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Apr 16, 2018

उदंती.com अप्रैल 2018

उदंती.com - अप्रैल- 2018

हमें वह सब करना चाहिए जो हम कर सकते हैं, लेकिन उन चीजों के लिए पछताना नहीं चाहिए जो हमारे वश में नहीं है।
- स्टीफन हॉकिंग

शिक्षा व्यवस्था पर विशेष

शिक्षा को दिशाहीनता से बचाना ज़रूरी

शिक्षा को दिशाहीनता से बचाना ज़रूरी
   -डॉ.रत्ना वर्मा
 वर्तमान शिक्षा प्रणाली को लेकर इन दिनों बहस चल रही है कि बच्चों के व्यक्तित्व विकास में यह  कितनी  सहायक हैं या क्या इसे बदले जाने की आवश्यकता है? वास्तव में देखा जाए तो हमारी वर्तमान शिक्षा प्रणाली युवाओं को डॉक्टर, इन्जीनियर, मैनेजर और उद्योगपति तो बना रही हैं, पर एक सामाजिक मानव बनाने की दिशा में सहायक नहीं हो पा रही है।
वहीं दूसरी ओर यह भी देखा जा रहा है कि शासकीय स्कूलों में प्राथमिक स्तर पर जिस तरह शिक्षा व्यवस्था लागू है, वह  भी एक बच्चे को बेहतर इंसान बनाने में अपनी भूमिका नहीं निभा पा रही है। सिर्फ अपनी सरकारी योजनाओं को फलीभूत करने के लिए यह व्यवस्था कर देना कि आठवी कक्षा तक कोई भी बच्चा फेल ही नहीं होगा सभी बच्चों के साथ खिलवाड़ है। हमारे देश में वैसे भी निम्न वर्ग के परिवारों में उनके माता- पिता अपने बच्चों को स्कूल भेजने की जगह काम पर भेजना ज्यादा जरूरी समझते हैं। लड़कों से मज़दूरी करवाते हैं, ताकि वह दो पैसे घर पर ला सके और लड़कियों को घर पर अपने छोटे भाई- बहन की देखभाल के लिए या खाना पकाने के लिए छोड़ देते हैं। और तो और हमारी वर्तमान शिक्षा व्यवस्था के चलते ऐसे बच्चे आठवीं  सर्टिफिकेट बिना स्कूल गए और परीक्षा में जीरो नम्बर मिलने पर  भी प्राप्त कर लेते हैं।
सबसे ज्यादा चिंताजनक पहलू, जिसे हम सीधे- सीधे शिक्षा व्यवस्था से ही जोड़कर देख सकते हैं, वह है वह है इन दिनों लगातार बच्चियों के साथ हो रहे बलात्कार के मामले। यह अमानवीय कृत्य मनुष्य तभी करता है ,जब उसके भीतर दानव बसा होता है। यदि बच्चे का पालन- पोषण और शिक्षा बेहतर तरीके से हो तो उसका ज़मीर ऐसे घिनौने कृत्य के लिए तैयार ही नहीं होगा। कुछ विश्लेषक यह कहते हैं कि इस तरह की घटनाएँ पहले भी होती थीं, पर बदनामी के डरसे ऐसे मामलों को छुपा लिया करते थे। अब क्योंकि जतगरूकता आ गई है, तो लोग आवाज उठाने लगे हैं। सवाल यही है कि यदि जागरूकता आ गई है, तो बलात्कार करने वाले जागरूक क्यों नहीं हो रहे हैं, क्या जागरूकता सिर्फ पीडि़त पक्ष में आई है, ऐसा कुकृत्य करने वाला क्या किसी अन्य दुनिया का मानव है?
यह भी सत्य है कि किसी भी बच्चे की प्रथम पाठशाला परिवार ही है। माता-पिता ही बच्चों के प्रथम शिक्षक होते हैं, जीवन का पहला पाठ बच्चा घर में ही सीखता है; लेकिन स्कूल में जाकर वह दुनिया को जानता है, समझता है, तभी वह सच्चे अर्थो में पूर्ण मानव बनता है। यहीं पर आकर शिक्षक का दायित्व महत्वपूर्ण हो जाता है। एक बच्चे के लिए शिक्षक उसका आदर्श होता है। किसी भी छोटे बच्चे के मन में यह विश्वास दृढ़ रहता है कि उनका शिक्षक जो बोलता है, वह गलत हो ही नहीं सकता। यही वजह है कि जब बच्चा स्कूल जाने लगता है, तो माता-पिता के बाद बच्चा यदि किसी और की बात मानता है, तो वह है शिक्षक। परंतु क्या अब हम ऐसे आदर्श शिक्षकों के उदाहरण दे सकते हैं? अब तो गुरु और शिक्षक का नाता भी व्यावसायिक हो गया है। जितना पैसा, उतना ज्ञान।
आजकल बच्चों पर एक दबाव होता है कुछ कर दिखाने का। माता-पिता पहले से ही सोचकर चलते हैं कि उनका बच्चा डॉक्टर बनेगा या इंजीनियर। उच्च शिक्षा प्राप्त कर विदेश जाएगा या किसी बड़ी कम्पनी में खूब पैसा कमाएगा। कुल मिलाकर बच्चा न हुआ पैसे कमाने की मशीन हो गया। सीखने की स्वाभाविक प्रक्रिया, तो इस व्यावसायिकता के चलते कहीं गुम हो गई है। इसी तरह हमारे पाठ्यक्रम में भी कई कमियाँ हैं। जब चाहे तब शिक्षा के रखवाले उसमें बदलाव करते रहते हैं। आदर्श प्रस्तुत करने वाले पाठों को सिर्फ इसलिए हटा दिया जाता है कि ये सब बातें पुरानी हो गई हैं। आज का बच्चा सुभाषचंद्र बोस, लाल बहादुर शास्त्री, भगत सिंह जैसे महापुरुषों के बारे में जान ही नहीं पाता, क्योंकि हमारे देश के लिए आदर्श प्रस्तुत करने वाले लाखों मनीषियों की जानकारी धीरे- धीरे पाठ्यपुस्तकों से हटाई जा रही हैं। ऐसे में होगा यह कि एक दिन ऐसा आएगा कि हम अपने इतिहास को भूल जाएँगे और रोबोट की तरह भावनारहित होकर पैसा कमाने की मशीन बनकर रह जाएँगे।
हमारी शिक्षा व्यवस्था में ढेर सारी कमियों के कारण ही शायद इन दिनों होम स्कूल का प्रचलन बढ़ा है।  जहाँ माता-पिता ही उनके शिक्षक होते हैं। कुछ संस्थाओं ने भी बगैर स्कूल, बगैर शिक्षक, बगैर परीक्षा के शिक्षा का ऐसा रास्ता अपनाया है, जहाँ बच्चे शिक्षा तो प्राप्त करते हैं पर बिना किसी तनाव और दबाव के। अपनी मर्जी से विषय चुनते हैं, प्रकृति के बीच रहकर सीखते हैं और आगे जाकर अपनी काबिलियत साबित करते हैं।
इन सब बातों का सार यही है कि एक बार गंभीरता से आज की शिक्षा व्यवस्था पर विचार करने की आवश्यकता है। अन्यथा हम अपनी संस्कृति, अपने आदर्श, अपने स्वाभिमान को खो देंगे। हमारी भारतीय परम्परा के आदर्शों को सुरक्षित रखना है तो शिक्षा व्यवस्था में सुधार करना ही होगा।
देश के शिक्षा नीतिकारों को समझना होगा कि शिक्षा राजनीति करने का विषय नहीं है, शिक्षा हमारे समाज की जीवन रेखा है। शिक्षा की उपेक्षा का मतलब होगा , परिवार, समाज और राष्ट्र को खोखला करना। अनैतिक रूप से धन कमाना घृणा फैलाकर सामाजिक समरसता को निरंतर नष्ट करना,धर्मं,राजनीति और समाज से  जुड़ें लोगों का  निरंतर चारित्रिक पतन दिशाहीन शिक्षा की ही दे है। शिक्षा मूल है। मूल को सींचे बिना मज़बूत समाज रूपी तरु की कल्पना करना बेमानी  ही है; अतः समय रहते शिक्षा को दिशाहीनता से बचाना ज़रूरी है।

मूल्यांकन पद्धति पर उठते सवाल?

मूल्यांकन पद्धति पर उठते सवाल?
-स्वराज सिंह
सभी साक्षर बनेंगे तभी समाज की उन्नति होगी और देश आगे बढ़ेगा। निरक्षरता पग-पग पर व्यक्ति को अहसास कराती है कि यदि हम भी पढ़ लिए होते तो अच्छा होता। निरक्षर व्यक्ति बैंक में पैसा जमा करने जाए या निकालने या किसी कार्यालय में, वह सहायता के लिए दूसरों का मुँह ताकता है। अपनी निरक्षरता के कारण उसे पग-पग पर हानि उठानी पड़ती है।
 6 से 14 साल बच्चों को साक्षर बनाना, साक्षरता अभियान का लक्ष्य है। यह सरकार और शिक्षकों के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती है। विद्यालय से छात्रों का पलायन आज भी नहीं रुक रहा है। अभी कुछ दिन पहले नेशनल अचीवमेंटसर्वे(NAS)  की रिपोर्ट आई है। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि दिल्ली में दिल्ली नगर निगम और दिल्ली सरकार के स्कूलों में अभी भी ऐसे अनेक छात्र हैं, जो पढऩा-लिखना भी नहीं सीख पाए। इसके पीछे के कारणों की गंभीरता से खोज करने की आवश्यकता है। सरकार सभी छात्रों को साक्षर बनाने के लिए एक लक्ष्य निर्धारित करती है ,परंतु इस लक्ष्य को प्राप्त करने में सबसे बड़ी समस्या आती है, छात्रों का स्कूल ही न आना। आज तक कोई भी प्रलोभन छात्रों को स्कूल तक लाने में पूरी तरह कारगर सिद्ध नहीं हुआ। सरकार अथक प्रयास करती है कि सभी बच्चें पढ़े। दिल्ली सरकार इस बार गर्मियों की छुटटियों में मिशन बुनियाद कार्यक्रम चला रही है। इस कार्यक्रम के लिए पाठ्यक्रम निर्धारित किया गया। शिक्षा विभाग का लक्ष्य है कि छठी से आठवीं तक का हर बच्चा अपनी कक्षा के स्तर तक का पढऩा-लिखना सीख जाए। परंतु यहाँ भी विद्यालय प्रमुख और अध्यापकों के लाख बार बुलाने के बाद भी छात्रों के विद्यालय न आने की समस्या आने वाली है। गर्मियों के अवकाश में अनेक अभिभावक अपने बच्चों के साथ अपने गाँव लौट जाते हैं और वे जाने से पहले पूछना भी जरूरी नहीं समझते। अभिभावकों का सहयोग नहीं मिलने के कारण इच्छित लक्ष्य प्राप्त नहीं हो पाता।
प्राथमिक स्तर की शिक्षा पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। प्राथमिक और माध्यमिक स्तर कई वर्षों  से NDP( No Detention Policy) चल रही है। आठवीं तक कोई छात्र फेल नहीं हो सकता, इसलिए छात्रों ने पढऩा-लिखना बिलकुल छोड़ दिया। आठवीं तक तो छात्र स्कूल में नाम लिखवाकर वर्ष भर स्कूल न भी आए, तो भी वह पास हो जाता है। बस उस छात्र को एक दिन आकर उत्तर पुस्तिका पर केवल रोल नम्बर लिखने की ज़रूरत है। परीक्षक द्वारा उसकी उत्तर पुस्तिका पर शून्य अंक दे देने पर भी वह अगली कक्षा में चला जाएगा। आठवीं तक के छात्रों के माता-पिता चाहें तो भी उसे फेल नहीं कर सकते। छात्रों में पढऩे की आदत बिल्कुल भी नहीं रही या ये कहे कि आदत पड़ी ही नहीं। पढऩे की उम्र में जिसने नहीं पढ़ा वह आगे चलकर क्या पढ़ेगा? 14 वर्ष तक का छात्र पढऩे- लिखने में अच्छी तरह पारंगत हो जाना चाहिए परंतु NDPपॉलिसी ने छात्रों की नींव को पूरी तरह खोखला बना दिया। नौंवी कक्षा में वह कमज़ोर नींव के साथ आता है। कमज़ोर नींव पर भला मज़बूत भवन कैसे बन सकता है। पिछले दो तीन वर्षोँसे 9वीं कक्षा की SA (संकलित मूल्यांकन) में 25प्रतिशत अंक लाना अनिवार्य कर दिया। छात्रों की पढऩे की आदत  है नहीं; अतरू  मैं जिस विद्यालय की बात कर रहा हूँ ,वहाँ 9वीं में 300 में से केवल 78 छात्र ही SA परीक्षा में 25प्रतिशत अंक ले पाए। बाकी बच्चे फेल हो गए।
हमारी शिक्षा व्यवस्था में अनेक खामियाँ आ चुकी हैं। यदि शिक्षा व्यवस्था में खामियों की सही जानकारी चाहिए तो शिक्षकों से अवश्य बात करनी चाहिए। शिक्षकों से ही क्यों; बल्कि विद्यालय के छोटे-बड़े हर कर्मचारी से। हर व्यक्ति कोई न कोई गहरी बात बताता है और अच्छा सुझाव भी देता है। परंतु विडम्बना यह है कि पॉलिसी ऐसे लोग बनाते है, जो स्कूली शिक्षा से जुड़े हुए नहीं होते। शिक्षक छात्रों का हित चाहते है। वे चाहते है कि सभी छात्र पढ़े ,परंतु जब छात्र स्कूल ही न आएँ, किताब कॉपी न लाएँ तो अध्यापक किसे और कैसे पढ़ाएँ? अभिभावक बुलाने से भी बच्चे के बारे में बात करने स्कूल नहीं आते। उनकी भी अपनी मजबूरी है, उन्हें अपनी दैनिक दिहाड़ी छोड़कर आना पड़ता है।
आज का अध्यापक औपचारिकताओं के बंधन में पूरी तरह जकड़ा हुआ है। अध्यापक को अध्यापक कम, काम करने की मशीन ज्यादा समझा जाता है। अध्यापक और छात्र के बीच के संबंध न जाने कहाँ खो गए हैं। भावात्मक संबंधों का ह्रास हो रहा है।
हमारी शिक्षा व्यवस्था की परीक्षा प्रणाली परीक्षार्थी का सही मूल्यांकन करने में असमर्थ है। इस वर्ष सीबीएससी बोर्ड ने इस प्रणाली में सुधार की कोशिश की तो इस परीक्षा- प्रणाली की विद्रूपता सामने आया। मैं खुद मुख्य परीक्षक के रूप में मूल्यांकन स्थल पर था। सीबीएससी के निर्देशानुसार एक ही आंसर सीट को फोटो कॉपी कराकर सभी परीक्षकों से मूल्यांकन कराया गया। एक ही छात्र की आंसर सीट पर भिन्न- भिन्न परीक्षकों ने भिन्न-भिन्न अंक दिए। अंकों का अंतर हैरान कर देने वाला था। एक परीक्षक ने 46 अंक दिए ,जो सबसे कम थे और दूसरे परीक्षक ने उसी आंसर सीट पर 73 अंक दिए जो सर्वाधिक थे। ऐसी मूल्यांकन पद्धति छात्रों के साथ भला कहाँ न्याय कर सकती है। मूल्यांकन पद्धति को न्यायकारी बनाने के लिए अब और कदम भी उठाने की आवश्यकता है।
वर्तमान समय में जो शिक्षा व्यवस्था है, उससे लाख बेहतर हमारी पहले की शिक्षा व्यस्था थी। हमने आधुनिक बनने के चक्कर में पुराने को छोड़ दिया और नए को ढंग से अपना नहीं पाए। हमारी स्थिति वही हो गई,धोबी का कुत्ता घर का न घाट का। अब आवश्यकता है निरन्तर खोखली होती शिक्षा की जड़ को नष्ट होने से बचाया जाए। अपने देश की परिस्थिति एवं परिवेश के अनुरूप ही शिक्षा-नीति निर्धारित की जाए। छात्रों की उपस्थिति सुनिश्चित की जाए। स्कूल में 20 प्रतिशत उपस्थिति वाला छात्र 70 प्रतिशत अंक कैसे लाएगा? उसके खराब परीक्षा-परिणाम के लिए किसी शिक्षक को कैसे उत्तरदायी ठहराया जाएगा? अभिभावक की सक्रिय भागीदारी ज़रूरी है। बोर्ड अपना परीक्षा-परिणाम सुधारने के लिए क्या रचनात्मक काम कर रहा है, उस पर भी नज़र रखना ज़रूरी है। हमारी पूरी पीढ़ी के भविष्य का सवाल है। अगर आज हम इस पर ध्यान नहीं देंगे तो कल पछताने के लिए समय नहीं मिलेगा। कमोबेश यही स्थिति पूरे देश में मिलेगी। हमें जाग जाना चाहिए, अन्यथा फिर वही होगा-सब कुछ लुटाकर होश में आए तो क्या किया?
सम्पर्क: 61, दिल्ली सरकार आवासीय परिसर,सैक्टर-11 रोहिणी दिल्ली 110085

बहस

बेहतर शिक्षा स्कूल में नहीं 
जीवन की शाला में
 - डॉ महेश परिमल
एक बार एक व्यक्ति अपनी पाँच वर्षीय पुत्री के साथ एक दोस्त की बनाई फिल्म देख रहे थे। स्क्रीन पर जब मनीष आए, तो उनकी बिटिया ने कहा कि ये तो मेरा दोस्त है। दूसरे ही क्षण स्क्रीन पर जब एक लड़की आई, तो वह रो रही थी। अरे! ये तो मेरी फ्रेंड है। उसके पापा ने पूछा-कैसे? तो उसका कहना था कि वह बहुत दु:खी है, मैं उसका हाथ पकड़कर कहूँगी कि दु:खी होने की आवश्यकता नहीं है। सोचो, क्या इस तरह की शिक्षा किसी स्कूल में बच्चों को मिल सकती है?
क्या बच्चों को बिना शाला भेजे उन्हें पूरी तरह से शिक्षित किया जा सकता है? कुछ समय पहले तक इस प्रश्न का उत्तर शायद ठीक से बता न पाते हों, पर आज यह सच साबित हो रहा है कि बच्चों को स्कूल भेजे बिना ही न केवल शिक्षित बनाया जा सकता है, बल्कि उन्हें सारी विद्याओं में पारंगत भी किया जा सकता है। इसे साकार करने के लिए बेंगलोर, मसूरी, लखनऊ और उदयपुर में बिलकुल गुरुकुल की तरह बच्चों को शिक्षित किया जा रहा है। यहाँ से निकलने वाले बच्चे न केवल मेधावी होते हैं, बल्कि दुनियादारी को पूरी तरह से समझने वाले होते हैं।
आज की शिक्षा को लेकर एक बार फिर बहस छिड़ गई है। मुद्दा यह है कि क्या आज शालाओं में दी जा रही शिक्षा क्या बच्चों के लिए उपयोगी है? आखिर शाला जाकर बच्चे सीखते क्या हैं? क्या आज की शिक्षा उन्हें एक ही दिशा में सोचने वाली मशीन के रूप में तो तब्दील नहीं कर रही है। आज की शिक्षा बच्चों की नैसर्गिक शक्तिओं को कुचलने का प्रयास कर रही है। इसके अलावा वे शालाओं में किसी कला में तो पारंगत नहीं हो पाते। तो फिर क्या मतलब है इस शिक्षा का? इस दिशा में किसी नए विचार को स्वीकार करने के लिए नई पीढ़ी क्यों आगे नहीं आ रही है। आखिर क्या बात है कि लोग मौलिक रूप से विचार करने की शक्ति क्यों गुमाने लगे हैं?
हार्वर्ड बिजनेस स्कूल में पढ़े-लिखे मैनेजमेंट कंसल्टेंट और इन दिनों बेंगलोर में रहने वाले क्रिश मुरली ईश्वर को एक दिन विचार आया कि हमें नौकरी करने के बजाय किसी मौलिक प्रोजेक्ट पर काम करना चाहिए। इस प्रोजेक्ट पर काम करने के लिए उसने अपने बीस वर्ष के केरियर छोड़ दिया। उन्होंने अनेक शिक्षित लोगों को अपने साथ जोडऩे की कोशिश की। कुछ उनसे जुड़े भी, पर कुछ समय बाद उन्हें खयाल आया कि इन लोगों में काम करने का उत्साह नहीं है। वे सभी परंपरावादी निकले, कुछ नया करने का माद्दा उनमें नहीं था। उन्हें विचार आया कि लोग अपनी मौलिक शक्ति आखिर कहाँ गुमा रहे हैं। इसके लिए उन्होंने शालाओं में जाकर वहाँ की शिक्षण पध्दाति का बारीकी से निरीक्षण किया। तब उन्हें महसूस किया कि इन बच्चों की नैसर्गिक शक्ति को कुचल डाला गया है, इसके अलावा इन्हें कोई कला तो सिखाई ही नहीं जा रही है।
क्रिश ने पाया कि नर्सरी में पढऩे वाले बच्चे खूब सवाल करते हैं, पर बाद भी सवाल करने की उनकी यह शक्ति क्षीण हो जाती है। इसके पीछे उन्होंने यही पाया कि हम आज भी मैकाले की शिक्षा पध्दति को पूरी मूर्खता के साथ अपनाए हुए हैं। तभी क्रिश ने फैसला लिया, उन्होंने पत्नी से विचार-विमर्श कर अपने तीनों बच्चों को स्कूल से निकालकर घर पर ही पढ़ाने का निश्चय किया। अब वे बेंगलोर छोड़कर कोयंबटूर के एक छोटे से गाँव में जाकर रह रहे हैं। इससे वे अपने बच्चों को यह बताना चाहते हैं कि गाँव का जीवन कैसा होता है, इसे बच्चे अच्छी तरह से समझ सकें। अब वे अपने बच्चों को स्कूल की पढ़ाई के अलावा बागवानी, खेती, रसोई, साफ-सफाई आदि काम सीखा रहे हैं। उन्होंने तय किया है कि अब गाँव में रहने के लिए जो घर बनाया जाएगा, उसे वे स्वयं ही बच्चों के साथ मिलकर बनाएँगे। इस तरह की पढ़ाई में बच्चों को इतना अधिक मजा आ रहा है कि उन्होंने टीवी देखना ही छोड़ दिया है।
हमारे बीच बहुत से ऐसे लोग हैं, जो यह तो सोचते हैं कि स्कूलों में पढ़ाई के नाम पर जो कुछ भी हो रहा है, उसे पढ़ाई तो कतई नहीं कहा जा सकता। लेकिन वे केवल सोचकर ही रह जाते हैं। दूसरी ओर कुछ ऐसे लोग भी है, जो अपने बच्चों को स्कूल से निकालकर घर पर पढ़ा रहे हैं। अब वैकल्पिक रूप से ऐसे बहुत से स्कूल खुल रहे हैं, जहाँ सामान्य स्कूलों की तरह पढ़ाई न कराकर घर के माहौल के अनुसार पढ़ाई करवाई जा रही है। बेंगलोर के पास सेंटर फॉरलर्निंग एक ऐसी ही संस्था है। इस संस्था में क्रिश की योजना की तरह से बच्चों को शिक्षित किया जाता है। पूरे 40 किलोमीटर के क्षेत्र में फैली विशाल वन-संपदा के बीच स्कूलों की पढ़ाई के अलावा, शारीरिक शिक्षा, संगीत, नृत्य, बागवानी, अध्यात्म आदि विषयों की जानकारी दी जा रही है।
सेंटर फॉर लर्निंग में दसवी कक्षा तक किसी प्रकार की परीक्षा नहीं ली जाती। यहाँ के विद्यार्थी दसवीं के बाद सीधे केम्ब्रिज बोर्ड की आइजीसीएसई परीक्षा देते हैं। इसके बाद 12 वीं में सीधे आईबी डिप्लोमा की परीक्षा देते हैं। ऐसी बात नहीं है कि यहाँ विद्यार्थियों का मूल्यांकन होता ही नहीं। मूल्यांकन एक सतत चलने वाली प्रक्रिया है। यहाँ रहकर विद्यार्थी अपने तरीके से नई-नई चीजों को सीखते हैं। यहाँ किसी सवाल का जवाब रेडीमेड तरीके से नहीं दिया जाता, बल्कि विद्यार्थी स्वयं अपने तरीके से सवाल का जवाब खोजते हैं।
आईआईटी में ग्रेज्युएट होने के बाद पवन गुप्ता नाम के इंजीनियर ने दो दशक पहले हिल स्टेशन मसूरी के पास सिद्ध नामक संस्था की स्थापना की। श्री गुप्ता ने जब इस क्षेत्र का सर्वेक्षण किया, तब उन्होंने पाया कि यहाँ के लोग अपने बच्चों को ईमानदारी से स्कूल तो भेजते हैं, पर उसका अपेक्षाकृत परिणाम सामने नहीं आता। इन स्कूलों से पढ़ने वाले विद्यार्थियों को नौकरी नहीं मिलती। पुश्तैनी व्यवसाय खेती को वे अपनाना नहीं चाहते। उनकी पुष्टि में खेती करना ओछा काम है। इन अनुभवों के आधार पर पवन गुप्ता ने सोसायटीफॉरइंटिग्रेटेडडेवलपमेंट ऑफ हिमालय नामक संस्था की स्थापना की। इसे ही लोग सिद्ध के नाम से जानते हैं। इस संस्था में सबसे पहले तो बच्चों ने जो कुछ खोटी या बेकार की शिक्षा प्राप्त की है, उसे भूल जाने को कहा जाता है। इसके लिए उन्हें भारी मशक्कत भी करनी पड़ती है। यहाँ परीक्षा से अधिक महत्त्व पढ़ाई को दिया जाता है। साथ ही रट्टू तोता बनाने की अपेक्षा समझ को बढ़ाने पर जोर दिया जाता है।
यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया से इंजीनियरिंग में डॉक्टरेट की डिग्री प्राप्त करने वाले संदीप पांडे लखनऊ में आशा आश्रम के नाम से एक संस्था चलाते हैं।
 उनका मानना है कि आज की शिक्षा बहुत ही कम विद्यार्थियों को आगे बढऩे के लिए प्रेरित करती है। हमारे देश में फैक्टरी की तरह शिक्षा दी जा रही है। इसमें सभी विद्यार्थियों की जरूरतों को पूरा करने में यह शिक्षा विफल साबित होती है। इस कारण इसमें सर्वांगीण पद्धति की आवश्यकता है। आशा आश्रम में तीन घंटे तक नियमित पढ़ाई के बाद ईंट भट्टे पर काम करने वाले बच्चों के लिए विशेष रूप से पढ़ाई की व्यवस्था की जाती है। यहाँ भी पढ़ाई महत्त्वपूर्ण है परीक्षा नहीं।
उदयपुर में रहने वाले हार्वर्ड से ग्रेजुएट मनीष जैन ने शिक्षांतर नामक एक संस्था की स्थापना की है। इसमें बच्चों को स्कूल की चारदीवारी में कैद किए बिना ही अनेक तरह की कलाओं की शिक्षा दी जाती है। ये कला उनके दैनिक जीवन में उपयोगी साबित होती है। मनीष के अनुसार बच्चे जो कुछ स्कूल में पढ़ते हैं, उससे अधिक तो वे दुनिया की शाला में पढ़ते हैं। हमारा 90 प्रतिशत ज्ञान तो स्कूल के बाहर से ही प्राप्त होता है। स्कूल का पढ़ा हुआ तो बहुत ही कम काम आता है। दूसरी ओर जीवन की पाठशाला से प्राप्त किया हुआ ज्ञान हर जगह काम आता है। इन्होंने भी अपने बच्चों को स्कूल से निकालकर अपने तरीके से पढ़ाना शुरू कर दिया है।
आज स्कूलों में जो शिक्षा दी जा रही है। उसका उद्देश्य स्वतंत्र रूप से विचार कर सके, ऐसे नागरिक तैयार करने का नहीं है। आज उन्हें जो कुछ पढ़ाया जा रहा है, उसे बच्चे ऑंख बंदकर स्वीकार रहे हैं। शिक्षा के नाम पर एक तरह से चाबी के खिलौने तैयार करने का काम हो रहा है। आज नागरिकों में मौलिक विचार करने की शक्ति समाप्त हो गई है। इसके अलावा जो विचार उसे योग्य नहीं लगते, उसका विरोध करना भी आज की शिक्षा नहीं सिखाती। संसद में शोरगुल के बीच जो कुछ भी विधोयक पास होता है, मूक जनता उसे सहजता से स्वीकार कर लेती है। जिस दिन नागरिकों को भयमुक्त बनाने और अत्याचार के सामने आवाज उठाने की शिक्षा दी जाएगी, उसी दिन हम सच्चे अर्थों में स्वतंत्र भारत के नागरिक बनेंगे। ये तय है।
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