महेश शर्मा
दीवाली की
सफाई धूम-
धाम से चल रही थी। बेटा-बहू, पोता-पोती,
सब पूरे मनोयोग से लगे हुए थे।
वे सुबह से ही छत पर चले आये थे। सफाई
में एक पुराना फोटो एल्बम हाथ लग गया था, सो
कुनकुनी धूप में बैठे, पुरानी यादों को ताज़ा कर रहे थे।
ज़्यादातर तस्वीरें उनकी जवानी के दिनों
की थीं,
जिसमें वे अपनी दिवंगत पत्नी के साथ थे। तकरीबन हर तस्वीर में
पत्नी किसी बुत की तरह थी, तो वे मुस्कुराते हुए, बल्कि ठहाका लगाते हुए कैमरा फेस कर रहे थे। उन्हें सदा से ही खासा शौक
था तस्वीरें खिंचवाने का। वे पत्नी को अक्सर डपटते “ फ़ोटो
खिंचवाते समय मुस्कुराया करो। हमेशा सन्न सी खड़ी रह जाती हो- भौंचक्की सी !!!”
– चाय की तलब चलते, जब वे नीचे उतर कर आये तो देखा, घर का सारा
पुराना सामान इकट्ठा करके अहाते में करीने से जमा कर दिया गया है, और पोता अपने फ़ोन कैमरा से उसकी तस्वीरें ले रहा है।
– यह उनके लिए नई बात थी। पता चला
कि, आजकल पुराने सामान को ऑनलाइन बेचने का चलन है।
वे बेहद दिलचस्पी से इस फोटोसेशन को देख
रहे थे कि, एकाएक उनके शरीर में एक सिहरन सी
उठी- और ठीक उसी वक़्त, पोते ने शरारत से मुस्कुराते हुए,
कैमरा उनकी तरफ करके क्लिक कर दिया – “ग्रैंडपा, स्माइल!!!”
– कैमरा की फ्लेश तेज़ी से उनकी तरफ लपकी,
– और वे पहली बार तस्वीर खिंचवाते हुए सन्न से खड़े रह गए।
कुछ दिनों से सोशल नेटवर्क पर न ज्यादा लाइक
मिल रहे थे, न कमेंट्स। हर पोस्ट औंधे मुहँ
गिर रही थी। सो, आज छुट्टी के दिन ब्रह्मास्त्र चलाया और
स्टेटस अपडेट किया – “डाउन विद हाई फीवर!!”
पहले नाश्ता,
फिर किराये के इस वन रूम सेट की सफाई, कुछ
कपड़ों की धुलाई, उसके बाद लंच तैयार किया और फिर जम कर
स्नान।
इस बीच, लाइक्स और कमैंट्स की रिसिविंग टोन बार-बार बजती रही। तीर निशाने पर लग
चुका था।
– लंच के बाद, अपना फोन लेकर वो इत्मीनान से बिस्तर में लेट गया।
-“गेट वेल सून”, -”ओ बेबी ख्याल रखो अपना”, – “अबे क्या हो गया
कमीने”- वगैरह-वगैरह-!!
– एक-एक कमेंट को सौ-सौ बार पढ़ते,
गिनते और इस बीच टीवी देखते-देखते कब आँख लग गई, पता ही नहीं चला।
– चौंककर उठा तो देखा कि शाम गहरा
गयी है, और कोई दरवाज़ा खटखटा रहा है।
-“ जी, कहिए?”
उसने उलझन भरे स्वर में पूछा।
-“न.. नहीं, कुछ
खास नहीं ” दरवाज़े पर खड़े उस अधेड़ उम्र के शख्स ने कहा, “वो
तुम आज सुबह से बाहर नहीं निकले, तो सोचा पूछ लूँ! – मैं
सामने वाले वन रूम सेट में ही तो रहता हूँ...”
माँ सुबह बाबूजी को टोकती है – “ये दूसरी
चाय है,
अब और नहीं मिलेगी। अखबार चाटना बंद करो और गुड्डू को स्टैंड तक
छोड़ कर आओ। उसकी स्कूल बस आती ही होगी।”
– फिर ऑफिस के लिए तैयार हो रहे
बेटे के सामने से अस्फुट स्वर में बड़बड़ाती हुई निकल जाती है – “रिटायर होने का ये
मतलब तो नहीं कि हाथ पैर हिलाना ही बंद कर दो, और हमसे
तीमारदारी करवाओ!”
– बाबूजी, गुड्डू
को लेकर जाने लगते हैं तो माँ तेज़ आवाज़ में फिर टोकती है, “लौटते में कोई अच्छी -सी दवाई लेते आना, रात
से बहू के सिर में दर्द है…खाली हाथ हिलाते मत चले आना।”
– दोपहर के भोजन में कुर्सी पर ऊँघ
रहे बाबूजी पर माँ झुंझलाती है, “इस कुर्सी पर रहम करो,
खाना खाकर सीधे चारपाई ही तोड़ना…थोड़ा सब्र कर लो..रोटियाँ सेक कर
ला रही हूँ..” – फिर , बिस्तर पर लेटी बहू के सामने से
उसी तरह बड़बड़ाती हुई निकल जाती है, “तंग आ गई हूँ…पेट है
या कोठार? अभी दो घंटे पहले ही तो डटकर नाश्ता किया है।”
– शाम की चाय के साथ पकोड़ों की
बाबूजी की फरमाइश को माँ, पूरी निर्ममता से खारिज कर देती
है,”तुम्हें बुढौती में स्वाद सूझ रहे हैं!”
– और जब बाबूजी खाली चाय पीकर टहलने
निकलते हैं , तो
फिर वही टोक, “ये झोला ले जाओ। लौटते में
सब्जियाँ लेते आना… खाली
हाथ हिलाते...”
– रात के भोजन के बाद, टीवी से मन बहला रहे बाबूजी, माँ द्वारा फिर
से टोके जाते हैं, “क्यों ये सब फालतू की चीजें देख कर
अपना भेजा पचाते हो? इससे तो अच्छा है, गुड्डू को होमवर्क ही करवा दो।”
– फिर जब बाबूजी, दोनों हाथ अपने सीने पर रखे गहरी नींद में सोए होते हैं, तो माँ उन्हें एकटक देखती रहती है…फिर टोकने के से अंदाज़ में उनके हाथ
सीने से हटाती है कि – “ऐसे मत सोया करो- डरावने सपने आते हैं…”
…फिर आँखें मूंदकर अस्फुट स्वर में बुदबुदाती है,” ईश्वर करे, तुम्हारे जीवन में कभी ऐसा पल न
आए कि बेटा -बहू तुम्हें किसी भी बात के लिए टोक दें… मुझसे सहा नहीं जाएगा।
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