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Mar 24, 2012

उदंती.com-मार्च 2012,


मासिक पत्रिका वर्ष2, अंक 7, मार्च 2012उदंती के सुधी पाठकों को होली पर्व की रंग- बिरंगी शुभकामनाएं।
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अनकही: कोख में श्मशान - डॉ. रत्ना वर्मा
मिसाल: बकरी की हांक से पद्मश्री की धाक तक - अतुल श्रीवास्तव
उत्सव: भारतीय संस्कृति में होली के रंग अनेक - कृष्ण कुमार यादव
हाइकु: फागुनी हवा - ज्योतिर्मयी पन्त
व्यंग्य: होली, चुनाव और हाईटेकीय धमाल - अविनाश वाचस्पति
नफरत से इंकार - इस्मत जैदी
हास्य व्यंग्य: जिला बदर के नये मौके -विनोद साव
लघु व्यंग्य - अखतर अली
विदेशों में होली: अपना भारत वे वहां भी बना ... - डॉ अनीता कपूर
पर्व संस्कृति: खेलत अवधपुरी में फाग, रघुवर ... - प्रो. अश्विनी केशरवानी
हास्य: होरी है... - यशवंत कोठारी
यादें: बाथ टब की होली -रचना श्रीवास्तव
जी भर खेलो होली - सुधा भार्गव
ब्लॉग बुलेटिन से: ...चला बिहारी ब्लॉगर बनने - रश्मि प्रभा
महिला स्वास्थ्य: भारत में भाड़े की कोख का व्यापार - प्रीति और वृंदा
हास परिहास: हँसो मत, गंभीर रहो.. - गिरीश पंकज
बहुत याद आये - रंजना सिंह
मेरी कर्मपत्री... खुली पुस्तक के समान है - महादेवी वर्मा
हाइकु: तुम्हारे बिना - डॉ जेन्नी शबनम
आपके पत्र/ मेल बॉक्स
महिला दिवस: संघर्षों में तप कर मजबूत होती... - डॉ. मिथिलेश दीक्षित

कोख में श्मशान

वैश्विक स्तर पर मार्च महीने की पहचान विश्व महिला दिवस के लिए भी है। संयुक्त राष्ट्र द्वारा 8 मार्च को विश्व महिला दिवस घोषित करने का प्रमुख उद्देश्य समाज का ध्यान, समाज में महिलाओं के दमन की परंपरा की ओर आकर्षित करके उन्हें समाज में न्यायोचित स्थिति और स्तर दिलवाना है। इस प्रकार के प्रयासों के परिणाम स्वरूप अन्य देशों की तरह हमारी सरकार भी महिलाओं के पारंपरिक दमन के विरुद्ध कानून बनाने को बाध्य हुई है। इस संदर्भ में यह भी एक कटु सत्य है कि सिर्फ कानून बनाने से किसी सामाजिक कुप्रथा का उन्मूलन नहीं होता। यही वजह है कि वास्तविकता में हमारे समाज में पिछली एक- दो शताब्दियों में महिलाओं की स्थिति में बहुत ही थोड़ा सुधार हुआ है। संभवतया सती प्रथा का करीब- करीब उन्मूलन उन अनेक कुप्रथाओं में से एकमात्र है, जिनसे समाज महिलाओं पर अत्याचार करता रहा है।
जहां तक स्त्रियों की सामाजिक स्थिति का प्रश्न है तो आज भी दयनीय है। इस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति के प्रमाण नित्य मिलते ही रहते हैं। एक ओर तो संसद और विधानसभाओं में स्त्रियों के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण की मांग को न्यायोचित मानने का दिखावा करना और दूसरी ओर इसे संवैधानिक मान्यता देने हेतु कानून बनाने में पिछले कई दशकों से टालमटोल करना। साथ ही साथ अबोध बालिकाओं से लेकर वृद्धाओं तक सभी उमर की स्त्रियों के साथ बर्बर अत्याचार की घटनाएं होती रहती हैं। शिशु कन्याओं के साथ उनका बलात्कार करके उनकी हत्या कर दी जाती है। जनवरी के मध्य में दिल्ली के अखिल भारतीय चिकित्सा विज्ञान संस्थान में भर्ती की गई दो वर्षीय फलक की दिल दहलाने वाली दास्तां- पूरे शरीर पर दातों से काटने और जलाए जाने जैसी अमानवीय यातनाओँ से मरणासन्न स्थिति में पंहुच चुकी अबोध फलक अभी भी जिंदगी और मौत के बीच झूल रही है। मीडिया में इस प्रकार के समाचार नित्य छाए रहते हैं।
वास्तव में कन्या भ्रूण हत्या, दहेज, लड़कियों- युवतियों का अपहरण और क्रय- विक्रय, दाम्पत्य जीवन में पत्नियों के साथ हिंसा, कुपोषण, प्रेम विवाह करने पर परिवार की इज्जत की रक्षा (?) के नाम पर युवतियों की हत्या तथा बलात्कार इत्यादि ऐसी कुप्रथाएं हैं जो समाज में जनसंख्या वृद्धि के अनुरूप विकराल रूप ग्रहण करती जा रही हैं। जबकि इन सभी कुप्रथाओं को अपराध घोषित करते हुए सरकार इन सबके निषेध के लिए कानून काफी पहले बना चुकी है। परंतु मर्ज बढ़ता ही गया ज्यों ज्यों दवा की। ऐसा इसलिए है क्योंकि पारंपरिक कुप्रथाओं के उन्मूलन में कानून बनाने जैसी कागजी कार्यवाही से कोई खास फर्क नहीं पड़ता। उन कुप्रथाओं के विरुद्ध सबसे कारगार कदम होता है समाज की सोच में बदलाव। सोच में बदलाव आता है समाज सेवियों और कानून को लागू करने वाली सरकारी प्रणाली के सम्मिलित
प्रयत्नों से।
हमारे समाज में पारंपरिक रूप से लड़के को जन्म से ही बहुत महत्व दिया जाता है और लड़की की उपेक्षा और अवमानना की जाती है। परिणामत: भारत में छह वर्ष तक की आयु की कन्याओं की कुपोषण के कारण मृत्युदर शर्मनाक है। इससे भी ज्यादा शर्मनाक बात यह है कि हरियाणा, पंजाब, दिल्ली और गुजरात जैसे देश के सबसे समृद्ध राज्यों में पुरुष- स्त्री लिंगानुपात सबसे खराब है, इसका मुख्य कारण है इस क्षेत्र में कन्या भू्रण हत्या की सामाजिक स्वीकृति।
कन्या भ्रूण हत्या प्रकृति के विरुद्ध घोर अपराध है। प्राकृतिक रूप से शिशु बालकों की मृत्युदर कन्या शिशुओं से अधिक होती है और इस प्रकार प्रकृति मानवीय समाज में नर- नारी अनुपात में संतुलन बनाए रखती है। प्रकृति से छेड़छाड़ के घातक दुष्परिणाम होते हैं। कोख को ही कन्या शिशुओं का श्मशान बनाने में हरियाणा और पंजाब इत्यादि में युवकों के विवाह के लिए युवतियां पर्याप्त संख्या में नहीं मिलती हैं। इसका दुष्परिणाम है कि इन प्रदेशों में युवकों को बंग्लादेश, बंगाल और तमिलनाडु इत्यादि से अपहृत युवतियों को खरीदना पड़ता है। कन्या भ्रूण हत्या के कारण अपहरण और मानव व्यापार जैसे घृणित अपराधों की उत्पत्ति होती है। हम सभी को, कोख को कन्याओं का श्मशान बनने से रोकने के लिए सतत और समुचित प्रयत्न करना चाहिए।
-डॉ. रत्ना वर्मा

बकरी की हांक से पद्मश्री की धाक तक

- अतुल श्रीवास्तव

एक छोटा सा गांव। गांव के कोने में एक खपरैल वाला छोटा सा मकान। इस मकान में एक परिवार। परिवार में पति-पत्नी, दो लड़की और दो लड़के - कुल चार बच्चे। बिल्कुल आम ग्रामीण परिवार की तरह। पति खेतों में मजदूरी कर अपने परिवार का पेट पालने का काम करता था और पत्नी चारों बच्चों की देखभाल करने के अलावा खेत में पति की मदद करने, बकरी चराने और घर के सभी काम करने का जिम्मा उठाती थी।
यह कहानी ज्यादा पुरानी नहीं है। करीब 11 साल पुरानी है। अब इस कहानी में बदलाव आ गया है। अब इस कहानी की नायिका अपने गांव, अपने खेत और अपने घर तक सीमित नहीं रही। अब अपने हौसले के बल पर यह गांव से निकलकर शहर और अब देश की राजधानी दिल्ली तक अपनी पहचान बना चुकी है। यह पहचान उसने बनाई अपनी इच्छा शक्ति के दम पर। बात हो रही है छत्तीसगढ़ के आखिरी छोर पर बसे राजनांदगांव जिले के एक छोटे से गांव सुकुलदैहान की रहने वाली फूलबासन बाई यादव की। गांव की इस बकरी चराने वाली फूलबासन बाई यादव को देश के प्रतिष्ठित पुरस्कारों में से एक पद्मश्री पुरस्कार दिए जाने की घोषणा हुई। दिल्ली में फूलबासन बाई को यह पुरस्कार महामहिम राष्ट्रपति के हाथों मिला। फूलबासन की महिला सशक्तिकरण को लेकर प्रतिबद्धता का एक सबूत यह भी है कि जिस वक्त दिल्ली में पदम पुरस्कारों की घोषणा हो रही थी उस वक्त भी वह इसी विषय पर काम करने आंध्रप्रदेश के वारंगल में थी। दोपहर में जब मैंने उससे टेलीफोन पर बात की तो उनका कहना था कि यह पुरस्कार उसे नहीं, उन सारी महिलाओं को मिला है जिन्होंने महिला सशक्तिकरण की दिशा में उनके साथ मिलकर काम किया है।
मौजूदा समय में छत्तीसगढ़ में महिला सशक्तिकरण की रोल मॉडल बन चुकी फूलबासन बाई का जन्म राजनांदगांव जिले के ग्राम छुरिया में 1971 में पिता श्री झड़ीराम यादव एवं माता श्रीमती सुमित्रा बाई के घर हुआ। घर की आर्थिक स्थिति कमजोर थी। बड़ी मुश्किल से उन्होंने कक्षा 7वीं तक शिक्षा हासिल की। मात्र 12 वर्ष की उम्र में उनका विवाह ग्राम सुकुलदैहान के चंदूलाल यादव से हुआ। भूमिहीन चंदूलाल यादव का मुख्य पेशा चरवहे का है। गांव के लोगों के पशुओं की चरवाही और बकरी पालन उनके परिवार की जीविका का आज भी मुख्य आधार है।
छत्तीसगढ़ राज्य बनने से पहले छत्तीसगढ़ को पिछड़ा इलाका कहा जाता था और यहां की महिलाएं भी पिछड़ेपन की शिकार थीं। राज्य बनने के बाद वर्ष 2001 में यहां की महिलाओं को जागृत और सशक्त करने के उद्देश्य से महिला सशक्तिकरण का काम शुरू हुआ। तत्कालीन कलेक्टर दिनेश श्रीवास्तव की पहल पर राजनांदगांव जिले में महिलाओं को एकजुट करने एवं उन्हें जागरूक बनाने के उद्देश्य से गांव- गांव में मां बम्लेश्वरी स्व-सहायता समूह का गठन प्रशासन द्वारा शुरू किया गया। उस समय के तत्कालीन महिला बाल विकास अधिकारी राजेश सिंगी ने इस काम को पूरे जोशो खरोश के साथ किया इसका नतीजा रहा कि मौजूदा समय में राजनांदगांव महिला सशक्तिकरण की दिशा में आदर्श बन गया।
इस अभियान से प्रेरित होकर श्रीमती फूलबासन यादव ने अपने गांव सुकुलदैहान में 10 गरीब महिलाओं को जोड़कर प्रज्ञा मां बम्लेश्वरी स्व-सहायता समूह का गठन किया। महिलाओं को आगे बढ़ाने एवं उनकी भलाई के लिए निरंतर जद्दोजहद करने वाली फूलबासन यादव ने इस अभियान में सच्चे मन से बढ़- चढ़कर अपनी भागीदारी सुनिश्चित की। अभियान के दौरान उन्हें गांव- गांव में जाकर महिलाओं को जागरूक और संगठित करने का मौका मिला। अपनी नेक-नियति और हिम्मत की बदौलत श्रीमती यादव ने इस कार्य में जबर्दस्त भूमिका अदा की। देखते ही देखते राजनांदगांव जिले में मात्र एक साल की अवधि में 10 हजार महिला स्व-सहायता समूह गठित हुए और इससे डेढ़ लाख महिलाएं जुड़ गईं। महिलाओं ने एक दूसरे की मदद का संकल्प लेने के साथ ही थोड़ी- थोड़ी बचत शुरू की। देखते ही देखते स्व-सहायता समूह की बचत राशि करोड़ों में पहुंच गई। इस बचत राशि से आपस में लेनदेन करने की वजह से उन्हें सूदखोरों के चंगुल से भी छुटकारा मिला। बचत राशि से स्व-सहायता समूह ने सामाजिक सरोकार के भी कई अनुकरणीय कार्य शुरू कर दिए, जिसमें अनाथ बच्चों की शिक्षा-दीक्षा, बेसहारा बच्चियों की शादी, गरीब परिवार के बच्चों का इलाज आदि शामिल है। श्रीमती यादव ने सूदखोरों के चंगुल में फंसी कई गरीब परिवारों की भूमि को भी समूह की मदद से वापस कराने में उल्लेखनीय सफलता हासिल की।
फूलबासन यादव को 2004-05 में उनके उल्लेखनीय कार्यों के लिए छत्तीसगढ़़ शासन द्वारा मिनीमाता अलंकरण से नवाजा गया। 2004-05 में ही महिला स्व-सहायता समूह के माध्यम से बचत बैंक में खाते खोलने और बड़ी धनराशि बचत खाते में जमा कराने के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य के लिए फूलबासन बाई को नाबार्ड की ओर से राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। वर्ष 2006-07 में यूनियन बैंक ऑफ इंडिया द्वारा भी उन्हें सम्मानित किया गया। 2008 में जमनालाल बजाज अवार्ड के साथ ही जी-अस्तित्व अवार्ड तथा 2010 में भारत सरकार द्वारा स्त्री शक्ति पुरस्कार प्रदान किया गया। श्रीमती यादव को सद्गुरू ज्ञानानंद एवं अमोदिनी अवार्ड से भी सम्मानित किया जा चुका है। उक्त पुरस्कार के तहत मिलने वाली राशि को उन्होंने महिलाओं एवं महिला समूहों को आगे बढ़ाने में लगा दिया है। इन सबके बाद यह भी उल्लेखनीय है कि श्रीमती यादव के परिवार का जीवन- यापन आज भी बकरी पालन व्यवसाय के जरिए हो रहा है। सद्गुरू
फूलबासन ने अपने 12 साल के सामाजिक जीवन में कई उल्लेखनीय कार्यों को महिला स्व- सहायता समूह के माध्यम से अंजाम दिया है। महिला स्व- सहायता समूह के माध्यम से गांव की नियमित रूप से साफ- सफाई, वृक्षारोपण, जलसंरक्षण के लिए सोख्ता गड्ढा का निर्माण, सिलाई कढ़ाई सेन्टर का संचालन, बाल भोज, रक्तदान, सूदखोरों के खिलाफ जन- जागरूकता अभियान, शराबखोरी एवं शराब के अवैध विक्रय का विरोध, बाल विवाह एवं दहेज प्रथा के खिलाफ वातावरण का निर्माण, गरीब एवं अनाथ बच्चों की शिक्षा- दीक्षा के साथ ही महिलाओं को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाने में भी फूलबासन ने अहम रोल अदा किया है। राजनांदगांव जिला ही नहीं अपितु पूरे छत्तीसगढ़़ में श्रीमती यादव महिला सशक्तिकरण के क्षेत्र में सशक्त सूत्रधार के रूप में जानी जाती हैं।
पद्मश्री पुरस्कार हासिल कर फूलबासन ने नारी शक्ति को साबित किया है। नारी एकता को साबित किया है और साबित किया है कि यदि हौसला हो तो सब कुछ संभव है। बधाई हो फूलबासन को।
संपर्क: सहारा समय राजनांदगांव, मो. 9425240408
Email: aattuullss@gmail.com,
Blog: http://atulshrivastavaa.blogspot.in

भारतीय संस्कृति में होली के रंग अनेक

- कृष्ण कुमार यादव

होली के माध्यम से जीवन में व्याप्त निराशाजनक विचारों से मुक्त होकर नए आशावादी विचारों के साथ उल्लासपूर्वक जीवन का आरंभ संभव है। आज जब चारों तरफ आतंक और खून की होली खेली जा रही है, वहां रंगों का यह त्योहार यह सन्देश भी देता है कि इंसानियत का रंग एक ही है। हंसी खुशी, उल्लास का रंग एक है।
होली के रंग हमें प्रकृति से जोड़ते हैं। वसंत की फगुनाई के बीच घनी भूरी टहनियों पर हरे पत्तों के बीच चटक नांरगी रंग के टेसू के फूल इस उल्लास को और भी बढ़ा देते हैं। आखिर होली के रंग बनाने की शुरुआत तो इन्हीं टेसू के फूलों से ही हुई है। जीवन के उत्सवों की भाँति इनका आना- जाना होली के रंग को और भी चटक बना जाता है। रबी की फसल की कटाई के बाद वसन्त पर्व में मादकता के अनुभवों के बीच मनाया जाने वाला होली पर्व उत्साह और उल्लास का परिचायक है। अबीर- गुलाल व रंगों के बीच भांग की मस्ती में फगुआ गाते इस दिन क्या बूढ़े व क्या बच्चे, सब एक ही रंग में रंगे नजर आते हैं।
नारद पुराण के अनुसार दैत्य राज हिरण्यकश्यप को यह घमंड था कि उससे सर्वश्रेष्ठ दुनिया में कोई नहीं, अत: लोगों को ईश्वर की पूजा करने की बजाय उसकी पूजा करनी चाहिए। पर उसका बेटा प्रहलाद जो कि विष्णु भक्त था, ने हिरण्यकश्यप की इच्छा के विरूद्ध ईश्वर की पूजा जारी रखी। हिरण्यकश्यप ने प्रहलाद को प्रताडि़त करने हेतु कभी उसे ऊंचे पहाड़ों से गिरवा दिया, कभी जंगली जानवरों से भरे वन में अकेला छोड़ दिया पर प्रहलाद की ईश्वरीय आस्था टस से मस न हुई और हर बार वह ईश्वर की कृपा से सुरक्षित बच निकला। अंतत: हिरण्यकश्यप ने अपनी बहन होलिका जिसके पास एक जादुई चुनरी थी, जिसे ओढऩे के बाद अग्नि में भस्म न होने का वरदान प्राप्त था, की गोद में प्रहलाद को चिता में बिठा दिया ताकि प्रहलाद भस्म हो जाय। पर होनी को कुछ और ही मंजूर था, ईश्वरीय वरदान के गलत प्रयोग के चलते जादुई चुनरी ने उड़कर प्रहलाद को ढक लिया और होलिका जल कर राख हो गयी और प्रहलाद एक बार फिर ईश्वरीय कृपा से सकुशल बच निकला। दुष्ट होलिका की मृत्यु से प्रसन्न नगरवासियों ने उसकी राख को उड़ा- उड़ा कर खुशी का इजहार किया। मान्यता है कि आधुनिक होलिकादहन और उसके बाद अबीर- गुलाल को उड़ाकर खेले जाने वाली होली इसी पौराणिक घटना का स्मृति प्रतीक है।
भविष्य पुराण में वर्णन आता है कि राजा रघु के राज्य में धुंधि नामक राक्षसी को भगवान शिव द्वारा वरदान प्राप्त था कि उसकी मृत्यु न ही देवताओं, न ही मनुष्यों, न ही हथियारों, न ही सर्दी- गर्मी- बरसात से होगी। इस वरदान के बाद उसकी दुष्टतायें बढ़ती गयीं और अंतत: भगवान शिव ने ही उसे यह शाप दे दिया कि उसकी मृत्यु बालकों के उत्पात से होगी। धुंधि की दुष्टताओं से परेशान राजा रघु को उनके पुरोहित ने सुझाव दिया कि फाल्गुन मास की 15वीं तिथि को जब सर्दियों पश्चात गर्मियाँ आरम्भ होती हैं, बच्चे घरों से लकडिय़ाँ व घास- फूस इत्यादि एकत्र कर ढेर बनायें और इसमें आग लगाकर खूब हल्ला- गुल्ला करें। बच्चों के ऐसा ही करने से भगवान शिव के शाप स्वरूप राक्षसी धुंधि ने तड़प- तड़प कर दम तोड़ दिया। ऐसा माना जाता है कि होली का पंजाबी स्वरूप 'धुलैंडी' धुंधि की मृत्यु से ही जुड़ा हुआ है। आज भी इसी याद में होलिकादहन किया जाता है और लोग अपने हर बुरे कर्म इसमें भस्म कर देते हैं।
होली की रंगत बरसाने की लट्ठमार होली के बिना अधूरी ही कही जायेगी। कृष्ण- लीला भूमि होने के कारण फाल्गुन शुल्क नवमी को ब्रज में बरसाने की लट्ठमार होली का अपना अलग ही महत्व है। ब्रज में तो वसंत पंचमी के दिन ही मंदिरों में डांढ़ा गाड़े जाने के साथ ही होली का शुभारंभ हो जाता है। बरसाना में हर साल फाल्गुन शुक्ल नवमी के दिन होने वाली लट्ठमार होली देखने व राधारानी के दर्शनों की एक झलक पाने के लिए यहाँ बड़ी संख्या में श्रद्धालु व पर्यटक देश- विदेश से खिंचे चले आते हैं। इस दिन नन्दगाँव के कृष्णसखा 'हुरियारे' बरसाने में होली खेलने आते हैं, जहाँ राधा की सखियाँ लाठियों से उनका स्वागत करती हैं। यहाँ होली खेलने वाले नंदगाँव के हुरियारों के हाथों में लाठियों की मार से बचने के लिए मजबूत ढाल होती है। परंपरागत वेशभूषा में सजे- धजे हुरियारों की कमर में अबीर- गुलाल की पोटलियाँ बंधी होती हैं तो दूसरी ओर बरसाना की हुरियारिनों के पास मोटे- मोटे तेल पिलाए लट्ठ होते हैं। बरसाना की रंगीली गली में पहुँचते ही हुरियारों पर चारों ओर से टेसू के फूलों से बने रंगों की बौछार होने लगती है। परंपरागत शास्त्रीय गान 'ढप बाजै रे लाल मतवारे को' का गायन होने लगता है। हुरियारे 'फाग खेलन बरसाने आए हैं नटवर नंद किशोर' का गायन करते हैं तो हुरियारिनें 'होली खेलने आयै श्याम आज जाकूं रंग में बोरै री' का गायन करती हैं। भीड़ के एक छोर से गोस्वामी समाज के लोग परंपरागत वाद्यों के साथ महौल को शास्त्रीय रुप देते हैं। ढप, ढोल, मृदंग की ताल पर नाचते- गाते दोनों दलों में हंसी- ठिठोली होती है। हुरियारिनें अपनी पूरी ताकत से हुरियारों पर लाठियों के वार करती हैं तो हुरियार अपनी ढालों पर लाठियों की चोट सहते हैं। हुरियारे मजबूत ढालों से अपने शरीर की रक्षा करते हैं एवं चोट लगने पर वहाँ ब्रजरज लगा लेते हैं।
बरसाना की होली के दूसरे दिन फाल्गुन शुक्ल दशमी को सायंकाल ऐसी ही लट्ठमार होली नन्दगाँव में भी खेली जाती है। अन्तर मात्र इतना है कि इसमें नन्दगाँव की नारियाँ बरसाने के पुरूषों का लाठियों से सत्कार करती हैं। इसमें बरसाना के हुरियार नंदगाँव की हुरियारिनों से होली खेलने नंदगाँव पहुँचते हैं। फाल्गुन की नवमी व दशमी के दिन बरसाना व नंदगाँव के लट्ठमार आयोजनों के पश्चात होली का आकर्षण वंृदावन के मंदिरों की ओर हो जाता है, जहाँ रंगभरी एकादशी के दिन पूरे वृंदावन में हाथी पर बिठा राधावल्लभ लाल मंदिर से भगवान के स्वरुपों की सवारी निकाली जाती है। बाद में भी ठाकुर के स्वरूप पर गुलाल और केसर के छींटे डाले जाते हैं। ब्रज की होली की एक और विशेषता यह है कि धुलैंडी मना लेने के साथ ही जहाँ देश भर में होली का खुमार टूट जाता है, वहीं ब्रज में इसके चरम पर पहुँचने की शुरुआत होती है।
फागुन में जब रंगों की फुहारें भगवान श्री कृष्ण के बरसाने के होली उत्सव की याद दिलाती हैं तो रामलीला का आयोजन कुछ अजीब लगता है, लेकिन बरेली शहर में होली के रंगों में भगवान राम के आदर्श भी गूंजते हैं। 150 से भी अधिक साल से यहाँ फागुन में वमनपुरी की रामलीला होती आ रही है। संभवत: देश में यह अकेला ऐसी रामलीला है जो होली के उपलक्ष्य में होती है। यहां चैत्र कृष्ण एकादशी पर रामलीला का मंचन शुरु हो जाता है और धुलैंडी के दिन तक रोज विभिन्न प्रसंगों का मंचन होता है। रामलीला का समापन नृसिंह भगवान की शोभा यात्रा के साथ होता है। होली के दिन रामलीला से निकलने वाली राम बारात शहर में अनूठे रंग बिखेरती है। इसमें सौहार्द के फूल बरसते हैं।
हिन्दू हो या मुस्लिम सभी पुष्पवर्षा कर राम बारात का स्वागत करते हैं। फागुनी फिजाओं में रामलीला का यह उत्सव वाकई अद्भुत है। इसी प्रकार बनारस की होली का भी अपना अलग अन्दाज है। बनारस को भगवान शिव की नगरी कहा गया है। यहाँ होली को रंगभरी एकादशी के रूप में मनाते हैं और बाबा विश्वनाथ के विशिष्ट श्रृंगार के बीच भक्त भांग व बूटी का आनंद लेते हैं।
होली को लेकर देश के विभिन्न अंचलों में तमाम मान्यतायें हैं और शायद यही विविधता में एकता की भारतीय संस्कृति का परिचायक भी है। उत्तर पूर्व भारत में होलिकादहन को भगवान कृष्ण द्वारा राक्षसी पूतना के वध दिवस से जोड़कर पूतना दहन के रूप में मनाया जाता है तो दक्षिण भारत में मान्यता है कि इसी दिन भगवान शिव ने कामदेव को तीसरा नेत्र खोल भस्म कर दिया था और उनकी राख को अपने शरीर पर मल कर नृत्य किया था। तत्पश्चात कामदेव की पत्नी रति के दुख से द्रवित होकर भगवान शिव ने कामदेव को पुनर्जीवित कर दिया, जिससे प्रसन्न हो देवताओं ने रंगों की वर्षा की। इसी कारण होली की पूर्व संध्या पर दक्षिण भारत में अग्नि प्रज्वलित कर उसमें गन्ना, आम की बौर और चन्दन डाला जाता है। यहाँ गन्ना कामदेव के धनुष, आम की बौर कामदेव के बाण, प्रज्वलित अग्नि शिव द्वारा कामदेव का दहन एवं चन्दन की आहुति कामदेव को आग से हुई जलन हेतु शांत करने का प्रतीक है। मध्यप्रदेश के मंदसौर जिले में अव्यस्थित धूंधड़का गाँव में होली तो बिना रंगों के खेली जाती है और होलिकादहन के दूसरे दिन ग्रामवासी अमल कंसूबा (अफीम का पानी) को प्रसाद रूप में ग्रहण करते हैं और सभी ग्रामीण मिलकर उन घरों में जाते हैं जहाँ बीते वर्ष में परिवार के किसी सदस्य की मृत्यु हो चुकी होती है। उस परिवार को सांत्वना देने के साथ होली की खुशी में शामिल किया जाता है।
कानपुर में होली का अपना अलग ही इतिहास है। यहाँ अवस्थित जाजमऊ और उससे लगे बारह गाँवों में पाँच दिन बाद होली खेली जाती है। बताया जाता है कि कुतुबुद्दीन ऐबक की हुकुमत के दौरान ईरान के शहर जंजान के शहर काजी सिराजुद्दीन के शिष्यों के जाजमऊ पहुँचने पर तत्कालीन राजा ने उन्हें जाजमऊ छोडऩे का हुक्म दिया तो दोनो पक्षों में जंग आरम्भ हो गई। इसी जंग के बीच राजा जाज का किला पलट गया और किले के लोग मारे गये। संयोग से उस दिन होली थी पर इस दुखद घटना के चलते नगरवासियों ने निर्णय लिया कि वे पाँचवें दिन होली खेलेंगे, तभी से यहाँ होली के पाँचवें दिन पंचमी का मेला लगता है।
इसी प्रकार वर्ष 1923 के दौरान होली मेले के आयोजन को लेकर कानपुर के हटिया में चन्द बुद्धिजीवियों व्यापारियों और साहित्यकारों (गुलाबचन्द्र सेठ, जागेश्वर त्रिवेदी, पं. मुंशीराम शर्मा 'सोम', रघुबर दयाल, बाल कृष्ण शर्मा 'नवीन', श्याम लाल गुप्त 'पार्षद', बुद्धूलाल मेहरोत्रा और हामिद खाँ) की एक बैठक हो रही थी। तभी पुलिस ने इन आठों लोगों को हुकूमत के खिलाफ साजिश रचने के आरोप में गिरफ्तार करके सरसैया घाट स्थित जिला कारागार में बन्द कर दिया। इनकी गिरफ्तारी का कानपुर की जनता ने भरपूर विरोध किया।
आठ दिनों पश्चात जब उन्हें रिहा किया गया, तो उस समय 'अनुराधा- नक्षत्र' लगा हुआ था। जैसे ही इनके रिहा होने की खबर लोगों तक पहुँची, लोग कारागार के फाटक पर पहुँच गये। उस दिन वहीं पर मारे खुशी के पवित्र गंगा जल में स्नान करके अबीर- गुलाल और रंगों की होली खेली। देखते ही देखते गंगा तट पर मेला सा लग गया। तभी से परम्परा है कि होली से अनुराधा नक्षत्र तक कानपुर में होली की मस्ती छायी रहती है और आठवें दिन प्रतिवर्ष गंगा तट पर गंगा मेले का आयोजन किया जाता है।
पग- पग पर बदले बोली, पग- पग पर बदले भेष, वाले भारतवर्ष में होली का त्यौहार धूम- धाम से विभिन्न रंगों में मनाया जाता है। भारतीय उत्सवों को लोकरस और लोकानंद का मेल कहा गया है। होली पर्व के पीछे तमाम धार्मिक मान्यताएं, मिथक, परम्पराएं और ऐतिहासिक घटनाएं छुपी हुई है पर अंतत: इस पर्व का उद्देश्य मानव- कल्याण ही है।
लोकसंगीत, नृत्य, नाट्य, लोककथाओं, किस्से- कहानियों और यहाँ तक कि मुहावरों में भी होली के पीछे छिपे संस्कारों, मान्यताओं व दिलचस्प पहलुओं की झलक मिलती है। नए वस्त्र, नया श्रृंगार और लजीज पकवानों के बीच होली पर्व मनाने का एक मनोवैज्ञानिक कारण भी गिनाया जाता है कि यह पर्व के बहाने समाज एवं व्यक्तियों के अन्दर से कुप्रवृत्तियों एवं गन्दगी को बाहर निकालने का माध्यम है।
सही रूप में देखें तो होली के माध्यम से जीवन में व्याप्त निराशाजनक विचारों से मुक्त होकर नए आशावादी विचारों के साथ उल्लासपूर्वक जीवन का आरंभ संभव है। यही कारण है कि रंग खेलने के बाद लोग मस्ती में फगुआ गाते हैं और एक दूसरे को अबीर- गुलाल लगाकर भाईचारे का प्रदर्शन करते हैं। आज जब चारों तरफ आतंक और खून की होली खेली जा रही है, वहां रंगों का यह त्योहार यह सन्देश भी देता है कि इंसानियत का रंग एक ही है। हंसी खुशी, उल्लास का रंग एक है।

संपर्क- निदेशक, डाक सेवा, इलाहाबाद क्षेत्र, इलाहाबाद-211001,
मो. 08004928599, Email- kkyadav.y@rediffmail.com

Mar 23, 2012

फागुनी हवा


- ज्योतिर्मयी पंत
1
साँझ सिन्दूरी
रंग फैला,रवि भी
खेले होरी री।

2
पुहुप रंग
ओस की पिचकारी
धरा सजाए।

3
ये मधुमास
करे टोना प्रकृति
बेसुध सभी।

4
आए फागुन
अलि पिक गायन
तितली नाचे।

5
बिरवा झूमें
टेसू सरसों झूलें
फागुन छूले।

6
होली आई री
सजी टोलियाँ आली
आ खेलें होली।

7
स्नेह सिक्त हो
भाँग शराब बिन
ख़ुशी मनाएँ।

8
गीत संगीत
ढोल मँजीरे डफ
आनंद होली।

9
फागुनी हवा
थिरके धड़कन
बहके जिया।

10
बैर भुला दे
रंग पाटे खाइयाँ
लग जा गले।

संपर्क- ए-45, रिजेन्सी पार्क -1 , डी-एल -एफ़, फेज़ -4 गुड़गाँव-112002, मोबाइल-9911274074

होली, चुनाव और हाईटेकीय धमाल

- अविनाश वाचस्पति

इस बार होली हाई टेक होकर आई है। हाई टेक और चुनावी भी। इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनें कितने ही तरह के रंग उगल रही हैं। चुनावों से पहले ही उनका अलग तरह के रंग खौफ छाया हुआ है। वोटर के मन में शंका है कि वोट राम को दूंगा तो कहीं मशीन उसे श्याम के खाते फारवर्ड तो नहीं कर देगी, इसकी क्या गारंटी है।
चुनाव और होली। नेता भर रहे हैं वोटों से झोली। वाह जनाब वाह। हाथी ढक दिए गए हैं। परदे कस दिए गए हैं। फेंकने वाले तो परदे लगने पर भी तानों के रंग फेंक रहे थे। तानों के रंग कौन से गुब्बारे में भरे जाते हैं और कौन सी पिचकारियों से फेंके जाते हैं। इस बारे में चाइना वाले भी नहीं बतला पा रहे हैं। इस पर शोध कार्य जारी हैं, कुछ रोषपूर्वक कर रहे हैं और अधिकतर धौंस में आकर कर रहे हैं। बच्चे बचपने के दवाब में करके खुश हैं और मजा मार रहे हैं। इस बार होली हाई टेक होकर आई है। हाई टेक और चुनावी भी। इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनें कितने ही तरह के रंग उगल रही हैं। चुनावों से पहले ही उनका अलग तरह के रंग खौफ छाया हुआ है। वोटर के मन में शंका है कि वोट राम को दूंगा तो कहीं मशीन उसे श्याम के खाते फारवर्ड तो नहीं कर देगी, इसकी क्या गारंटी है। जब इस जमाने में वारंटी किसी चीज की नहीं है। गारंटियों वाले जमाने तो ईद का चांद हो गए हैं। गारंटी- वारंटी की बात भर कर लो तो मंगल पर दंगल हो जाता है। जब होली के रंग ही गारंटिड नहीं रहे हैं कि आप लाल रंग डालेंगे तो लाल ही करेंगे, हो सकता है वो थोबड़े को हरा रंग दें। इसे होली का पर्यावरण कहा जा सकता है। नतीजे काले, लाल या स्याह सफेद भी आएंगे। वे भी तो होली मनाएंगे। आखिर चुनावी नतीजों के बीच में होली का आ धमकना, अकारण ही तो नहीं है। गुब्बारे का फूटना अब स्टिकी रंगीय बम का कमाल है। जो अपने आप में अपनी मिसाल है।
कभी आपने एक मेंढक को दूसरे मेंढक को गुब्बारा मारते देखा है, देखा तो आपने एक विजयी नेता को पराजित नेता को गुब्बारा मारते भी नहीं होगा। चाहे वे ऊपर से हार जीत जाएं पर उनके भीतर विजयी भाव सदा समाया रहता है। उस समाने में रंग काले नहीं होते, वे रंगीन होते हैं। जो सबको मुग्ध करते हैं। आप कल्पना कर सकते हैं कि नीला रंग करेंसी नोटों की नीली छटा बिखेर रहा है, लाल रंग भी करेंसी नोटों की लालिमा निखार रहा है और हरा रंग तो हरियाली सदा बिखेरने में सदा से निपुण ही है। सबने मिलकर सब तरफ सिर्फ धन और धन की बरसात ही कर रखी है और इसमें नहाने को हर कोई बेताब है। जब धन लबालब दिखलाई दे रहा हो तो फिर कोई भी कहीं ओर क्यों जाएगा। सब एक बार होली बिना खेले तो काम चला लेंगे परंतु नोटों की झोली भरे बिना उनके मन और तन को चैन नहीं मिलेगा। गुझिया और कांजी के बिना भी एक बार होली मना लेंगे परंतु धन पाने के बिना वासना का ज्वार कैसे शांत होगा।
अब तो कम्प्यूटर का जमाना है। आप कौन से रंग की होली खेलना चाहते हैं। बस एक बार जाहिर करें, आपका मोबाइल वही रंग उगलने लगेगा. आप घबरा रहे हैं कि सामने वाले के ऊपर रंग डाला तो उसका मोबाइल भीग जाएगा, लेकिन वही मोबाइल आपको ऊपर रंग उगलने लगता है। जिसका बटन दबाए बिना सिर्फ सोचने भर से ही सामने वाले के चेहरे की रंगीन फेसबुक बन जाती है। आप उस मोबाइल से संदेश भेजते हैं, तो उसमें से बतौर संदेश रंग भरे गुब्बारे निकलते हैं और पूछते हैं, बोल मुझे भेजने वाले, मेरे स्वामी, मेरे बिल को भुगतने वाले, जल्दी बतला मुझे, किसके फेस को रंगीन करना है, या रंगहीन करना है। मैं दोनों काम करने में भली- भांति सक्षम हूं। आजकल जिन्न दीये को रगडऩे से नहीं, मोबाइल के बटन को क्लिकाने से, निकलता है। होली का यह हाईटेकीय स्वरूप मोबाइल और कम्प्यूटर के मेल से ही संभव हो पाया है। होली पर रंग इतने नहीं होते हैं, जितनी उनकी उमंगें हसीन होती हैं। भंग की तरंग उतना असर नहीं करती जितना असर कंप्यूटर की वायरस की जंग करती है। उमंगों में बसी तरंगें उन्हें सदा युवा रखती हैं। उमंगों पर बुढ़ापे का असर नहीं होता है। जिस तरह काले रंग पर कोई दूसरा रंग असर नहीं करता है, बिलकुल उसी प्रकार उमंगों में सदा जवानी उफनती रहती है। होली हो या न हो, उमंग शरीर के प्रत्येक अंग से फूट पड़ती है किसी गीले रंग भरे गुब्बारे की तरह और आपको मस्ती से सराबोर कर देती है। इन उमंगों को लूटने के लिए सभी तैयार रहते हैं। आप भी तैयार हैं न सभी के अपने अपने रंग हैं। अलग- अलग स्टाइल हैं। आप कितनी ही होली खेल खिला लें, अगर आपने साली को रंग नहीं लगाया तो काहे की होली। वैसे महंगाई और भ्रष्टाचार मिलकर खूब भर रहे हैं झोली। होली खेल खिला रहे हैं। महंगाई इतरा रही है। सबने जबकि उसका चौखटा काला कर डाला है पर उससे बच न सका कोई साली या साला है। महंगाई अब पूरे वर्ष होली खेलती है, कभी प्याज से, कभी आलू से, कभी टमाटर से, आजकल नींबू से खेल रही है।
महंगाई जिससे भी होली खेले पर निचोड़ी जनता जाती है। वो होली खेलने में मगन रहती है। पर अपने ऊपर रंगों की फुहार से वो इतना ओत- प्रोत हो जाती है कि चारों तरफ से लिप- पुत जाती है। कहीं से कुछ नजर नहीं आता है। अंधाता नहीं है पर खुली आंखें भी मुंदी रहती हैं। चैन पल भर नहीं लेने देती है महंगाई, न होली पर, न दिवाली पर दिवाली की होली और होली की दिवाली ऐसे ही मनती है और जनता मतवाली रहती है और उसका दिवाला निकल जाता है। वह ईद के इंतजार में लगन लगा लेती है। सभी को ऐसे उत्सव ही भाते हैं। सभी रंगाते हैं और साथ में होली के फिल्मी गीत गुनगुनाते हैं। कहीं भांग सॉन्ग बनकर ओठों से फूटती है। होली अभी दरवाजे पर है। माहौल बन रहा है, मैं भी सोच ही रहा हूं कैसे इस बार हाईटेक होली का बेनिफिट उठाऊं। फेसबुकिया फ्रेंड्स को रंगों से कैसे नहलाऊं। कोई आइडिया हो तो बताना, मैसेज टाइप कर सेंड का बटन दबाना और अन्ना हमारे हैं परेशान, इस बार उनकी होली और तबीयत दोनों ढीली ढीली हैं। भ्रष्टाचार का रंग लाल गुलाल है, देखकर सारा देश अब हैरान है लेकिन यह सब हाईटेकीय होली का कमाल धमाल है। बच्चा देश के गुब्बारे फोड़ कर बन रहा नौनिहाल है। फेसबुक को लेकर मच रहा बवाल है।

संपर्क- साहित्यकार सदन, 195 पहली मंजिल, 195 सन्त नगर, नई दिल्ली 110065 मोबाइल 9718750843,
Email- nukkadh@gmail.com

नफरत से इंकार


- इस्मत जैदी
है होली रंगों का त्यौहार
ये रंग बाँटे हैं सब में प्यार
न इन में द्वेष घोलना।

ये सुंदर भावों का संचार।
है इक दूजे की ये मनुहार
न इन में द्वेष घोलना।

है होली नफरत से इंकार
दिलों के बीच न हो व्यापार
न इन में द्वेष घोलना।

है पिचकारी वो प्रेम की धार
गिरा दे नफरत की दीवार
न इन में द्वेष घोलना

हैं इन रंगों के अर्थ हजार
नहीं हैं केवल ये बौछार
न इन में द्वेष घोलना

संपर्क: 9-ए, एफ-1, मॉडल लिजेसी, टालेगाव, गोवा- 403002

जिला बदर के नये मौके

-विनोद साव
'अरे! कल रात मैं सोया तब तो तहसील था और सबेरे उठा तो जिला बन गया! ऐसा कैसे हो गया?' वे अचंभित हुए। मैंने कहा 'ये सरकार का जादू है जिसे जादू की सरकार ने पूरा किया। रात में रमता जोगी को छोड़कर सोओ तो सबेरे राजा रमन मिलते हैं।''अब क्या बलौदा बाजार को रेलगाड़ी मिल जावेगी।' मैं साहू जी की इस मांग से घबरा उठा 'रेलगाड़ी! रेलगाड़ी देना रइपुरहीन सरकार के हाथ में नहीं है साहूजी ये दिल्ली वालों का काम है।'
मैंने बलौदा बाजार के साहूजी को मोबाइल लगाया। उनकी पत्नी ने उठाया 'साहू जी तो सो रहे है।' मैंने कहा 'आप लोगों को हार्दिक बधाई .. आपका बलौदा बाजार जिला बन गया है।'
'चीला बन गया है! बलौदा बाजार का चीला कैसे बन गया!' ये सरकार भी ना... कुछ भी करती रहती है। उधर से आवाज आई।
मैंने कहा 'अरे बहन जी चीला नहीं जिला बन गया है। हां.. इस खुशी में आप लोग चीला बनाकर खा सकते हैं। चीला खाइए और बधाई देने वालों को खिलाइए। अपने मुख्यमंत्री जी कहते हैं 'मुझे फास्टफुड पसंद नहीं है मैं तो चीला खाता हूं।' अगर सरकार चाहे तो तीजा- पोरा को छत्तीसगढ़ का मुख्य त्यौहार घोषित कर महिलाओं को तीन दिन की छुट्टियां दिलवाए और इस खुशी में राज्य भर में बोबरा- चीला बंटवाए तब जाकर जिला बनाना सार्थक होगा।
'बने तो कहात हौ। राह.. साहूजी ला उठावथौं।' सहुवाइन छत्तीसगढ़ी बोलते हुए पुलक उठी। अब की बार मोबाइल पर साहू जी थे -'जय जोहार गा.. साहेब।' मैंने कहा 'जय जोहार ..साहूजी। अरे आपका शहर जिला बन गया और आप सोए हुए हैं। इस तरह से लोग जिला बनने के बाद भी सोते रहेंगे तो इन नये जिलों का क्या होगा? जनता को जागना चाहिए। सोना प्रशासन का काम है।'
'अरे! कल रात मैं सोया तब तो तहसील था और सबेरे उठा तो जिला बन गया! ऐसा कैसे हो गया?' वे अचंभित हुए। मैंने कहा 'ये सरकार का जादू है जिसे जादू की सरकार ने पूरा किया। रात में रमता जोगी को छोड़कर सोओ तो सबेरे राजा रमन मिलते हैं।'
'अब क्या बलौदा बाजार को रेलगाड़ी मिल जावेगी।' मैं साहू जी की इस मांग से घबरा उठा 'रेलगाड़ी! रेलगाड़ी देना रइपुरहीन सरकार के हाथ में नहीं है साहूजी ये दिल्ली वालों का काम है।'
'तो कब तक हम लोग भाठापारा में रेलगाड़ी चढ़ते रहेंगे और कब हमारे कानों में रेलगाड़ी आने की घण्टी सुनाई देगी? उधर भाठापारा वाले जिला बनाने की भी मांग कर रहे हैं जबकि उनके पास रेलगाड़ी तो है ही। एक चीज उनके पास है तो एक चीज हमारे पास रहने दो।
रेल पकडऩे के लिए सीढ़ी हम भाठापारा में चढ़ते हैं तब जिला कचहरी की सीढ़ी भाठापारा वाले हमारे बलौदा में चढ़ें। तभी हिसाब किताब बराबर होगा। अच्छा आप ये बताव कि जिला बने के बाद हमला अउ काय काय मिलही?'
'आपको जिला कचहरी, जिला अस्पताल, जिला शिक्षा, जिला प्रशासन और जिला पुलिस मिल जावेगी। अब आप रायपुर के चक्कर लगाने से बच जावेंगे।' मैंने मिलने वाले दफ्तरों और महकमों की लम्बी सूची उन्हें सुनाई।
'और कोई मंत्री मिलेगा। आज तक हमारे बलौदा बाजार में कोई मंत्री नहीं बना है। खाली संतरी से ही काम चला रहे हैं। इतना पुराना हमारा ये तहसील मुख्यालय है पर यहां से आज तक कोई विधायक मंत्री नहीं बना है। एक महिला यहां पूर्व प्रधानमंत्री की भतीजी निकल गई थी उसे भी सांसद बनाकर दिल्ली भेजा गया पर वह भी मंत्री नहीं बन सकी बल्कि उनके दिल्ली पहुंचते ही उनके चचा प्रधानमंत्री से भी हाथ धो बैठे। हमारे इलाके को सीमेन्ट गारा के सिवा मिला क्या है? बलौदा में बाजार है और सिविल लाइन। बजार में नून तेल खरीद लेते हैं और सुबह सिविल लाइन में फोकट की ठण्डी हवा खा लेते हैं.. बस्स।
'मंत्री नहीं मिले तो क्या हुआ साहूजीे अब तो आपके शहर को कलेक्टर साहब मिल जावेंगे। एक कलेक्टर कई- कई नेताओं पर भारी पड़ता है।'
मैंने उनको अमरकांत की कथा सुनाई जिसमें एक आदमी की तपस्या पर भगवान प्रगट होते हैं और कहते हैं 'हम तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हुए भक्त.. अब तुम वर मांगो।' तपस्वी कहता है' भगवान! मुझे कलेक्टर बना दो।' तब भगवान कहते हैं 'अरे कलेक्टर क्या चीज है तुम और कुछ अच्छा मांगो।'
तब तपस्वी कहता है 'भगवान आप नहीं जानते कि कलेक्टर कितना बड़ा होता है! आप कभी कलेक्टर बने होते तो जानते।'
'तब हमारे चण्डाल भांठा के दिन बहुरेंगे?' साहूजी ने फिर कुछ उटपुटांग सवाल दागा। मैंने कहा 'ये चण्डाल भांठा क्या भाठापारा का भाई है।' वे बोले 'आपने ठीक कहा ये पूरा इलाका चटर्री भांठा से भरा हुआ है, इसीलिए भाठापारा बना है। इस पूरे इलाके में किसी भी सड़क पर जाओ दूर- दूर तक भांठा ही भांठा दीखता है, गांव बस्ती कम दिखती है। निर्जन प्रदेश की तरह लगता है। भांठा का सन्नाटा यहां लोगों के चेहरों पर दिखलाई पड़ता है। ज्यादा मोटर गाड़ी इसीलिए नहीं चलती कि भांठा में कौन सवार चढ़ेगा। इसकी एक नहर योजना साठ साल पुरानी है लेकिन आज तक नहरें नहीं खुदीं। न नहर न कोई बांध। पानी और हरियाली का संकट है। अब आप कह रहे हो यहां जिला पुलिस मिल जावेगी तब गड़बड़ घोटाला करने वाले कुछ लोगों को यहां से जिला बदर होने का मौका मिलेगा बस्स।'
मैंने कहा 'साहूजी .. अरे भई जिला बनने की कुछ तो खुशी मनाइये।' उन्होंने सहुवाइन को आवाज लगाई 'कहां हस वो बाई...चल तो दू रुपया किलो वाले चाऊंर के चीला बना।' अब वे दोनों चावल का चीला और मिरचा पताल की चटनी खाते हुए नये जिला बनने की खुशी मना रहे थे।

संपर्क- मुक्तनगर, दुर्ग छत्तीसगढ़, 491001, मो. 9407984014 Email- vinod.sao1955@gmail.com

लघु व्यंग्य

- अखतर अली

भिखारी

भिखारी सड़क पर गाते हुए मांग रहा था ।
एक राहगीर उसके गीत से प्रभावित हुआ और पूछा-ये गीत किसने लिखा है ?
भिखारी ने कहा- मैंने लिखा है।
राहगीर को आश्चर्य हुआ, वह बोला- अरे वाह भीख मांगते- मांगते कविता लिखने लगे!
भिखारी ने कहा- नहीं, कविता लिखते- लिखते भीख मांगने की नौबत आ गई है।

नेता की वसीयत

एक नेता की यह वसीयत थी कि मेरे को मरने के बाद कब्र में लिटाना नहीं बल्कि कब्र में कुर्सी रख कर उसमें बैठा देना और एक माईक रख देना, कब्र को तुम लोग फूलों से तो लाद ही दोगे। मुर्दों में अब मेरी सरकार बनना तय है।

ठेकेदारी

-पापा मैं ठेकदारी करूंगा।
-तू क्या खाकर ठेकेदारी करेगा?
-पापा ठेकेदारी खाकर नहीं, खिलाकर की जाती है।

संपर्क- फजली अर्पाटमेंट, आमानाका, रायपुर, मोबाईल - 9827126781
Email- akhterspritwala@yahoo.co.in

अपना भारत वे वहाँ भी बना लेते हैं

- डॉ. अनीता कपूर
बाजारों में भारतीय दुकानों में टेसू के रंग भी आसानी से मिलते हैं। आयोजन स्थलों पर व्यक्तिगत सुरक्षा और सफाई का पूरा -पूरा ध्यान रखा जाता है और किसी को भी हानिकारक रंगों का या गलत तरीके से इस्तेमाल करने नहीं दिया जाता। उत्सव की इतनी उत्सुकता देखने को मिलती है कि अभारतीय और यहाँ तक की वहाँ मौजूद सुरक्षा कर्मी भी इसके आकर्षण से अछूते नहीं रह पाते।
प्रवासी भारतीय के मन में कुछ अर्सा पहले जो सवाल उठता था कुछ धुंधला सा होता जा रहा है यह सवाल था 'अपना देश छोड़ कर हम यहाँ क्यों आ बसे हैं। हमारे इस फैसले से कहीं हमारे बच्चें अपनी संस्कृति और धर्म से दूर तो नहीं हो जायेंगे?...' आदि- आदि। लेकिन ऐसी बात नहीं है। भारत से बाहर विदेशी धरती पर रहते हुए भी भारतीय अपनी संस्कृति और धर्म को विरासत में अपने बच्चों को देते आ रहे हैं। बाहर रहते हुए भी वे अपने सभी भारतीय त्यौहार बिलकुल वैसे ही मनाते हंै जैसे भारत में। आप स्वयं देखकर भी विश्वास नहीं कर पायेगें, कि आप भारत में न होकर किसी विदेशी धरती पर हैं।
मुझे अमरीका के अलावा अन्य देशों में रह रही अपनी मित्रों से 'होली' के त्यौहार पर बात करने का मौका मिला... जो आपसे सांझा कर
रही हूँ-
लंदन में रहने वाली शिखा वाष्र्णेय जी से बात करने पर उन्होंने बताया कि लंदन एक कोस्मोपोलेटन शहर है अत: यहाँ सभी धर्म और जाति के उत्सव खूब धूमधाम से मनाये जाते हैं।
होली का त्योहार लंदन और लंदन के बाहर सभी बड़े शहरों में व्यापक रूप से मनाई जाती है। मुखत: धर्म संस्थानों और स्थलों (मंदिर आदि) पर विभिन्न संगठनों के लोग मिलकर इस उत्सव का आयोजन करते हैं, जहाँ होली मिलन, होली खेलना और जलपान के अलावा सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन भी होता है।
बाजारों में भारतीय दुकानों में टेसू के रंग भी आसानी से मिलते हैं। आयोजन स्थलों पर व्यक्तिगत सुरक्षा और सफाई का पूरा -पूरा ध्यान रखा जाता है और किसी को भी हानिकारक रंगों का या गलत तरीके से इस्तेमाल करने नहीं दिया जाता। उत्सव की इतनी उत्सुकता देखने को मिलती है कि अभारतीय और यहाँ तक की वहाँ मौजूद सुरक्षा कर्मी भी इसके आकर्षण से अछूते नहीं रह पाते। और सभी इस खूबसूरत प्रेम मिलन के उत्सवी रंग में सरोवर हो जाते हैं। सभी लोग अपनी पसंद के आयोजन स्थल पर जाकर बहुत ही उल्लास और प्रेम के साथ आपस में होली खेलते हैं। फिर जलपान करके अपने- अपने घरों को जाते हैं। शाम को सभी मित्रों और शुभचिंतकों से मिलने का सिलसिला शुरू होता है। इन्हीं स्थानों पर धुलहण्डी से एक दिन पहले होलिका जलाने का भी आयोजन किया जाता है।
बहुत वर्षों से न्यूयॉर्क में रहने वाली दक्षिण अमेरिका के उत्तर पूर्वी तट में स्थित गुयाना की, कौसविला जी यहाँ रहते हुए भी गुयाना में मनाए जाने वाली होली को भुला नहीं पाती हैं। होली के दिन के उत्साह को याद करके वे रोमांचित हो उठीं। उन्होंने बताया कि, वहाँ लोग होली को फगवा भी कहते है और होली का विशेष गाना छौताल गाते हंै एक दूसरे पर रंगों का छिड़काव करते हैं... एक महीने पहले अरंडी के पौधे के रोपण के साथ शुरू होकर एक महीने बाद होलिका के रूप में उस पौधे को जला दिया जाता है, प्रहलाद की विष्णु भक्ति तथा बुराई पर अच्छाई की विजय के लिए पौराणिक कहानी का रूप दिखाते हुए। चूंकि गुयाना में 40 प्रतिशत से भी ज्यादा हिन्दू रहते हैं इसीलिए होली के दिन वहाँ छुट्टी रहती है और लोग अपने परिवारों के साथ होली का दिन बिताना पसंद करते हैं।
सूरीनाम में रहने वाली और हिन्दी के लिए काम कर रही भावना सक्सेना जी से जब बात हुई तो उन्होंने बताया कि सूरीनाम में भारतीयों की एक बड़ी संख्या है जो वहाँ उत्तर प्रदेश और बिहार से आकर बसा है। इसीलिए होली वहाँ बहुत खुशी और उत्साह से मनाई जाती हैं और बिलकुल वैसे ही मनाई जाती है जैसे भारत में मनाते है... यहाँ के लोग होली गीत गाते हुए एक दूसरे पर रंग छिड़काव करते हैं, एक दूसरे के गले मिलते हैं। होलिका को, जो बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है, होली की पूर्व संध्या पर जला दिया जाता है। यहाँ भी गुयाना की तरह ही अरंडी का पौधा रोपा जाता है, और बाद में इस पौधे को होलिका के रूप में जलाया जाता है। गुयाना, त्रिनिदाद और टोबैगो और सूरीनाम में हिन्दुओं की संख्या बहुतायत से होने के कारण होली और बाकी त्यौहारों को मनाए जाने में बिलकुल समानता दिखती है। इन दिनों लोग एक दूसरे के घरों में या मंदिरों में छौताल और तान गायन में संलग्न रहते हैं। गुलगुले, चना, खीर या मीठे चावल का प्रसाद चढ़ाकर मिल -बाँटकर खाते हैं।
संयुक्त राज्य अमेरिका में बसे भारतीयों की एक बड़ी आबादी है, इसी कारण होली बहुत उल्लास और धूमधाम के साथ मनाई जाती है। भारतीयों और धार्मिक संगठनों द्वारा गठन विभिन्न समाजों के लोगों को इस खुशी का जश्न मनाने के लिए और अपनी सांस्कृतिक जड़ों के करीब महसूस करने में मदद करते हैं। संगीत कार्यक्रमों और होली की बैठक भी उनके द्वारा आयोजित होती है इस अवसर पर। इससे नई पीढ़ी में अपनी सांस्कृतिक जड़ के साथ की पहचान में मदद मिलती है। बच्चे त्योहारों के महत्त्व को समझने और उनके साथ जुड़े किंवदंतियों को सीखते हैं।
त्योहार के लिए महान उत्साह विशेष रूप से उन शहरों में, जहाँ भारतीयों बड़ी संख्या में बसे है, में देखा जा सकता है।
चूंकि अमरीका में त्योहार अवकाश के दिन मनाए जाते हैं इसीलिए शायद ही कोई भारतीय होगा जो रंग के साथ न खेलते देखा जाता हो, बल्कि पूरे वर्ष सब होली का इंतजार करते हैं, अमरीकी मूल के लोग भी भागीदारी करते हैं। सब लोग या तो घरों में या फिर कम्यूनिटी सेंटर में एकत्र होते हंै और रंगों से होली खेलते हैं। बाकायदा गुझिया तथा होली के अन्य पकवान बनते हंै और सब मिल कर खाते हैं।
त्योहार के लिए उत्साह दुगना हो जाता है जब होली मनाने के साथ विशेष कार्यक्रम भी आयोजित किए जाते हैं जैसे नृत्य प्रदर्शन, फैशन शो और संगीत समारोह जो उत्सव मनाने की भावना को दुगना कर देते हैं। विदेश में रहने के कारण प्रवासी भारतीय किसी में देश में क्यों न हो वो वहाँ एक अपना भारत बना ही लेते हैं।

संपर्क- c/o श्री लछमन स्वरूप अरोड़ा, हाउस नं. ई-169/1 फस्र्ट फ्लोर, जीवन नगर आश्रम, नई दिल्ली -10014, मो. 09313883021 Email- anitakapoor.us@gmail.com

खेलत अवधपुरी में फाग, रघुवर जनक लली

प्रो. अश्विनी केशरवानी

अयोध्या में श्रीराम सीता जी के संग होली खेल रहे हैं। एक ओर राम लक्ष्मण भरत और शत्रुधन हैं तो दूसरी ओर सहेलियों के संग सीता जी। केसर मिला रंग घोला गया है। दोनों ओर से रंग डाला जा रहा है। मुंह में रोरी रंग मलने पर गोरी तिनका तोड़ती लज्जा से भर गई है। झांझ, मृदंग और ढपली के बजने से चारों ओर उमंग ही उमंग है। देवतागण आकाश से फूल बरसा रहे हैं।
होली हिन्दुओं का एक प्रमुख त्योहार है। भारतीय संस्कृति का अनूठा संगम उनके त्योहारों और पर्वो में दिखाई देता है। इन पर्वो में न जात होती है न पात, राजा और रंक सभी एक होकर इन त्योहारों को मनाते हैं। सारी कटुता को भूलकर अनुराग भरे माधुर्य से इसे मनाते हें। इसीलिए होली को एकता, समन्वय और सद्भावना का राष्ट्रीय पर्व कहा जाता है। होली के आते ही धरती प्राणवान हो उठती है, प्रकृति खिल उठती है और कवियों का भावुक नाजुक मन न जाने कितने रंग बिखेर देता है अपनी गीतों में। देखिये इसकी एक बानगी पेश है-
होली का त्योहार मनायें
ले लेकर अबीर होली में
निकलें मिल जुलकर टोली में
बीती बातों को बिसराकर
सब गले मिलें होली में
पिचकारी भर भरकर
सबको हंसकर तिलक लगायें
आओं मिलकर होली मनायें।
गांवों में बसा हमारा भारत ग्राम्य संस्कृति में घुले मिले रचे बसे लोग मांगलिक प्रसंगों पर लोकगीत गाकर वातावरण को लुभावना बना देते हैं। गांवों में नगरीय सभ्यता से जुड़ा मंच नहीं होता। यहां के लोग धरती के गीत गाते हैं और उन्हीं में हमारे पर्व और त्योहारों की झांकी होती है। संभवत: समूचे विश्व में भारत ही एक ऐसा देश है जहां के पर्व और मांगलिक प्रसंग आपस में जोडऩे का काम करते हैं। होली का पर्व हो या दीपावली का, उसमें भारतीयता झलकती है। हसरत रिसालपुरी के शब्दों में-
मुख पर गुलाल लगाओ
नयनयन को नयनों से मिलाओ
बैर भूलकर प्रेम बढ़ाओ
सबको आत्मज्ञान सिखाओ
आओ प्यार की बोली बोलें
हौले हौले होली खेलें।
भारत में पर्व और त्योहार इतने हैं जितने कहीं नहीं हैं। यहां हर दिन किसी न किसी उत्सव से जुड़ा है। इनमें हमारा धर्म, हमारी सभ्यता और संस्कृति के साथ- साथ आध्यात्म जुड़ा होता है। ब्रज की होली हो या कहीं और की, उनमें समूचा भारतीय समाज रचा बसा है। कवि इन पर्व प्रसंगों को अपने जीवन का सहचर मानता है। कवि पद्माकर का यह छंद अनूठा और होली को रंगमय बनाने वाला है-
एकै संग धाये नंदलाल अउ गुलाल दोउ
दृगन नये ते भरि आनंद मढ़ै नहीं।
धोय धोय हारी पद्माकर तिहारी सोय
अब तो उपजाऊ एकौ चित में चढ़ै नहीं।
कैसे करौं, कहां जाओं कासे कहां बावरी
कोउ तो निकारो जाओ दरद बढ़ै नहीं।
ऐरी मेरी बोर जैसे तैसे इन आंखिन में
कढिय़ो अबीर पै अहीर तो कढ़ै नहीं।
ऐसे रंगों से सराबोर होली को खेलने में भला देवतागण भला पीछे क्यों रहे ? राधा-कृष्ण की होली के रंग ही कुछ और है। ब्रज की होली का रंग ही निराला है। अपने श्यामा श्याम के संग रंग में रंगोली बनाकर ब्रजवासी भी होली खेलने के लिये हुरियार बन जाते हैं और ब्रज की नारियां हुरियारिनों के रूप में साथ होती हैं और चारों ओर एक ही स्वर सुनाई देता है-
आज बिरज में होली रे रसिया
होली रे रसिया, बरजोरी रे रसिया।
उड़त गुलाल लाल भए बादर
केसर रंग में बोरी रे रसिया।
बाजत ताल मृदंग झांझ ढप
और मजीरन की जोरी रे रसिया।
फेंक गुलाल हाथ पिचकारी
मारत भर भर पिचकारी रे रसिया।
इतने आये कुंवरे कन्हैया
उतसों कुंवरि किसोरी रे रसिया।
नंदग्राम के जुरे हैं सखा सब
बरसाने की गोरी रे रसिया।
दौड़ मिल फाग परस्पर खेलें
कहि कहि होरी होरी रे रसिया।
इतना ही नहीं वह श्याम सखाओं को चुनौती देती है कि होली में जीतकर दिखाओ। उनमें ऐसा अद्भुत उत्साह जागृत होता है कि सब ग्वाल-बालों को अपना चेला बनाकर बदला चुकाना चाहती हैं। जिन ब्रज बालों ने अटारी में चढ़ी हुई ब्रज गोपियों को संकोची समझा था, आज वे ही होली खेलने को तैयार हैं। पेश है इस दृश्य की एक बानगी-
होरी खेलूंगी श्याम तोते नाय हारूं
उड़त गुलाल लाल भए बादर
भर गडुआ रंग को डारूं
होरी में तोय गोरी बनाऊं लाला
पाग झगा तरी फारूं
औचक छतियन हाथ चलाये
तोरे हाथ बांधि गुलाल मारूं।
फिर क्या था ब्रज में होली की ऐसी धूम मची कि सब रंग में सराबोर हो गये। जिसका जैसा वश चला उसने वैसी ही होली खेली। श्रीकृष्ण ने भी घाघर में केसर रंग घोला है और झोली में अबीर भरा है। उड़ते गुलाल से लाल बादल सा छा गया है। रंग से भरी यमुना बह रही है। ब्रज की गलियों में राधिका होली खेल रही है, रंग से भरे ग्वाल- बाल लाल हो गये हैं-
होरी खेलत राधे किसोरी बिरिजवा के खोरी।
केसर रंग कमोरी घोरी कान्हे अबीरन झोरी।
उड़त गुलाल भये बादर रंगवा कर जमुना बहोरी।
बिरिजवा के खोरी।
लाल लाल सब ग्वाल भये, लाल किसोर किसोरी।
भौजि गइल राधे कर सारी, कान्हर कर भींजि पिछौरी।
बिरिजवा के खोरी।
अयोध्या में श्रीराम सीता जी के संग होली खेल रहे हैं। एक ओर राम लक्ष्मण भरत और शत्रुधन हैं तो दूसरी ओर सहेलियों के संग सीता जी। केसर मिला रंग घोला गया है। दोनों ओर से रंग डाला जा रहा है। मुंह में रोरी रंग मलने पर गोरी तिनका तोड़ती लज्जा से भर गई है। झांझ, मृदंग और ढपली के बजने से चारों ओर उमंग ही उमंग है। देवतागण आकाश से फूल बरसा रहे हैं। देखिए इस मनोरम दृश्य की एक झांकी-
खेलत रघुपति होरी हो, संगे जनक किसोरी
इत राम लखन भरत शत्रुहन,
उत जानकी सभ गोरी, केसर रंग घोरी।
छिरकत जुगल समाज परस्पर
मलत मुखन में रोरी, बाजत तृन तोरी।
बाजत झांझ, मिरिदंग, ढोलि ढप
गृह गह भये चंहु ओरी, नवसात संजोरी।
साधव देव भये, सुमन सुर बरसे
जय जय मचे चंहु ओरी, मिथलापुर खोरी।
होली के दूसरे दृश्य में, रघुवर और जनक दुलारी सीता अवधपुरी में होली खेल रहे हैं। भरत, शत्रुघन, लक्ष्मण और हनुमान की अलग- अलग टोली बन गयी है। पखावज का अपूर्व राग बज रहा है, प्रेम उमड़ रहा है और सभी गीत गा रहे हैं। थाली में अगर, चंदन और केसरिया रंग भर रहे हैं। सभी अबरख, अबीर, गुलाल, कुमकुम रख रहे हैं। माथे पर पगड़ी रंग गयी है और गलियों में केसर से कीचड़ बन गया है। इस दृश्य की एक बानगी पेश है-
खेलत अवधपुरी में फाग, रघुवर जनक लली
भरत, शत्रुहन, लखन, पवनसुत, जूथ जूथ लिए भाग।
बजत अनहद ताल पखावज, उमगि उमगि अनुराग
गावत गीत भली।
भरि भरि थार, अगरवा, केसर, चंदन, केसरिया भरि थार
अबरख, अबीर, गुलाल, कुमकुमा, सीस रंगा लिए पाग।
केसर कीच गली।
तीसरे दृश्य में जानकी, श्रुति, कीर्ति, उर्मिला और मांडवी के साथ होली खेल रही हैं-
जानकी होरी खेलन आई
श्रुति, कीरति, उरमिला, मांडवी, संग सहेली सुलाई
केसर रंग भरे घर केचन चंदर गंध मिलाई
पीत मधु छिरकत आयी है, संग लिये सभ भाई
कर कंचन पिचुकारी हाथ लिये चलि आयी।
जब राधा-कृष्ण ब्रज में और सीता- राम अयोध्या में होली खेल रहे हैं तो भला हिमालय में उमा-महेश्वर होली क्यों न खेलें ? हमेशा की तरह आज भी शिव जी होली खेल रहे हैं। उनकी जटा में गंगा निवास कर रही है और पूरे शरीर में भस्म लगा है। वे नंदी की सवारी पर हैं। ललाट पर चंद्रमा, शरीर में लिपटी मृगछाला, चमकती हुई आंखें और गले में लिपटा हुआ सर्प। उनके इस रूप को अपलक निहारती पार्वती अपनी सहेलियों के साथ रंग गुलाल से सराबोर हैं। देखिए इस अद्भुत दृश्य की झांकी-
आजु सदासिव खेलत होरी
जटा जूट में गंग बिराजे अंग में भसम रमोरी
वाहन बैल ललाट चरनमा, मृगछाला अरू छोरी।
तीनि आंखि सुन्दर चमकेला, सरप गले लिपटोरी
उदभूत रूप उमा जे दउरी, संग में सखी करोरी
हंसत लजत मुस्कात चनरमा सभे सीधि इकठोरी
लेई गुलाल संभु पर छिरके, रंग में उन्हुके नारी
भइल लाल सभ देह संभु के, गउरी करे ठिठोरी।
शिव जी के साथ भूत-प्रेतों की जमात भी होली खेल रही है। देखिए इसकी एक झांकी-
सदासिव खेलत होरी, भूत जमात बटोरी
गिरि कैलास सिखर के उपर बट छाया चंहुओरी
पीत बितान तने चंहु दिसि के, अनुपम साज सजोरी
छवि इंद्रासन सोरी।
आक धतूरा संखिया माहुर कुचिला भांग पीसोरी
नहीं अघात भये मतवारे, भरि भरि पीयत कमोरी
अपने ही मुख पोतत लै लै अद्भुत रूप बनोरी
हंसे गिरिजा मुंह मोरी।
औघड़ बाबा शिव जी की होली को देखकर सभी स्तुति करने लगते हैं कि हे बाबा ! हमारे नगर में निवास करो ओर हमारे दुख हरो-
बम भोला बाबा, कहवां रंगवत पागरिया
कहवां बाबा के जाहा रंगइले और कहवां रंगइलें पागरिया
कासी बाबा के जाहा रंगइले आरे बैजनाथ पागरिया
तोहरा बयल के भूसा देवो भंगिया देइबि भर गागरिया
बसे हमारी नगरिया हो बाबा, बसे हमारी नगरिया।
देवताओं की होली को देखकर मन उनकी भक्ति में रम जाता है। ईश्वर का गुणगान करो, ताली बजाओ और सभी के संग होली खेलो। चित चंचल है अपने रंगीले मन को ईश्वर की भक्ति में-
रंग लोक रसिया रस लूटो होली में,
राम रंग पिचुकारि, भरो सुरति की झोली में।
हरि गुन गाओ, ताल बजाओ, खेलो संग हमजोली में
मन को रंग लो रंग रंगिले कोई चित चंचल चोली में
होरी के ई धूमि मची है, सिहरो भक्तन की टोली में।

'राघव' डागा कालोनी, चाम्पा- 495671 (छत्तीसगढ़)
Email- ashwinikesharwani@gmail.com

होरी है...

- यशवंत कोठारी
तू तो जानती है प्रिये मेरे इस लेखन के धन्धे में शीर्षक बदल कर लेख वापस छपा लेने के अलावा और कोई उपाय नहीं है सो मुझे माफ कर। नाराजगी दूर कर। और होली के हुड़दंग में मेरा साथ कर। दर्शकों, पाठकों को नमस्कार कर। सम्पादकों को प्रमाण कर।
तो माई डीयर पाठिकाओं, प्रेमिकाओं, प्रेमियों, पाठकों, युवाओं, वृद्धों, होली इज कम। अरे रे... जबान चल गईं, ये कौन भांग के नशे में अंग्रेजी बक रहा हैं। क्षमा करें, ज्यादा चढ़ गई थी। ओ प्रिया। जागो। देखो बागन में बगरयो बसंत है। विश्व विद्यालय में छा गयो पतझड़ है। आकाशवाणी और दूरदर्शन पर छा गयो अन्धेरो है। क्यूंकि आज होली है।
देख प्यारी, महंगाई और बजट की मारी होरी कैसी दहक रहीं है, जैसे सुहागन का लाल चटख जोड़ा। देख दक्षिण के पवन के झखोरे अब इस देश की नांव को किस और ले जा रहे हैं। हर तरफ उड़त गुलाल लाल भयो बादर की उमंग है। लला फिर आईयों खैलन होरी की ये आवाज हर गली मोहल्ले से आ रही है। और भाई ...सखी फिर आईयो खैलन होरी... गा रहे हैं। नल के महकमें में से ही पानी भरकर रंगीन होली खेल रहे हैं। जो समय बचता है उसमें महामूर्खो को इक_ा करते हैं। आलोचक जी की प्रगतिशील पतंग फिर उडऩे लग गयी हैं। देख वे होरी की तान छेड़ रहे हैं।
...क्या कहा तूने बम्बई जा रही हैं। अरे ठहर बावरी टी.वी. सिरियल देख कर ही संतोष कर। तेरी काया को देखकर कहीं टी. वी. वाले भाग न जाये। अरे रूक जा बावरी।
क्या कहा तूनै, नगर का हाल हवाल क्या है। अब तो पशुओं पर होरी का रंग चढऩे लगा है। गाय भैंस और अन्य मादाएं कैसी त्वरित गति से भाग रही हैं और इनके पीछे ये कैसे होरिहार है जो हर तरफ हुड़दंग कर रहे हैं। क्या इन्हें रोकने का कोई उपाय नहीं हैं।
गोरी तू क्यों फिक्र करती हैं। ये होरी के जाते ही स्वयं स्वाभाविक चाल में आ जाएंगे। आज जरा नजर फेर कर देख। ये चारों तरफ पत्रकारों के झुण्ड क्यों इकट्ठा हो रहे हैं। हम भारतीय इस गुगली का अभी तक विश्लेषण ही कर रहे हैं। यह कैसा बसन्त है जो विश्वविद्यालय में अध्यापकों को रोने को मजबूर कर रहा है।
सहित्य में भी आजकल आतंकवादियों का शोर है। हर व्यंग्यकार मुझे आंतकवादी नजर आता है। शायद तू सोच रही होगी कि ये सब नाटक आज ही क्यों हो रहा है। अरे बौराई गोरी आज नहीं तो फिर कब। अभी नहीं तो कभी नहीं। लेकिन देख अब चूकने का नहीं। यही समय है जब आदमी को कुछ कर गुजरना चाहिए। शहर में हास्यास्पद रस के कवि सम्मेलनों का दौर चल रहा हैं। तू कहे तो चक्कर चलाऊं। आजकल अच्छा पारिश्रमिक मिल जाता हैं। लगे हाथ खर्चा पानी, पीना, खाना मुफ्त। बोल तो सहीं तू सुस्त क्यों है। तेरी ये उदासी मुझ से देखी नहीं जाती।
जरा बाहर निकाल कर हवा का रूख तो देख। इस मौसम में तो ठूंठों के भी पल्लव आ जाते हैं। तू तो अभी जवान है।
जनता तक गुनगुनाते लगती है। होली में रसिया गाने लगती है। नायिका का इस ऋतु में बावली होना लाजिमी है।
सच पूछो तो होली है ही हल्ला मचाने का मौसम। सुबह- सुबह दैनिक अखबार हल्ला मचाते हैं, फिर सायंकालीन फिर साप्ताहिक पाक्षिक और मासिक।
तू तो जानती है प्रिये मेरे इस लेखन के धन्धे में शीर्षक बदल कर लेख वापस छपा लेने के अलावा और कोई उपाय नहीं है सो मुझे माफ कर। नाराजगी दूर कर। और होली के हुड़दंग में मेरा साथ कर। दर्शकों, पाठकों को नमस्कार कर। सम्पादकों को प्रमाण कर।
ताकि आने वाले वर्ष में कहीं न कहीं तेरा मेरा काम चलता रहे। होरी आती रहे। फाल्गुन आता रहे मन बौराता रहे और जीवन में मस्ती का आलम चलता रहे। आदर प्यार और स्नेह का। एक स्नेह भरा गुलाल का टीका सबके लिये लगा। हाथ जोड़ क्षमा मांग और विदा हो। देख अगली होली तक बैरागी मत बन जाना। नहीं तो सब किया धरा पानी में और भैंस कीचड़ में।
समझ गई न तू। होरी के प्यार में एक रसगुल्ला घुमा के मार फिर देखियो होरी रे गोरी...।

संपर्क- 86, लक्ष्मीनगर, ब्रह्मपुरी बाहर, जयपुर - 302002,
फोन- 0147-2670596, Email- ykkothari3@gmail.com

बाथ टब की होली

-रचना श्रीवास्तव
... यहाँ अपने देश जैसी बात है कहाँ दोस्तों, घर के बाहर खेला तो शिकायत होगी और जो लीजिंग ऑफिस के लोग है न वो जुर्माना कर देंगे। होली के दिन फटका (चूना) लग जायेगा। ...और घर के अंदर खेलें तो कार्पेट गंदा होगा और उसकी सफाई ख़ुद से तो होगी नहीं किसी को बुलाना होगा और उसके लिए देने होंगे आपनी गाढ़ी कमाई के कीमती डॉलर... तो क्या किया जाए ...।
अपने देश से यहाँ आ के बहुत कुछ पाया पर इस बहुत कुछ पाने में जो खोया वो बहुत कुछ से बहुत ज्यादा था। अपने देश जैसी बात तो यहाँ है नहीं विशेष कर जब बात हो त्यौहारों की। सब कुछ जैसे छोटा हो जाता है एक जगह में सिमट जाता है। आप सोच रहे होंगे की मैं अचानक ये क्या रोना लेके बैठ गई। जानते है अभी होली आई थी आई थी न... अरे भाई आई थी मैं इस बात को बात बार- बार क्यों कह रही हूँ आप के लिये नहीं ख़ुद को यकीन दिला रही हूँ की हाँ यहाँ भी आई थी होली। मंै आप को बताना चाहती हूँ कि मैं एक संवेदनशील लड़की हूँ और हर चीज मैं संवेदनाओं के साथ हास्य भी ढूँढ लेती हूँ अब आप सोचेंगे कि मैं क्या कहना चाहती हूँ आप पढ़ते रहिये मै बताती जा रही हूँ अरे रुक गए नहीं- नहीं, रुकिए नहीं पढ़ते रहिये, हाँ तो होली आई यहाँ पर यानी डलस में। यहां होली सिकुड़ के मन्दिर के प्रांगण में भले ही सिमट जाती है लेकिन वहाँ मेला -सा लग जाता है। फिर भी अपने देश वाली बात कहाँ... वहां तो रंग भी लगाया जाता है तो एक दूसरे को पूछ- पूछ कर ...क्यों भाई रंग लगा दूँ, यदि हाँ तो लगा दिया यदि नहीं पूछा और रंग लगा दिया और खुदा न खास्ता उसको रंग से अलर्जी हुई तो बस आप की होली के रंग में भंग हो सकता है।
होली के दिन यहाँ आनंद बाजार भी लगता है, ये मुझको बहुत पसंद है खूब खाओ... अलग- अलग पकवान... पर जानते हैं मैं जहाँ रहती हूँ डेनटन में वहां से मन्दिर 50 मिनट की ड्राइव पर है, अब इतनी लम्बी दूरी तय कर के बच्चों को ले कर जाओ फिर रंग लगाओ वह भी पूछ -पूछ कर। है न कितनी मेहनत का काम... ऐसा नहीं है कि मैं गई नहीं हूँ, मैं गई हूँ तभी तो आपको ये सब बता रही हूँ तब मेरे साथ मेरी बेटी ही थी। अब इन छोटू महाराज के आने के बाद तो थोड़ा और मुश्किल हो गया। ...तो मैंने सोचा कि क्यों न इस बार घर में ही होली मनाई जाये। अब सोच तो लिया पर कहाँ किस जगह खेलूं ये बहुत बड़ी समस्या आ गई। आप हँस रहे है ? कह रहें होंगे की भाई घर है, वहीं खेलो, सड़क है वहां खेलो इतना सोचने की क्या बात है। हूम... यहाँ अपने देश जैसी बात है कहाँ दोस्तों, घर के बाहर खेला तो शिकायत होगी और जो लीजिंग ऑफिस के लोग हंै न वो जुर्माना कर देंगे। होली के दिन फटका (चूना) लग जायेगा। ...और घर के अंदर खेलें तो कार्पेट गंदा होगा और उसकी सफाई ख़ुद से तो होगी नहीं किसी को बुलाना होगा और उसके लिए देने होंगे आपनी गाढ़ी कमाई के कीमती डॉलर... तो क्या किया जाए ...। फिर नजर गई रेस्टरूम पर यानी की बाथरूम पर। बस फिर क्या था हम घुस गए बाथटब में । खूब रंग लगाया एक दूसरे को। बच्चों को भी मजा आया, क्योंकि आज के दिन तो अपने घर पर माँ खुद घर को गंदा करने को कहती थी। खूब रंग उछाला गया। थोड़ा डर तब भी था दीवारों का। उसके बाद बाथ टब में पानी भरा गया उसमें रंग डाला गया और उसमें डुबकी लगाई गई। मेरी बेटी तो बहुत खुश थी। कहती है की आइ लाइक कलर बाथ... तो कलर बाथ के बाद साफ पानी से नहाकर सभी बाहर आ गये....और ऐसे हुई हमारी बाथ टब की होली...।
पर एक बात बताऊँ जब अपने देश भारत में रंग खेलते थे तो बाद में बहुत नींद आती थी उसी तरह से बाथ टब होली के बाद भी खूब नींद आई। दोस्तों यदि आपके पास अपना घर है तो आप बैक यार्ड में होली खेल सकते हैं, पर नहाना भी वहीं पड़ेगा क्योंकि रंग में भीगे हुए आप घर के अंदर नहीं जा सकते वरना कार्पेट खराब होगा। तो अच्छा है की मेरी तरह बाथ टब की होली खेल कर ही होली का भरपूर मजा लिया जाए... जानते हंै, मैं चाहती थी कि होली की मस्ती को बस यहीं पर खत्म करके आराम करूँ। मगर इसके आगे तो और भी बहुत कुछ था... शाम को घर पर एक छोटी-सी पार्टी रखी थी। खाना तो पहले से ही बना लिया था। पूड़ी- कचौरी तलनी थी। पर भइया यहाँ का घर है तलने से पहले बहुत इंतजाम करने पड़ते हंै -खिड़की खोलो महक सोखने वाली मोमबत्ती जलाओ, तब जाकर तलो वरना आने वालों को परेशानी होगी, और आपके घर में खाने की खुशबू भर जायेगी। सब हो गया लोग आ गये। हँसी ठहाकों के साथ गपशप करते करते थोड़ी रात हुई तो हमको अपनी आवाज धीमी करना पड़ी, क्योंकि पड़ोसियों तक हमारी आवाज नहीं पहुँचना चाहिए.... क्या अपने देश में हम कभी ऐसा सोचते हैं कि पड़ोस में रहने वाले को कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए... हम तो अपने घर के मालिक होते हैं जितनी मर्जी होगी उतना शोर मचाएंगे। और तो और लाउड स्पीकर लगा कर शोर मचाएंगे। किसी की परीक्षा है या कोई बीमार है, हमारी बला से खाना खाने के बाद मंैने घर आए सभी मेहमानों का मजाकिया टाइटिल देकर उनका खूब मजाक उड़ाया और जाते- जाते सबको एक टीका लगाकर कहा बुरा न मानो होली है... तो ऐसी रही भारत से हजारों किलोमीटर दूर अमरीका के डलस शहर की होली.....कभी आपका भी होली खेलने का मूड हो तो आ जाइये... अगली होली पर...

संपर्क: डलस, यू एस ए ,Email- rach_anvi@yahoo.com

जी भर खेलो होली


- सुधा भार्गव
दहकती देह की तपिश है होली
मीठे दर्द की दवा है होली
उन्मादी मौसम की मांग है होली
प्रिय-प्रियसी का मिलन है होली।
चन्दन सी खुशबू है होली
केसर की क्यारी है होली
शाहजहाँ ने ताज बनाकर
खेली थी प्यार की होली।
पिचकारी की प्रेमधार है होली
रंगों की बरसात है होली
गुब्बारों की चाबुक मार पड़ी तो
बच्ची चिल्लाए आज है होली।
दिल से दिल की जुडऩ है होली
मन से मन का मिलन है होली
सौरभ -सुरभित विश्वास है होली
विश्व एकता का वाहक है होली।
आओ साथ चलें उस निर्जन उपवन में
हर कोई काँटों पर जहां खड़ा अकेला
मैत्री- मिलन की एक पौध लगाकर
जी भरकर आज खेलनी है होली।

संपर्क: 3, क्रैकस्टोन क्लोज, कोवेंट्री - सी वी 25 ई बी, यू. के, Email- subharga@gmail.com

...चला बिहारी ब्लॉगर बनने

उदंती के पिछले अंक से हमने एक नयी श्रृंखला की शुरूआत की है जिसके अंतर्गत निरंतर हम किसी एक ब्लॉग के बारे में आपको जानकारी दे रहे हैं। इस 'एकल ब्लॉग चर्चा' में ब्लॉग की शुरुआत से ले कर अब तक की सभी पोस्टों के आधार पर उस ब्लॉग और ब्लॉगर का परिचय रश्मि प्रभा जी अपने ही अंदाज दे रही हैं। आशा है आपको हमारा यह प्रयास पसंद आएगा। तो आज मिलिए... सलिल वर्मा के ब्लॉग http://chalaabihari.blogspot.com से। - संपादक

कई ब्लॉगों पर देखा था एक नाम- चला बिहारी ब्लॉगर बनने। मुझसे पहचान नहीं थी, न मैं कभी उनके दरवाजे गई, न उन्होंने मेरा घर देखा। लड़ाई नहीं, कोई अनबन नहीं, बस 'जतरा' नहीं बना तो एक दूसरे के ब्लॉग की यात्रा नहीं हुई। पहचान हुई इसी बुलेटिन पर और जब पहचान हुई तो पलक झपकते मैं दीदी हो गई और नाम भी जान लिया 'सलिल वर्मा' - एक तो अपना बिहार, उस पर से पटना, पहुंची इनके ब्लॉग पर और मन खुश! अरे बिहारी भाई ब्लॉगर क्या बनेंगे, अपनी भाषा के साथ अटूट रिश्ता कायम रखते हुए इन्होंने बताया- 'ये ब्लॉगर बिहारी है यानि बहुत दम है इस ब्लॉग में...'। मैं तो मान ही गई... आपमें से कितनों ने माना होगा और जो रह गए हैं- उनसे कहना है कि 'आइये आपको हम अपने बिहार की सैर कराएँ। अपनापन, जैसे को तैसा, वर्चस्व, ...सब मिलेगा हमारे बिहार में...'
21 अप्रैल 2010 से सलिल जी यानि बिहारी बाबू ने ब्लॉग http://chalaabihari.blogspot.com लिखना शुरू किया, दोस्तों के कहने पर, सुनिए इनकी ही कलम से -
'हमरा दु चार ठो दोस्त सब मिलकर, हमको फँसा दिया। बोला तुमरा बात सब बुड़बक जैसा लगता है, लेकिन कभी- कभी बहुत निमन बात भी तुम कर जाते हो। काहे नहीं ब्लोग लिखते हो तुम।' हम बोले, 'पगला गए हो का! ई सब बड़ा लोग का काम है। देखते नहीं हो, आजकल बच्चन भैया कोनो बात मुँह से नहीं बोलते हैं। सब बतवे ब्लोग में लिखते हैं। शाहरुख खान, आमिर खान जैसा इस्टार लोग ब्लोग लिखता है। ब्लोग का इस्पेलिंग देखो, उसमें भी क्च द्यशद्द है, माने बड़ा लोग। हम ठहरे देहाती भुच्च।'
ब्लॉग क्या बना शुरू हो गए बिहारी बाबू खरी- खरी बातों की धार में कलम की पतवार लेकर- सच्ची, इसे नहीं पढ़ा तो एक सच से आप महरूम रह जायेंगे... ब्लॉग पढ़ते हुए बार बार कहने का दिल करता है- 'मान गए आपकी पारखी नजर और बिहारी सुपर को'
सच पूछिए तो मेरी समझ से बाहर है कि किसे भूलूं , किसे याद रखूं । ...अब तक अपने बच्चों को, उनके मित्रों को मैं इस ब्लॉग से बहुत कुछ सुना चुकी हूँ- हास्य, व्यंग्य, सीख ...सब कुछ है इनकी लेखनी में! लिंक पर तो आप जायेंगे ही, जाने से पहले इस आलेख को, यूँ कहें संस्मरण को यहीं पढ़ लीजिये वरना मुझे लगेगा कि मैंने अपने बिहारी भाई के साथ न्याय नहीं किया- माना कि आप पढ़ चुके होंगे, परन्तु एक बार और ताजा होने में क्या जाता है ? तो लीजिये पढि़ए-
गुल्लक
अपने सोसाईटी में कोनो बच्चा का जनमदिन था, तो उसके लिये गिफ्ट खरीदने बाजार गए अपनी बेटी के साथ। दोकान में एतना खिलौना देखकर माथा घूम जाता है। एगो पसंद आया तो बेटी बोली, 'डैडी! ये तो पाँच साल से ज्यादा उम्र के बच्चों के लिये है। सक्षम तो अभी तीन साल का है।' हमको समझे में नहीं आया ई बात कि खिलौना खिलौना होता है अऊर बच्चा बच्चा होता है, अब तीन साल का अऊर पाँच साल का बच्चा में हमको तो कोनो फरक नहीं बुझाता है। ई भी जाने दीजिये, खिलौना के डिब्बा के ऊपर लिखा हुआ है 'खतरा चोकिंग हाजार्ड्स!' भाई जब एतने खतरा है तो बेच काहे रहे हो। खिलौना न हो गया, दवाई हो गया कि नोटिस लगा दिये हैं 'बच्चों के पहुँच से दूर रखिये।' अब घर में अगर अलग- अलग उमर का बच्चा हो, तो तीन साल वाला बच्चा को पाँच साल वाला के खिलौना से दूर रखना होगा! कमाल है!!
हम लोग का टाईम अच्छा था। खिलौना, खिलौना होता था। खिलौना में उमर का कोनो भेद नहीं होता था। बस एक्के भेद था कि लड़का अऊर लड़की का खिलौना अलग- अलग होता था। लड़की लोग मट्टी का बर्तन चौका के खिलौना से खेलती थी। चाहे गुडिय़ा गुड्डा से, जो माँ, फुआ, मौसी, चाची पुराना कपड़ा से बना देती थीं। उधर लड़का लोग के पास गंगा किनारे लगने वाला सावनी मेला से लाया हुआ लकड़ी का गाड़ी, ट्रक, मट्टी का बना हुआ सीटी, लट्टू, चरखी। सबसे अच्छा बात ई था कि खेलता सब लोग मिलकर था। अऊर कभी चोकिंग हैजार्ड्स का चेतावनी लिखा हुआ नहीं देखे।
ई सब खिलौना के बीच में एगो अऊर चीज था। जिसको खिलौना नहीं कह सकते हैं, लेकिन बचपन से अलग भी नहीं कर सकते हैं। लड़का लड़की का भेद के बिना ई दूनो में पाया जाता था। बस ई समझिये कि होस सम्भालने के साथ ई खिलौना बच्चा लोग से जुट जाता था। पकाया हुआ मट्टी से बना, एगो अण्डाकार खोखला बर्तन जिसमें बस एगो छोटा सा पतला छेद बना होता था। हई देखिये, एक्साईटमेण्ट में हम ई बताना भी भुला गये कि उसको गुल्लक बोलते हैं।
करीब- करीब हर बच्चा के पास गुल्लक होता था। कमाल का चीज होता था ई गुल्लक भी। इसमें बना हुआ छेद से खुदरा पईसा इसमें डाल दिया जाता था, जो आसानी से निकलता नहीं था। जब भर जाता, तो इसको फोड़कर जमा पईसा निकाल लिया जाता था। बचपन से फिजूलखर्ची रोकने, छोटा- छोटा बचत करने, जरूरत के समय उस पईसा से माँ बाप का मदद करना अऊर ई जमा पूँजी से कोई बहुत जरूरी काम करने, छोटे बचत से बड़ा सपना पूरा करने, एही गुल्लक के माध्यम से सीख जाता था। अऊर ओही बचत का कमाल है कि आज भी हम अपना याद के गुल्लक से ई सब संसमरन निकालकर आपको सुना पा रहे हैं।
इस्कूल में पॉकेट खर्च के नाम पर तो हम लोग को पाँच पईसा से सुरू होकर आठ आना तक मिलता था। बीच में दस, बीस, चार आना भी आता था। अब इस्कूल में बेकार का चूरन, फुचका, चाट खाने से अच्छा एही था कि ऊ पईसा गुल्लक में जमा कर दें। पिता जी के पॉकेट में जब रेजगारी बजने लगता, तो ऊ निकालकर हम लोग को दे देते थे, गुल्लक में डालने के लिये। त एही सब रास्ता से पईसा चलकर गुल्लक के अंदर पहुँचता था। ऊ जमा पूँजी में केतना इजाफा हो गया, इसका पता उसका आवाज से लगता था। अधजल गगरी के तरह, कम पूँजी वाला गुल्लक जादा आवाज करता था अऊर भरा हुआ रहता था चुपचाप, सांत। मगर प्रकीर्ती का नियम देखिये, फल से लदा हुआ पेड़ पर जईसे सबसे जादा पत्थर फेंका जाता है, ओईसहिं भरा हुआ सांत गुल्लक सबसे पहिले कुरबान होता था।
अब गुल्लक के जगह पिग्गी बैंक आ गया है। उसमें सिक्का के जगह नोट डाला जाता है। सिक्का तो खतम हो गया धीरे धीरे। पाँच, दस, बीस पईसा तो इतिहास का बात हो गया। बैंकों में चेक काटते समय पईसा नदारद, फोन का बिल, अखबार का बिल, रासन का बिल, तरकारी वाला का बिल सब में से पईसा गायब। लोग आजकल नोट कमाने के फेर में लगा हुआ है, पईसा जमा करना बहुत टाईम टेकिंग जॉब है। इसीलिये उनका याद का गुल्लक में भी कोई कीमती सिक्का नहीं मिलता है।
अब तो चवन्नी भी गायब हो गया। अब ऊ चवन्नी के साथ जुड़ा हुआ चवन्नी छाप आसिक, या महबूबा का चवनिया मुस्कान कहाँ जाएगा। बचपन से सुन रहे हैं किसोर दा का गाना 'पाँच रुपईया बारा आना' ...इसका मतलब किसको समझा पाईयेगा। अऊर गुरु देव गुलजार साहब का नज़्म तो साहित्य से इतिहास हो जाएगा:
एक दफा वो याद है तुमको
बिन बत्ती जब साइकिल का चालान हुआ था
हमने कैसे भूखे प्यासे बेचारों सी ऐक्टिंग की थी
हवलदार ने उल्टा एक अठन्नी देकर भेज दिया था।
एक चवन्नी मेरी थी, वो भिजवा दो।
बेटी अऊर बेटा का परीच्छा हो, चाहे किसी का तबियत खराब हो, हमरी माता जी भगवान से बतिया रही हैं कि अच्छा नम्बर से पास हो गया या तबियत ठीक हो गया तो सवा रुपया का परसाद चढ़ाएँगे। सोचते हैं माता जी को बता दें कि अब भगवान का फीस बढ़ा दीजिये अऊर अपना प्रार्थना में सुधार कर लीजिये।
2010 से धमाल मचाते मचाते सलिल जी 2012 में प्रवेश कर चुके हैं, लीजिये 2012 का लिंक-
http://chalaabihari.blogspot.com/2012/01/blog-post_10.html कन्फ्यूजन ने हमको एहसास दिया कि हम एक अच्छे ब्लॉग को मिस किये... आप न मिस करें तो हम हाजिर हो गए इस ब्लॉग के साथ ...तो अब- आइये मेहरबां, शौक से पढि़ए इस ब्लॉग को और बताइए खुले मन से कि सच बोले न हम... सच लगे तो हाँ कहना, झूठ लगे तो ना कहना, हाँ कि ना?
प्रस्तुति- रश्मि प्रभा, संपर्क: निको एन एक्स, फ्लैट नम्बर- 42, दत्त मंदिर, विमान नगर, पुणे- 14, मो. 09371022446
http://lifeteacheseverything.blogspot.in

महिला स्वास्थ्य

भारत में भाड़े की कोख का व्यापार
- प्रीति और वृंदा
इस फलते- फूलते बाजार में क्लीनिक्स और अन्य हिस्सेदार तो भारी मुनाफा कमा रहे हैं, मगर औरत के शरीर और शारीरिक श्रम के बढ़ते व्यापारीकरण के साथ कई नैतिक सरोकार जुड़े हुए हैं। इनमें सरोगेट औरत का स्वास्थ्य व उसके अधिकारों और ऐसी प्रक्रिया से जन्मे बच्चों के अधिकारों के मुद्दे शामिल हैं।
कभी-कभी ऐसा होता है कि कोई दम्पति किसी चिकित्सकीय वजह से संतानोत्पत्ति नहीं कर पाते। जैसे हो सकता है कि मां बनने की इच्छुक महिला के शरीर में किसी वजह से भ्रूण ठहरता न हो। ऐसी स्थिति में उनके पास यह विकल्प रहता है कि वे शरीर से बाहर निषेचन के जरिए निर्मित भ्रूण को किसी अन्य स्त्री के गर्भाशय में विकसित होने दें, और उससे उत्पन्न संतान को अपनाएं। इस प्रक्रिया को सरोगेसी कहते हैं। जो स्त्री अपनी कोख इस कार्य के लिए उपलब्ध करवाती है उसे सरोगेट कहते हैं।
एक ओर तो देश में भाड़े की कोख (सरोगेसी) का व्यापार दिन दूनी रात चौगुनी रफ्तार से बढ़ रहा है, वहीं इसका नियमन, या यों कहें कि नियमन का अभाव चिंता का विषय बना हुआ है। हाल ही में एक राष्ट्रीय दैनिक ने अनुमान व्यक्त किया था कि सरोगेसी का व्यापार लगभग 200 करोड़ रुपए का है।
इस फलते- फूलते बाजार में क्लीनिक्स और अन्य हिस्सेदार तो भारी मुनाफा कमा रहे हैं, मगर औरत के शरीर और शारीरिक श्रम के बढ़ते व्यापारीकरण के साथ कई नैतिक सरोकार जुड़े हुए हैं। इनमें सरोगेट औरत का स्वास्थ्य व उसके अधिकारों और ऐसी प्रक्रिया से जन्में बच्चों के अधिकारों के मुद्दे शामिल हैं।
इस परिस्थिति में एक समग्र कानूनी ढांचे की जरूरत से इन्कार नहीं किया जा सकता। ऐसे ढांचे की जरूरत उन मामलों में खासतौर से उभरती है जहां अंतर्राष्ट्रीय सरोगेसी व्यवस्था के जरिए पैदा हुए बच्चों की नागरिकता को लेकर खींचतान होती है। भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद द्वारा मददशुदा प्रजनन टेक्नॉलॉजी (नियमन) विधेयक व नियम- 2000 के प्रस्तावित मसौदे में एक बड़ा अनुच्छेद सरोगेसी सम्बंधी व्यवस्थाओं से सम्बंधित है। हालांकि यह एक स्वागत योग्य कदम है मगर इसमें कई खामियां हैं। जैसे सरोगेट स्त्री और बच्चों की सुरक्षा को इसमें पर्याप्त स्थान नहीं मिला है।
सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू सरोगेट स्त्री को भुगतान के संदर्भ में है। प्रावधान कुछ ऐसा है कि यह उस स्त्री की बजाय इच्छुक अभिभावकों के हितों की रक्षा करता है। वर्तमान मसौदे के मुताबिक, सरोगेट स्त्री को भुगतान पांच किश्तों में किया जाएगा जबकि 2008 में तैयार किए गए मसौदे में भुगतान तीन किश्तों में करने का प्रावधान था। वर्तमान मसौदे के अनुसार, भुगतान का बड़ा हिस्सा (75 प्रतिशत) पांचवी यानी अंतिम किश्त में किया जाएगा, जो प्रसव के बाद दी जाएगी। यह प्रावधान 2008 में तैयार मसौदे के एकदम विपरीत है, जिसमें अधिकांश (75 प्रतिशत) भुगतान पहली किश्त में करने की व्यवस्था थी।
इससे यह तो स्पष्ट हो ही जाता है कि विधेयक में इच्छुक अभिभावकों को तरजीह दी गई है। साथ यह भी नजर आता है कि सरोगेट स्त्री के श्रम, गर्भावस्था, और उससे जुड़े भावनात्मक व शारीरिक जोखिमों के मूल्य को झुठला दिया है क्योंकि विधेयक में यह मान लिया गया है कि यदि संतान प्राप्त नहीं होती है, तो ये सब बेकार है। इस प्रक्रिया में सरोगेट स्त्री कृत्रिम गर्भाधान की वजह से जिस तरह के स्वास्थ्य सम्बंधी जोखिम उठाती है उन्हें कोई महत्त्व नहीं दिया गया है।
उदाहरण के लिए, विधेयक के मुताबिक सिर्फ गेस्टेशनल सरोगेसी (यानी सिर्फ आईवीएफ के जरिए हुए गर्भधारण) की ही अनुमति होगी। सीधे गर्भाशय में निषेचन (इन यूटेरो इनसेमिनेशन) की अनुमति नहीं दी गई है, जो वास्तव में कम जोखिम भरा है। हो सकता है कि ऐसा इसलिए किया गया है ताकि बाद में बच्चे पर अधिकार को लेकर टकराव से बचा जा सके, मगर इससे यह तो साफ हो ही जाता है कि मानवीय पक्ष की बजाय व्यापारिक दृष्टिकोण को ही तवज्जो दी गई है। इसमें सरोगेट स्त्री के अधिकारों की सूक्ष्म समझ भी नजर नहीं आती क्योंकि हो सकता है कि कोई स्त्री स्वेच्छा से इस अनुबंध में शरीक हो मगर बच्चे के साथ उसका भावनात्मक जुड़ाव विकसित हो जाए।
वर्तमान मसौदे में सरोगेट स्त्री के लिए सफल जीवित जन्मों की संख्या में भी वृद्धि की गई है। पिछले मसौदे में एक स्त्री तीन बच्चों को जन्म दे सकती थी जबकि नवीन मसौदे में इसे बढ़ाकर पांच कर दिया गया है, जिसमें उसके अपने बच्चे भी शामिल हैं। इस प्रावधान में सरोगेट स्त्री के स्वास्थ्य के एक अहम पक्ष को नकार दिया गया है कि वह कितने ऐसे चक्रों से गुजर सकती है। चूंकि यह जरूरी नहीं है कि मददशुदा प्रजनन टेक्नॉलॉजी के चक्रों की संख्या और जीवित पैदा होने वाले बच्चों की संख्या बराबर हो, इसलिए यह जरूरी हो जाता है कि स्त्री के स्वास्थ्य की रक्षा के लिए यह निर्धारित किया जाए कि उसे ऐसे कितने चक्रों में शरीक होने की अनुमति दी जाएगी।
हाल के वर्षों में अंतर्राष्ट्रीय सरोगेसी के कई विवादास्पद मामले सामने आए हैं। इनमें बच्चों की नागरिकता को लेकर कानूनी लड़ाइयाँ चली हैं। लिहाजा विधेयक में इस मुद्दे पर ध्यान दिया गया है। प्रस्तावित विधेयक में यह अनिवार्य कर दिया गया है कि विदेशी दम्पति अपने देश से इस बात का प्रमाण पत्र प्रस्तुत करेंगे कि उनके देश में सरोगेसी की अनुमति है। उन्हें यह भी प्रमाण पत्र देना होगा कि सम्बंधित बच्चे को उनके देश की कानूनी नागरिकता प्राप्त होगी। आजकल बड़ी संख्या में विदेशी दंपतियाँ भारत में सरोगेसी सेवा के लिए आ रहे हैं। लिहाजा यह प्रावधान एक उपयोगी कानूनी ढांचा प्रदान करेगा। अलबत्ता, प्रस्तावित विधेयक में सरोगेट स्त्री की कानूनी जरूरतों के लिहाज से भी कुछ किया जाना चाहिए। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि प्रजनन टेक्नॉलॉजी और सरोगेसी के नियमन हेतु कानून की तत्काल जरूरत है और यह विधेयक अनैतिक चिकित्सा कारोबार पर रोक लगाने की दिशा में एक जरूरी कदम है। इसमें सरोगेट स्त्रियों और बच्चों के कानूनी, वित्तीय व स्वास्थ्य सम्बंधी अधिकारों की रक्षा को ज्यादा महत्त्व दिया जाना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

हँसो मत,गंभीर रहो..

- गिरीश पंकज
मेरा एक दोस्त मौनीराम बड़ा संस्कारी है। बाकी मामले में हो तो बात समझ में आती है लेकिन हँसने और मुस्कुराने के मामले में भी उसका संस्कार आड़े आता है। उसे किसी ने भी हँसते हुए नहीं देखा आज तक। हँसना- मुस्कुराना असभ्यजनों का काम है। गंभीर रहना, सभ्यजनों का कर्म है। उसका नारा है, 'हँसो मत, गंभीर रहो।'
मेरा शरारती मित्र चुलबुल सिंह, मौनीराम के नारे का 'कॉमा' उठा कर एक शब्द पहले रख देता और कहता है- 'हँसो, मत गंभीर रहो।' यही कारण है कि चुलबुल सिंह और मौनीरम में कभी भी नहीं पटती।
'एक हँसे तो दूसरा मौन, किसको समझाए कौन।'
मौनीराम एक दिन, रोज की तरह चेहरा लटकाए मिल गए। मैंने प्रसन्न होकर मुस्कान का गुलदस्ता भेंट करते हुए पूछा - 'कैसे हैं मौनीराम जी?' मैंने समझा शायद कोई भूल हो गई हो, इसलिए अब तक नाराज हैं। इसलिए मैंने कहा- 'माफ कीजिएगा मौनीरामजी, मुझसे कोई गलती हो गई है क्या, जो इस तरह मुँह फुलाए हुए हैं। ठीक से जवाब तक नहीं दिया?'
'नहीं, नहीं, ऐसी बात नहीं है।' वह बोले, 'क्या करूं, सूरत ही ऐसी हो गई है मेरी। आपसे भला क्यों नाराज होने लगा? और सुनाइए, क्या हाल हैं आपके?'
'ठीक है, अपनी सुनाइए।' मैंने भी शिष्टाचार दिखाया।
'क्या ठीक रहेगा साहेब, जीना दूभर हो गया है, आजकल!' उन्होंने आह भरते हुए कहा ।
'हाँ भई, कमबख्त महंगाई के कारण सबकी हालत खराब है।' मैंने कहा।
'अरे साहेब, महंगाई के कारण नहीं, अपने चार बच्चों के कारण परेशान हूं। उल्लू के पट्ठे हर समय उधम मचाते रहते हैं। खिलखिला कर हँसते रहते हैं। मुझे ये असभ्यता तनिक भी नहीं भाती। मेरा कहना ही नहीं मानते। चुप रहो कहता हूँ तो हल्ला करते हैं। 'हँसो मत' कहने पर बत्तीसी दिखाते रहते हैं। मैं तो तंग आ गया हूँ भई।'
मेरी खोपडिय़ा घूम गई। ये कैसा उजबक जीव है, अपने बच्चों की शरारतों से ही परेशान। उनके खेलने और हँसने से परेशान। इतने ही मनहूस थे भइया, तो पैदा ही क्यों कर लिए चार ठो 'उल्लू के पट्ठे?' अब पैदा कर लिए हो, तो झेलो भी। जब उत्पादन की कार्रवाई जारी थी, तब तो कुछ नहीं सोच सके। अब 'परिणाम' आया है, तो सिर पीट रहे हैं? सरकार रोज टीवी पर गला फाड़- फाड़ कर चिल्ला रही है। पहले भी चिल्लाती थी, कि 'बच्चों में अंतर निरोध से आए, सबका जीवन खिलखिला जाए। मिलने में आसान...। फिर भी कोई असर नहीं पड़ा, तो दोष किसका है ? मौनीराम का और किसका?'
'ये सब तो आपको पहले सोचना था।' मैंने कहा, 'अब पछताय होत क्या, जब चिडिय़ा चुग गई खेत। अब तो इन बच्चों को ऊपर वाले की परसादी समझ कर संतोष करो। नाराज होने से क्या फायदा ?'
'अरे वाह, नाराज क्यों न होऊं ?' मौनीराम बोले, 'मेरे बच्चे हैं, और मेरा ही संस्कार ग्रहण न कर सके ? जानते हो, जब मैं पैदा हुआ था, तब रोया था। बड़ा हुआ तो खेल- खिलौनों के लिए रोया और आजकल भी गंभीर रहता हूँ। अपने बाप की गंभीरता देखकर कुछ तो सीख लेना चाहिए कि नहीं।'
'कैसी सीख? गंभीर रहने की?' मैंने पूछा।
'गंभीर रहने की नहीं, मनुष्य रहने की। हँसने- मुस्कुराने की क्या जरूरत है?'
'अरे, जब बाप रोनी सूरत बना कर जिये, तो बच्चों का दायित्व है कि वे हँसें। सो हँस रहे हैं। यह तो अच्छी बात है। उन्हें हँसने दीजिए। खिलखिलाने दीजिए।' मैंने उपदेशक की मुद्रा में सलाह की नीम पिलाई।
उन्होंने मुँह को कडुवा बना लिया। बोले, 'आप जैसे लोगों के कारण ही ये समाज रसातल में जा रहा है। जब देखो, बेशरमों की तरह हँसते रहते हैं। और तो और सब लोग एक साथ एकत्र होकर हँसते हैं। 'लॉफ्टर क्लब' में जाकर देखो, सबेरे- सबेरे। हद है। अरे, कोई अच्छा मनुष्य हँसता है भला? मनुष्य को गंभीर रहना चाहिए। उसी में जीवन का सार है।'
मैंने कहा, 'आप तो उल्टी बात कर रहे हैं, मौनीराम जी। गंभीर रहने की बजाय हँसना मुस्कुराना चाहिए। फिफ्टी परसेंट हँसो, तीस परसेंट मुस्कुराओ और बीस परसेंट गंभीर रहो। लेकिन आप सौ परसेंट गंभीर रहते हैं।'
मौनीराम को अपुन का गणित बिल्कुल ही नहीं भाया। वे बोले
'मेरी अपनी स्टाइल है, जीवन जीने की। मुझे गंभीरता पसंद है। मैं अपने बच्चों की मुस्कान छीन लूंगा।'
'आप धन्य हैं। मैंने कहा, आप जैसे पिताओं की इस समाज में संख्या बढ़ी तो हो गया कल्याण।'
मेरे इस कथन को उन्होंने अपनी तारीफ समझी। मैंने गौर से देखा, वह मुस्कुरा उठे थे लेकिन अचानक फिर गंभीर होने लगे। मतलब, मुस्कुराते तो हैं, पर मुस्कान-शिशु की 'भ्रूणहत्या' भी कर देते हैं, गंभीरता के चाकू से।
'आप मुसकराते- मुसकराते गंभीर कैसे हो गए?' मैंने फौरन पूछ लिया 'यह आपका भ्रम है।' वह बोले, 'मैं और मुस्कुराऊं ? इसके पहले मर न जाऊं।'
मौनीराम को गुदगुदाइए, वे हँस पड़ते हैं'। उनको गदगद करने वाली बात कर दीजिए, मुस्कुरा उठते हैं, लेकिन मुस्कान को रोकने में वे सिद्धहस्त हो चुके हैं। दरअसल उनके चेहरे पर अक्सर एक मुखौटा लगा होता है। गंभीरता का मुखौटा। और उस मुखौटे के भीतर होती है, एक अदद हँसी और मुस्कान, जो किसी को नहीं दिखती। लेकिन मौनीराम जानते हैं कि वे हँस रहे हैं। पता नहीं, अपने आप पर, या उन पर, जो लोग उन्हें गंभीर जान कर उनकी इस खासियत के दीवाने हैं और उन्हें देख कर कन्नी काट लेते हैं।
मेरा मित्र चुलबुल सिंह, मौनीराम का खाँटी दुश्मन है। वह लोगों से 'हँसो, हँसो, मत गंभीर रहो' की अपील करता है और मौनीराम, बेचारे और अधिक गंभीर हो जाते हैं।

संपर्क: जी- 31, नया पंचशील नगर, रायपुर, छत्तीसगढ़- 492001
मो. 094252 12720,Email- girishpankaj1@gmail.com