1. फ़र्क
-विष्णु प्रभाकर
उस दिन उसके मन में इच्छा हुई कि भारत और पाक के बीच की सीमारेखा को देखा जाए,
जो कभी एक देश था, वह अब दो होकर कैसा लगता है? दो थे तो दोनों एक-दूसरे के प्रति शंकालु थे। दोनों ओर पहरा
था। बीच में कुछ भूमि होती है जिस पर किसी का अधिकार नहीं होता। दोनों उस पर खड़े
हो सकते हैं। वह वहीं खड़ा था, लेकिन अकेला नहीं था-पत्नी थी और थे अठारह सशस्त्र सैनिक और
उनका कमाण्डर भी। दूसरे देश के सैनिकों के सामने वे उसे अकेला कैसे छोड़ सकते थे!
इतना ही नहीं, कमाण्डर
ने उसके कान में कहा, "उधर के सैनिक आपको चाय के लिए बुला सकते हैं,
जाइएगा नहीं। पता नहीं क्या हो जाए?
आपकी पत्नी साथ में है और फिर कल हमने उनके छह तस्कर मार
डाले थे।"
उसने उत्तर दिया,"जी नहीं, मैं उधर कैसे जा सकता हूँ?" और मन ही मन कहा-मुझे आप इतना मूर्ख कैसे समझते हैं?
मैं इंसान, अपने-पराए में भेद करना मैं जानता हूँ। इतना विवेक मुझ में
है।
वह यह सब सोच रहा था कि सचमुच उधर के सैनिक वहाँ आ पहुँचे। रौबीले पठान थे।
बड़े तपाक से हाथ मिलाया।
उस दिन ईद थी। उसने उन्हें 'मुबारकबाद' कहा। बड़ी गरमजोशी के साथ एक बार फिर हाथ मिलाकर वे बोल--
"इधर तशरीफ लाइए। हम लोगों के साथ एक प्याला चाय पीजिए।"
इसका उत्तर उसके पास तैयार था। अत्यन्त विनम्रता से मुस्कराकर उसने कहा.. "बहुत-बहुत
शुक्रिया। बड़ी खुशी होती आपके साथ बैठकर, लेकिन मुझे आज ही वापस लौटना है और वक्त बहुत कम है। आज तो
माफ़ी चाहता हूँ।"
इसी प्रकार शिष्टाचार की कुछ बातें हुई कि पाकिस्तान की ओर से कुलांचें भरता
हुआ बकरियों का एक दल, उनके पास से गुज़रा और भारत की सीमा में दाखिल हो गया।
एक-साथ सबने उनकी ओर देखा। एक क्षण बाद उसने पूछा.. "ये आपकी हैं?"
उनमें से एक सैनिक ने गहरी मुस्कराहट के साथ उत्तर दिया-- "जी हाँ,
जनाब! हमारी हैं। जानवर हैं, फर्क करना नहीं जानते।"
2. पानी
बी.ए. की परीक्षा देने वह लाहौर गया था। उन दिनों स्वास्थ्य बहुत ख़राब था।
सोचा,
प्रसिद्ध डा. विश्वनाथ से मिलता चलूँ। कृष्णनगर से वे बहुत
दूर रहे थे। सितम्बर का महीना था और मलेरिया उन दिनों यौवन पर था। वह भी उसके
मोहचक्र में फँस गया। जिस दिन डा. विश्वनाथ से मिलना था,
ज्वर काफी तेज़ था। स्वभाव के अनुसार वह पैदल ही चल पड़ा,
लेकिन मार्ग में तबीयत इतनी बिगड़ी कि चलना दूभर हो गया।
प्यास के कारण, प्राण
कंठ को आने लगे। आसपास देखा, मुसलमानों की बस्ती थी। कुछ दूर और चला,
परन्तु अब आगे बढ़ने का अर्थ ख़तरनाक हो सकता था। साहस करके
वह एक छोटी-सी दुकान में घुस गया। गाँधी टोपी और धोती पहने हुए था।
दुकान के मुसलमान मालिक ने उसकी ओर देखा और तल्खी से पूछा-- "क्या बात है?"
जवाब देने से पहले वह बेंच पर लेट गया। बोला.. "मुझे बुखार चढ़ा है। बड़े
ज़ोर की प्यास लग रही है। पानी या सोडा, जो कुछ भी हो, जल्दी लाओ!"
मुस्लिम युवक ने उसे तल्खी से जवाब दिया-- "हम मुसलमान हैं।"
वह चिनचिनाकर बोल उठा.. "तो मैं क्या करूँ?"
वह मुस्लिम युवक चौंका। बोला-- "क्या तुम हिन्दू नहीं हो?
हमारे हाथ का पानी पी सकोगे?"
उसने उत्तर दिया-- "हिन्दू के भाई, मेरी जान निकल रही है और तुम जात की बात करते हो। जो कुछ हो,
लाओ!"
युवक ने फिर एक बार उसकी ओर देखा और अन्दर जाकर सोडे की एक बोतल ले आया। वह
पागलों की तरह उस पर झपटा और पीने लगा।
लेकिन इससे पहले कि पूरी बोतल पी सकता, उसे उल्टी हो गई और छोटी-सी दुकान गन्दगी से भर गई,
लेकिन
उस युवक का बर्ताव अब एकदम बदल गया था। उसने उसका मुँह पोंछा,
सहारा दिया और बोला.. "कोई डर नहीं। अब तबीयत कुछ
हल्की हो जाएगी। दो-चार मिनट इसी तरह लेटे रहो। मैं शिंकजी बना लाता हूँ।"
उसका मन शांत हो चुका था और वह सोच रहा था कि यह पानी, जो वह पी चुका है, क्या सचमुच मुसलमान पानी था?
No comments:
Post a Comment