उदंती.com सितम्बर- अक्टूबर- 2014
जलाओ दिये, पर रहे ध्यान इतना अँधेरा धरा पर, कहीं रह न जाए -गोपाल दास नीरजOct 21, 2014
Oct 20, 2014
मुमकिन है....स्वच्छ भारत का सपना
मुमकिन है....स्वच्छ भारत का सपना
-डॉ. रत्ना वर्मा
सपना देखना अच्छा होता है डॉ. अब्दुल कलाम कहते भी हैं कि जो सपने देखते हैं
वही उसे पूरा करने का प्रयास करते हैं। ऐसा ही एक सपना प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी
ने देशवासियों को दिखाया है- उन्होंने 2 अक्टूबर गाँधी जी की जयंती के दिन स्वच्छ भारत का
अभियान छेड़कर एक नई मुहिम की शुरूआत कर दी है। गाँधी जी स्वच्छता को भगवान की
पूजा की तरह मानते थे और वे चाहते थे कि प्रत्येक व्यक्ति स्वच्छता को उसी तरह
अपने जीवन का हिस्सा बनाए.... अब मोदी जी किस तरह भारतवासियों के मन में स्वच्छता
को भगवान की तरह पूजना सिखा पाएँगे,
यह आगे उनकी बनाई जा रही योजनाओँ पर निर्भर करेगा कि वे 2019 तक गाँधी जी की 150
वीं जंयती पर भारत को स्वच्छ भारत बना पाते हैं या नहीं ।
पर उम्मीद कभी नहीं
छोड़नी चाहिए,खासकर जब कोई मिशन देश की भलाई के लिए हो- हाँ इसके
लिए यह जरूरी है कि सरकार और प्रशासन को कई स्तरों पर बहुत ज्यादा प्रयास करना
होगा ; क्योंकि भारत स्वच्छता के मामले में आजादी के बाद से
अब तक कभी भी गंभीर नहीं हो पाया, न सरकार , न जनता। अब यदि मोदी जी के आह्वान पर देश जागता है
तथा निजी और सरकारी स्तर पर सफाई की दिशा में हम भारतवासी गम्भीर
होते हैं ; तो हमारे देश की बहुत सारी समस्याओं का समाधान निकल
आएगा।

यहीं पर मैं भारत में
सफाई व्यवस्था को लागू नहीं कर सकते, कहने वालों से पूछना चाहती हूँ कि अब भारतीय
भी मॉल संस्कृति के आदी हो गए हैं और आप सब जानते हैं कि हम मॉल में पहुँचकर एक
अलग ही प्रकार के भारतवासी और सड़क या रेलवे स्टेशन में पहुँच कर अलग ही नागरिक क्यों बन जाते हैं? मानों हम भारत नहीं विदेश की
धरती पर पहुँच गए। मॉल
में पहुँच कर यदि हमें कुछ फेंकना होता है,
तो डस्टबिन ढूँढ़ते हैं। यही नहीं मॉल में 24 सो घंटे सफाई कर्मी आगे पीछे घूमते रहते हैं ।कहीं
कचरे का टुकड़ा दिखा नहीं कि तुरंत कचरा उठाया और गायब। और हम शर्मिन्दा होते हैं
कि हमसे कचरा गिराने की गल्ती हुई तो कैसे हुई। यह शर्मिंदगी सड़क पर कचरा फैलाते
समय नहीं आती क्यों? प्रश्न यह उठता है कि कि यह दोहरी मानसिकता क्यों?
हम यही मानसिकता सड़कों पर चलते समय, बस स्टेंड में, रेल्वे स्टेशन में, सरकारी
अस्पताल में या सरकारी दफ्तरों में क्यों नहीं अपनाते?
यह अलग बात है कि हमारे देश में भी चाहे गरीब हो या अमीर अपनी
और अपने घर की स्वच्छता को सब गंभीरता से लेते हैं। पर यह भी सत्य
है कि जिस कचरे को हम भारतवासी घर में एक दिन भी रखना पसंद नहीं करते, उसे सड़क के किनारे या नालियों में डाल कर अपनी
जिम्मेदारी से मुक्त हो जाते हैं। शासकीय
कार्यालय हो, सार्वजनिक जगह हो, बाजार हो, अस्पताल हो, रेलवे स्टेशन हो या बस स्टैंड,
इन जगहों को गंदा करना, इनके हर कोने में पान की पीक थूकना या कूड़ा फेंकना हम अपना
जन्म सिद्ध अधिकार समझते हैं।
भारत में भी अधिकतर
मेट्रो शहर में घरों से कचरा उठाने की व्यवस्था रहती है- नगर निकाय यह व्यवस्था करता
है। कहीं- कहीं निजी कम्पनियों को कचरा प्रबन्धन का ठेका दिया जाता है। लेकिन पूरे
शहर का कचरा तब भी वह नियमित नहीं उठा पाते। नतीजा नालियाँ पॉलीथीन से पट जाती हैं
सड़कों के किनारे रखे डस्टबिन
इतने ओवरलोड हो जाते हैं कि चलने के लिए जगह ही नहीं बचती। कर्मचारियों की हड़ताल
है तो घरों का कचरा सड़क किनारे आ जाता है ; क्योंकि
घर के अंदर सड़ा हुआ कचरा कोई कब तक रख पाएगा। यानी कि
समस्या ही समस्या... जिसका कोई अंत नहीं।
अब चूँकि ऐसी ही समस्याओं का अंत करने के लिए पहली बार किसी
प्रधानमंत्री ने मुहिम छेड़ी है, तो उम्मीद की किरण तो
नजर आती है। मोदी जी ने प्रत्येक व्यक्ति को हर वर्ष 100 घंटे यानी हर सप्ताह 2
घंटे श्रमदान करने के लिए के लिए कहा है। हर भारतीय नागरिक चाहेगा कि भारत को भी
स्वच्छ देश की श्रेणी में रखा जाए। वह श्रमदान
करने को भी तैयार है ,बस हमें सिस्टम को सुधारना होगा। देश से कचरा साफ
करने के साथ साथ देश से भ्रष्टाचार, आतंकवाद, नक्सलवाद तथा और कई वादों को भी साफ
करना होगा.. और 2019 तक इसका हल
निकाल कर दिखा देना है कि हमारा देश सभी मामलों में एक स्वच्छ देश है। सत्यमेव
जयते में आमीर खान की तरह हम सबको अब हर दिन कहना होगा मुमकिन है....
हम भी थोड़े प्रयास से
अपने शहर को, अपने अस्पताल को,
अपने रेल्वे स्टेशन को स्वच्छ रख सकते हैं। जब भारत के मॉल स्वच्छ रह सकते हैं, निजी अस्पताल और निजी कम्पनियाँ अपने ऑफिस को स्वच्छ रख सकते हैं, निजी स्कूल साफ सुथरे हो
सकते हैं, तो सरकारी दफ्तर, सरकारी स्कूल और सरकारी अस्पताल को
साफ क्यों नहीं रखा जा सकता।यह सब कैसे मुमकिन हो यही हल तो ढूँढ़ना है- प्लास्टिक की
बोतल, पॉलीथीन, जो हमारे पर्यावरण के लिए बेहद नुकसानदेह
है, उसकी
व्यवस्था करनी होगी। अभी अभी हमने गणेश चतुर्थी और दुर्गा पूजा का पर्व मनाया है –
पर पूजा के नाम पर मंदिर परिसर में पॉलीथीन का जाल फैला दिया, इकोफ्रेन्डली
गणेशोत्सव और दुर्गा उत्सव मनाने की बात तो हम करते है; पर कथनी और करनी में कितना अंतर है ,यह उन नदियों में जाकर देख सकते हैं; जहाँ इन मूर्तियों को
विसर्जित किया गया है। ऐसी बहुत सारी बातें हैं, जो
हम बरसों से कहते चले आ रहे हैं कि हमें ये नहीं करना चाहिए, वो नहीं करना चाहिए, पर स्थितियाँ सुधरने की बजाय
बिगड़ती ही चली जा रहीं हैं। इस बार जो बात हुई है वह हर बार से अलग हुई है और वह
है प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा 2 अक्टूबर गाँधी जयंती के दिन हाथ में झाड़ू
लेकर सड़कों पर निकल आना और देशवासियों से स्वच्छ भारत के सपने को साकार करने के
लिए आह्वान करना... दीपावली का समय है ही सब अपने अपने घरों को तो साफ सुथरा बनाने
में लगे ही हुए हैं। क्यों न इसी के साथ देश को भी स्वच्छ रखने का
संकल्प लें।
तो आइये सब अपना पहला
कदम पढ़ाएँ नामुमकिन को मुमकिन करने की दिशा में...
दीपावली की शुभ मंगल
कामनाओं के साथ...
वैश्विक संस्कृति की समन्वयक है दीपावली
वैश्विक संस्कृति की समन्वयक है
दीपावली
- राजेश कश्यप
दीपावली पर्व हमारा सबसे प्राचीन धार्मिक पर्व है। यह प्रकाश पर्व प्रतिवर्ष
कार्तिक मास की अमावस्या को मनाया जाता है। देश-विदेश में यह बड़ी श्रद्धा, विश्वास एवं समर्पित
भावना के साथ मनाया जाता है। इस पर्व के साथ अनेक धार्मिक, पौराणिक एवं ऐतिहासिक मान्यताएँ जुड़ी हुई हैं। मुख्यतया यह पर्व लंकापति रावण पर विजय
हासिल कर और अपना चौदह वर्ष का वनवास पूरा करके राम के आयोध्या लौटने की खुशी में
मनाया जाता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार अयोध्यावासियों ने श्रीराम के वनवास से लौटने पर घर-घर दीप जलाकर खुशियाँ
मनाईं थीं। चिरकालिक मान्यता रही है कि तभी से दीपावली पर्व पर लोग दीप जलाते हैं
और जश्न मनाते चले आ रहे हैं।
दीपावली पर्व पर्व से कई अन्य मान्यताएँ, धारणाएँ एवं ऐतिहासिक
घटनाएँभी जुड़ी हुई हैं, जोकि इस पर्व की महत्ता को और भी कई गुणा बढ़ाती हैं।
कठोपनिषद में यम-नचिकेता का प्रसंग आता है। जन्म-मरण का रहस्य यमराज से जानने के
बाद नचिकेता के यमलोक से मृत्युलोक लौटने की खुशी में भू-लोकवासियों ने घी के दीप
जलाए थे। किंवदन्ती है कि यही
आर्यवर्त की पहली दीपावली थी।
एक अन्य पौराणिक घटना के अनुसार इसी दिन लक्ष्मी जी का समुद्र-मन्थन से आविर्भाव हुआ था। इस पौराणिक प्रसंगानुसार
ऋषि दुर्वासा द्वारा देवराज इन्द्र को दिए गए शाप के कारण लक्ष्मी जी को समुद्र
में जाकर छिपना पड़ा था। लक्ष्मी जी के बिना देवगण बलहीन व श्रीहीन हो गए। इस
परिस्थिति का फायदा उठाकर असुर सुरों पर हावी हो गए। देवगणों की याचना पर भगवान
विष्णु ने योजनाबद्ध ढंग से सुरों व असुरों के हाथों समुद्र-मन्थन करवाया। समुद्र-मन्थन से अमृत सहित चौदह रत्नों में श्री लक्ष्मी जी
भी निकलीं, जिसे श्री विष्णु ने ग्रहण किया। श्री लक्ष्मी जी के पुनार्विभाव से देवगणों
में बल व श्री का संचार हुआ और उन्होंने पुन: असुरों पर विजय प्राप्त की। लक्ष्मी
जी के इसी पुनार्विभाव की खुशी में समस्त लोगों में दीप प्रज्ज्वलित करके खुशियाँ
मनाई गईं। इसी मान्यतानुसार प्रतिवर्ष दीपावली पर्व पर श्री लक्ष्मी जी की
पूजा-अर्चना की जाती है। मार्कंडेय पुराण के अनुसार समृद्धि की देवी श्री लक्ष्मी
जी की पूजा सर्वप्रथम नारायण ने स्वर्ग में की। इसके बाद श्री लक्ष्मी जी की पूजा
दूसरी बार श्री बह्मा जी ने, तीसरी बार शिव ने, चौथी बार समुद्र-मन्थन के समय विष्णु जी ने, पांचवीं बार मनु ने और छठी बार नागों ने की थी।
दीपावली पर्व पर एक पौराणिक प्रसंग भगवान श्रीकृष्ण के सम्बन्ध में भी प्रचलित है। इसके अनुसार भगवान श्रीकृष्ण
बाल्यावस्था में पहली बार गाय चराने के लिए वन में गए थे। संयोगवश इसी दिन
श्रीकृष्ण ने इस मृत्युलोक से प्रस्थान किया था। एक अन्य पौराणिक प्रसंगानुसार इसी
दिन श्रीकृष्ण ने नरकासुर नामक नीच राक्षस का वध करके उसके द्वारा बन्दी बनाए गए
देव,
मानव और
गन्धर्वों की सोलह हजार कन्याओं को मुक्ति दिलाई थी। इसी खुशी में लोगों ने दीप
जलाकर खुशियाँ मनाईं थीं, जोकि बाद में यह एक
परम्परा के रूप में परिवर्तित हो गई। दीपावली पर्व से भगवान विष्णु के वामन अवतार
की लीला भी जुड़ी हुई है। दैत्यराज बलि ने परम तपस्वी गुरु शुक्राचार्य के सहयोग से देवलोक के राजा इन्द्र को
परास्त करके स्वर्ग पर अधिकार कर लिया। तब भगवान विष्णु ने अदिति के गर्भ से
महर्षि कश्यप के घर वामन रूप में अवतार लिया। जब राजा बलि अश्वमेघ यज्ञ कर रहे थे
तो वामन ब्राह्मण वेश में राजा बलि के यज्ञ मंडप में जा पहुंचे। राजा बलि ने वामन
से इच्छित दान माँगने का आग्रह किया। वामन ने बलि से संकल्प लेने के बाद तीन पग
भूमि माँगी। संकल्पबद्ध राजा बलि ने वामन को तीन पग भूमि मापने के लिए अनुमति दे
दी। भगवान वामन ने पहले पग में भूमण्डल और दूसरे पग में त्रिलोक को माप डाला।
तीसरे पग में बलि को विवश होकर अपने सिर को आगे बढ़ाना पड़ा। राजा बलि की इस
दान-वीरता से भगवान वामन अत्यन्त प्रसन्न हुए। उन्होंने बलि को सुतल लोक का राजा
बना दिया और इन्द्र को पुन: स्वर्ग का स्वामी बना दिया। देवगणों ने इस अवसर पर दीप
प्रज्ज्वलित करके खुशियाँ मनाईं और पृथ्वीलोक में भी भगवान वामन की इस लीला के लिए
दीप मालाएँ जलाईं।
देवी पुराण के अनुसार इसी दिन माता दुर्गा ने महाकाली का रूप धारण किया था
और असंख्य असुरों सहित चण्ड और मुण्ड को मौत के घाट उतारा था। इस दौरान महाकाली क्रोध के मारे बेकाबू
हो गईं और देवी महाकाली ने देवों का भी सफाया करना शुरू कर दिया तो भगवान शिव
महाकाली के समक्ष प्रस्तुत हुए। क्रोधवश महाकाली शिव के सीने पर भी चढ़ बैंठीं।
लेकिन,
शिव-शरीर का
स्पर्श पाते ही उनका क्रोध शांत हो गया। किवदन्ती है कि तब दीपोत्सव मनाकर देवों
ने अपनी खुशी का प्रकटीकरण किया।
दीपावली पर्व के साथ धार्मिक व पौराणिक मान्यताओं के साथ-साथ कुछ ऐतिहासिक
घटनाएँ भी जुड़ी हुई हैं। इसी दिन राजा विक्रमादित्य ने राज्याभिषेक के बाद अपना सम्वत् चलाने का निर्णय किया
था। इसी दिन आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानंद ने निर्वाण प्राप्त किया था।
स्वामी रामतीर्थ का जन्म और देहत्याग, दोनों ही इसी दिन हुआ था। बौद्ध धर्म के प्रवर्तक भगवान बुद्ध के समर्थकों व अनुयायियों ने 2500 वर्ष पूर्व
हजारों-लाखों दीप जलाकर उनका स्वागत किया था। आदि शंकराचार्य के निर्जीव शरीर में
जब पुन: प्राणसंचार की घटना से हिन्दू- जगत अवगत हुआ था ,तो समस्त हिन्दू समाज
ने दीपोत्सव से अपनी आत्मिक खुशी को दर्शाया था। इन सबके अलावा दीपावली के दिन ही
सिखों के छठे गुरु हरगोविन्द सिंह जी ने
स्वयं को और अन्य बंदी राजाओं को अपने पराक्रम के बल पर मुगल सम्राट जहाँगीर की
कैद से मुक्त करवाया था। इस प्रकार कार्तिक मास की अमावस्या का दिन समाज के हर
वर्ग,
धर्म एवं सम्प्रदाय
के लिए पूजनीय व प्रकाशमय होता है।
यदि दीपावली को वैश्विक संस्कृति की समन्वयक कहा जाए, तो कदापि गलत नहीं
होगा
; क्योंकि दीपावली को विश्व भर में भिन्न-भिन्न रूपों में बड़ी श्रद्धा और
उमंग के साथ मनाया जाता है। पड़ोसी देश नेपाल में भी दीपावली पर्व बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। तिब्बत में
चाँदी की थाली में दीप सजाकर बौद्धों की देवी तारा की
पूजा-अर्चना की जाती है। कोरिया में भी इसी प्रकार की परम्परा का निर्वहन किया
जाता है। श्रीलंका में इस अवसर पर हाथियों को सजाकर जुलूस निकाला जाता है और
चीनी-मिट्टी के खिलौनों की प्रदर्शनियाँ भी लगाई जाती हैं। म्याँमार (बर्मा) तो
दीपोत्सव राष्ट्रीय पर्व के रूप में मनाया जाता है। इंग्लैण्ड में 'गार्ड फारस डे’के नाम से दीपोत्सव
बनाया जाता है और खूब आतिशबाजी की जाती है। थाईलैण्ड में दीपोत्सव पर्व 'लाभ क्रायोंग’नाम से मनाया जाता है।
चीन व जापान में इस पर्व को 'लालटेन का त्योहार’ के नाम से मनाया जाता है। इन सबके अलावा पाकिस्तान, बांग्लादेश, अमेरिका, इंग्लैण्ड, आस्टे्रलिया, मलेशिया, बाली द्वीप, इंडोनेशिया आदि सभी
देशों में हिन्दू धर्म के अनुयायियों और वहाँ रहने वाले भारतीयों द्वारा दीपावली
पर्व बड़ी धूमधाम के साथ मनाया जाता है। यूनान के प्रसिद्ध कवि होमर के महाकाव्यों 'ओडेसी’, 'इलियट’आदि में दीपोत्सव का
जिक्र कई जगह मिलता है। ईसा के पाँचवीं शताब्दी पूर्व मिश्र व यूनान के मंदिरों में मिट्टी व धातु के दीपक
प्रज्ज्वलित करने के साक्ष्य भी प्राप्त हो चुके हैं। मेसोपोटामिया की सभ्यता के
पुरातात्विक अवशेषों में भी दीपक प्राप्त हो चुके हैं। इस प्रकार दीपावली वैश्विक
स्तर पर मनाई जाती है।
दीपावली पर्व 'लक्ष्मी’से भी जुड़ा हुआ है और यह निर्विवादित सत्य है कि वैश्विक संस्कृति में लक्ष्मी जी
चिरकाल से पूजनीय रही हैं। ऐश्वर्य, समृद्धि, उन्नति, प्रगति आदि सबकुछ 'धन-धान्य’पर निर्भर है। इन सबकी
दात्री लक्ष्मी जी हैं। दीपवली के दिन समुद्र-मन्थन के दौरान चौदह रत्नों के साथ
लक्ष्मी जी का पुनर्जन्म हुआ था। इसी दोहरी खुशी एवं श्रद्धा के चलते दीपावली पर्व
की संध्या को महालक्ष्मी जी की पूजा-अर्चना की जाती है। ग्रामीण समाज में भी
लक्ष्मी जी को धन-धान्य की देवी के रूप में अगाध श्रद्धा व विश्वास के साथ पूजा
जाता है। भारत में किसान लक्ष्मी को अपनी धान की फसल के रूप में देखते हैं। इन
दिनों किसानों की धान की फसल पककर तैयार हो चुकी होती है और धान बेचने के बाद
किसान के घर लक्ष्मी का आगमन होता है।

पुरातात्विक सामग्रियों में विभिन्न रूपों में अंकित लक्ष्मी जी की कलात्मक
छवियाँ इस तथ्य का ठोस प्रमाण हैं। लक्ष्मी जी के कलात्मक रूप का इतिहास कुषाणों
के शासनकाल से आरंभ हुआ बताया जाता है। ईसा की पहली शताब्दी के उत्तरार्ध
में जब कुषाणों
ने उत्तरी भारत पर अधिकार किया तो उन्होंने अपने सिक्कों पर भारतीय, यूनानी, ईरानी आदि देवी-देवताओं का अंकन किया। भारतीय
देवी-देवताओं शिव समूह और लक्ष्मी रूपी अनोखी प्रतिमा को अंकित किया।
माना जाता है कि लक्ष्मी के स्वरूप की कल्पना वैदिक काल के बाद की गई। मध्ययुग
में 'श्री’चक्रधारी मूर्तियाँ
तांत्रिक सिद्धि के उद्देश्य से बनीं। इसके बाद विश्व-संस्कृति में लक्ष्मी को
विभिन्न मुद्राओं में दर्शाया जाने लगा। समुद्रगुप्त के सिक्कों पर लक्ष्मी जी
मंचासीन हैं, जबकि उसके भाई काच गुप्त के सिक्कों पर उन्हें खड़ी
दिखाया गया है।
दिगी के प्रथम सम्राट मोहम्मद बिन कासिम के सोने के सिक्कों पर गजलक्ष्मी
अंकित हैं, जबकि यूनानी सिक्कों में लक्ष्मी को नृत्य मुद्रा में अंकित किया गया है।
चोल सम्राट के सिक्कों पर लक्ष्मी साधारण मुद्रा में अंकित है। रोम से प्राप्त एक
चाँदी की थाली पर लक्ष्मी को 'भारत-लक्ष्मी’ के रूप में और
कम्बोडिया से प्राप्त एक प्रतिमा में लक्ष्मी जी को भगवान विष्णु के पैर दबाते हुए
दर्शाया गया है। जापान में मिले सोलहवीं सदी के लक्ष्मी मन्दिर में जापानी महिला
के रूप में लक्ष्मी को चित्रित किया गया है। श्रीलंका के पोलोमरूवां नामक स्थान पर
खुदाई के दौरान अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियों के साथ लक्ष्मी जी की मूर्तियाँ भी
मिली हैं।

गुप्तकालीन अभिलेखों पर लक्ष्मी को 'श्री’ के रूप में भी अंकित
हुआ मिलता है। चिर पुरातन वैदिक शब्द 'श्री’आज भी प्रचलित है। मानव-व्यक्तित्व को समुन्नत, सुविकसित और कांतिवान
बनाने का सम्पूर्ण श्रेय 'श्री’को ही प्राप्त है। जब व्यक्ति श्रेष्ठ कर्म करता है
तभी उसे 'श्री’की प्राप्ति होती है। कहने की आवश्यकता नहीं कि लक्ष्मी (धन) के बल पर ही
विश्व की प्रगति एवं समृद्धि की नींव टीकी हुई है। लक्ष्मी के बलपर ही व्यक्ति को
ऐश्वर्य एवं ख्याति का अपार भण्डार मिलता है। इसीलिए दीपावली पर्व पर लक्ष्मी जी
की पूजा अर्चना की जाती है और दीपावली पर्व को पूरी वैश्विक संस्कृति का समन्वयक
पर्व माना जाता है।
परंपरा
छत्तीसगढ़ का पारंपरिक जसगीत
- संजीव तिवारी
छत्तीसगढ़ में पारंपरिक रूप में गाये जाने वाले लोकगीतों में जसगीत का अहम
स्थान है। छत्तीसगढ़ का यह लोकगीत मुख्यत-
क्वाँर व चैत्र नवरात में
नौ दिन तक गाया जाता है। प्राचीन काल में जब चेचक एक महामारी के रूप में पूरे
गाँव में छा जाता था तब गाँवों में चेचक प्रभावित व्यक्ति के घरों में इसे गाया
जाता था । आल्हा उदल के शौर्य गाथाओं एवं माता के शृंगार व माता की महिमा पर
आधारित छत्तीसगढ़ के जसगीतों में अब नित नये अभिनव प्रयोग हो रहे हैं, हिंगलाज, मैहर, रतनपुर व डोंगरगढ, कोण्डागाँव एवं अन्य
स्थानीय देवियों का वर्णन एवं अन्य धार्मिक प्रसंगों को इसमें जोड़ा जा रहा है, नये गायक गायिकाओं, संगीत वाद्यों को
शामिल कर इसका नया प्रयोग अनावरत चालू है।
पारंपरिक रूप से माँदर, झांझ व मंजिरे के साथ गाये जाने वाला यह गीत अपने
स्वरों के ऊतार चढ़ाव में ऐसी भक्ति की मादकता जगाता है जिससे सुनने वाले का रोम
-रोम माता के भक्ति में विभोर हो उठता है । छत्तीसगढ़ के शौर्य का प्रतीक एवं माँ
आदिशक्ति के प्रति असीम श्रद्धा को प्रदर्शित करता यह लोकगीत नसों में बहते रक्त
को खौला देता है, यह आध्यात्मिक आनंद की ऐसी अलौकिक ऊर्जा तनमन में जगाता है ,जिससे छत्तीसगढ़ के
सीधे-
साधे सरल
व्यक्ति की रग-रग में ओज उमड़ पडता
है एवं माता के सम्मान में इस गीत के रस में लीन भक्त लोहे के बने नुकीले लम्बे
तारों,
त्रिशूलों से अपने जीभ, गाल व हाथों को छेद
लेते हैं व जसगीत की स्वर लहरियों में
थिरकते हुए 'बोलबम’ 'बोलबम’कहते हुए माता के प्रति अपनी श्रद्धा प्रदर्शित करते
हुए 'बाना चढ़ाते’ हैं वहीं गाँव के
महामाया का पुजारी 'बैइगा’ आनंद से अभिभूत हो 'माता चढ़े’बम- बम बोलते लोगों को
बगई के रस्सी से बने मोटे रस्से से पूरी ताकत से मारता है, शरीर में सोटे के निशान
उभर पड़ते हैं पर भक्त बम बम कहते हुए आनंद में और डूबता जाता है और सोंटे का
प्रहार माँदर के थाप के साथ ही गहराते जाता है ।
छत्तीसगढ़ के हर गाँव में ग्राम्या देवी के रूप में महामाया, शीतला माँ, मातादेवाला का एक नियत
स्थान होता है जहाँ इन दोनों नवरात्रियों में जँवारा बोया जाता है एवं नौ दिन तक
अखण्ड ज्योति जलाई जाती है, रात को गाँव के पुरूष एक जगह एकत्र होकर माँदर के
थापों के साथ जसगीत गाते हुए महामाया, शीतला, माता देवाला मंदिर की ओर निकलते हैं -
अलिन गलिन मैं तो खोजेंव, मइया ओ मोर खोजेंव
सेऊक नइ तो पाएव, मइया ओ मोर मालनिया
मइया ओ मोर भोजलिया.........
रास्ते में माता सेवा जसगीत गाने वाले गीत के साथ जुड़ते जाते हैं, जसगीत गाने वालों का
कारवाँ जस गीत गाते हुए महामाया मंदिर की ओर बढ़ता चला जाता है। शुरूआत में यह गीत
मध्यम स्वर में गाया जाता है गीतों के विषय भक्तिपरक होते हैं, प्रश्नोत्तर के रूप
में गीत के बोल मुखरित होते हैं -
कउने भिँगोवय मइया गेहूँवा के बिहरी
कउने जगावय नवराते हो माय......
सेऊक भिँगोवय मइया गेहूँवा के बिहरी
लंगुरे जगावय नवराते हो माय......
जसगीत के साथ दल महामाया मन्दिर पहुँचता है वहाँ माता की पूजा अर्चना की जाती हैं फिर विभिन्न गाँवों में
अलग अलग प्रचलित गीतों के अनुसार पारंपरिक छत्तीसगढ़ी आरती गाई जाती है -
महामाय लेलो आरती हो माय
गढ़ हींगलाज में गढ़े हिंडोलना लख आवय लख जाय
माता लख आवय लख जाय
एक नहीं आवय लाल लंगुरवा जियरा के प्राण आधार......
जसगीत में लाल लँगुरवा यानी हनुमान जी सातो बहनिया माँ आदिशक्ति के सात रूपों के परमप्रिय भाई के रूप
में जगह जगह प्रदर्शित होते हैं जहाँ माता आदि शक्ति लँगुरवा के भ्रातृ प्रेम व
उसके बाल हठ को पूरा करने के लिए दिल्ली के राजा जयचंद
से भी युद्ध कर उसे परास्त करने का वर्णन गीतों में आता है। जसगीतों में दिल्ली व
हिंगलाज के भवनों की भव्यता का भी वर्णन आता है-
कउन बसावय मइया दिल्ली ओ शहर ला, कउन बसावय हिंगलाजे हो माय
राजा जयचंद बसावय दिल्ली शहर ला, माता वो भवानी हिंगलाजे हो माय
कउने बरन हे दिल्ली वो शहर हा, कउने बरन हिंगलाजे हो माय
चंदन बरन मइया दिल्ली वो शहर हा, बंदन बरन हिंगलाजे हो माय
आरती के बाद महामाया मंदिर प्राँगण में सभी भक्त बैठकर माता का सेवा गीतों
में प्रस्तुत करते हैं । सभी देवी देवताओं को आव्हान करते हुए गाते हैं - -
पहिली मय सुमरेव भइया चँदा- सुरूज ला
दुसरे में सुमरेंव आकाश हो माय......
सुमरने व न्यौता देने का यह क्रम लम्बा चलता है ज्ञात अज्ञात देवी देवताओं का आह्वान गीतों के द्वारा
होता है । गीतों में ऐसे भी वाक्यों का उल्लेख आता है जब गाँवों के सभी देवी-
देवताओं को सुमरने के बाद भी यदि भूल से किसी देवी को बुलाना छूट गया रहता है तो
वह नाराज होती है गीतों में तीखें सवाल जवाब जाग उठते हैं - -
अरे बेंदरा बेंदरा झन कह बराइन मैं हनुमंता बीरा
मैं हनुमंता बीरा ग देव मोर मैं हनुमंता बीरा
जब सरिस के सोन के तोर गढ लंका
कलसा ला तोर फोर हॉं, समुंद्र में डुबोवैं,
कलसा ला तोरे फोर हाँ .......
भक्त अपनी श्रद्धा के फूलों से एवं भक्ति भाव से मानस पूजा प्रस्तुत करते
हैं,
गीतों में माता
का शृंगार करते हैं ,मालिन से फूल गजरा रखवाते हैं । सातो रंगों से माता का
शृंगार करते हैं -
मइया सातो रंग सोला हो शृंगार हो माय.....
लाल लाल तोरे चुनरी महामाय लालै चोला तुम्हारे हो माय......
लाल हावै तोर माथे की टिकली लाल ध्वजा तुम्हारे हो माय....
खात पान मुख लाल बाल है सिर के सेंदूर लाल हो माय.....
मइया सातो रंग....
पुष्प की माला में मोंगरा फूल माता को अतिप्रिय है। भक्त सेउक गाता है-
हो माय के फूल गजरा, गूथौ हो मालिन के धियरी फूल गजरा
कउने माय बर गजरा कउने माय बर हार, कउने भाई बर माथ
मटुकिया
सोला हो शृंगार....
बूढ़ी माय बर गजरा धनईया माय बर हार, लंगुरे भाई बर माथ मटुकिया
सोला हो शृंगार......
माता का मानसिक शृंगार व पूजा के गीतों के बाद सेऊक जसगीत के अन्य पहलुओं
में रम जाते हैं तब जसगीत अपने चढ़ाव पर आता है माँदर के थाप उत्तेजित घ्वनि में
बारंबारता बढ़ाते हैं गीत के बोल में तेजी और उत्तेजना छा जाता हैं -
चंदा सुरूज दोन्नो ला भारेव, तहूँ ला मैं भारे हौं हाँ
मोर लाल बराईन, तहूं ला मैं भरे हंव हाँ ....
गीतों में मस्त सेऊक भक्ति भाव में लीन हो, वाद्य यंत्रों की
धुनों व गीतों में ऐसा रमता है कि वह बम- बम के घोष के साथ
थिरकने लगता है, क्षेत्र में इसे देवता चढ़ना कहते हैं अर्थात् देवी स्वरूप इन पर आ
जाता है । दरअसल यह ब्रह्मानन्द जैसी स्थिति है ; जहाँ भक्त माता में पूर्णतया लीन होकर नृत्य करने लगता
है सेऊक ऐसी स्थिति में कई बार अपना उग्र रूप भी दिखाने लगता है तब महामाई का
पुजारी सोंटे से व कोमल बाँस से बने बेंत से उन्हें पीटता है एवं माता के सामने 'हूम देवाता’ है ।
भक्ति की यह रसधारा अविरल तब तक बहती है जब तक भगत थककर चूर नहीं हो जाते।
सेवा समाप्ति के बाद अर्धरात्रि को जब सेऊक अपने अपने घर को जाते हैं तो माता को
सोने के लिए भी गीत गाते हैं -
पउढौ पउढौ मईयाँ अपने भुवन में, सेउक बिदा दे घर जाही बूढ़ी माया मोर
दसो अंगुरी से मईया बिनती करत हौं, डंडा ओ शरण लागौं
पायें हो माय ......
आठ दिन की सेवा के बाद अष्टमी को संध्या 'आठे’ में 'हूम हवन’व पूजा अर्चना पंडित
के .द्धारा विधि विधान के साथ किया जाता है। दुर्गा सप्तशती के मंत्र गूँजते हैं और जस गीत की मधुर धुन वातावरण को
भक्तिमय बना देती है। नवें दिन प्रात- इसी प्रकार से
तीव्र चढ़ाव जस गीत गाए जाते हैं ;जिससे कि कई भगत मगन होकर बाना, सांग चढ़ाते हैं एवं
मगन होकर नाचते हैं। मंदिर से जवाँरा एवं जोत को सर पर उठाए महिलाएँ पंक्तिबद्ध होकर निकलती हैं।गाना चलते रहता है ।
अखण्ड ज्योति की रक्षा करने का भार बइगा का रहता है; क्योंकि पाशविक शक्ति
उसे बुझाने के लिए अपनी शक्ति का प्रयोग करती है ; जिसे परास्त करने के लिये बईगा बम -बम के भयंकर गर्जना के
साथ नींबू चावल को मंत्रों से अभिमंत्रित कर ज्योति व जवाँरा को सिर पर लिये पंक्तिबद्ध महिलाओं के ऊपर हवा में फेंकता है व उस प्रभाव को दूर भगाता है। गीत
में मस्त नाचता गाता भक्तों का कारवाँ
नदी पहुँचता है ;जहाँ ज्योति व जवाँरा को विसर्जित किया जाता है । पूरी
श्रद्धा व भक्ति के साथ सभी माता को प्रणाम कर अपने गाँव की सुख समृद्धि का वरदान
माँगते हैं, सेऊक माता के बिदाई की गीत गाते हैं -
सरा मोर सत्ती माय वो .....
सम्पर्क: ए- 40, खण्डेलवाल कालोनी, दुर्ग (छ.ग.), मो. 09926615707
कुछ दीप जला जाना
कुछ दीप जला जाना
- डॉ ज्योत्स्ना शर्मा
1
इतना उपकार करो
मेरी भी नैया
प्रभु ! भव से पार
करो ।
2
पग-पग पर हैं पहरे
बख्शे दुनिया ने
हैं ज़ख़्म बहुत
गहरे ।
3
कुछसाथ दुआएँ थीं
दीप जला मेरा
जब तेज हवाएँ थीं ।
4
खिल उठती हैं खीलें
नेह- भरे दीपक
ख़ुशियों की कंदीलें
।
5
कुछ काम निराला हो
सच की दीवाली
अब झूठ दिवाला हो ।
6
है विनय विनायक से
काटें क्लेश कहूँ
श्री से ,गणना़यक
से ।
7
सुनते ना ,कित
गुम हो
अरज यही भगवन
निर्धन के धन तुम हो
8
चाहत को नाम मिले
तुम बिन मनवा को
आराम न राम मिले ।
8
सुख-दुख कीहैं
सखियाँ
जीवन-ज्योत हुईं
तेरी ये दो अँखियाँ
।
9
दिन-रैन उजाला हो
दीप यहाँ मन का
मिल सबने बाला हो ।
-0-
-
रचना श्रीवास्तव
1
हर ओर दिवाली है
घर तो सूना है
जेबें भी खाली हैं ।
2
चौखट पर दीप जले
इस नीले गगन -तले ।
3
तुम आज चले आना
मन की चौखट
पर
कुछ दीप जला
जाना ।
4
दो दिन से काम नहीं
आज दिवाली है
देने को दाम नहीं।
5
तन को आराम नहीं
दर्द गरीबों का
सुनते क्यों राम
नहीं ।
-0-
-
शशि पाधा
1
यह पावन वेला है
धरती के अँगना
खुशियों का मेला है।
2
त्योहार मना लेंगे
रोते बच्चे को
हम आज हँसा देंगे।
3
दीपों की माल सजी
मंगल गीत हुए
ढोलक की थाप बजी।
4
शुभ शगुन मना लेना
सूनी ड्योढी पर
इक दीप जला देना ॥
5
तन- मन सब वार गए
दीपों से हार गए …
-0-
-
डॉ सरस्वती माथुर
1
रातें तो काली हैं
मन हो रोशन तो
हर रात दिवाली है ।
2
दीपों की लड़ियाँ हैं
जगमग आँगन में
जलती फुलझड़ियाँ हैं
।
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