प्यासे बच्चे पढ़ाई में कैसे ध्यान देंगे
-भारत डोगरा
वैसे तो सभी सार्वजनिक स्थानों पर साफ पेयजल की उपलब्धि बहुत ज़रूरी है पर स्कूलों में तो यह सबसे अधिक ज़रूरी है। प्यासे बच्चे भला पढ़ाई में कितना ध्यान दे पाएंगे? किंतु कई स्कूलों में साफ पेयजल उपलब्ध नहीं है।
हाल ही में बुंदेलखंड में पेयजल की समस्या से प्रभावित अनेक गाँवों का दौरा करने पर यह सच्चाई सामने आई कि जिन गाँवों में पेयजल का संकट है वहाँ के स्कूलों में भी बच्चे प्यासे रहने को मजबूर हैं। इनमें से अधिकतर गाँवों में छात्रों ने बताया है कि स्कूल में हैंडपंप है तो सही पर गर्मी के दिनों में उसमें पानी नहीं आता है।
कुछ बच्चे घर से बोतल में पानी लाते हैं पर यह इतना गर्म हो जाता है कि पी नहीं सकते। बच्चों ने बताया कि प्यास लगने पर वे घर की ओर या किसी चालू हैंडपंप की ओर भागते हैं। इसका प्रतिकूल असर उनकी पढ़ाई पर भी पड़ता है।
जहाँ गर्मी के दिनों में पानी का अभाव है तो वर्षा के दिनों में दूषित पानी की समस्या है। मानपुर गाँव (ज़िला झाँसी) के स्कूल में कुँए के पानी से एक टंकी को भर दिया जाता है और बच्चे इसी से पानी पीते हैं। वर्षा के दिनों में कुँए का दूषित पानी पीने से बच्चों में स्वास्थ्य समस्याओं की आशंका रहती है।
दूसरी ओर, कुछ ऐसे उत्साहवर्धक उदाहरण भी हमारे सामने हैं ,जहाँ विद्यालयों का जल संकट दूर करने के प्रयास बहुत प्रतिकूल परिस्थितियों में सफलता से किए गए। अपने जल संरक्षण कार्यक्रम के अंतर्गत राजस्थान के अजमेरज़िले में स्थित बेयरफुट कॉलेज ने कई विद्यालयों का जल संकट दूर किया है।
बेयरफुट कॉलेज के जल संचयन के महत्त्वपूर्ण कामों में से एक है विद्यालयों के लिए भूमिगत पानी संग्रहण का। इस प्रयास से उन सैकड़ों बच्चों की प्यास बुझती है ,जो पहले पानी की तलाश में पड़ोस के गाँवों में भटकते थे या कभी-कभी प्यासे ही रह जाते थे। जिन क्षेत्रों में पानी की गुणवत्ता काफी खराब थी, वहाँ अब बच्चों की उपस्थिति में काफी सुधार हुआ है। जलवाहित बीमारियों पर भी रोक लगी है। पानी के संग्रहण के लिए टाँकों की उपलब्धता से अब विद्यालयों में स्वच्छता बनाए रखने में बड़ी मदद मिलती है। खासकर छात्राओं और शिक्षिकाओं को राहत मिली है।
टिकावड़ा गाँव के माध्यमिक विद्यालय में एक टाँका है जिसमें 40,000 लीटर पानी संगृहीत करने की क्षमता है। इस टाँके में सीढिय़ाँ बनी हैं ,ताकि नीचे उतर कर उसकी सफाई की जा सके। उसमें एक निकास है जिससे पहले-पहले का गंदा पानी बाहर निकल सके। फिर उस निकास को बंद कर दिया जाता है, ताकि छना हुआ स्वच्छ पानी संगृहीत होने लगे। इस टाँके में संग्रहित 40,000लीटर पानी बरसात के 4-5 महीने बाद तक विद्यालय के पानी की ज़रूरतें पूरी करता है। फिर फरवरी महीने के आस-पास वे पानी के टैंकरों से टाँके में पानी भरवाते हैं, जिससे बरसात के आने तक काम चल जाता है। पहले जब दोपहर का भोजन यहीं बनता था, तो टाँके का पानी बहुत काम आता था, हालाँकि अब तो दोपहर के भोजन के लिए पका-पकाया खाना आता है।
पानी की उपलब्धता की वजह से अब विद्यालय में दो शौचालयों का निर्माण भी हो गया है ,जिन्हें कम पानी की खपत पर प्रयोग में लाया जाता है। जल संग्रहण की व्यवस्था से लड़कियों तथा शिक्षिकाओं के लिए शौचालय का प्रयोग संभव हो सका। इससे पहले स्वच्छता के उपाय न होने की वजह से अधिकतर लड़कियाँ बीच में ही पढ़ाई छोड़ देती थीं।
कोटड़ी गाँव के नज़दीक एक भवन-रहित विद्यालय चलता है जिसमें प्रवासी नमक मज़दूरों के बच्चे पढ़ते हैं। चूँकि इस विद्यालय का कोई भवन ही नहीं है तो फिर छत कहाँ से आएगी? ऐसे में बेयरफुट कॉलेज ने पहले एक जल-ग्रहण क्षेत्र ज़मीन पर ही बनाया, ताकि जो पानी ज़मीन के अंदर समा जाता है उसे संगृहीत किया जा सके। ऐसा होने से 80 स्कूली छात्रों की ज़रूरतें पूरी हो सकीं। जल-ग्रहण क्षेत्र पक्का बनाया गया है और इसी पक्की सतह पर जाड़े के दिनों में क्लास भी चलती हैं। (स्रोत फीचर्स)
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