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Mar 23, 2012

होरी है...

- यशवंत कोठारी
तू तो जानती है प्रिये मेरे इस लेखन के धन्धे में शीर्षक बदल कर लेख वापस छपा लेने के अलावा और कोई उपाय नहीं है सो मुझे माफ कर। नाराजगी दूर कर। और होली के हुड़दंग में मेरा साथ कर। दर्शकों, पाठकों को नमस्कार कर। सम्पादकों को प्रमाण कर।
तो माई डीयर पाठिकाओं, प्रेमिकाओं, प्रेमियों, पाठकों, युवाओं, वृद्धों, होली इज कम। अरे रे... जबान चल गईं, ये कौन भांग के नशे में अंग्रेजी बक रहा हैं। क्षमा करें, ज्यादा चढ़ गई थी। ओ प्रिया। जागो। देखो बागन में बगरयो बसंत है। विश्व विद्यालय में छा गयो पतझड़ है। आकाशवाणी और दूरदर्शन पर छा गयो अन्धेरो है। क्यूंकि आज होली है।
देख प्यारी, महंगाई और बजट की मारी होरी कैसी दहक रहीं है, जैसे सुहागन का लाल चटख जोड़ा। देख दक्षिण के पवन के झखोरे अब इस देश की नांव को किस और ले जा रहे हैं। हर तरफ उड़त गुलाल लाल भयो बादर की उमंग है। लला फिर आईयों खैलन होरी की ये आवाज हर गली मोहल्ले से आ रही है। और भाई ...सखी फिर आईयो खैलन होरी... गा रहे हैं। नल के महकमें में से ही पानी भरकर रंगीन होली खेल रहे हैं। जो समय बचता है उसमें महामूर्खो को इक_ा करते हैं। आलोचक जी की प्रगतिशील पतंग फिर उडऩे लग गयी हैं। देख वे होरी की तान छेड़ रहे हैं।
...क्या कहा तूने बम्बई जा रही हैं। अरे ठहर बावरी टी.वी. सिरियल देख कर ही संतोष कर। तेरी काया को देखकर कहीं टी. वी. वाले भाग न जाये। अरे रूक जा बावरी।
क्या कहा तूनै, नगर का हाल हवाल क्या है। अब तो पशुओं पर होरी का रंग चढऩे लगा है। गाय भैंस और अन्य मादाएं कैसी त्वरित गति से भाग रही हैं और इनके पीछे ये कैसे होरिहार है जो हर तरफ हुड़दंग कर रहे हैं। क्या इन्हें रोकने का कोई उपाय नहीं हैं।
गोरी तू क्यों फिक्र करती हैं। ये होरी के जाते ही स्वयं स्वाभाविक चाल में आ जाएंगे। आज जरा नजर फेर कर देख। ये चारों तरफ पत्रकारों के झुण्ड क्यों इकट्ठा हो रहे हैं। हम भारतीय इस गुगली का अभी तक विश्लेषण ही कर रहे हैं। यह कैसा बसन्त है जो विश्वविद्यालय में अध्यापकों को रोने को मजबूर कर रहा है।
सहित्य में भी आजकल आतंकवादियों का शोर है। हर व्यंग्यकार मुझे आंतकवादी नजर आता है। शायद तू सोच रही होगी कि ये सब नाटक आज ही क्यों हो रहा है। अरे बौराई गोरी आज नहीं तो फिर कब। अभी नहीं तो कभी नहीं। लेकिन देख अब चूकने का नहीं। यही समय है जब आदमी को कुछ कर गुजरना चाहिए। शहर में हास्यास्पद रस के कवि सम्मेलनों का दौर चल रहा हैं। तू कहे तो चक्कर चलाऊं। आजकल अच्छा पारिश्रमिक मिल जाता हैं। लगे हाथ खर्चा पानी, पीना, खाना मुफ्त। बोल तो सहीं तू सुस्त क्यों है। तेरी ये उदासी मुझ से देखी नहीं जाती।
जरा बाहर निकाल कर हवा का रूख तो देख। इस मौसम में तो ठूंठों के भी पल्लव आ जाते हैं। तू तो अभी जवान है।
जनता तक गुनगुनाते लगती है। होली में रसिया गाने लगती है। नायिका का इस ऋतु में बावली होना लाजिमी है।
सच पूछो तो होली है ही हल्ला मचाने का मौसम। सुबह- सुबह दैनिक अखबार हल्ला मचाते हैं, फिर सायंकालीन फिर साप्ताहिक पाक्षिक और मासिक।
तू तो जानती है प्रिये मेरे इस लेखन के धन्धे में शीर्षक बदल कर लेख वापस छपा लेने के अलावा और कोई उपाय नहीं है सो मुझे माफ कर। नाराजगी दूर कर। और होली के हुड़दंग में मेरा साथ कर। दर्शकों, पाठकों को नमस्कार कर। सम्पादकों को प्रमाण कर।
ताकि आने वाले वर्ष में कहीं न कहीं तेरा मेरा काम चलता रहे। होरी आती रहे। फाल्गुन आता रहे मन बौराता रहे और जीवन में मस्ती का आलम चलता रहे। आदर प्यार और स्नेह का। एक स्नेह भरा गुलाल का टीका सबके लिये लगा। हाथ जोड़ क्षमा मांग और विदा हो। देख अगली होली तक बैरागी मत बन जाना। नहीं तो सब किया धरा पानी में और भैंस कीचड़ में।
समझ गई न तू। होरी के प्यार में एक रसगुल्ला घुमा के मार फिर देखियो होरी रे गोरी...।

संपर्क- 86, लक्ष्मीनगर, ब्रह्मपुरी बाहर, जयपुर - 302002,
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