- रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
आज लघुकथा ने विषय से लेकर प्रस्तुति तक एक लम्बी यात्रा तय कर ली है, जिसमें प्रबुद्ध लेखकों और सम्पादकों ने पर्याप्त कार्य किया है । इस यात्रा में कौन साथ चला है, कितना साथ चला है, यह व्यक्ति विशेष की क्षमता पर निर्भर है । आगे की यात्रा के लिए वर्त्तमान से सन्तुष्ट होकर बैठ जाना उचित नहीं है । इसी के साथ यह भी समझना ज़रूरी है कि किसी के द्वारा किए गए प्रत्येक कार्य से सदा असन्तुष्ट रहना भी कल्याणकारी नहीं है । सभी कार्यों में सदा दोष ही तलाश करना ( अपनी दुर्बलताओं की तरफ़ न देखकर) एक नकारत्मक सोच है। यह धारणा न अतीत में उचित थी और न आज उपयुक्त है । लघुकथा के विकास के लिए निष्पक्ष होकर कार्य करना चाहिए। छिद्रान्वेषण में अपनी शक्ति वही नष्ट करता है, जिसे अपने ऊपर भरोसा नहीं होता ।
लघुकथा को
लेकर कभी-कभी बयानबाजी से नए रचनाकार भ्रमित होने लगते हैं । समय के साथ किसी भी विधा
के मानदण्ड बदलते हैं या उनकी युगानुरूप व्याख्या होती रहती है । जीवन्त विधा को कुछ
लोग अपने वक्तव्यों से सीमित नहीं कर सकते। विधा का प्रवाह अपने लिए सदैव नए मार्ग
तलाशता रहता है । कोई रचना या रचनाकार उत्कृष्ट है या नहीं, इसे समय और सजग पाठक ही
तय करते हैं । फिर भी संक्षेप में ये बिन्दु विचारणीय हैं-
कथानक के
दृष्टिकोण से लघुकथा में एक घटना या एक बिम्ब को उभारने की अवधारणा सार्थक है ।
अधिक स्पष्ट रूप से कहा जाए तो एक या दो घटनाएँ होने पर भी उनमें बिम्ब प्रतिबिम्ब
जैसा सम्बन्ध हो अर्थात् लघुकथा का समग्र प्रभाव एक पूर्ण बिम्ब का निर्माण करता
हो ।
प्रकृति-पात्र
कहानियों में भी उपादान नायक बनते रहे हैं- परन्तु बहुत ही कम। 'उद्भिज परिषद्' इसका सार्थक उदाहरण है। लघुकथा
में ये केन्द्रीय पात्र की भूमिका निभा सकते हैं, लेकिन
यह कोई विशिष्ट विभाजन नहीं है । हम जड़ और चेतन जगत के समस्त उपादानों को उनके
मानवीकृत रूप में प्रस्तुत करते हैं । अतः 'मानवरूप'
होना ही अभीष्ट है ।
शास्त्रीय शब्दावली में कहा जाए- शब्द का स्थान
शब्दकोश में है । किसी वाक्य का अंग बन जाने पर वह 'पद'
कहलाता है । कभी-कभी कोई वाक्य अपने पूर्वापर सम्बन्ध के कारण 'पद' तक भी सीमित रह सकता है । अतः वहाँ वह
पदरूप होते हुए भी वाक्य ही है। वाक्य भाषा कि सार्थक इकाई है अतः वाक्य का होना
अनिवार्य हैं । कथोपकथन
लघुकथा का अनिवार्य तत्त्व नहीं है; लेकिन इसका यह अर्थ
कदापि नहीं कि जहाँ कथोपकथन लघुकथा को तीव्र बना रहा हो, उसे
उस स्थान से बहिष्कृत कर दिया जाए ।
‘काल-दोष' न कहकर इसे ' अन्तराल' कहा जा सकता है । दोष का किसी रचना के लिए क्या महत्त्व? अन्तराल को बिम्ब से जोड देना चाहिए.' अन्तराल'
बिम्ब को पूर्णता प्रदान करता है या उसे अस्पष्ट एवं अधूरा छोड़
देता है, यह देखना ज़रूरी है। अन्तराल की पूर्ति '
पूर्वदीप्ति' से हो सकती है । अगर
पूर्वदीप्ति से भी खंडित बिम्ब पूर्ण नहीं होता, तो
अन्तराल की खाई लघुकथा को लील लेगी ।
कथोपकथन कभी
विचारात्मक होता है तो कभी घटनाक्रम की सूचना देने वाला या घटना को मोड़ देने
वाला। कथोपकथन यदि घटना बिम्ब को उद्घाटित करता है तो इसे लघुकथा कि परिधि में ही
माना जाएगा। कथोपकथन से लघुकथा को पूर्णता प्रदान करना लेखक की क्षमता पर निर्भर
है ।
लघुकथा कि भाषा सरल होनी चाहिए.
पांडित्यपूर्ण भाषा लघुकथा के लिए घातक है । भाषा व्यंजनापूर्ण हो तो और अधिक अच्छा
होगा लेकिन हर लघुकथा में 'व्यंजना' का आग्रह उसे दुरूह भी बना सकता है । ‘शीर्षक’
के विषय में भी यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि वह लघुकथा की धुरी का काम करे । शीर्षक को सिद्ध
करने के लिए लघुकथा न लिखी जाए । शीर्षक लघुकथा का मुकुट है । मुकुट वही अच्छा होता है जो न सिर में
चुभे और न सिर के लिए भार हो ।
शैली तो
कथ्य के रूप पर भी निर्भर है । एक ही व्यक्ति यार-दोस्तों में, माता-पिता के सामने, अपरिचितों के सामने,
अलग-अलग ढंग एवं व्यवहार प्रस्तुत करता है । शैली-लघुकथाकार एवं
कथ्य की सफल अभिव्यक्ति है । विषय एवं आवश्यकतानुसार उसमें बदलाव आएगा ही । यदि एक
लेखक की सभी लघुकथाएँ ( विषय वस्तु भिन्न होने पर भी) एक ही शैली में लिखी गई हैं
तो वे ऊबाऊ शैली का उदाहरण बन जाएँगी ।
श्रेष्ठ लघुकथा वह है, जो पाठक को बाँध ले। इसके लिए ऐसा कठोर नियम नहीं बनाया जा सकता कि सभी
कथातत्त्व उपस्थित हों। सबकी उपस्थिति में भी लघुकथा घटिया हो सकती है । पात्र
कथावस्तु, भाषा-शैली, उद्देश्य,
वातावरण, संवाद, अन्तर्द्वन्द्व आदि आवश्यक तत्त्व संश्लिष्ट रूप में उपस्थित हो । ठीक
ऐसे ही जैसे चन्द्रमा और चाँदनी-दोनों अलग-अलग होते हुए भी संश्लिष्ट हैं । एक की
अनुपस्थिति / उपस्थिति दूसरे की भी अनुपस्थिति / उपस्थिति बन जाती है ।
किसी विधा का मूल्यांकन उसके पाठक करते हैं ।
काजियों की स्वीकृति न होने पर भी लघुकथा निरन्तर आगे बढ़ती रही है । 'काजी की मारी हलाल' वाली स्थिति लघुकथा के साथ नहीं चलेगी। इस समय लिखने की बाढ़ आ रही है।
बाढ़़ थमेगी तो निर्मल जल ही बचेगा, कूड़ा-कचरा स्वतः हट जाएगा । जीवन का आवेशमय,
सार्थक एवं कथामय लघुक्षण अपनी तमाम लघुकथाओं के बावजूद
इलेक्ट्रानिक ऊर्जा से कम नहीं । व्यंग्य-कहानी, उपन्यास
लेख-किसी भी रचना में हो सकता है अतः लघुकथा के साथ 'व्यंग्य'
विशेषण जोड़ना जँचता नहीं ।
यह अंक लघुकथा पर केन्द्रित है । पत्रिका की अपनी सीमा
है, अत: सभी लेखकों का समावेश सम्भव नहीं । आगामी अंकों के लिए अच्छी लघुकथाएँ भेजी जा सकती हैं ।
3 comments:
लघुकथा के वैशिष्ट्य को रेखांकित करता सुंदर आलेख।आदरणीय काम्बोज जी को बधाई
ज्ञानवर्धक आलेख
इस आलेख में लघुकथा के उन महत्वपूर्ण बिंदुओं पर आपने लिखा है, जो लघुकथा के लेखन को समझने के लिए आवश्यक है. काम्बोज भाई को बधाई.
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