जीवन को देखने का सबका अपना अलग - अलग अंदाज है।
किसी के लिए जीवन पद प्रतिष्ठा धन ऐश्वर्य की असीमित आकांक्षा है, तो किसी के लिए कबीरा की झीनी चदरिया, जिसे वह जीवन पर्यंत ज्यों की त्यों धरने में लिप्त रहता है। कहीं आशा निराशा का अपरिमित द्वंद है तो कहीं उल्लास, शोक, राग - विराग, उत्थान- पतन, अंधकार - प्रकाश का कोलाज। सभी अपने - अपने चश्मे से इसका अवलोकन करते हैं।
परंतु इन सबसे अलग भावना की नदी अपने मानिंद एक बालक की तरह इठलाती ,इतराती हुई तो कभी शांत चित्त से कलकल - छलछल बहती सम्पूर्ण परिवेश को अपने दामन में समेट लेती है। समतल और पहाड़ दोनों में एक समान यात्रा तय करती है।
ऐसी ही भावना की नदी को हृदय में समेटे, अतीत की खट्टी - मीठी यादों को सहेजे, जीवन के उतरते मध्यान्ह में मेरे मायके जाने की तैयारी हो रही है। जिस प्रकार छत और दीवार के बिना मकान की परिकल्पना नहीं की जा सकती, वैसे ही माँ और पिता के बिना मायके का स्नेक भी नगण्य रहता है । पैकिंग के साथ ही साथ सासु माँ की एक - एक हिदायत याद आ रही है…बहू सारा सामान रख लेना, थोड़े ढंग के कपड़े पहनकर जाना चार लोग देखते हैं। मेंहदी- महावर के बिना भी भला कोई मायके - सासुर जाता है!!!
सासू माँ की जो बातें कभी मन में झुंझलाहट भर देती थीं, आज पलकें भींगो रही है। भले असहनीय गठिया के दर्द से कराहती रहें; लेकिन खोइंछा (पूर्वोत्तर क्षेत्रों में बेटी - बहू को विदा के समय चावल या जीरा - हल्दी से आँचल भरने की प्रथा ) देने जरूर आ जाती थीं। आज उन्हें याद करते हुए मैंने सारी रस्में पूरी की। पतिदेव ने चुटकी ली…. ये पारंपरिक औरतों की तरह रंग लगाकर सफर करना मेरी मॉर्डन बीवी ने कब से शुरू कर दिया? मैं बस मुस्कुराकर रह गई।जिस गति से ट्रेन गतिमान थी मायके में गुजरा हर क्षण उसी गति से मेरे साथ चल रहा था। कहने को तो हम ये कहकर अपने मन को तसल्ली दे देते हैं कि माँ के बिना मायका कैसा? सांसारिक दृष्टिकोण से यह सही भी है; क्योंकि नई पीढ़ी का अपना जंजाल है , अपना संसार है।
लेकिन उस धरती का क्या जहाँ आप बड़े हुए! वह बाग - बगीचा, नदी का तट, खेल का मैदान, खेत- खलिहान, सड़क, पगडंडी, स्कूल, बाजार, काली माई का स्थान, ब्रह्म बाबा का चौरा , जहाँ अनेक मन्नते मांगी गई, जिसका सवा रुपये का प्रसाद आज तक नही चढ़ा।
क्या ये अपनी बाहें फैलाए आपका इंतजार नहीं करते?
जन्मभूमि के कण - कण में आप अपना हिस्सा छोड़ आते हैं । लहलहाते खेत, नदी की धारा, हरिया काका, गोमती काकी सब में कहीं न कहीं आप महकते हो, वह भी मायका है। कुछ ऐसी ही भावना के साथ बतियाती मेरी यात्रा जारी थी। लंबी दूरी की ट्रेन में पूरा भारत दर्शन मिल जाता है। सामने की सीट पर एक महिला अपने दो बेटियों के साथ यात्रा कर रही है। एक परिवार गुजरात से नेपाल की यात्रा के लिए नई - नई योजनाओं में व्यस्त है।सबसे ज्यादा गुजराती परिवार को दिक्कत है महिला के साथ लाए गए एक बोरी चावल से क्योंकि आने - जाने में वह थोड़ा बाधा उत्पन्न कर रहा था। कई प्रकार की बातें चल रही है । अमीरी - गरीबी, पिछड़ेपन इत्यादि की।
मैंने बहुत प्यार से पूछा “बोरी में क्या है ?” बहन!
महिला ने उत्तर दिया - घर का बासमती चावल है। जब भी मायके जाती हूँ, माँ नहीं मानती खोईंछा के नाम पर रख देती है। दीदी मुझे तो इसकी कीमत से ज्यादा कुली को देना पड़ता है; लेकिन माँ की खुशी के लिए रख लेती हूँ। आखिर जब तक माँ है, तभी तक न मायका है, खोईछा है। माँ बहुत बूढ़ी हो गई है… इतना कहते ही उसका गला भर गया। …मेरे गले में भी दर्द जैसा एहसास होने लगा। आँखें सावन- भादो बन गई। मेरी सारी भावुकता और दर्शनिकता काफ़ूर हो गई। देहरी पर इंतजार करती माँ की छवि बलवती हो गई। गुजराती परिवार कुछ समझ नहीं पा रहा था। ट्रेन अपनी गति से हुंकार भरती आगे बढ़ रही थी।
भोपाल- 9826092951



बहुत मार्मिक। पहली बार इस शब्द से साक्षात्कार हुआ और भाव मन में गहराई तक उतर गया। हार्दिक बधाई सहित सस्नेह
ReplyDeleteआत्मिक आभार आदरणीय sir।
ReplyDeleteआपके स्नेह और आशीर्वाद का प्रतिफल है।