सपनें
-
विजय
कुमार
सपने टूटते है,
बिखरते है
चूर-चूर होते है
और मैं उन्हें सँभालता
हूँ दिल के टुकड़ों की तरह
उठाकर रखता हूँ जैसे
कोई टूटा
हुआ खिलौना हो
सहेजता हूँ जैसे
काँच की कोई मूरत टूटी हो।
और फिर शुरू होती है,
एक अंतहीन यात्रा
बाहर से भीतर की ओर
खुद को सँभालने की
यात्रा,
स्वयं
को खत्म होने से रोकने की यात्रा
और शुरू होता है एक
युद्ध
जि़न्दगी से
भाग्य से
और स्वयं
से ही
जिसमे जीत तो
निश्चित होती है।
बस
उसे पाना होता है।
ताकि
मैं जी सकूँ
ताकि
मैं पा सकूँ
ताकि
मैं कह सकूँ
हाँ!
विजय तो मेरी ही हुई
है।
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1 comment:
इस यात्रा में हम ख़ुद को पा लेते हैं... और सबसे बड़ी जीत वही होती है।
सुन्दर कविता विजय जी!
~सादर
अनिता ललित
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