेप में ये बिन्दु विचारणीय हैं-
कथानक के दृष्टिकोण से लघुकथा में एक घटना या एक बिम्ब को उभारने की अवधारणा सार्थक है । अधिक स्पष्ट रूप से कहा जाए तो एक या दो घटनाएँ होने पर भी उनमें बिम्ब प्रतिबिम्ब जैसा सम्बन्ध हो अर्थात् लघुकथा का समग्र प्रभाव एक पूर्ण बिम्ब का निर्माण करता हो ।
प्रकृति-पात्र कहानियों में भी उपादान नायक बनते रहे हैं- परन्तु बहुत ही कम। 'उद्भिज परिषद्' इसका सार्थक उदाहरण है। लघुकथा में ये केन्द्रीय पात्र की भूमिका निभा सकते हैं, लेकिन यह कोई विशिष्ट विभाजन नहीं है । हम जड़ और चेतन जगत के समस्त उपादानों को उनके मानवीकृत रूप में प्रस्तुत करते हैं । अतः 'मानवरूप' होना ही अभीष्ट है ।
शास्त्रीय शब्दावली में कहा जाए- शब्द का स्थान शब्दकोश में है । किसी वाक्य का अंग बन जाने पर वह 'पद' कहलाता है । कभी-कभी कोई वाक्य अपने पूर्वापर सम्बन्ध के कारण 'पद' तक भी सीमित रह सकता है । अतः वहाँ वह पदरूप होते हुए भी वाक्य ही है। वाक्य भाषा कि सार्थक इकाई है अतः वाक्य का होना अनिवार्य हैं कथोपकथन लघुकथा का अनिवार्य तत्त्व नहीं है; लेकिन इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि जहाँ कथोपकथन लघुकथा को तीव्र बना रहा हो, उसे उस स्थान से बहिष्कृत कर दिया जाए ।
काल-दोष' न कहकर इसे ' अन्तराल' कहा जा सकता है । दोष का किसी रचना के लिए क्या महत्त्व? अन्तराल को बिम्ब से जोड देना चाहिए.' अन्तराल' बिम्ब को पूर्णता प्रदान करता है या उसे अस्पष्ट एवं अधूरा छोड़ देता है, यह देखना ज़रूरी है। अन्तराल की पूर्ति ' पूर्वदीप्ति' से हो सकती है । अगर पूर्वदीप्ति से भी खंडित बिम्ब पूर्ण नहीं होता, तो अन्तराल की खाई लघुकथा को लील लेगी ।
कथोपकथन कभी विचारात्मक होता है तो कभी घटनाक्रम की सूचना देने वाला या घटना को मोड़ देने वाला। कथोपकथन यदि घटना बिम्ब को उद्घाटित करता है तो इसे लघुकथा कि परिधि में ही माना जाएगा। कथोपकथन से लघुकथा को पूर्णता प्रदान करना लेखक की क्षमता पर निर्भर है ।
लघुकथा कि भाषा सरल होनी चाहिए. पांडित्यपूर्ण भाषा लघुकथा के लिए घातक है । भाषा व्यंजनापूर्ण हो तो और अधिक अच्छा होगा लेकिन हर लघुकथा में 'व्यंजना' का आग्रह उसे दुरूह भी बना सकता है । ‘शीर्षक’ के विषय में भी यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि वह लघुकथा की धुरी का काम करे । शीर्षक को सिद्ध करने  के लिए लघुकथा न लिखी जाए । शीर्षक लघुकथा का मुकुट है । मुकुट वही अच्छा होता है जो न सिर में चुभे और न सिर के लिए भार हो ।
शैली तो कथ्य के रूप पर भी निर्भर है । एक ही व्यक्ति यार-दोस्तों में, माता-पिता के सामने, अपरिचितों के सामने, अलग-अलग ढंग एवं व्यवहार प्रस्तुत करता है । शैली-लघुकथाकार एवं कथ्य की सफल अभिव्यक्ति है । विषय एवं आवश्यकतानुसार उसमें बदलाव आएगा ही । यदि एक लेखक की सभी लघुकथाएँ ( विषय वस्तु भिन्न होने पर भी) एक ही शैली में लिखी गई हैं तो वे ऊबाऊ शैली का उदाहरण बन जाएँगी ।
श्रेष्ठ लघुकथा वह है, जो पाठक को बाँध ले। इसके लिए ऐसा कठोर नियम नहीं बनाया जा सकता कि सभी कथातत्त्व उपस्थित हों। सबकी उपस्थिति में भी लघुकथा घटिया हो सकती है । पात्र कथावस्तु, भाषा-शैली, उद्देश्य, वातावरण, संवाद, अन्तर्द्वन्द्व आदि आवश्यक तत्त्व संश्लिष्ट रूप में उपस्थित हो । ठीक ऐसे ही जैसे चन्द्रमा और चाँदनी-दोनों अलग-अलग होते हुए भी संश्लिष्ट हैं । एक की अनुपस्थिति / उपस्थिति दूसरे की भी अनुपस्थिति / उपस्थिति बन जाती है ।
किसी विधा का मूल्यांकन उसके पाठक करते हैं । काजियों की स्वीकृति न होने पर भी लघुकथा निरन्तर आगे बढ़ती रही है । 'काजी की मारी हलाल' वाली स्थिति लघुकथा के साथ नहीं चलेगी। इस समय लिखने की बाढ़ आ रही है। बाढ़़ थमेगी तो निर्मल जल ही बचेगा, कूड़ा-कचरा स्वतः हट जाएगा । जीवन का आवेशमय, सार्थक एवं कथामय लघुक्षण अपनी तमाम लघुकथाओं के बावजूद इलेक्ट्रानिक ऊर्जा से कम नहीं । व्यंग्य-कहानी, उपन्यास लेख-किसी भी रचना में हो सकता है अतः लघुकथा के साथ 'व्यंग्य' विशेषण जोड़ना जँचता नहीं ।
यह अंक लघुकथा पर केन्द्रित है । पत्रिका की अपनी सीमा है, अत: सभी लेखकों का समावेश सम्भव नहीं । आगामी अंकों के लिए अच्छी लघुकथाएँ भेजी जा सकती हैं ।

चार लघुकथाएँ

 1. आधी दुनिया
-सुकेश साहनी
  
....साड़ी पहनकर दिखाओ, लूजफिटिंग के सूट में फिगर्स का पता ही नहीं चलता... चलकर दिखाओ... लम्बाई? ऐसे नहीं-बिना सैडिंल के चाहिए... मेकअप तो नहीं किया है न?... पार्क में चलो, चेहरे का रंग खुले में ही पता चलता है... बड़ी बहन की शादी में क्या दिया था? ...क्या-क्या पका लेती हो? ...घर सम्हालना आता है? आज के समय में नौकर-मेहरी रखना ‘सेफ’ नहीं है।
  ...‘जयमाल’ के समय सूट पहनना, लहँगा-चोली नहीं चलेगा... डार्लिंग, ये देहाती औरतों वाला अंदाज़ छोड़ दो ...आज की रात हम जो कहेंगे, करना होगा ...हमसे कुछ मत छिपाना ...शादी से पहले किसी से प्यार किया था? ...कितना नमक झोंक दिया है सब्जी में?! ...स्वीटहार्ट! इधर आओ, हमारे करीब ...दिनभर की थकान हम अभी दूर किए देते हैं! ...चूमने का ये अंग्रेजी अंदाज कहाँ से सीखा? तुम तो छिपी रुस्तम निकली! ...कैसा खाना बनाया है? देखते ही भूख मर गई।
  ...खिड़की पर मत खड़ी हुआ करो ...बेमतलब खी-खी मत किया करो! ...तुम्हारे घर वालों में जरा भी अक्ल नहीं है, इस कूड़े-कबाड़ की जगह कार ही दे देते। ...अक्ल से बिल्कुल पैदल हो! प्यार करने के तरीके इन विदेशी मेमो से सीखो। ...कितनी बार कहा है बेवक्त घर का रोना मत रोया करो, सारा मजा किरकिरा हो जाता है। ...मुझसे पहले तुम कैसे सो सकती हो? ...दोस्त आएँ, तो उन्हें चाय-पानी के लिए पूछा करो। ...दोस्तों के सामने मुँह उठाए क्यों चली आती हो? उनसे ज्यादा हँस-हँसकर बात मत किया करो।
 ....बहुत फालतू-खर्च करने लगी हो!! ...तुम्हारे खानदान में किसी ने बेटा जना है जो तुम जनोगी! मैं तो फँस गया!! ...दिन-रात मायकेवालों का जाप मत किया करो। ...किसे चाय-पानी के लिए पूछना है किसे नहीं, ये सब भी सिखाना पड़ेगा तुम्हें? ...तुम्हारी बहन की शादी में बहुत माल खर्च कर रहे हैं, हमें तो बहुत सस्ते में ही निबटा दिया था बुढ़ऊ ने।
  ...आए दिन पर्स उठाकर कहाँ चल देती हो? घर का नाम मत डुबो देना! ...बेटियों को चौपट करोगी तुम! भगवान के लिए उन्हें अपने जैसा मत बनाना। ...रोजाना माँ को देखने मत चल दिया करो। बुढ़िया के प्राण इतनी आसानी से नहीं निकलने वाले, अब ‘खबर’ आने पर ही जाना। ...दिन-रात घुटनों को लेकर ‘हाय-हाय’ करना छोड़ दो। घर में घुसते ही मूड खराब हो जाता है।
  ...कितनी ठंडी होती जा रही हो दिन-ब-दिन! ...मोहल्ले की इन दो टके की औरतों से बात मत किया करो ...अब ये रोना धोना बंद करो! माँ के मरने पर नहीं पहुँच सकी तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ा। ...ये चोंचले मुझे मत दिखाओ! ...ज्यादा अगर-मगर मत करो ...शक्की बुढ़िया की तरह ‘बिहेव’ मत करो ...दिमाग का इलाज कराओ ...सिर मत खाओ ....ज्यादा चीं-चपड़ मत करो! मुझसे ऊँची आवाज में बात मत करना ...तुम्हारी ये मजाल?! ....मुझे आँखें दिखाती हो! निकलो ...अभी निकलो ‘मेरे’ घर से।

2.सेल्फी
   
उसका पूरा ध्यान आँगन में खेल रहे बच्चों की ओर था। शुचि की चुलबुली हरकतों को देखकर उसे बार-बार हँसी आ जाती थी। कल शुचि जैसी बच्ची उसकी गोद में भी होगी, सोचकर उसका हाथ अपने पेट पर चला गया। उसे पता ही नहीं चला कब राकेश उसके पीछे आकर खड़ा हो गया था।
   ‘‘जान! आज हम तुम्हारे लिए कुछ स्पेशल लाए हैं।’’
  ‘‘क्या है?’’
 ‘‘पहले तुम आँखें बंद करो, आज हम अपनी बेगम को अपने हाथ से खिलाएँगे।’’ राकेश ने अपने हाथ पीठ पीछे छिपा रखे थे।
   ‘‘दिखाओ, मुझे तो अजीब-सी गंध आ रही है।’’
  ‘‘पनीर पकौड़ा है-स्पेशल!’’ उसके होठों पर रहस्यमयी मुस्कान थी।
  उसका ध्यान फिर शुचि की ओर चला गया, वह मछली बनी हुई थी, बच्चे उसके चारों ओर गोल दायरे में घूम रहे थे, ‘‘हरा समंदर, गोपी चंदर। बोल मेरी मछली कितना पानी? शुचि ने अपना दाहिना हाथ घुटनों तक ले जाकर कहा, ‘‘इत्ता पानी!’’
  ‘‘कहाँ ध्यान है तुम्हारा?’’ ,राकेश ने टोका, ‘‘लो, निगल जाओ!’’
  ‘‘है क्या? क्यों खिला रहे हो!’’
  ‘‘सब बता दूँगा, पहले तुम खा लो....।’’
  आँगन से बच्चों की आवाजें साफ सुनाई दे रही थी, ‘‘बोल मेरी मछली…  पानी’’ छाती तक हाथ ले जाकर बोलती शुचि, ‘‘इत्ता .. इत्ता पानी!’’
  ‘‘मुझसे नहीं खाया जाएगा।’’
  ‘‘तुम्हें आने वाले बच्चे की कसम.... खा लो।’’
  ‘‘तुम्हें हुआ क्या है? कैसे बिहेव कर रहे हो, क्यों खिलाना चाहते हो?’’
  ‘‘यार, तुम भी जिद करने लगती हो, दादी माँ का नुस्खा है आजमाया हुआ। इसको खाने से शर्तिया लड़का पैदा होता है।’’
  सुनते ही चटाख से उसके भीतर कुछ टूटा, राकेश उससे कुछ कह रहा था, पर उसे कुछ सुनाई नहीं दे रहा था। वह डबडब करती आँखों से देखती है ...शुचि की जगह वह खड़ी है, बच्चे उसके चारों ओर गोलदायरे में दौड़ते हुए एक स्वर में पूछ रहे हैं ...बोल मेरी मछली ...कित्ता पानी? उसकी आँखों में दृढ़ निश्चय दिखाई देने लगता है ...अब तो पानी सिर से ऊपर हो गया है। वह अपना हाथ सिर से ऊँचा उठाकर कहती है, ... इत्ता ...इतना पानी!!!
  ‘‘क्या हुआ?’’राकेश ने मलाई में लिपटी दवा उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा,’’आइ लव यू, यार!!’’
  ‘‘नहीं!!’’ राकेश के हाथ को परे धकेलते हुए सर्द आवाज में उसने कहा, ‘‘दरअसल तुम मुझे नहीं, मुझमें खुद को ही प्यार करते हो!’’

3. ब्रेक पांइट
 
माँ जी, आपके पति बहुत बहादुर हैं...’’ राउण्ड पर आए डॉक्टर ने नाथ की पत्नी से कहा, ‘‘एकबारगी हम भी घबरा गए थे, पर उस समय भी इन्होंने हिम्मत नहीं हारी थी। अब खतरे से बाहर हैं।’’
  पूरे अस्पताल में नाथ की बहादुरी के चर्चे थे। चलती ट्रेन  से गिरकर उनका एक बाजू कट गया था और सिर में गम्भीर चोट आई थीं। घायल होने के बावजूद उन्होंने दुर्घटना स्थल से अपना कटा हुआ बाजू उठा लिया था और दूसरे यात्री की मदद से टैक्सी में बैठकर अस्पताल पहुँच गए थे। चार घण्टे तक चले जटिल ऑपरेशन के बाद वह सात दिन तक आई.सी.यू. में जिंदगी और मौत के बीच झूलते रहे थे। आज डॉक्टरों ने उन्हें खतरे से बाहर घोषित कर जनरल वार्ड में शिफ्ट कर दिया था।
  ‘‘विक्की दिखाई नहीं दे रहा है...?’’ दवाइयों के नशे से बाहर आते ही उन्होंने पत्नी से बेटे के बारे में पूछा।
  ‘‘सुबह से यहीं था, अभी-अभी घर गया है।’’ शीला ने झूठ बोला, जबकि सच्चाई इससे बिल्कुल उलट थी। माँ-बाप को छोड़कर सपत्नीक अलग रह रहा पुत्र अपनी नाराजगी के चलते पिता के एक्सीडेंट की बात जानकर भी उन्हें देखने अस्पताल नहीं आया था।
  थोड़ी देर तक दोनों के बीच मौन छाया रहा।
  ‘‘मेरे ऑपरेशन की फीस किसने दी थी?’’  उन्होंने फिर पत्नी से पूछा।
  इस दफा शीला से कुछ बोला नहीं गया। वह चुप रही। नाथ ने आँखें खोलीं और सीधे पत्नी की आँखों में झाँकने लगे। शीला ने जल्दी से आँखें चुरा लीं। उनको अपनी जीवनसंगिनी का चेहरा पढ़ने में देर नहीं लगी। उनकी आँखें पत्नी की कलाई पर ठहर गईं, जहाँ से सोने की चूड़ियाँ गायब थीं।
  ‘‘शाबाश पुत्र!!’’ उनके मुँह से दर्द से डूबे शब्द निकले और उनकी आँखें डबडबा आईं।
  शीला ने पैंतीस वर्ष के वैवाहिक जीवन में पहली बार अपने पति की आँखों में आँसू देखे तो उसका कलेजा मुँह को आने लगा। यह पहला अवसर नहीं था जब जवान बेटे ने उनके दिल को ठेस पहुँचाई थी, पर हर बार बेटे की इस तरह की हरकतों को उसकी नादानी कहकर टाल दिया करते थे।
  एकाएक उनकी तबियत बिगड़ने लगी। डयूटी रूम की ओर दौड़ती हुई नर्सें... ब्लड प्रेशर नापता डाक्टर... इंजेक्शन तैयार करती स्टाफ नर्स....
  उनकी साँस झटके ले लेकर चल रही थी...
  डॉक्टर ने निराशा से सिर हिलाया और चादर से उनका मुँह ढक दिया। वह हैरान था, उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि जिस आदमी ने अपनी बहादुरी और जीने की प्रबल इच्छा के बल पर सिर पर मँडराती मौत को दूर भगा दिया था, उसी ने एकाएक दूर जाती मौत के आगे घुटने क्यों टेक दिए थे?!

4.विजेता

"बाबा, खेलो न!"
"दोस्त, अब तुम जाओ। तुम्हारी माँ तुम्हें ढूँढ रही होगी।"
"माँ को पता है, मैं तुम्हारे पास हूँ । वो बिल्कुल परेशान नहीं होगी। पकड़म-पकड़ाई ही खेल लो!"
"बेटा, तुम पड़ोस के बच्चों के साथ खेल लो। मुझे अपना खाना भी तो बनाना है।"
"मुझे नहीं खेलना उनके साथ । वे अपने खिलौने भी नहीं छूने देते ।" ...अगले ही क्षण कुछ सोचते हुए बोला... "मेरा खाना तो माँ बनाती है ,तुम्हारी माँ कहाँ है?"
"मेरी माँ तो बहुत पहले ही मर गयी थी।" ...नब्बे साल के बूढ़े ने मुस्कराकर कहा।
"बच्चा उदास हो गया। बूढ़े के नज़दीक आकर उसका झुर्रियों भरा चेहरा अपने नन्हें हाथों में भर लिया... "अब तुम्हें अपना खाना बनाने की कोई जरूरत नहीं, मैं माँ से तुम्हारे लिए खाना ले आया करूँगा। अब तो खेल लो!"
"दोस्त!" --बूढ़े ने बच्चे की आँखों में झाँकते हुए कहा... "अपना काम खुद ही करना चाहिए|और फिर, अभी मैं बूढ़ा भी तो नहीं हुआ हूँ, है न !"
"और क्या, बूढ़े की तो कमर भी झुकी होती है।"
"तो ठीक है, अब दो जवान मिलकर खाना बनाएँगें ।" ...बूढ़े ने रसोई की ओर मार्च करते हुए कहा। बच्चा खिलखिलाकर हँसा और उसके पीछे-पीछे चल दिया।
कुकर में दाल-चावल चढ़ाकर वे फिर कमरे में आ गये । बच्चे ने बूढ़े को बैठने का आदेश दिया, फिर उसकी आँखों पर पटटी बाँधने लगा । पटटी बँधते ही उसका ध्यान अपनी आँखों की ओर चला गया। मोतियाबिन्द के आपरेशन के बाद एक आँख की रोशनी बिल्कुल खत्म हो गई थी। दूसरी आँख की ज्योति भी बहुत तेजी से क्षीण होती जा रही थी।
"बाबा,पकड़ो, पकड़ो!" ...बच्चा उसके चारों ओर घूमते हुए कह रहा था |
उसने बच्चे को हाथ पकड़ने के लिए हाथ फैलाए तो एक विचार उसके मस्तिक में कौंधा... जब दूसरी आँख से भी अँधा हो जाएगा, तब? तब? तब वह क्या करेगा? किसके पास रहेगा? बेटों के पास? नहीं-नहीं! बारी-बारी से सबके पास रहकर देख लिया। हर बार अपमानित होकर लौटा है। तो फिर?
"मैं यहाँ हूँ ।मुझे पकड़ो!"
उसने दृढ़ निश्चय के साथ धीरे-से कदम बढ़ाए। हाथ से टटोलकर देखा। मेज, उस पर रखा गिलास, पानी का जग, यह मेरी कुर्सी और यह रही चारपाई...और...और...यह रहा बिजली का स्विच। लेकिन तब मुझ अँधे को इसकी क्या ज़रूरत होगी?...होगी। तब भी रोशनी की ज़रुरत होगी... अपने लिए नहीं... दूसरों के लिए... मैंने कर लिया... मैं तब भी अपना काम खुद कर लूँगा!
"बाबा, तुम मुझे नहीं पकड़ पाए। तुम हार गए ...तुम हार गए!" बच्चा तालियाँ पीट रहा था।
बूढ़े की घनी सफेद दाढ़ी के बीच होंठों पर आत्मविश्वास से भरी मुस्कान थिरक रही थी।

भूकम्प

भूकम्प
-प्रियंका गुप्ता    
अभी वह ऑफिस जाने की तैयारी में लगा ही था कि सहसा बदहवास सी पत्नी कमरे में आई,”जल्दी बाहर निकलिए…। बिलकुल भी अहसास नहीं हो रहा क्या…भूकंप आ रहा । चलिए तुरंत…।” वो उसकी बाँह पकड़ कर लगभग खींचती हुई उसे घर से बाहर ले गई ।
पत्नी को यूँ रुआंसा देख कर जाने क्यों ऐसी मुसीबत की घड़ी में भी उसे हँसी आ गई । बाहर लगभग सारा मोहल्ला इकठ्ठा हो गया था । एक अफरा-तफरी का माहौल था । कई लोग घबराए नज़र आ रहे थे । कुछ छोटे बच्चे तो बिना कुछ समझे ही रोने लगे थे ।
सहसा उसे बाऊजी की याद आई । वो तो चल नहीं सकते खुद से…और इस हड़बड़-तड़बड़ में वह उनको तो बिलकुल ही भूल गया । वो जैसे ही अंदर जाने लगा कि तभी उसके पाँव मानो ज़मीन से चिपक गए । बाऊजी की ज़िन्दगी की अहमियत अब रह ही कितनी गई है । वैसे भी उनका गू-मूत करते करते थक चुका था वो…और उसकी पत्नी भी…। ऐसे में अगर भूकंप में वो खुद ही भगवान को प्यारे हो जाएँ तो उस पर कोई इलज़ाम भी नहीं आएगा ।
अभी कुछ पल ही बीते थे कि सहसा पत्नी की चीख से वो काँप उठा । उनका दुधमुँहा बच्चा अपने पालने में ही रह गया था ।
अंदर की ओर भागते उसके कदम वहीं थम गए । वह गिरते-गिरते बच गया था। एक हाथ से व्हील चेयर चलाते बाहर आ चुके पिता की गोद में उसका लाल था ।
जाने भूकंप का दूसरा तेज़ झटका था या कुछ और …पर वह गिरते-गिरते बच गया था।

दो लघुकथाएँ

1. फ़र्क
 -विष्णु प्रभाकर 
उस दिन उसके मन में इच्छा हुई कि भारत और पाक के बीच की सीमारेखा को देखा जाए, जो कभी एक देश था, वह अब दो होकर कैसा लगता है? दो थे तो दोनों एक-दूसरे के प्रति शंकालु थे। दोनों ओर पहरा था। बीच में कुछ भूमि होती है जिस पर किसी का अधिकार नहीं होता। दोनों उस पर खड़े हो सकते हैं। वह वहीं खड़ा था, लेकिन अकेला नहीं था-पत्नी थी और थे अठारह सशस्त्र सैनिक और उनका कमाण्डर भी। दूसरे देश के सैनिकों के सामने वे उसे अकेला कैसे छोड़ सकते थे! इतना ही नहीं, कमाण्डर ने उसके कान में कहा, "उधर के सैनिक आपको चाय के लिए बुला सकते हैं, जाइएगा नहीं। पता नहीं क्या हो जाए? आपकी पत्नी साथ में है और फिर कल हमने उनके छह तस्कर मार डाले थे।"
उसने उत्तर दिया,"जी नहीं, मैं उधर कैसे जा सकता हूँ?" और मन ही मन कहा-मुझे आप इतना मूर्ख कैसे समझते हैं? मैं इंसान, अपने-पराए में भेद करना मैं जानता हूँ। इतना विवेक मुझ में है।
वह यह सब सोच रहा था कि सचमुच उधर के सैनिक वहाँ आ पहुँचे। रौबीले पठान थे। बड़े तपाक से हाथ मिलाया।
उस दिन ईद थी। उसने उन्हें 'मुबारकबाद' कहा। बड़ी गरमजोशी के साथ एक बार फिर हाथ मिलाकर वे बोल-- "इधर तशरीफ लाइए। हम लोगों के साथ एक प्याला चाय पीजिए।"
इसका उत्तर उसके पास तैयार था। अत्यन्त विनम्रता से मुस्कराकर उसने कहा.. "बहुत-बहुत शुक्रिया। बड़ी खुशी होती आपके साथ बैठकर, लेकिन मुझे आज ही वापस लौटना है और वक्त बहुत कम है। आज तो माफ़ी चाहता हूँ।"
इसी प्रकार शिष्टाचार की कुछ बातें हुई कि पाकिस्तान की ओर से कुलांचें भरता हुआ बकरियों का एक दल, उनके पास से गुज़रा और भारत की सीमा में दाखिल हो गया। एक-साथ सबने उनकी ओर देखा। एक क्षण बाद उसने पूछा.. "ये आपकी हैं?"
उनमें से एक सैनिक ने गहरी मुस्कराहट के साथ उत्तर दिया-- "जी हाँ, जनाब! हमारी हैं। जानवर हैं, फर्क करना नहीं जानते।"
2. पानी

बी.ए. की परीक्षा देने वह लाहौर गया था। उन दिनों स्वास्थ्य बहुत ख़राब था। सोचा, प्रसिद्ध डा. विश्वनाथ से मिलता चलूँ। कृष्णनगर से वे बहुत दूर रहे थे। सितम्बर का महीना था और मलेरिया उन दिनों यौवन पर था। वह भी उसके मोहचक्र में फँस गया। जिस दिन डा. विश्वनाथ से मिलना था, ज्वर काफी तेज़ था। स्वभाव के अनुसार वह पैदल ही चल पड़ा, लेकिन मार्ग में तबीयत इतनी बिगड़ी कि चलना दूभर हो गया। प्यास के कारण, प्राण कंठ को आने लगे। आसपास देखा, मुसलमानों की बस्ती थी। कुछ दूर और चला, परन्तु अब आगे बढ़ने का अर्थ ख़तरनाक हो सकता था। साहस करके वह एक छोटी-सी दुकान में घुस गया। गाँधी टोपी और धोती पहने हुए था।
दुकान के मुसलमान मालिक ने उसकी ओर देखा और तल्खी से पूछा-- "क्या बात है?"
जवाब देने से पहले वह बेंच पर लेट गया। बोला.. "मुझे बुखार चढ़ा है। बड़े ज़ोर की प्यास लग रही है। पानी या सोडा, जो कुछ भी हो, जल्दी लाओ!"
मुस्लिम युवक ने उसे तल्खी से जवाब दिया-- "हम मुसलमान हैं।"
वह चिनचिनाकर बोल उठा.. "तो मैं क्या करूँ?"
वह मुस्लिम युवक चौंका। बोला-- "क्या तुम हिन्दू नहीं हो? हमारे हाथ का पानी पी सकोगे?"
उसने उत्तर दिया-- "हिन्दू के भाई, मेरी जान निकल रही है और तुम जात की बात करते हो। जो कुछ हो, लाओ!"
युवक ने फिर एक बार उसकी ओर देखा और अन्दर जाकर सोडे की एक बोतल ले आया। वह पागलों की तरह उस पर झपटा और पीने लगा।
लेकिन इससे पहले कि पूरी बोतल पी सकता, उसे उल्टी हो गई और छोटी-सी दुकान गन्दगी से भर गई, लेकिन
उस युवक का बर्ताव अब एकदम बदल गया था। उसने उसका मुँह पोंछा, सहारा दिया और बोला.. "कोई डर नहीं। अब तबीयत कुछ हल्की हो जाएगी। दो-चार मिनट इसी तरह लेटे रहो। मैं शिंकजी बना लाता हूँ।"
उसका मन शांत हो चुका था और वह सोच रहा था कि यह पानी, जो वह पी चुका है, क्या सचमुच मुसलमान पानी था?