शूद्रों को ब्राह्मण बनाने वाले परशुराम
- प्रमोद भार्गव
समाज को बनाने की जिम्मेवारी उस समाज के ऊपर होती है, जिसके हाथ में सत्ता के तंत्र होते हैं। इसीलिए जब परशुराम के हाथ सत्ता के सूत्र आए तो उन्होंने समाजिक उत्पीडऩ झेल रहे शूद्र और वंचितों को मुख्यधारा में लाकर पहले तो उनका यज्ञोपवीत संस्कार कराकर उन्हें ब्राह्मण होने के दायित्व से जोड़ा और फिर इस समूह के अक्षय तृतीया के दिन सामूहिक विवाह भी कराए। ये विवाह उन विधवा महिलाओं से भी कराए गए, जो परशुराम और सहस्रबाहु अर्जुन के बीच चले युद्ध के चलते विधवा हो गई थीं। वे परशुराम ही थे, जिन्होंने वनवासी शृंगी ऋषि से दशरथ की पुत्री और भगवान श्रीराम की बहन शांता से विवाह कराया। राम भी शूद्र माने जाने वाले वनवासी वानरों को मुख्यधारा में लाए। उन्होंने सभी वर्जनाओं को तोड़ते हुए शूद्र महिला शबरी के जूठे बेर खाने में कोई संकोच नहीं किया। देश की वर्गीय व जातीय विभाजन को दूर करने के ये ऐसे उपाय थे, जिनसे प्रेरणा लेकर हमें हमारे दलित भारतीयों को जातीयता से ऊपर उठकर अपनाने की जरूरत है। किंतु इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि हमारे वर्तमान राजनीतिज्ञ अपने तात्कालिक स्वार्थ के लिए जाति और भेदभाव की भावना को खत्म करने की बजाय उसे बढ़ावा दे रहे हैं। वोट का यह लालच जाति को ही नहीं समूचे समाज को खंड-खंड करने का काम कर रहा है। गोया, इन महापुरुषों से प्रेरित होकर हमें अपनी जाति के प्रति अभिमान व दूसरी जातियों के प्रति सम्मान का भाव जताने की जरूरत है।
हमारे धर्म ग्रंथ और कथावाचक ब्राह्मण भारत के प्राचीन पराक्रमी नायकों की संहार से परिपूर्ण हिंसक घटनाओं के आख्यान तो खूब सुनाते हैं, लेकिन उनके समाज सुधार से जुड़े जो क्रांतिकारी सरोकार थे, उन्हें लगभग नजरअंदाज कर जाते हैं। विष्णु के दशावतारों में से एक माने जाने वाले भगवान परशुराम के साथ भी कमोबेश यही हुआ। उनके आक्रोश और पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रियविहीन करने की घटना को खूब प्रचारित करके वैमनस्यता फैलाने का उपक्रम किया जाता है। पिता की आज्ञा पर माँ रेणुका का सिर धड़ से अलग करने की घटना को भी एक आज्ञाकारी पुत्र के रूप में एक प्रेरक आख्यान बनाकर सुनाया जाता है। किंतु यहाँ यह सवाल खड़ा होता है कि क्या व्यक्ति केवल चरम हिंसा के बूते जन-नायक के रूप में स्थापित होकर लोकप्रिय हो सकता हैं ? क्या हैह्य वंश के प्रतापी महिष्मती कार्तवीर्य अर्जुन के वंश का समूल नाश करने के बावजूद पृथ्वी क्षत्रियों से विहीन हो पाई? रामायण और महाभारत काल में संपूर्ण पृथ्वी पर क्षत्रिय राजाओं के राज्य हैं। वे ही उनके अधिपति हैं। इक्ष्वाकु वंश के मर्यादा पुरुषोत्तम राम को आशीर्वाद देने वाले, कौरव नरेश धृतराष्ट को पाण्डवों से संधि करने की सलाह देने वाले और सूत-पुत्र कर्ण को ब्रह्मास्त्र की दीक्षा देने वाले परशुराम ही थे। ये सब क्षत्रिय थे। अर्थात परशुराम क्षत्रियों के शत्रु नहीं शुभचिंतक थे। परशुराम केवल आतातायी क्षत्रियों के प्रबल विरोधी थे। राम को वैष्णवी धनुष परशुराम ने ही भेंट किया था। परशुराम ने क्षत्रियों का नहीं बल्कि 21 क्षत्रिय राजाओं को क्षत्रविहीन किया था। अर्थात उन्हें सत्ता से बेदखल किया था।
समाज सुधार और जनता को रोजगार से जोडऩे में भी परशुराम की अंहम् भूमिका अंतनिर्हित है। केरल, कच्छ और कोंकण क्षेत्रों में जहां परशुराम ने समुद्र में डूबी खेती योग्य भूमि निकालने की तकनीक सुझाई, वहीं परशु का उपयोग जंगलों का सफाया कर भूमि को कृषि योग्य बनाने में भी किया। यहीं परशुराम ने शूद्र माने जाने वाले दरिद्र नारायणों को शिक्षित व दीक्षित कर उन्हें ब्राह्मण बनाया। यज्ञोपवीत संस्कार से जोड़ा और उस समय जो दुराचारी व आचरणहीन ब्राह्मण थे, उन्हें शूद्र घोषित कर उनका सामाजिक बहिष्कार किया। परशुराम के अंत्योदय के प्रकल्प अनूठे व अनुकरणीय हैं; जिन्हें रेखांकित किए जाने की ज़रूरत है।
वैसे तो परशुराम का समय इतना प्राचीन है कि उस समय का एकाएक आकलन करना नामुमकिन है। जमदग्नि परशुराम का जन्म हरिशचन्द्रकालीन विश्वामित्र से एक-दो पीढ़ी बाद का माना जाता है। यह समय प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में अष्टादश परिवर्तन युग्य के नाम से जाना गया है। अर्थात यह 7500 ईसा पूर्व का समय ऐसे संक्रमण काल के रूप में दर्ज है, जिसे बदलाव का युग माना गया। इसी समय क्षत्रियों की शाखाएँ दो कुलों में विभाजित हुईं। एक सूर्यवंश और दूसरा चंद्रवंश। चंद्रवंशी पूरे भारतवर्ष में छाए हुए थे और उनके प्रताप की तूती बोलती थी। हैह्य अर्जुन का वंश चंद्रवंशी था। इन्हें यादवों के नाम से भी जाना जाता था। भृगु ऋषि इस चंद्रवंश के राजगुरु थे। जमदग्नि राजगुरु परंपरा का निर्वाह कार्तवीर्य अर्जुन के दरबार में कर रहे थे। किंतु अनीतियों का विरोध करने के कारण कार्तवीर्य अर्जुन और जमदग्नि में मतभेद उत्पन्न हो गए। परिणामस्वरुप जमदग्नि महिष्मति राज्य छोड़ कर चले गए। इस गतिविधि से रुष्ट होकर सहस्रबाहु कार्तवीर्य अर्जुन ने आखेट का बहाना करके अनायास जमदग्नि के आश्रम सेना सहित पहुँच गए। ऋ षि जमदग्नि और उनकी पत्नी रेणुका ने अतिथि सत्कार किया। लेकिन स्वेच्छाचारी अर्जुन युद्ध के उन्माद में था; इसलिए उसने प्रतिहिंसास्वरूप जमदग्नि की हत्या कर दी। आश्रम उजाड़ा और ऋषि की प्रिय कामधेनु गाय को बछड़े सहित बलात् छीनकर ले गया।
अनेक ब्राह्मणों ने कान्यकुब्ज के राजा गाधि राज्य में शरण ली। परशुराम जब यात्रा से लौटे तो रेणुका ने आपबीती सुनाई। इस घटना से कुपित व क्रोधित होकर परशुराम ने हैहय वंश के विनाश का संकल्प लिया। इस हेतु एक पूरी सामरिक रणनीति को अंजाम दिया। दो वर्ष तक लगातार परशुराम ने ऐसे सूर्यवंशी और यादववंशी राज्यों की यात्राएँ कीं, जो हैह्य वंद्रवंशीयों के विरोधी थे। वाकचातुर्य और नेतृत्व दक्षता के बूते परशुराम को ज्यादातर चंद्रवंशीयों ने समर्थन दिया। रघुवंशी राजा दशरथ और राजा जनक ने भी परशुराम को अपनी सेनाएँ दीं। परशुराम किसी सत्ता के अधिपति नहीं थे, इसलिए सेनाएँ और अस्त्र-शस्त्र उनके पास नहीं थे। इन्हीं राजाओं ने सेनाएँ और हथियार परशुराम की अगुवाई में छोड़ दिए। तब कहीं जाकर महायुद्ध की पृष्ठभूमि तैयार हुई।
इसमें परशुराम को अवन्तिका के यादव, विदर्भ के शर्यात यादव, पंचनद के द्रुह यादव, कान्यकुब्ज; कन्नौज के गाधिचंद्रवंशी, आर्यवर्त सम्राट सुदास सूर्यवंशी, गांगेय प्रदेश के काशीराज, गांधार नरेश मान्धता, अविस्थान (अफगानिस्तान) मुंजावत; हिन्दुकुश, मेरु (पामिर); सीरिया (परशुपुर) पारस, वर्तमान फारस, सुसर्तु; पंजक्षीर उत्तर कुरु, आर्याण; (ईरान) देवलोक सप्तसिंधु और अंग-बंग; बिहार के संथाल परगना से बंगाल तथा असम तक के राजाओं ने परशुराम का नेतृत्व स्वीकारते हुए इस महायुद्ध में भागीदारी की। जबकि शेष रह गईं क्षत्रिय जातियाँ चेदि; चंदेरी नरेश, कौशिक यादव, रेवततुर्वसु, अनूप, रोचमान कार्तवीर्य अर्जुन की ओर से लड़ीं। इस भीषण युद्ध में अंतत: कार्तवीर्य अर्जुन और उसके कुल के लोग तो मारे ही गए, युद्ध में अर्जुन का साथ देने वाली जातियों के वंशजों का भी लगभग समूल नाश हुआ। परशुराम ने किसी भी राज्य को क्षत्रीयविहीन न करते हुए, क्षत्र-विहीन किया था। भरतखण्ड में यह इतना बड़ा महायुद्ध था कि परशुराम ने अंहकारी व उन्मत्त क्षत्रिय राजाओं को, युद्ध में मार गिराते हुए अंत में लोहित क्षेत्र, अरुणाचल में पहुँचकर ब्रह्मपुत्र नदी में अपना फरसा धोया था। बाद में यहाँ पाँच कुण्ड बनवाए गए, जिन्हें समंतपंचका रुधिर कुण्ड कहा गया है। ये कुण्ड आज भी अस्तित्व में हैं। इन्हीं कुण्डोंमें भृगृकुलभूषण परशुराम ने युद्ध में हताहत हुए भृगु व सूर्यवंशियों का तर्पण किया। इस विश्वयुद्ध का समय 7200
विक्रमसंवत् पूर्व माना जाता है। जिसे उन्नीसवाँ युग कहा गया है।
इस युद्ध के बाद परशुराम ने समाज सुधार व कृषि के प्रकल्प हाथ में लिए। केरल, कोंकण, मलबार और कच्छ क्षेत्र में समुद्र में डूबी ऐसी भूमि को बाहर निकाला जो खेती योग्य थी। इस समय कश्यप ऋ षि और इन्द्र समुद्री पानी को बाहर निकालने की तकनीक में निपुण थे। अगस्त्य को समुद्र का पानी पी जाने वाले ऋ षि और इन्द्र का जल-देवता इसीलिए माना जाता है। परशुराम ने इसी क्षेत्र में परशु का उपयोग रचनात्मक काम के लिए किया। शूद्र माने जाने वाले लोगों को उन्होंने वन काटने में लगाया और उपजाऊ भूमि तैयार करके धान की पैदावार शुरु कराईं। परशुराम द्वारा अक्षय तृतीया के दिन सामूहिक विवाह किए जाने के कारण ही इस दिन को परिणय बंधन का बिना किसी मुहूर्त्त के शुभ मुहूर्त्त माना जाता है। दक्षिण का यही वह क्षेत्र है, जहाँ परशुराम के सबसे ज्यादा मंदिर मिलते हैं और उनके अनुयायी उन्हें भगवान के रुप में पूजते हैं।
सम्पर्क: शब्दार्थ 49, श्रीराम कॉलोनी, शिवपुरी म.प्र., मो. 09425488224, फोन 07492-232007, 233882
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