-कृष्ण मनु
बूढ़ा सोमर बड़ी कठिनाई से अपनी झोपड़ी के देहरी तक आ सका। एक मिनट की भी देर होने पर वह रास्ते में ही बेहोश हो सकता था । बाबू साहब के खेतों में कभी दिन-दिन भर काम करने वाले सोमर के जर्जर शरीर में अब चार कदम चलने की भी शक्ति नहीं बची थी ।
आहट पाकर हुक्का गुड़गुड़ाती हुई बुढ़िया बाहर आयी। देहरी पर उसका मरद बैठा हाँफ रहा था। वह उसे सहारा देकर खाट पर सुलाती हुई बिगड़ने लगी-“मैं पहिले ही कहत रह्यो कि इ कलमुँहन के बात पर मत जाओ । भला देखौ तो कैसे बुढ़ऊ को अकेला छोड़ दिहिन नासपीटेन। लै जाए के टैम तो जीप लै आए, खुशामद करत रहे कि चलो बाबा भोट दै दो आऊ भोट पड़तै छोड़ दिहिन। का कहैं, अपना पैसा ही खोट तो परखैया के का दोस। बुढ़ऊ को कितना मना किया, दम्मे के रोगी हौ, कहाँ जात हौ? पै मेरी कौन सुनत है? झट जीप पर जाय बैठे ।”
बूढ़े के पानी माँगने पर बुधनी का प्रलाप रुका। वह टीन के मग में पानी देती हुई बोली-“ ठीक हौ न, ई धूप और गरमी मा परेसान होबे से का फायेदा रहा?”
पानी पीकर बुढ़ा कुछ स्वस्थ हो गया था। बोला- “ चुप ससुरी, तू का जाने फायदा नुकसान की बात?”
इस पर बुढ़िया किलस गई-“ जा जा देख लिन्हि तोरी अकलमंदी । दुसमन के भोट दै के आयी गये । हम पूछत हैं, नरेंदर बबुआ कौन है? वही जमींदार के बिटवा न, जो तोहे आऊ तोहरे बाप को उल्टा टंगवाय के पिटवाया करत रहा । बाँस से बाँसे न फूटी। अब ई खद्दड़ के धोती-कुर्ता पहिन के घूमत है । कल तक तो गुंडई करत फिरत रहा । औ ओ ही के तू वोट दिएवा । तोरे जाए के बाद बेचारा लाल झंडी वाला आया रहा। कहत रहा, वही गरीबन के राज दिलावे वाली पार्टी है। तोसे ओहका भोट देते न बना ।”
अपनी जाति के उम्मीदवार को वोट न देने के कारण बेटे की डांट खा कर सोमर पहले से ही झुंझलाया था, पत्नी को लाल झंडी वाले की तरफदारी करता देख वह आपे से बाहर हो गया- “चुप रह हरामजादी, जबान लड़ाय रही है । तुम लोगन के कहे में रहतेब तो अबकिऊ कुछ हाथ न अउएतै। कुछ नहीं तो कम से कम महीनन से अंधेरी पड़ी झोपड़िया में कुछ दिन ढिबरी तो जली ।” कहते हुए बूढ़े ने टेंट से दस का नोट निकाल कर पोते को दिया- ” ले रे बिदेसिया, मिट्टी का तैल लै आ रे ।”
पिछले चार दिनों से वह इस टापू में पड़ा था। हाँ, इस जगह को वह टापू ही कहेगा। जहाँ के रहवासियों के बोल- चाल, रहन-सहन, बात -विचार उसकी संस्कृति से बिल्कुल भिन्न हो वह उसके लिए टापू ही तो है। वह अजनबी बना फिरता है। न किसी से बात , न उससे कोई बतियाने वाला ।
पौ फटने के पहले वह दूर तक चली गई लम्बी सपाट सड़क पर टहल कर चला आता है। फिर अकेला किताबों में खो जाता है। मन थका तो सो जाता है। सोये नहीं तो क्या करे। पोते पोती स्कूल चले जाते हैं । बहू बेटा अपने – अपने काम पर।
एक दिन सवेरे टहलने के क्रम में अपने सरीखा आदमी दिखा तो खुद को रोक न सका, खड़ा हो गया। उसके हाथ में एक बड़े से डॉग के गले में बंधे पट्टे का डोर था। वह उस डरावने डॉग को अपनी ओर खींचने का प्रयास कर रहा था। एक क्षण लगाया सोचने में कि उसे डरावने कुत्ते के साथ उस आदमी से बात करनी चहिए या नहीं और दूसरे ही पल वह उसके और समीप चला आया । वह उसे सम्बोधित करनेवाला था कि उसकी नजर उसकी तरफ उठ गई । वह भी पारखी निकला। उसकी नजर की मीठास चुगली कर गई । समझ गया कि यह शख्स भी अपने बीचवाला है। उसे कुछ कहने के पहले वह सलीके से नमस्कार कहते हुए बोला-‘शायद आप नये- नये आये हैं, साहब । मैं दो तीन दिनों से आप को देख रहा हूँ । बात करने का मन करता था मेरा लेकिन शायद आप बुरा मान जायेंगे इसलिए टोकटाक नहीं किया ।’
फिर तो उन दोनों के बीच बातचीत का सिलसिला चल निकला ।
बात- बात में उसने बताया कि वह दसवीं तक पढ़ा है। घर पर बेकार बैठा था। उसके चाचा जो यहाँ सेक्युरिटी गार्ड हैं, एकदिन साथ लेते आए और एक धनी परिवार में उनके कुत्ते की देखभाल करने के लिए रखवा दिया। तब से वह यहीं है । परिवार घर पर है। साल में एक बार गाँव जाता है ।
जब उसने उससे पूछा कि क्या वह इस काम से संतुष्ट है? कैसे कह पाता है वह गाँव जेबार में कि वह कुत्ते का देखभाल करता है? उसे शर्म नहीं आती?
उसके जवाब ने तब उसे लाजवाब कर दिया था ।
उसने चेहरे पर निश्छल मुस्कान लाते हुए कहा था- शर्म काहे का साहब, इसमें बुराई क्या है । चाकरी करके पेट तो पालना ही था। धूर्त, बेईमान आदमी की चाकरी से तो बेहतर यह स्वामी भक्त , निरपराध, सीधे-सादे जानवर की चाकरी है। फिर दोहरा लाभ भी तो है। सवेरे का घूमना टहलना भी हो जाता है, स्वास्थ्य बना रहता है और पैसे भी मिल जाते हैं ।
उस रात वह उसकी संतुष्टि और सार्थक बातों के बारे में देर तक सोचता रहा। वह कुत्ते की देखभाल करने वाला लड़का रोना- धोना भी तो कर सकता था कि कम पैसे मिलते हैं, कुत्ते के पीछे भागना पड़ता है, पढ़े-लिखे को यह निकृष्ट काम शोभा नहीं देता पर क्या करूँ , साहब किस्मत में यही लिखा है। आदि आदि। जैसा कि अक्सर लोग कहते हैं ।
सार्थक सोच संतुष्ट जीवन के लिए कितना जरूरी है! एक अदना सा आदमी ने उसे सिखा दिया था ।
वे तीन थे
गाँधी मैदान में किसी बड़े नेता का जोरदार भाषण चल रहा था। उन दिनों चुनाव का मौसम था। आये दिन ऐसे दृश्य दिख जाते थे ।
भाषण समाप्त होते ही तीनों चल दिये ।
रास्ते में एक ने पूछा- ‘‘ देखा, कितनी भीड़ थी। मानो जन सैलाब उतर आया हो ।”
दूसरे ने कहा-‘‘मैं कैसे देख सकता हूँ । मैं अँधा हूँ ।
फिर वह कहने लगा-‘‘ कितना बड़ा वक्ता था। तुमने उस नेता का भाषण सुना। गजब का सम्मोहन था उसकी आवाज में!”
पहले वाले के तरफ से कोई रिएक्शन नहीं पाकर वह थोड़ा नाराज हुआ- ‘‘कुछ बोलता क्यों नहीं? बहरा है क्या?” उसने कान के तरफ इशारा भी किया ।
‘‘हाँ, मैं बहरा हूँ ।”
दोनों ने तीसरे की ओर देखा-‘‘तुम तो न अँधे हो, न बहरे। बताओ हमें , वह बड़ा नेता भाषण में बड़ी-बडी बातें कर रहा था, आश्वासन दे रहा था ।”
तीसरे ने हाथ के इशारे के साथ गले से गों-गों की आवाज निकालते हुए बोलना शुरु ही किया था कि दोनों ने रोक दिया-‘‘रहने दो, रहने दो। तुम तो गूंगे हो ।”
वे चुप हो गए ।
दो दिनों बाद उन्हें वोट देना था । एक ने कहा-‘‘ तुम किसे वोट दोगे?”
दूसरे ने, जो अँधा था, जवाब दिया-‘‘ उसे, जो मुझे रोशनी देगा। और तुम?” उसने हाथ से इशारा किया।
‘‘ मैं उसे वोट दूंगा, जो मुझे सुनने की शक्ति देगा ।”
फिर दोनों ने तीसरे से पूछा-” तुम किसे वोट दोगे?”
‘‘ जो मुझे आवाज देगा ।‘‘ उसने हाथ के इशारे से और गों-गों की आवाज के साथ समझाया।
आगे रास्ता तीन भागों में बंटा था। उनके सामने जाति, धर्म और राष्ट्रवाद के झंडे लहरा रहे थे। वे अपने-अपने रास्ते चल दिये ।
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