-डॉ.रत्ना वर्मा
वर्तमान शिक्षा प्रणाली को लेकर इन दिनों बहस चल रही है कि बच्चों के व्यक्तित्व विकास में यह कितनी सहायक हैं या क्या इसे बदले जाने की आवश्यकता है? वास्तव में देखा जाए तो हमारी वर्तमान शिक्षा प्रणाली युवाओं को डॉक्टर, इन्जीनियर, मैनेजर और उद्योगपति तो बना रही हैं, पर एक सामाजिक मानव बनाने की दिशा में सहायक नहीं हो पा रही है।
वहीं दूसरी ओर यह भी देखा जा रहा है कि शासकीय स्कूलों में प्राथमिक स्तर पर जिस तरह शिक्षा व्यवस्था लागू है, वह भी एक बच्चे को बेहतर इंसान बनाने में अपनी भूमिका नहीं निभा पा रही है। सिर्फ अपनी सरकारी योजनाओं को फलीभूत करने के लिए यह व्यवस्था कर देना कि आठवी कक्षा तक कोई भी बच्चा फेल ही नहीं होगा सभी बच्चों के साथ खिलवाड़ है। हमारे देश में वैसे भी निम्न वर्ग के परिवारों में उनके माता- पिता अपने बच्चों को स्कूल भेजने की जगह काम पर भेजना ज्यादा जरूरी समझते हैं। लड़कों से मज़दूरी करवाते हैं, ताकि वह दो पैसे घर पर ला सके और लड़कियों को घर पर अपने छोटे भाई- बहन की देखभाल के लिए या खाना पकाने के लिए छोड़ देते हैं। और तो और हमारी वर्तमान शिक्षा व्यवस्था के चलते ऐसे बच्चे आठवीं सर्टिफिकेट बिना स्कूल गए और परीक्षा में जीरो नम्बर मिलने पर भी प्राप्त कर लेते हैं।
सबसे ज्यादा चिंताजनक पहलू, जिसे हम सीधे- सीधे शिक्षा व्यवस्था से ही जोड़कर देख सकते हैं, वह है वह है इन दिनों लगातार बच्चियों के साथ हो रहे बलात्कार के मामले। यह अमानवीय कृत्य मनुष्य तभी करता है ,जब उसके भीतर दानव बसा होता है। यदि बच्चे का पालन- पोषण और शिक्षा बेहतर तरीके से हो तो उसका ज़मीर ऐसे घिनौने कृत्य के लिए तैयार ही नहीं होगा। कुछ विश्लेषक यह कहते हैं कि इस तरह की घटनाएँ पहले भी होती थीं, पर बदनामी के डरसे ऐसे मामलों को छुपा लिया करते थे। अब क्योंकि जतगरूकता आ गई है, तो लोग आवाज उठाने लगे हैं। सवाल यही है कि यदि जागरूकता आ गई है, तो बलात्कार करने वाले जागरूक क्यों नहीं हो रहे हैं, क्या जागरूकता सिर्फ पीडि़त पक्ष में आई है, ऐसा कुकृत्य करने वाला क्या किसी अन्य दुनिया का मानव है?
यह भी सत्य है कि किसी भी बच्चे की प्रथम पाठशाला परिवार ही है। माता-पिता ही बच्चों के प्रथम शिक्षक होते हैं, जीवन का पहला पाठ बच्चा घर में ही सीखता है; लेकिन स्कूल में जाकर वह दुनिया को जानता है, समझता है, तभी वह सच्चे अर्थो में पूर्ण मानव बनता है। यहीं पर आकर शिक्षक का दायित्व महत्वपूर्ण हो जाता है। एक बच्चे के लिए शिक्षक उसका आदर्श होता है। किसी भी छोटे बच्चे के मन में यह विश्वास दृढ़ रहता है कि उनका शिक्षक जो बोलता है, वह गलत हो ही नहीं सकता। यही वजह है कि जब बच्चा स्कूल जाने लगता है, तो माता-पिता के बाद बच्चा यदि किसी और की बात मानता है, तो वह है शिक्षक। परंतु क्या अब हम ऐसे आदर्श शिक्षकों के उदाहरण दे सकते हैं? अब तो गुरु और शिक्षक का नाता भी व्यावसायिक हो गया है। जितना पैसा, उतना ज्ञान।
आजकल बच्चों पर एक दबाव होता है कुछ कर दिखाने का। माता-पिता पहले से ही सोचकर चलते हैं कि उनका बच्चा डॉक्टर बनेगा या इंजीनियर। उच्च शिक्षा प्राप्त कर विदेश जाएगा या किसी बड़ी कम्पनी में खूब पैसा कमाएगा। कुल मिलाकर बच्चा न हुआ पैसे कमाने की मशीन हो गया। सीखने की स्वाभाविक प्रक्रिया, तो इस व्यावसायिकता के चलते कहीं गुम हो गई है। इसी तरह हमारे पाठ्यक्रम में भी कई कमियाँ हैं। जब चाहे तब शिक्षा के रखवाले उसमें बदलाव करते रहते हैं। आदर्श प्रस्तुत करने वाले पाठों को सिर्फ इसलिए हटा दिया जाता है कि ये सब बातें पुरानी हो गई हैं। आज का बच्चा सुभाषचंद्र बोस, लाल बहादुर शास्त्री, भगत सिंह जैसे महापुरुषों के बारे में जान ही नहीं पाता, क्योंकि हमारे देश के लिए आदर्श प्रस्तुत करने वाले लाखों मनीषियों की जानकारी धीरे- धीरे पाठ्यपुस्तकों से हटाई जा रही हैं। ऐसे में होगा यह कि एक दिन ऐसा आएगा कि हम अपने इतिहास को भूल जाएँगे और रोबोट की तरह भावनारहित होकर पैसा कमाने की मशीन बनकर रह जाएँगे।
हमारी शिक्षा व्यवस्था में ढेर सारी कमियों के कारण ही शायद इन दिनों होम स्कूल का प्रचलन बढ़ा है। जहाँ माता-पिता ही उनके शिक्षक होते हैं। कुछ संस्थाओं ने भी बगैर स्कूल, बगैर शिक्षक, बगैर परीक्षा के शिक्षा का ऐसा रास्ता अपनाया है, जहाँ बच्चे शिक्षा तो प्राप्त करते हैं पर बिना किसी तनाव और दबाव के। अपनी मर्जी से विषय चुनते हैं, प्रकृति के बीच रहकर सीखते हैं और आगे जाकर अपनी काबिलियत साबित करते हैं।
इन सब बातों का सार यही है कि एक बार गंभीरता से आज की शिक्षा व्यवस्था पर विचार करने की आवश्यकता है। अन्यथा हम अपनी संस्कृति, अपने आदर्श, अपने स्वाभिमान को खो देंगे। हमारी भारतीय परम्परा के आदर्शों को सुरक्षित रखना है तो शिक्षा व्यवस्था में सुधार करना ही होगा।
देश के शिक्षा नीतिकारों को समझना होगा कि शिक्षा राजनीति करने का विषय नहीं है, शिक्षा हमारे समाज की जीवन रेखा है। शिक्षा की उपेक्षा का मतलब होगा , परिवार, समाज और राष्ट्र को खोखला करना। अनैतिक रूप से धन कमाना घृणा फैलाकर सामाजिक समरसता को निरंतर नष्ट करना,धर्मं,राजनीति और समाज से जुड़ें लोगों का निरंतर चारित्रिक पतन दिशाहीन शिक्षा की ही दे है। शिक्षा मूल है। मूल को सींचे बिना मज़बूत समाज रूपी तरु की कल्पना करना बेमानी ही है; अतः समय रहते शिक्षा को दिशाहीनता से बचाना ज़रूरी है।
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