उदंती.com को आपका सहयोग निरंतर मिल रहा है। कृपया उदंती की रचनाओँ पर अपनी टिप्पणी पोस्ट करके हमें प्रोत्साहित करें। आपकी मौलिक रचनाओं का स्वागत है। धन्यवाद।

May 14, 2020

दो लघुकथाएँ

1. आज़ादी
-रवि प्रभाकर
शताब्दियों के इंतज़ार और असंख्य माँओं की गोद सूनी होने, अनगिनत सुहागिनों से इंद्रधनुष रूठने और न जाने कितने बिना ईद के रोज़ों के बाद, अंतत: ‘वह’ आ ही गई। भाद्रपद की कृष्ण पक्ष की अँधेरी रात में ‘उसके’ स्वागत में मानो शशि-रवि स्वयं ज़मीन पर उतर आए थे। शुभ्र वस्त्रधारी, जिनके चमचमाते जूतों पर शायद ही कभी मिट्टी का कण लगा था, वे ढोल-ताशों की आकाश छूती आवाज़ों के साथ ‘उसे’ पालकी में बिठाकर जुलूस की शक्ल में झूमते-नाचते ज्यों ही चौराहे तक पहुँचे तो अनायास ‘उसकी’ नज़र बाईं तरफ़ गई। गहन अँधकार में अनंतकाल से बाट जोह रही असंख्य सूखी आँखों के आशाओं के दीपकों में दीवाली ही हो गई। ‘उसने’ स्निग्ध दृष्टि से उन लोगों की ओर देखा और पालकी से उतरकर कीचड़- सने ध्वान्त मार्ग की तरफ़ जैसे ही क़दम बढ़ाया तो ढोल-ताशों की आवाज़ एकदम बंद हो गई। वातावरण में एक खौफ़नाक-सी नीरवता पसर गई।
यह क्या? आप किधर जा रही हो?” एक शुभ्र वस्त्रधारी के माथे पर सिलवटें उभरी।
किधर…? भई, जिन लोगों ने सदियों से तप किया, जिनके असीम तप में तपकर मैं यहाँ आई। अपने उन्हीं चाहनेवालों के बीच जा रही हूँ।” ‘वह’ हर्षमिश्रित पर दृढ़ स्वर में बोली।
उसके’ इरादे भाँपकर, करबद्ध बुज़ुर्ग सफ़ेदपोश आगे बढ़ा और अँधकार में खड़े लोगों को संबोधित करते हुए विनम्र स्वर बोला, “भाइयो और बहनों! आज का शुभ दिन आप लोगों की कुर्बानियों का ही फल है और इसपर आप लोगों का ही अधिकार है। परन्तु मेरा एक निवेदन है….।”
वह गला खँखारते पुन: बोला, “यह आज ही आईं हैं। आप लोग तो जानते ही हो कि आपकी तरफ़ अँधेरा बहुत घना है। आज रात हमें इनकी सेवा का अवसर प्रदान करें। दो पहर की ही तो बात है, सुबह जैसे ही रोशनी की पहली किरण फूटेगी हम स्वयं इन्हें आप लोगों को सौंप जाएँगे। तब तक आप इनके स्वागत की तैयारियाँ करें।”
उन लोगों ने सहमति में सिर हिलाया और आशा भरे नयनों से ‘उसकी’ ओर देखा। उनकी आँखों में मूक सहमति को पढ़कर वह अनमने पालकी की तरफ़ बढ़ने लगी। सफ़ेदपोश के माथे की सिलवटें सपाट हो गई और होंठों पर कुटिल मुस्कान फैल गई। उसने अपने शुभ्र वस्त्रधारी साथियों को संकेत किया…. ढोल-ताशे मदमस्त हाथियों  की तरह चिंघाड़ने लगे। ‘उसके’ पुन: पालकी में बैठते ही शुभ्र वस्त्रधारी, उज्ज्वल पक्की सड़क के रास्ते रौशन इमारतों की तरफ़ बढ़ गए।
और वह सभी लोग आज भी अँधेरा मिटने और रोशनी होने का इंतज़ार ही कर रहे हैं।
2. डूबा तारा
ओ मौंटी! अब आ भी जा बाहर, मुझे भी नहाना है।” बाबूजी बाथरूम की ओर देखते हुए चिल्लाकर बोले।
देख लो अपने लाड़ले को! रिसेप्शन पर साथ जाने से साफ़ इनकार कर दिया”, सब्ज़ी काटती हुई पत्नी को कहा
नहा लेने दो उसे, अभी साढ़े छह ही तो बजे हैं। रिसेप्शन का टाइम तो वैसे भी आठ बजे का है न।” पत्नी थोड़ी रूखे स्वर में बोली!
मैं तो कहता हूँ कि तू ही चल मेरे साथ। कोई ज़्यादा टाइम तो लगेगा नहीं, बस शगुन पकड़ाकर वापस आ जाएँगे।”
देखो। मैं नहीं जाने की वहाँ। किसी भी ब्याह-शादी में जाओ वहाँ बड़ी-बूढ़ी औरतें घेर कर बस यही पूछने बैठ जाती है कि बिट्टो की बातचीत चलाई कहीं कि नहीं? मुझे तो अब बहुत शर्मिंदगी होती है।”
देखो, अपनों की बातों का बुरा नहीं मनाया करते…” बाबूजी ने समझाते हुए कहा
अरे! जिनसे हमारी बोलचाल तक नहीं है वो भी स्वाद लेने के लिए आ जाती हैं। बिट्टो को एम.ए. किए भी अब तीन साल हो गए हैं, कोई अच्छा-सा लड़का देखकर उसके भी हाथ पीले क्यों नहीं कर देती? ” पत्नी की आवाज़ में थोड़ी तल्खी थी।
मैंने तो इसके ब्याह के लिए सारा इंतज़ाम भी करके रखा हुआ है। इसके संजोग ही ठंडे है तो क्या किया जा सकता है।” बाबूजी ठंडी आह भरते हुए बोले
भाभी! मैंने तो बिट्टो को कई बार कहा है कि वो शादियों में आया जाया करे, पर वो किसी की सुने तब न। पिछले महीने ज़िद करके ले गई थी इसे मौसी के बेटे की शादी में। पर ये लड़की तो वहाँ बुत ही बनी बैठी रही। उसी शादी में बबली बन-ठन कर सबसे आगे घूम रही थी। बस! वहीं लड़के वालों को नज़र में चढ़ गई और देखो, हो गई न चट मँगनी और पट शादी? ” बुआ भी कुछ उखड़ी हुई सी बोली
पिता जी! आपने तो सैंकड़ों शादियाँ करवा दी हैं, पर अपनी पोती की ही कुंडली क्यों नहीं पढ़ पा रहे आप?” पत्नी चारपाई पर बैठे ससुर को शिकायत भरे लहज़े में बोली
तू फ़िक्र न कर बहू! जब समय आएगा तो सब कुछ अपने आप हो जाएगा और तुम्हें पता भी नहीं चलेगा। और रही बात बबली की शादी की तो आजकल तारा डूबा हुआ है, तारा डूबा होने के वक़्त भी भला शादी होती है कहीं? देख लेना ये शादी कभी कामयाब नहीं होगी।”

ससुर की बात सुनकर पत्नी के चेहरे की त्योरियाँ कुछ कम हुईं, फिर राहत भरे स्वर में बाबूजी से बोली- “सुनो जी! मौंटी को रहने दो। मैं ही चलती हूँ आपके साथ।”

1 comment:

अनीता सैनी said...

दोनों लघुकथा बहुत सुंदर।
आजादी सराहनीय 👌