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Oct 1, 2023

उदंती.com, अक्टूबर- 2023

वर्ष- 16, अंक- 3

नारियाँ इसलिए अधिकार चाहती हैं कि उनका सदुपयोग

करें और पुरुषों को उनका दुरुपयोग करने से रोकें- प्रेमचंद

इस अंक में

अनकहीः नारी शक्ति का  वंदन... - डॉ. रत्ना वर्मा

पर्व - संस्कृतिः प्रकृति की ऊर्जा का प्रतीक -देवी दुर्गा  - प्रमोद भार्गव

यात्राः 'घुमक्कड़ी' आखिर खुशहाल मिठाई का स्वाद ही तो है - साधना मदान

जीव- जंतुः जी लेने दो - दीपाली ठाकुर

सेहतःआरोग्य की कुंजी है भरपूर हास्य

कृषिः खीरा कुम्हड़ाखरबूजातरबूज... - डॉ. डी. बालसुब्रमण्यनसुशील चंदानी

कविताः घट -स्थापना - डॉ. कविता भट्ट

कहानीः गवाही - राजनारायण बोहरे                         

दो लघु व्यंग्यः 1. दवा2. यस सर  - हरिशंकर परसाई 

व्यंग्यः फाइल महिमा - अश्विनी कुमार दुबे

कविताः मैं नेह -लता हूँ - प्रणति ठाकुर

कालजयी कहानीः उधड़ी हुई कहानियाँ  - अमृता प्रीतम

संस्मरणः  ईनाम पाने की चाह

कविताः मेरा छोटा- सा गाँव  - निर्देश निधि

लोक कथाः तराजू और चील - डॉ.  उपमा शर्मा

प्रेरकः आम्रपाली और भिक्षुक - निशांत

लघुकथाः माँ - ऋता शेखर ‘मधु’

लेखकों की अजब गज़ब दुनियाः खतरनाक और हत्यारे लेखक - सूरज प्रकाश

लघुकथाः दो तितलियाँ और चुप रहने वाला लड़का - प्रबोध गोविल

किताबेंः साँझ हो गई : सुगन्धित भावनाओं की सादगी - डॉ. उषा लाल

जीवन दर्शनः साधारण से असाधारण की यात्रा - विजय जोशी

अनकहीः नारी शक्ति का वंदन...

  - डॉ. रत्ना वर्मा

   देश में पिछले कुछ महीने में कुछ ऐसे महत्त्वपूर्ण आयोजन और कार्य हुए, जो भारत के इतिहास में मील का पत्थर सबित हुए हैं।  देश को गर्वित और प्रत्येक देशवासी के मस्तक को ऊँचा कर देने वाला अभियान था- चंद्रयान-3,  जो भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) द्वारा 23 अगस्त 2023 को भेजा गया तीसरा भारतीय चंद्र मिशन है। चन्द्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर सॉफ्ट-लैंडिंग करने वाला दुनिया का पहला मिशन बनकर चंद्रयान-3 ने इतिहास रच दिया है।  दक्षिणी ध्रुव एक ऐसा क्षेत्र है, जिसकी पहले कभी खोज नहीं की गई थी। भारत अब संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस और चीन के साथ चंद्रमा पर सफलतापूर्वक सॉफ्ट लैंडिंग करने वाला चौथा देश बन गया है।  वैज्ञानिकों के अथक परिश्रम और धैर्य का परिणाम है यह चंद्रयान-3 मिशन। जिसमें महिला वैज्ञानिकों की भागीदारी को नकारा नहीं जा सकता। 

भारत के लिए दूसरा सफल आयोजन रहा - भारत की अध्यक्षता में 18वाँ G20 शिखर सम्मेलन। 9 और 10 सितंबर, 2023 को आयोजित यह पहला शिखर सम्मेलन था, जब भारत ने G20 देशों के शिखर सम्मेलन की मेज़बानी की। इस शिखर सम्मेलन का विषय ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ था, जिसका अर्थ है-‘विश्व एक परिवार है’। यह आयोजन देश की ताकत को दुनिया के सामने प्रदर्शित करने और अपना लोहा मनवाने में पूर्णतः सफल रहा है। 

और देश के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण  अवसर रहा - गणेश चतुर्थी के शुभ दिन 27 साल से लंबित ‘नारी शक्ति वंदन विधेयक’ नाम से महिला आरक्षण विधेयक का पास होना । इस विधेयक के पारित होने के बाद संसद के दोनों सदनों से लेकर विधानसभाओं में महिलाओं की भागीदारी 33 प्रतिशत हो जाएगी। नारी शक्ति का यह वंदन भारत के राजनीतिक परिदृश्य में स्त्री- पुरुष समानता को बढ़ावा देने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम होगा। यद्यपि यह बदलाव कई दशक पहले ही आ जाना था; परंतु राजनीति में नारी शक्ति की इस बढ़ती भागीदारी से देश के परिदृश्य में सुखद बदलाव आएगा।

भले ही इसका फायदा परिसीमन के बाद ही मिलेगा; परंतु राजनेता भी अब जान गए हैं कि आधी आबादी को हाशिए पर रखकर ज्यादा समय तक सत्ता पर काबिज नहीं रहा जा सकता। महिलाओं की काबिलियत अब हर क्षेत्र में दिखाई देने लगी है, तो राजनीति में उनकी भागीदारी इतनी कम क्यों। दरअसल पुरुष प्रभुत्व वाली मानसिकता के चलते किसी महिला को अपने से उच्च पायदान पर देखना लोग पचा नहीं पाते। कम से कम राजनीति में तो यही नजर आता है। अन्य क्षेत्रों में तो महिलाएँ अपनी काबिलीयत और अपनी बुद्धि के बल पर अपना लोहा मनवा लेती हैं और उच्च पायदानों पर पहुँच जाती हैं; परंतु राजनीति एक ऐसी जगह है, जहाँ तक पहुँचने के लिए किसी विशेष योग्यता की, किसी विशेष डिग्री की आवश्यकता नहीं होती , वहाँ पर अपना लोहा मनवाना जरा टेढ़ी खीर है।  ऐसे में इस आरक्षण से वे कम से कम वहाँ तक पहुँच तो सकेंगी और जब कुर्सी पर बैठेंगी, तो अपनी काबिलीयत भी साबित कर ही लेंगी। अब तक तो उन्हें वहाँ तक पहुँचने ही नहीं दिया गया था । सिर्फ राजनीतिक फायदे के लिए उनका इस्तेमाल होता आया था। हम सब जानते हैं, अब तक अपने बूते पर जितनी भी नारी शक्ति ने राजनीति के पटल पर अपनी आवाज को बुलंदी के साथ रखा है, वह अपनी शक्ति और काबिलीयत के बल पर रखा है। इसी शक्ति को उन्हें आगे भी कायम रखना होगा। 

यह बात अलग है कि चुनाव लड़ने के लिए 33 प्रतिशत योग्य उम्मीदवारों को ढूँढना उसी तरह मुश्किल होगा, जिस तरह पंचायत स्तर पर 33 प्रतिशत आरक्षण लागू होने के बाद हुआ था। तब चुनाव एक महिला के नाम पर लड़ा जाता था; पर कामकाज उसके पति करते थे और तभी से एक पदनाम प्रचलित हो गया था ‘सरपंच पति’ आज भी अनेक स्थानों पर सरपंच पतियों का ही बोलबाला होता है, यही कारण है कि ग्रामीण स्तर पर इस आरक्षण से जो बदलाव आने चाहिए, वे नजर नहीं आते। समय के साथ आज परिस्थिति बदल गई हैं।  ग्रामीण स्तर पर काम करके आज अनेक महिलाओं ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है। 

पिछले दिनों कौन बनेगा करोड़पति के माध्यम से सबकी नजरों में आई,  छवि राजावत और नीरू यादव जैसी दो महिला सरपंच । छवि जयपुर के पास सोडा गाँव की सरपंच हैं। अपनी काबिलीयत के बल पर छवि ने अपने गाँव की तस्वीर ही बदल दी है।  दिल्ली के लेडी श्रीराम कॉलेज से ग्रेजुएट और एमबीए छवि ने अपने गाँव की तरक्की के  लिए कॉर्पोरेट फर्म की नौकरी छोड़कर एक अलग ही राह का चुनाव किया।  छवि की उम्र 46 साल है।  वे पिछले 10 सालों से सरपंच हैं।  सबसे कम उम्र की ग्राम प्रधान बनी छवि की खासियत है कि वे किसी भी राजनीातिक पार्टी से नहीं जुड़ी हैं। वहीं नीरू यादव झुंझुनू जिले के लांबी अहीर गाँव की सरपंच हैं। ‘हॉकी वाली सरपंच’ के नाम से लोकप्रिय नीरू ने गाँव की लड़कियों के लिए हॉकी टीम बनाने अपनी दो साल की सैलरी दे दी।  झुंझुनू गाँव के लोगों का जीवनस्तर सुधारने के लिए नीरू की खूब तारीफ की जाती है।  उन्होंने गाँव को प्लास्टिक मुक्त बनाने के लिए एक बर्तन बैंक शुरू किया। जहाँ से शादी और अन्य अवसरों पर बहुत कम कीमत पर किराए पर स्टील के बर्तन मुहैया कराए जाते हैं।

कहने का तात्पर्य यही है कि राजनीति में महिलाओं को डमी के रुप में इस्तेमाल होने से बचना होगा और अपनी काबिलियत का लोहा मनवाना होगा।   

यह तो तय है कि जब रास्ते बनते हैं तो उस पर चलते- चलते राही मंजिल तक पहुँच ही जाता है। चूँकि अब 33 प्रतिशत के लिए रास्ता बन गया है, तो वह रास्ता उन्हें मंजिल तक तो पहुँचाएगा ही।  थोड़ा समय अवश्य लगेगा,  पर अब यह बदलाव का दौर है- महिला पुरुष के बीच के भेदभाव मिट रहे हैं, महिलाएँ शिक्षित और जागरूक हो रही हैं।  ऐसे में 33 प्रतिशत की आवाज जब गूँजेगी< तो वह सबपर भारी पड़ेगी। 

पर्व - संस्कृतिः प्रकृति की ऊर्जा का प्रतीक -देवी दुर्गा

  - प्रमोद भार्गव

    मनुष्य का जीवन भीतरी और बाहरी द्वंद्वों से भरा हुआ है। जब व्यक्तित्व ही अंतर्विरोधों से भरा है, तब किसी भी व्यक्ति या समाज का विरोधाभासी होना स्वाभाविक है। यही अंतर्विरोध आदर्श और पतन के व्यावहारिक रूप हैं। अंतर्विरोध का यही द्वंद्व चिंतन का प्रेरक तत्व है। निर्गुण और सगुण इसी भक्ति-काव्य की धाराएँ हैं। इसीलिए हमारी कथनी और करनी में अंतर होता है। हमारे ऋषियों ने इसे अपने अंतर्ज्ञान से जान लिया था। इसी भेद को दुनिया के अन्य देशों की सभ्यताओं ने अब जाना है और वे भौतिक प्रगति के साथ-साथ सामाजिक व आर्थिक समता की बात करने लगे हैं। यही द्वंद्व या अंतर्विरोध देवी दुर्गा के नौ-रूपों अर्थात आद्य शक्ति में है। यही दैवीय अथवा असुरी शक्तियों के रूप में प्रस्तुत है। 

    दैवीय शाक्तियाँ वे हैं, जो मनुष्य के अनुकूल हैं, अर्थात फलदायी हैं और आसुरी शाक्तियाँ वे हैं, जो मनुष्य के प्रतिकूल हैं, अर्थात् उसे हानि पहुँचाने में समर्थ हैं। नवरात्रों का आयोजन दो ऋतुओं की परिवर्तन की जिस वेला में होता है, वह इस बात का द्योतक है कि जीवन में बदलाव की स्वीकार्यता अनिवार्य है। नवरात्रों का आयोजन अश्विन मास के शुक्ल पक्ष में किया जाता है। शुक्ल पक्ष घटते अंधकार या अज्ञान का प्रतीक है, वहीं कृष्ण पक्ष बढ़ते अंधकार और अज्ञान का प्रतीक है। प्रति माह उत्सर्जित और विलोपित होने वाले यही दोनों पक्ष जीवन के सकारात्मक और नकारात्मक पक्ष की प्रवृत्तियाँ हैं। प्रकृति से लेकर जीवन में हर जगह अंतर्विरोध व्याप्त है। इन्हीं विरोधाभासी पक्षों में सांमजस्य बिठाने का काम दुर्गा के बहुआयामी रूप करते हैं।

    मार्कंडेय पुराण में प्रकाश और ऊर्जा के बारे में कहा गया है कि ‘देवों ने एक प्रकाश पुंज देखा, जो एक विशाल पर्वत के समान प्रदीप्त था। उसकी लपटों से समूचा आकाश भर गया था। फिर यह प्रकाश पुंज एक पिंड में बदलता चला गया, जो एक शरीर के रूप में अस्तित्व में आया। फिर वह कालांतर में एक स्त्री के शरीर के रूप में आश्चर्यजनक ढंग से परिवर्तित हो गया। इससे प्रस्फुटित हो रही किरणों ने तीनों लोकों को आलोकित कर दिया। प्रकाश और ऊर्जा का यही समन्वित रूप आदि शक्ति या आदि माँ कहलाईं।’ छान्दोग्य उपनिषद् में कहा गया है कि ‘अव्यक्त से उत्पन्न तीन तत्त्वों अग्नि, जल और पृथ्वी के तीन रंग सारी वस्तुओं में अंतर्निहित हैं। अतः यही सृष्टि और जीवन के मूल तत्व हैं। अतएव प्रकृति की यही ऊर्जा जीवन के जन्म और उसकी गति का मुख्य आधार है।’ 

    इस अवधारणा से जो देवी प्रकट होती है, वही देवी महिषासुरमर्दिनी है। इसे ही पुराणों में ब्रह्माण्ड की माँ कहा गया है। इसके भीतर सौंदर्य और भव्यता, प्रज्ञा और शौर्य, मृदुलता और शांति विद्यमान हैं। चरित्र के इन्हीं उदात्त तत्वों से फूटती ऊर्जा इस देवी के चेहरे को प्रगल्भ बनाए रखने का काम करती है। ऋषियों ने इसे ही स्त्री की नैसर्गिक आदि शक्ति माना है और फिर इसी का दुर्गा के नाना रूपों में मानवीकरण किया है। उपनिषदों में इन्हीं विविध रूपों को महामाया, योगमाया और योगनिद्रा के नामों से चित्रित व रेखांकित किया गया। इनमें भी महामाया को ईश्वर या प्रकृति की सर्वोच्च सत्ता मानकर विद्या एवं अविद्या में विभाजित किया गया है। विद्या व्यक्ति में आनंद का अनुभव कराती हैं, जबकि अविद्या सांसारिक इच्छाओं और मोह के जंजाल में जकड़ती है। विद्या को ही योगमाया या योगनिद्रा के नामों से जाना जाता है। 

    योगमाया सृष्टि की वैश्विक व्यवस्था का प्रतीक है, जबकि येगनिद्रा सृष्टा की समाधि की अवस्था में आई निद्रा है। यह स्थिति चेतन अवस्था से अँधकार के क्षेत्र में प्रवेश को दर्शाती है, जो प्रलय की भी द्योतक है। अंततः यही आदि शक्तियाँ क्षीर सागर में शेष शैया पर लेटे भगवान नारायण, नरायाण यानी जल में निवास करने वाले विष्णु को चेताती हैं कि समाधि के शून्य-भाव से जागों और अँधकारमयी विरोधी ताकतों से ब्रह्माण्ड को मुक्त कराओ। देवी की प्रकृति रूपी यही अवस्थाएँ सत्व, रज और तम गुणों में रूपांतरित होकर सृष्टि को संतुलित बनाए रखने का काम करती हैं। इसीलिए देवी को आद्या या असाधारण शक्ति कहा गया है। विश्व की इस जननी के बिना शिव भी ‘शव’ मात्र हैं। 

    जब ब्रह्माण्ड में ऊर्जा का विघटन होता है , तो  आसुरी शक्तियाँ जागृत हो जाती हैं। ऊर्जा जब अव्यवस्थित हो जाती है, तब ध्वंसात्मक स्थितियों का निर्माण होता है। आज विध्वंसकारी वैज्ञानिक प्रयोगों के चलते दुनियाभर में ऊर्जा का ध्वंसात्मक रूप दिखाई दे रहा है। अराजक बनता यही परिवेश नकारात्मक यानी आसुरी ऊर्जा को बढ़ाता है। इस ऊर्जा को अक्षुण्ण बनाए रखने का काम ब्रह्मा, विष्णु, महेश करते हैं। देवी महात्म्य में कहा भी गया है कि देव और असुरों के बीच जब महायुद्ध हुआ , तो  वह सौ दिन तक चला। इस समय राक्षस महिष असुरों का राजा था और इंद्र देवताओं के अधिपति थे। इस संघर्ष में असुरों ने देवताओं का परास्त कर दिया। फलतः महिष देवों का भी सम्राट बन बैठा। 

पराजित देवता प्रजापति ब्रह्मा के नेतृत्व में विष्णु व शिव के पास गए। उन्होंने युद्ध और फिर पराजय का दुखद वृत्तांत विष्णु व शिव को सुनाया। इसे सुनकर दोनों आक्रोश से लाल हो गए। विष्णु ने मुख खोला और उससे तीव्र गति से अक्षय ऊर्जा बाहर आई। ऐसा ही रोष ब्रह्मा और शिव ने ऊर्जा के रूप में मुख से प्रकट किया। इंद्र के शरीर से भी ऊर्जा का प्रस्फुटन हुआ। अन्य देवों ने भी अपने-अपने मुखों से ऊर्जा छोड़ी। ऊर्जा के इस प्रवाह से नकारात्मक ऊर्जा सकारात्मक ऊर्जा में परिवर्तित होने लग गई। मुखों से उत्सर्जित इन ऊर्जा रूपी लपटों ने एक पर्वत का आकार ग्रहण कर लिया। इसी पर्वत से कात्यायनी प्रकट हुईं। दुर्गा का यही रूप महिषासुर- मर्दिनी कहलाया। 

    लीला भाव में यही दुर्गा चार पैरों के राजा सिंह की पीठ से टिककर खड़ी हैं। सिंह भी क्रूर शक्ति का प्रतीक है, लेकिन उसे वश में कर लिया गया है। देवी अराजक महिष के शरीर को रौंद रही हैं। उनका एक पैर असुर के सिर पर है। महिष शक्तिशाली तो है, लेकिन उसका आचरण क्रूर है, इसलिए वह ब्रह्माण्ड के आध्यात्मिक आधार के अनुकूल नहीं है। यही कारण है कि कात्यायनी महिष को पददलित कर उसके अहंकार को चूर कर देती हैं। महिष के प्राण हरने के बाद कात्यायनी महिषासुर-मर्दिनी कहलाती हैं। इसीलिए इन्हें ब्रह्माण्ड की जननी कहा गया, जो पृथ्वी का प्रतीक है। ब्रह्माण्ड के अस्तित्व का यही बीज है। प्रकृति के इन्हीं रूपों का मानवीकरण करते हुए ऋग्वेद में कहा है कि ‘ज्ञान के सभी विषय और क्रियाकलाप अंततः देवी के रूप हैं।’ सृष्टि सृजन के आरंभ से लेकर अब तक नारियाँ माँ का रूप हैं। नारी के मातृत्व की डिंब में स्थित इस ऊर्जा को प्रजापति ब्रह्मा ने स्वयं विभाजित करके मानव के अस्तित्व को सृजित किया था। वह नारी ही है, जो अपनी ऊर्जा से मनुष्य को मनुष्यतत्व प्रदान करती है। साफ है, भगवती दुर्गा मूल प्रकृति का वह रूप हैं, जिसमें समस्त शक्तियाँ समाहित हैं।  

सम्पर्कः शब्दार्थ 49, श्रीराम कॉलोनी, शिवपुरी म.प्र., मो. 09425488224, 09981061100


यात्राः घुमक्कड़ी आखिर खुशहाल मिठाई का स्वाद ही तो है

 - साधना मदान 

यात्री, यात्रा, घूमना व घुम

क्कड़ी ये सब ऐसे ख्यालों या स्फूर्ति का एहसास है, जो हमें रोज़मर्रा से दूर प्रकृति और सौंदर्य के नज़दीक लेकर आता है। घूमना या फिर एक जगह से दूसरी जगह जाना, हमारे स्वभाव, स्वास्थ्य और अंतर्मन की चेतना को जैसे जीवंत कर देता है।

कहीं भी नई जगह जाना या यों कहें कि एक खोज, सौंदर्य और मनमस्त खुशी से साक्षात्कार करना जीवन की आवश्यकता है । नए अनुभव, नई वाणी और नए रीति-रिवाज का मेल है।

जब भी कबीर, नानक और राहुल सांकृत्यायन जी के साहित्य से मुखातिब होते हैं या मोहन राकेश (आखिरी चट्टान तक), महादेवी वर्मा जी के संस्मरण या सुमित्रानंदन पंत का प्रकृति रास या फिर कुछ मनचलों और ज़िंदादिलों का लद्दाख की वादियों में दो पहिए पर सवार होकर बर्फ़ को छू लेने का जज़्बा ….ये सभी कुछ एक स्वस्थ और सदाबहार दुनिया की खुशहाल मिठाई का स्वाद ही तो है। सच में प्रकृति या यों कहें कि अपने देश के स्वरूप से मिलना बहुत ज़रूरी है।

देश का स्वरूप क्या है ? यह वास्तव में जान लें , तो सारा पर्यावरण हमारा हो जाएगा। मैं तो इस बात में अटूट विश्वास रखती हूँ कि अपने देश का भूगोल जाने बिना ‘पढ़ा-लिखा होना’ है ही नहीं । बालपन से ही सागर, नदियों, पहाड़ों, पेड़ों, फूलों को देखते हुए उनके नज़दीक चले  जाएँ, तो देश-प्रेम होते देर नहीं लगेगी। हम बचपन को क, ख, ग से लेकर अंग्रेज़ियत तक, सब कुछ ओढ़ा सकते हैं;  लेकिन विडंबना यह कि गंगा या पहाड़ों की हवा में श्वासोछ्वास होने की आदत से महफूज़ रखते हैं। 

चलिए, आज याद करते हैं रेलगाड़ी का वो सुहावना सफ़र,वो खिड़की के पास बैठना, बार-बार चंपक, चंदामामा और विक्रम- बैताल की पत्रिकाओं के लिए भाई -बहनों के संग नोक- झोंक  हो जाना। सभी कुछ जैसे आँखों की नाव में सवार हो जाता है। चलती गाड़ी में पेड़ों का संग संग दौड़ना,गाय, बैलगाड़ी, बकरियों के झुंड,बहती नदियाँ सभी कुछ घूमने-फिरने का एहसास ही तो था। जब भी कहीं बाहर जाने का कार्यक्रम तय होता है, तो स्वयं में एक स्फ़ूर्ति तो आती ही है; पर साथ ही साथ ले जाने वाले सामान को सहेजना, आवश्यक चीजें याद रखना, समय, तिथि और व्यवस्था पर विचार करना सभी कुछ आपाधापी से दूर नयापन और खुशहाली से जोड़ता है। घर से दूर जब भी हम पहाड़ी या समुद्री यात्रा पर निकले, तो बहुत खूबी से हर लम्हे की जिया है हमने। तभी तो कहते हैं-

Journey is more beautiful than the destination.

पर एक सवाल मन को अकसर टटोलता है कि क्या यात्रा के भी अलग-अलग अंदाज़, प्रकार या फिर सलीका होता है ? जी हाँ होता तो है?

मस्त, बेफिक्र और सदाबहार यात्रा या फिर ऐश्वर्य, विलास या केवल आरामपरस्त यात्रा।

यात्रा सुख-समृद्धि से दूर प्रकृति मिलन की अनूठी चाह भी हो सकती है । घंटों पहाड़ी रास्तों पर चलते हुए, पक्षियों की चहचहाहट फिर और आगे बढ़ते झरनों की ठंडक भरी बौछारें। इतना ही नहीं, पहाड़ों से गिरते पत्थरों में जानवरों की आवाज़ का गूँजना। बर्फीली हवाएँ या आधी बर्फ़ और आधे पानी वाली लहरों पर पैर रखने का अद्भुत संगम, कमाल की वादियों में दिल झूम -झूम गाने लगता है कि आज मैं आज़ाद हूँ , दुनिया के चमन में। ऐसी प्रकृति की गोद में न भूख, न प्यास और न ही कोई दुनियावी गंध । एक और यात्रा का भी बुलावा हमें रोज़मर्रा से दूर रूहानियत के आह्वान से सराबोर करता है। आप और मैं ऐसी तीर्थ यात्रा को सदा अपने अंतर्मन में सँजोए हुए हैं। यह यात्रा जब भी किसी अदृश्य की खोज का संकेत देती है या फिर साक्षात्कार की अद्वितीय छवि से मिलान कराती है, तो साधक और साधना की पवित्रता और आलोक से चित्तरंजन हो जाता है। यह यात्रा फिर इस लोक से उस लोक का मेल ही तो है।

यात्रा घुमक्कड़ी का भी नाम है। घूमते हुए न केवल नई जगह को देखना होता है, वहाँ की ज़िंदगी, खान-पान,बोली और पहनावा भी एक सुखद अनुभव होता है।


यात्रा के एक अनूठे रंग में आज हमारे युवा भी खूब रंगीन हो जाते हैं। नौकरी की खोज या नौकरी मिलने पर घर से बाहर बार- बार आना और जाना। यह यात्रा खुशहाली और आज़ादी तो देती है,  पर घर, अपनापन और स्वाद सभी कुछ फिर- फिर याद आता है। विदेश यात्रा पर आना और जाना भी स्वदेश प्रेम को स्पर्श  किए बिना रह नहीं पाता। रोमाँ चक यात्राएँ, समुद्री जहाजों की कहानियाँ हमें एक अलग लोक की सैर तो कराती ही हैं। यात्राएँ कभी मजबूरी तो कभी ज़रूरत के लिए भी की जाती हैं। अपनों से मिलने वाली यात्राएँ किसी उत्सव से कम नहीं होती हैं। तभी तो कहते हैं, यात्रा में साथी गंतव्य से भी ज़्यादा महत्त्वपूर्ण हो जाता है। पर हाँ,  यात्रा को दिखावे और महँगे रिज़ॉर्ट से दूर रखें, तो घूमने-फिरने की गरिमा सलामत रहेगी।

यात्रा सरस, स्वस्थ और स्फ़ूर्ति से भरपूर ज़िंदगानी का मधुर गीत है। बुद्ध की यात्राएँ करुणा और अहिंसा के गीत गाती हैं। यात्रा अंत से बेअंत तक जाने का भी मधुर संगीत है। निरंतर यात्री बने रहना जीवन की निरंतरता को दर्शाता है। कभी- कभी यह चंचल मन भी बिना किसी खर्च के यात्रा की लंबी दौड़ लगवाता रहता है। 

स्वस्थ चित्त, खुशहाल स्वभाव और सबके साथ खुशी बाँटने वाले अकसर लंबी यात्राओं पर निकल जाते हैं। सुस्ती, नीरसता और कंजूसी हमें यात्रा से दूर, प्रकृति से दूर और रुहानियत से अलग कर दिया करती है।

अतः मन के संग जिस्मानी यात्राओं का भी बहुत महत्व है इस छोटी सी ज़िंदगानी में।

दोस्तो! जब भी जहाँ भी मौका मिले घूमने-फिरने के सुहावने अवसर मत खोना।

जीव- जंतुः जी लेने दो

 -  दीपाली ठाकुर

हवा में मँडराती रंग -बिरंगी तितलियाँ किसे नहीं लुभाती, जमीन पर मखमल की गोली से लुढ़कते सुर्ख लाल रानी कीड़े ढूँढने के लिए भटकते फिरना, बरसाती अँधेरी रातों में टिमटिमाते जुगनुओं को इकट्ठा करने की कोशिशें, ड्रेगनफ्लाई की लड़ाई करवाना आपने भी बचपन मे इस तरह की हरकतें की ही होंगी। मुझे लगता है अधिकतर व्यक्तियों को जीवन में एक न एक बार चींटियों, मकोड़ों, ततैया, मधुमक्खी के काटने का अनुभव भी मिला ही होगा। गोबरीला (लेडिबग), तितलियाँ और भी न जाने कितने ही हरे, नीले, काले चमकीले या सुनहरे आकर्षक छोटे- छोटे से जीवों के शरीर कई बार प्रकृति की कारीगरी के चलते फिरते उदाहरण से लगते हैं तो वहीं कुछ कीड़े बड़े ही घिनौने भी। मेरा बचपन इन्ही नन्हें प्राणियों के किस्सों से भरा है और मुझे लगता है आप सभी के जीवन के भी कुछ किस्से तो याद आ ही जाएँगे इनसे जुड़े । 

तो आज हम बात करेंगे इन्ही कीड़ों की। व्यावहारिक तौर पर कोई भी व्यक्ति इन पर बात क्यों करना चाहेगा ? पर जो इन छुटके जीवों का पर्यावरण और हमारे जीवन में महत्त्व जानता समझता होगा उसे कतई इन बातों से गुरेज नही होगा। केवल सुंदर दीखने वाले कीड़े ही नहीं घिनौने कीड़ों की भी पर्यावरण में अपनी एक महती भूमिका है। दुनिया में कुल मिलाकर कीड़ों की 1.5 मिलियन अधिक ऐसी प्रजातियाँ है, जिनके नाम रखे गए हैं। साथ ही अनगिनत ऐसे कीड़े भी हैं, जिन्हें खोजा जाना और नाम देना अभी भी शेष है। कीड़े धरती पर मौजूद सभी जानवरों की कुल संख्या के तीन गुना अधिक हैं, यह धरती के हर कोने में मिल जाएँगे। इनके आकार, रंग, रूप, इतिहास और व्यवहार में अनगिनत विविधताएँ देखने को मिलती हैं।

 देखा जाए तो कई कीट विज्ञान के चमत्कार की तरह हैं। जैसे चींटियों के कान नहीं होते, लेकिन उनके पैर ही उनके कान होते हैं। वे अपने पैरों से ही जमीन के कंपन को समझती हैं। वहीं, मधुमक्खियों के छत्ते षट्कोणाकार के आकार में बने होते हैं। ये अनूठी इंजीनियरिंग के सटीक उदाहरण हैं। उनके पँख एक मिनट में 15,000 बार फड़फड़ाते हैं, जबकि जुगनू में बायोलुमिनेसिस, जिसकी वजह से ये चमकते हैं। क्या आपको पता है- जुगनू के अंडे भी चमकते हैं। वास्तव में ये कीड़े इकोसिस्टम में अहम भूमिका निभाते हैं। पौधों के लिए भी ये बेहद जरूरी हैं। हम जो खाना खाते हैं, फल खाते हैं, उनमें इनकी भूमिका सबसे अहम होती है। लगभग 90% फूल वाले पौधे और 75% फसलें परागण के लिए इन्हीं कीटों पर निर्भर करती हैं। खास बात यह है कि हमारे भोजन का हर तीन में से एक हिस्सा ऐसे परागकण से ही आता है। आपने दीमक के घर या साँप की बाँबी देखी ही होंगी । जब ये अपने घर बनाते हैं, तो ये मिट्टी की गुणवत्ता को भी बेहतर करते हैं। ये पानी और पोषक तत्त्वों को मिट्टी में मिलाते हैं। इतना ही नहीं, ये कीट हानिकारक कृषि कीटों पर भी अंकुश लगाते हैं। शहद, मोम, रेशम और अन्य उपयोगी उत्पादों की कल्पना भी, इनके बिना नहीं की जा सकती। मनुष्य न जाने कितनी सेवाओं के लिए इन छुटपुट से जीवों पर निर्भर है, कीड़े खाद्य शृंखला की बेहद अहम कड़ी होते हैं। इनमे से अनेक सर्वाहारी होते हैं, जो हमारी प्रकृति में मौजूद पौधों, कवक, मृत जानवरों, सड़ने वाले कार्बनिक पदार्थों समेत कई तरह के खाद्य पदार्थों को खा सकते हैं, इन्हे अपघटित करके यह पर्यावरण संरक्षण में भी अहम भूमिका निभाते हैं।

कुछ जानवर, जैसे छोटे पक्षी, मेंढक और अन्य सरीसृप और उभयचर, लगभग पूरी तरह से इन्ही कीटों के आहार पर जीवित रहते हैं। यदि इन जानवरों के खाने के लिए पर्याप्त कीड़े नहीं होंगे, तो इन पर निर्भर सभी जानवर भी मर जाएँगे, जिससे एक पूरी खाद्य शृंखला ही समाप्त हो जाएगी। यह खाद्य शृंखला अंततः मनुष्यों को भी प्रभावित करेगी। कीड़े अथवा कीट मृत जानवरों, जानवरों के कचरे और अन्य पौधों को भी अपघटित करते हैं, जो उस मिट्टी को निषेचित करने में मदद करते हैं, जिसमें हमारी फसलें उगती हैं। इंसानों तथा अन्य जीव जंतुओं के जीवन में बेहद अहम हिस्सेदारी के बावजूद, इनकी संख्या में ज़बरदस्त गिरावट देखी जा रही है। जानकारों और कई अध्ययनों ने इनके परिप्रेक्ष्य में खुलासे किए हैं, जहाँ उन्होंने बताया कि धरती पर मौजूद कीटों की सभी प्रजातियाँ, लगभग आधी से अधिक तेज़ी से घट रही हैं, और यदि परिस्थितियों में कोई बदलाव न आया, तो निकट भविष्य (अगले कुछ दशकों) में कीड़े-मकोड़ों की लगभग 40% प्रतिशत से अधिक प्रजातियाँ पूरी तरह विलुप्त हो सकती हैं। इनमें कीटों की वे प्रजातियाँ भी शामिल हैं, जिनपर हमारे खाद्य संसाधन निर्भर हैं। कुछ रिपोर्टों में यह भी कहा गया है कि कीड़ों की संख्या में गिरावट प्रवासी कीटभक्षी (ऐसे पक्षी, जो भोजन लिए पूरी तरह कीटों पर निर्भर हैं) को समान रूप से प्रभावित कर सकती है, उनके सामने अपने भोजन समेत, अपनी संतानों के पालन-पोषण की भी समस्या उत्पन्न हो जाएगी। इस पक्षियों की शृंखला में चमगादड़ भी शामिल है। कीटों की संख्या में आई लगभग 76% प्रतिशत गिरावट के लिए सिंथेटिक कीटनाशकों और उर्वरकों से प्रदूषण, आक्रामक प्रजातियों और रोगजनकों के साथ ही जलवायु परिवर्तन भी ज़िम्मेदार हैं। ये कीट विशेष तौर पर जैव विविधता हेतु पारिस्थितिक तंत्र के लिए एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते है, कीटों की न केवल दुर्लभ बल्कि कुछ बेहद आम प्रजातियाँ भी विलुप्ति की कगार पर हैं। रासायनिक कीटनाशकों के उपयोग का उल्लेख बहुत पुराने समय मे भी मिलता है । बीसवीं सदी की शुरुआत से ही सिंथेटिक कीटनाशकों का उपयोग बहुतायत में होने लगा, जिसके दुष्परिणाम सदी के अंत तक सामने आने लगे । कीटनाशकों के असीमित अमानक उपयोग के कारण ही जमीन बंजर, हवा जहरीली होती गई , कैंसर जैसे भयावह रोगों के कारकों में कीटनाशकों का उपयोग भी अति महत्त्वपूर्ण है। बहुत स्वार्थ सिद्धि कर ली अब समस्त मानवजाति को पर्यावरण के लिए महत्त्वपूर्ण कदम उठाए जाने का समय आ चुका है।

कीट या कीड़ों के बारे में हम सभी को उनसे होने वाले नुकसान ज्यादा याद आते हैं जबकि सच्चाई यह है कि पारिस्थितिकी तंत्र के संतुलन में उनकी भूमिका बहुत ही ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। नए अध्ययन इस बात पर जोर दिया गया है कि लोगों, सरकारों और वैज्ञानिकों को भी प्रकृति को कीड़ों से होने वाले में फायदों पर ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है।

पारिस्थिति तंत्र  में हर तरह के जीव की अपनी भूमिका होती है। जिसमें कीट पतंगे  बिल्कुल भी पीछे नहीं हैं यह बात दोहराई जा रही है।  शोधकर्ताओं ने  इस बात पर भी जोर दिया कि प्रजातियों के संरक्षण के साथ सरकारों को भी इस मामले में जारूकता फैलाने की जरूरत है। लेन्कास्टर यूनिवर्सिटी की अगुआई में हुए नए अध्ययन के मुताबिक दुनिया भर में व्यापक और गहराई से जुड़े नकारात्मक सांस्कृतिक पूर्वाग्रह एक बड़ा कारण है जिसकी वजह से उनकी पारिस्थितिकी तंत्र  में अच्छी भूमिका की भावना लोगों में पनप नहीं सकी है। आज भी ज्यादातर लोग कीड़ों से घृणा या नफरत करते है, दुर्भाग्य से पूरी दुनिया में यह धारणा सरकारों की जैवविविधता के प्रति नीति में निष्क्रियता को भी आंशिक रूप से दर्शाती है। तीन दशकों के अंतरशासकीय रिपोर्ट्स जैवविविधता  के लक्ष्यों को सामने रखने के बाद भी, कीटों में वैश्विक जैवभार, प्रचुरता और विविधता लगातार कम होती जा रही है। लैन्केस्टर में इवनर्टिबरेट बायोलॉजी एंड कंजरवेशन पॉलिसी के विशेषज्ञ और इस अध्ययन के प्रमुख लेखक फिलिप डोंकरस्ले ने बताया कि कीड़ों सहित जैवविविधता में गिरावट प्रायः मानवीय गतिविधियों का नतीजा है और संभावना इस बात की है ऐसा चलता भी रहेगा, जब तक हम ऐसे बिंदु पर न पहुँच जाएँ,जहाँ पारिस्थितिकी तंत्र हमारी अपनी प्रजाति के लिए निर्णायक न हो जाए। डोकरस्ले का कहना है कि अंतरशासकीय कदम अभी तक प्रतिक्रिया देने में धीमें रहे हैं और वे तभी सक्रिय होते हैं, जब बदलाव को नजरअंदाज करना असंभव हो जाता है। राजनैतिक दृष्टिकोणों और बदलाव के कदमों पर ध्यान देना है तो पहले हमें कीड़ों के प्रति समाज के नजरिए को बदलने की जरूरत होगी।

एक अध्ययन में शोधकर्ताओं ने कई अन्य तरह के फायदे भी गिनाए, जिनमें उनके पार्क या बगीचों में खूबसूरत तितलियों को देखने पर मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ने वाले सकारात्मक प्रभाव, उनके कॉस्मेटिक्स और दवा उद्योगों में विभिन्न किस्म के लाभ आदि शामिल हैं। इसके अलावा वैज्ञानिको ने कीड़ों  के संरक्षण में मदद करने के लिए कार्य- योजना के लिए कई रणनीतियों को प्राथमिक बताया है। इसमें सरकारों को सार्वजनिक तौर पर आगे आकर प्रयास कर अपनी निष्क्रियता दूर करना, कीड़ों की वजह से तकनीकी विकास को सामने लाना, पौधों, स्तनपायी जानवरों, पक्षियों के संक्षरण समूह का बहुत सी प्रजातियों पर अंतरनिर्भरता, कीड़ों के संरक्षण का दूसरी प्रजातियों को होने वाले फायदों की तरफ ध्यान आकर्षित करना अब हम सबकी प्राथमिकता होनी चाहिए। जिस तरह से वर्तमान में वर्मीकम्पोस्ट के माध्यम से समाज के दृष्टिकोण में वर्म्स या केंचुओं के प्रति नजरिया बदला है और उसकी प्रतिष्ठा बढ़ी  है, उसी  तरह  अन्य कीट भी महत्त्व रखते हैं । कीट चाहे कृषि से संबंधित हों या घरेलू मच्छर, मक्खी , चींटी हमें जैविक तरीकों से ही उनसे निबटना होगा। आज जरूरत है कीट -विहीन नहीं कीटों के प्रबंधन के साथ जीवन को सुचारू रूप से चलने देने के लिए प्रयास करने की,  जो  पारिस्थितिकी तंत्र के संतुलन को बनाए रखे, जिससे पर्यावरण सुरक्षित रहे । आवश्यकता है कि रसायनिक या सिंथेटिक कीटनाशकों के स्थान पर जैविक कीटनाशक और रणनीतियों से इनके प्रबंधन को महत्त्व दिया जाए ।  हमारी आने वाली पीढियाँ भी इन आकर्षक और महत्त्वपूर्ण जीवों के साथ स्वस्थ संतुलित पर्यावरण  का प्रबंधन आखिर हमसे ही तो सीखेगी। क्या आप नही चाहते कि जब कीटों के जिक्र हो, तो आगामी पीढ़ी भी उनके अनुभव  साझा करें। इन नन्हें जीवों का संरक्षण हमारे खुद के लिए एक जरूरी कदम है और इसी सोच को लेकर हमे इस अति आवश्यक कार्य में अभी से लग जाना चाहिए।

सम्पर्कः रोहिणीपुरम, रायपुर, छत्तीसगढ़

सेहतःआरोग्य की कुंजी है भरपूर हास्य

 


 'इंस्टिच्यूट फॉर दि स्टडी ऑफ ह्युमन नॉलेज' इस संस्थान के निष्णात डॉक्टरों ने आदमी के स्वास्थ्य का अनुसंधान किया है और इस अनुसंधान के निष्कर्ष प्रकाशित किए। इन निष्कर्षों को पढ़कर ऐसा लगेगा कि ओशो ही बोल रहे हैं, लेकिन उनका ओशो से कोई लेना-देना नहीं है, वे तो -अपने वैज्ञानिक प्रयोगों के आधार पर बोल रहे हैं। उनके निष्कर्ष यही दिखा रहे हैं, जो ओशो जिंदगी भर कहते रहे, जिसके प्रयोग वे करते रहे। वही इन चिकित्सकों का सार है। वैज्ञानिकों के अनुसंधान के निष्कर्ष देखिए-

खिलखिलाकर हँसना, ठहाके मारना, लोटपोट होना इत्यादि क्रियाएँ स्वास्थ्य के लिए बहुत लाभदायी हैं। आधुनिक विज्ञान यह भी कहता है कि अकारण हँस ना आरोग्य की कुंजी है।

अगर लोगों के बीच का फासला कम करना हो तो दिल खोलकर हँसिए । विक्टर बोर्ज नाम के हँसोड़ अभिनेता का सटीक कथन है-'हँसना दो लोगों के बीच का न्यूनतम अंतर है।' हास्य एक टॉनिक है, जो मुफ्त में शरीर और मन को स्वास्थ्यवर्धक करता है।

हँसना हमारे मनुष्य होने का सबूत है; क्योंकि अकेला मनुष्य ही ऐसा प्राणी है, जो हँस सकता है। जब भी संकट का समय होता है, तो सारे पशु दो ही बातें करते हैं, भागना या लड़ना; सिर्फ मनुष्य तीसरी बात कर सकता है; हँसना ।

इस अन्वेषण में यह पाया गया है कि हास्य एक आंतरिक जॉगिंग  है। दिलदार हँसी आपके चेहरे के स्नायुओं, श्वास के और पेट को बेहतरीन व्यायाम देती है। इससे दिल की धड़कन और रक्तचाप क्षणिक रूप से बढ़ते हैं , साँस तेज -गहरी होती है और आपके खून में प्राणवायु दौड़ने लगती है। एक भरपूर हँसी आपकी उतनी ही कैलरी जला सकती है, जितना कि तेज चलना । हँसी के दौरान आपका मस्तिष्क इतने हार्मोन्स छोड़ता है कि उससे आपकी सजगता शिखर पर आ जाती है। नार्मन कझिन्स को अपाहिज करने वाला जोड़ों का दर्द था । उसका दावा है कि उसने भरपेट हँसकर खुद को ठीक किया। उसका कहना है कि दस मिनट भरपूर हँसी उसके दर्द पर एनेस्थेसिआ का काम करती थी और वह दो घंटे तक गहरी नींद सो सकता था। एक  अनुसंधान के अनुसार , जो लोग बीस मिनट तक मजाक और  चुटकुलों से भरा भाषण सुनते हैं और जो शिक्षक का गंभीर भाषण सुनते हैं, उनमें से मजाक सुनने वाले लोगों को दर्द का अहसास नहीं होता। छात्रों को गणित के मुश्किल सवाल हल करने हों, तो अच्छा होगा कि उन्हें बीस मिनट तक चुटकुले सुनाए जाएँ और बाद में उनसे पढ़ाई करवाई जाए । वे अधिक सुगमता से पढ़  पाएँगे। अन्वेषकों को यह भी पता चला है कि हँसी-मजाक से सराबोर शो को देखने के बाद लार में एंटीबाडीज का स्तर बढ़ता है, जिससे रोग प्रतिरोधक शक्ति बढ़ती है। जो लोग हमेशा गंभीर होते हैं, उनमें इन एंटीबाडीज का स्तर बहुत कम होता है, जिससे कोई भी बीमारी उन्हें जल्दी पकड़ लेती है। इसका मतलब हुआ, जब ओशो कहते हैं कि गंभीरता रुग्णता है, तो उसके वैज्ञानिक आधार हैं। डॉक्टर यह भी कहते हैं कि आप सात दिन तक बिलकुल नहीं हँसे, तो कमजोर हो जाएँगे। समय आ गया है कि अब डॉक्टरों को दवाई के साथ यह भी लिखना पड़ेगा--'दस मिनट हँसना, दिन में पाँच बार ।' (ओशो टाइम्स से साभार)

कृषिः खीरा कुम्हड़ा, खरबूजा, तरबूज और लौकी, तुरैया - डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

 - डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

दुनिया के सभी भागों के लोग एक वनस्पति कुल, कुकरबिटेसी, से बहुत करीब से जुड़े हैं। इस विविधता पूर्ण कुल में तरबूज़, खरबूजा, खीरा और कुम्हड़ा-कद्दू शामिल हैं। जिन कुकरबिट्स की खेती कम की जाती है उनमें करेला, कुम्हड़ा, चिचड़ा, लौकी, गिलकी और तुरई शामिल हैं।

कुकरबिट्स आम तौर पर रोएँदार बेलें होती हैं। इनमें नर और मादा फूल अलग-अलग होते हैं , जो एक ही बेल पर या अलग-अलग बेलों पर लगे हो सकते हैं। इनके फल स्वास्थ्यवर्धक माने जाते हैं, जो विधिध रंग, स्वाद और आकार में मिलते हैं। ये भारत की भू-जलवायु में अच्छी तरह पनपते हैं। इनकी बुवाई का मौसम आम तौर पर नवंबर से जनवरी तक होता है, और गर्मियों में इनके फल पक जाते हैं।

कुकरबिटेसी कुल में मीठे तरबूज़ से लेकर कड़वे करेले तक का स्वाद है और छोटे चिचोड़े से लेकर बड़े आकार का कद्दू तक है। यह विविधता उनके मोज़ेक-सरीखे गुणसूत्रों के अवयवों में फेरबदल का परिणाम है। इसलिए, एक ही जीनस (कुकुमिस) के सदस्य होने के बावजूद खीरे में सात गुणसूत्र होते हैं और खरबूजे में बारह।

आलू के विपरीत, जो केवल 450 साल पहले पूरे विश्व में फैला, कुकुरबिट्स सहस्राब्दियों से दुनिया भर की खाद्य अर्थव्यवस्थाओं का महत्वपूर्ण हिस्सा रहे हैं। ये समुद्री लहरों पर सवार होकर किनारों पर पहुँचे और स्थानीय परिस्थितियों के अनुकूल ढल गए। आधुनिक जीनोमिक तकनीकों की मदद से उनके मूल स्थान को पहचानने की आवश्यकता है।

खीरा भारत का स्वदेशी है। खीरा की जंगली प्रजातियाँ हिमालय की तलहटी में पाई जाती हैं। इन्हें रोमन लोग दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व युरोप ले गए थे।

रेगिस्तानी खरबूज़े

राजस्थान के थार रेगिस्तान में स्थानीय लोग अल्प मानसून से जमा हुए पानी से तरबूज़-खरबूजे की जंगली किस्में उगाते हैं। कम गूदे और ज़्यादा बीज वाले ये फल छोटे होते हैं, जिन्हें सब्ज़ियों के रूप में पकाया जाता है।

हालिया अध्ययनों ने यह स्थापित किया है कि भारत में आज हम तरबूज़-खरबूज़े की जो किस्में देखते हैं, वे पालतूकरण (खेती) करने की दो स्वतंत्र घटनाओं की उत्पाद हैं। इन्होंने जंगली प्रजातियों की कड़वाहट और खट्टापन खो दिया है और इनके पत्ते, बीज और फल बड़े होते हैं। अफ्रीका में पाई जाने वाली खरबूज़े की प्रजातियों का स्वतंत्र रूप से पालतूकरण हुआ था, लेकिन अफ्रीकी खरबूज़ छोटा होता है और इसके स्वाद में थोड़ी कड़वाहट बरकरार है। तब कोई आश्चर्य नहीं कि पूरी दुनिया में उगाए जाने वाले तरबूज़े-खरबूजा भारतीय मूल के हैं।

दुनिया के विभिन्न हिस्सों में लोगों के स्वाद में विविधता का असर करेले में दिखाई देता है। हाल ही में (800 साल पहले) थाईलैंड और पड़ोसी देशों में पाई जाने वाली करेले की देशी किस्में बड़ी, कम कड़वी और चिकनी और लगभग सफेद होती हैं। इसकी तुलना में, कँगूरेदार छिलके वाली भारतीय किस्में छोटी और अधिक कड़वी होती हैं, और काफी लंबे समय से उगाई जा रही हैं।

पोषण

करेला खनिज पदार्थों और विटामिन सी का समृद्ध स्रोत है। रोज़ाना 100 ग्राम करेले का सेवन औसत व्यक्ति के लिए आवश्यक विटामिन सी की पूरी (और आधे विटामिन ए) की आपूर्ति कर सकता है, जबकि इससे केवल 150 मिलीग्राम वसा ही मिलती है। सामान्य तौर पर, पोषण के मामले में कुकुरबिट्स वसा और कार्बोहाइड्रेट से भरपूर प्रोसेस्ड खाद्य पदार्थों के ठीक उलट होते हैं। कुकुरबिट्स में लगभग 85-95 प्रतिशत पानी होता है और ये कम कैलोरी देते हैं।

आहार में शामिल होने और औषधीय महत्त्व होने के अलावा, कुकुबिट्स के दिलचस्प उपयोग भी हैं। गिलकी जब पककर सूख जाती है तो त्वचा की देखभाल के लिए स्पंज की तरह उपयोग की जाती है। सूखी लौकी (तमिल में सुरक्कई) सरोद, सितार और तानपुरा जैसे वाद्य यंत्रों में गुंजन यंत्र की तरह उपयोग की जाती है। (स्रोत फीचर्स)


कविताः घट -स्थापना

 - डॉ. कविता भट्ट






हे पिता मेरे !

करते हुए आज

घट- स्थापना

स्नेह -जल भरना

घट-भीतर

और अक्षत कुछ

मेरे नाम के

उसमें डाल देना

कुछ जौ बोना

हरियाली के लिए

तरलायित

स्नेह में भिगोकर,

फलेगी पूजा

बिन जप-पूजन

मेरे नाम से

अभिमंत्रित कर

नित्य सींचना

ओ ! मेरे सूत्रधार

गर्भ में बोया

है मुझे तुमने ही

अंकुरित हूँ

अब प्रथम बीज

हूँ शैलपुत्री

बनूँगी सिद्धिदात्री

ध्यान रखना !

नष्ट नहीं हो जाए

गर्भ में अंकुरण !!


कहानीः गवाही - राजनारायण बोहरे

  - राजनारायण बोहरे     
सरकारी वकील  का रवैया देख मै हतप्रभ हो गया । वे जिस तू तड़ाक वाली भाषा में मुझसे सवाल जवाब कर रहे थे, उससे लग रहा था कि वे पहले जरूर किसी पुलिस थाने के दारोगा थे। जाने कैसे मेरी नींद खुल गई ।

     फिर तो मेरी आँखों से नींद ऐसी रूठी कि उसके स्पर्श को तरसता रहा । कल अदालत मे गवाही थी मेरी । एक खास मुकद्दमा था ये, जिस पर सारे सूबे की आँखें टिकीं थीं ।

    मुकदमे का ख्याल आते ही मुझे कँपकँपी हो आई....। ...और, सारी घटना एकबार फिर मेरे जेहन में घूम जाती है।

     उस दिन हम सब दफ्तर  के बड़े हॉल में इकट्ठे थे कि ग्यारह बजे रोज की तरह नीरनिधि साहब अपने जूते ठकठकाते हुए आ पहुँचे थे । सामूहिक नमस्कार कर हम उनकी ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठा और प्रेम व्यवहार के गुण की तारीफ़ करने लगे। हम क्या, सारा नगर जानता था कि नीरनिधि साहब  एक हीरा आदमी है। गाँव की कच्ची गलियाँ हों या नगर की गन्दी बस्ती नीरनिधि साहब हर उस जगह मौजूद मिलते थे, जहाँ हमारे महकमे के छोटे कर्मचारी काम कर रहे होते। सारा जीवन सादे ढंग से रहने और पूरी क्षमता से काम करने में ही गुजार दिया उन्होने।

    तब बारह से कुछ कम का समय था कि दफ्तर के बाहर तेज हलचल सी दिखी। भीड़ में खड़े एक नेतानुमा आदमी की ऊँचे स्वरों में बातचीत सुनी, तो सब अपने अपने अनुमान लगा रहे थे कि सहसा सौ एक लोग हॉल के बड़े दरवाजे से अंदर घुसते दिखे ।

    ‘‘कौन हैं आप? क्या काम है?’’ बड़े बाबू ने दफ्तरी अकड़ के साथ पूछा तो भीड़ की अगुआई करता चुस्त सफेद कुर्ता-पैजामा और कंधे पर रंगीन गमछा डाले वह गोरा और तगड़ा युवा गुर्राया, ‘‘बात करने की तमीज नहीं है तुझे बुढ्ढे! मैं रूलिंग पार्टी की युवा इकाई का नगर अध्यक्ष रक्षपाल हूँ।’’

     क्षणाश में बड़े बाबू के भीतर बैठा चौकन्ना क्लर्क जाग उठा, ‘‘सॉरी भैया, मैं पहचान नहीं पाया ।...कभी काम नहीं पड़ा ना!’’

    ‘‘येई तो ! गद्दारी है हमारे पार्टी वाले हुक्मरानों की। तुम जैसे दो कौड़ी के नौकर तक हमे नहीं पहचानते है।’’ 

       अपनी बेइज्जती पीते बड़े बाबू ने उसके साथ वाले लोगों से भी बैठने का इसरार किया।

     ‘‘अबे चुप कर बुढ्ढे, तेरा अफसर कहाँ है? उससे बात करने आए हैं हम। कहाँ बैठता है वो रिश्वतखोर?’’ थरथराते बड़े बाबू ने काँपती उँगली से  उस कमरे की तरफ इशारा कर दिया जिधर नीरनिधि साहब का चैम्बर था। लगा कि किसी बाँध की दीवार ही टूट गई हो, हहाकर बहते पानी की तरह बाहर खड़े पचासेक आदमी और भीतर घुसे और वे सब के सब हुंकारी के साथ नीरनिधि साहब के कमरे में घुसने लगे। हम सब दहशत से भर उठे थे।

    पहले बड़े बाबू फिर एक-एक कर सारा स्टाफ दफ्तर से बाहर निकल गया। सिर्फ मैं अकेला भकुआता- सा बैठा रह गया था कि नीरनिधि साहब के कमरे में से उनकी तेज चीख सुनाई दी मुझे । सहसा करंट- सा आ गया मुझमें, और हवा के परों पर सवार मैं ताबड़तोड़ दौड़ पड़ा था नीरनिधि साहब की दिशा में।

    अंदर का दृश्य हर भले आदमी को शर्मसार कर सकता था ।...हमारे दफ्तर का सम्मान्य अफसर,...बिजली विभाग का वो कर्मठ और ईमानदार इंजीनियर,...जनता की सेवा में चौबीसों घण्टे तत्पर रहनेवाला वह जनसेवक,...हम सब कर्मचारियों की निष्ठा का प्रतीक, वह हमारा नुमाइंदा उस भीड़ से घिरा हुआ बेहद दयनीय हालत में उन दो कौड़ी के गुण्डों के हाथों में फुटबाल की तरह उछल रहा  था। उन्मादी भीड़ के लोग उनको बेतरतीब ढंग से पीटते हुए एक भयावह अट्टहास कर रहे थे। 

    मुश्किल से पाँच मिनट मैंने देखा कि हृष्टपुष्ट नीरनिधि साहब श्लथ हो चुके थे, और अब उनके मुँह से चीख निकल रही थी न गुहार । भीड़ का शिकंजा ढीला हुआ, मुझे नीरनिधि साहब तक जाने का मौका मिल गया। जमीन पर औंधे पड़े थे। मैंने उन्हे सीधा किया और बमुश्किल तमाम मैं घसीटकर उन्हे कुर्सी पर बैठाने में सफल हुआ, तो उनका सिर धड़ाम से टेबिल पर मड़े काँच में जा टकराया । कनखियों से मैंने देखा कि हाथ की अदृश्य धूल या अछूत आदमी को छूने से पैदा हुआ छूत भाव झाड़ते वे लोग हर्षध्वनि के साथ लौटने लगे थे।         

     बाद के असंख्य क्षण पीड़ाप्रद थे । मेरी तमाम सक्रियता के बाद भी नीरनिधि साहब बचाए न जा सके। डॉक्टरों की भीड़ ने पल भर में ही नीरनिधि साहब को मृत घोषित कर दिया। रात आठ बजे मैंने पुलिस कोतवाली में एफ आई आर दर्ज करवाई, उस वक्त मीडिया के चमचमाते कैमरो मेरा एक एक शब्द टेप कर रहे थे, और मैं सारा घटनाक्रम थाना प्रभारी को अपनी ऊँची- नीची साँसों के साथ सुना रहा था।

     अगले कई दिन रूलिंग पार्टी के सदर, खिलाफी पार्टी के सदर और तमाम हुक्मरान नीरनिधि साहब के घर आते रहे और उन्हें मनाते रहे कि वे खामख्वाह पुलिस कार्यवाही में न पड़ें। मुझे ताज्जुब हुआ कि इस हादसे की जाँच बीस दिन में हो गई और महीना बीतते न बीतते अदालत में चालान भी पेश हो गया। गवाहान तलब हुए । गवाहों में सबसे अव्वल नाम मेरा था। एक तरह से चश्मदर्शी गवाह।

      मेरी गवाही पर सारे मीडिया की निगाहें थीं।...वैसे इस प्रकरण के प्रति हर आदमी का अलग नजरिया था। पुलिस के लिए फालतू का लफड़ा, नामजद हुए लोगों की आगामी पॉलिटिक्स को आर-पार का मुद्दा, नीरनिधि साहब के परिवार की डूब गई नौका को उबारने का यत्किंचित सहारा और मेरे लिए जीवन मरण का प्रश्न!

     मुझे लगता है फालतू के लफड़े में नीरनिधि साहब की जान गई । लफड़ा था बिजली कटौती का, जिसमें न नीरनिधि साहब कुछ कर सकते थे, न विद्युत मंडल । मैने कमर कस ली थी कि हर हालत में मुलजिमों को सजा दिलवाऊँगा।

     गवाही देने वालों में सबसे पहला नाम मेरा है, और पुलिस व मीडिया के सामने मैंने ही सारा किस्सा बयान किया है, सो मुल्जिमों का पहला निशाना मै ही हूँ। हादसे के अगले दिन से ही मैं अनुभव कर रहा हूँ कि ।मेरा पीछा किया जाता है, अजनबी किस्म के गुण्डे मेरे आसपास घूमते रहते हैं। अचानक रात को मेरा फोन बज उठता है और घर का जो सदस्य रिसीवर उठाता है, उसे गंदी गालियों के साथ धमकी दी जाती है कि अगर अदालत में मैंने मुँह खोला, तो मेरी और मेरे परिजनों की खैर नहीं । रोज-रोज के फोन से तंग आकर  मेरी  पत्नी आँचल पसारकर मुझसे अपने सुहाग की भीख माँगती है, तो मेरे बच्चे अपने बाप की जिन्दगी।

      वैसे अदालत में अपने कहे हुए से पलट जाना उतना आसान भी तो नहीं है, गुजरात के बेस्ट बेकरी कांड, दिल्ली का जेसिकालाल हत्याकांड में अदालत में पलट जाने वाले उसके गवाहों को अदालत ने जिस तरह से सजा तजबीज की, उसके बाद मेरे जैसे आदमी में साहस ही कहाँ बचा है अपने कहे से पलटने का । फिर अदालत में पलट जाने भर से इज्जत बच जाएगी क्या मेरी! कल जब बाजार में जाऊँगा, किसी गली से निकलूँगा, तो लोग कटाक्ष करेंगे मुझ पर । दुनिया भर में थू- थू होगी मेरी । नीरनिधि साहब की बीबी को क्या मुँह दिखाऊँगा मै, अपनी यूनियन के सामने क्या कहूँगा मैं, जहाँ खूब डींगे हाँकता रहा अब तक ।

      कल पत्नी कह रही थी कि तुम चिन्ता काहे करते हो, उन लोगों का वकील पहले ही बता देगा आपको कि कैसे क्या कहना है! मैंने बात कर ली है वकील से, आपको ऐसी गोलमाल बात करनी है कि पुराने बयान से पलटना भी न लगे और उन लोगों का शिनाख्त भी न करना पड़े आपको। वैसे ऐसी कोशिश चल रही है कि अदालत में आपका बयान न कराया जाए।

     मैं अचंभित था कि मेरी घर-घुस्सा निहायत घरेलू हाउस वाइफ बीबी को ऐसी दुनियादारी कहाँ से आ गई कि रास्ता निकाल लिया उसने मेरे धर्मसंकट से उबरने का ।

      सुबह हो रही थी, आसमान में सोने -सा पीला उजाला फैलने लगा था कि फोन की घण्टी बजी। मैंने लपककर उठाया, तो पाया कि उधर से नीरनिधि साहब की पत्नी की आवाज थी। वे कह रहीं थीं-“भैया। जिसे जाना था, वह चला गया। आप आज पेशी में ऐसा कुछ मत कहना कि आपके परिवार पर संकट  आ जाए। अब मरने वाले के साथ मरा तो नहीं जाता न। हम लोग भी अब सजा दिलाने पर ज्यादा जोर नहीं डालेंगे।”

    सुना तो मैं स्तब्ध रह गया- बल्कि भयभीत होकर जड़- सा रह गया, कहना ज्यादा उचित होगा।

     मन में घुमड़ रहे द्वंद्व के घनेरे बादल छँटते लग रहे थे, लेकिन जाने क्यों बाहर के वातावरण में  एक अजीब -सी घुटन और उमस बहुत तेजी के साथ बढ़ती- सी लग रही थी।

लेखक के बारे में-
जन्म- 20 सितम्बर 1959 अशोक नगर म.प्र.
शिक्षा- विधि और पत्रकारिता में स्नातक एवं हिन्दी साहित्य के स्नातकोत्तर
कहानी संग्रह- 1 इज्ज़त-आबरू ,2 गोस्टा तथा अन्य कहानियाँ, 3 हादसा, 4 मेरी प्रिय कहानियाँ, 5 हल्ला   
उपन्यास- 1 मुखबिर 2 अस्थान 3 आड़ा वक्त 4 दतिया@46
बाल उपन्यास- 1 बाली का बेटा, 2 रानी का प्रेत, 3 गढ़ी के प्रेत, 4 जादूगर जंकाल औऱ सोनपरी,
5 अंतरिक्ष में डायनासोर, बाल कहानी संग्रह 1 आर्यावर्त्त की रोचक कथाएँ
सम्प्रति – असिस्टेंट कमिश्नर जी एस टी से स्वेच्छिक सेवा निवृत्ति बाद स्वतंत्र लेखन
सम्पर्क – 89, ओल्ड हाऊसिंग बोर्ड कोलोनी, बस स्टैण्ड दतिया म. प्र. 475661
Mobile 9826689939, Email- raj.bohare@gmail.com

दो लघु व्यंग्यः 1. दवा, 2. यस सर

 - हरिशंकर परसाई 

1. दवा

कवि ‘अनंग’ जी का अन्तिम क्षण आ पहुँचा था।

डाक्टरों ने कह दिया कि यह अधिक से अधिक घंटे भर के मेहमान हैं। अनंग जी पत्नी ने कहा कि कुछ ऐसी दवा दे दें, जिससे पाँच छह घण्टे जीवित रह सकें, ताकि शाम की गाड़ी से आने वाले बेटे से मिल लें। डाक्टरों ने कहा कि कोई भी दवा इन्हे घण्टे भर से अधिक जीवित नहीं रख सकती।

इसी समय अनंग जी के मित्र आए। वे बोले ‘‘मैं इन्हे मजे से कई घण्टे जीवित रख सकता हूँ।’’

डाक्टरों ने हँसकर कहा ‘‘यह असंभव है।’’

मित्र ने कहा ‘‘खैर मुझे कोशिश तो कर लेने दीजिए । आप सब लोग बाहर हो जाइए।’’

सब बाहर चले गए। मित्र अनंग जी के पास बैठे और बोले ‘‘अनंग जी, अब तो आप सदा के लिए चले। यह सुललित कण्ठ अब कहाँ सुनने को मिलेगा। जाते-जाते कुछ सुना जाइए।’’

यह सुनते ही अनंग जी उठकर बैठ गए और बोले, ‘‘मन तो नहीं है, पर आपकी प्रार्थना टाली भी नहीं जा सकती। अच्छा, अलमारी में से कॉपी निकालिए न’’।

मित्र ने कॉपी उठाकर हाथ में दे दी और अनंग जी कविता पाठ करने लगे। घण्टे पर घण्टे बीतते गए। शाम को गाड़ी आ गई और लड़का भी आ गया। उसने कमरे में घुसते ही देखा कि पिता जी कविता पढ़ रहे हैं और उनके मित्र मरे पड़े हैं।


2. यस सर
एक काफी अच्छे लेखक थे। वे राजधानी गए। एक समारोह में उनकी मुख्यमंत्री से भेंट हो गई। मुख्यमंत्री से उनका परिचय पहले से था। मुख्यमंत्री ने उनसे कहा - आप मजे में तो हैं। कोई कष्ट तो नहीं है? लेखक ने कह दिया - कष्ट बहुत मामूली है। मकान का कष्ट। अच्छा- सा मकान मिल जाए, तो कुछ ढंग से लिखना-पढ़ना हो। मुख्यमंत्री ने कहा - मैं चीफ सेक्रेटरी से कह देता हूँ। मकान आपका 'एलाट' हो जाएगा।
मुख्यमंत्री ने चीफ सेक्रेटरी से कह दिया कि अमुक लेखक को मकान 'एलाट' करा दो।
चीफ सेक्रेटरी ने कहा - यस सर।
चीफ सेक्रेटरी ने कमिश्नर से कह दिया। कमिश्नर ने कहा - यस सर।
कमिश्नर ने कलेक्टर से कहा - अमुक लेखक को मकान 'एलाट' कर दो। कलेक्टर ने कहा - यस सर।
कलेक्टर ने रेंट कंट्रोलर से कह दिया। उसने कहा - यस सर।
रेंट कंट्रोलर ने रेंट इंस्पेक्टर से कह दिया। उसने भी कहा - यस सर।
सब बाजाब्ता हुआ। पूरा प्रशासन मकान देने के काम में लग गया। साल डेढ़ साल बाद फिर मुख्यमंत्री से लेखक की भेंट हो गई। मुख्यमंत्री को याद आया कि इनका कोई काम होना था। मकान 'एलाट' होना था।
उन्होंने पूछा - कहिए, अब तो अच्छा मकान मिल गया होगा?
लेखक ने कहा - नहीं मिला।
मुख्यमंत्री ने कहा - अरे, मैंने तो दूसरे ही दिन कह दिया था।
लेखक ने कहा - जी हाँ, ऊपर से नीचे तक 'यस सर' हो गया।

व्यंग्यः फाइल महिमा

- अश्विनी कुमार दुबे

एक मामूली आदमी का मामूली दफ्तर में मामूली काम था। वह उत्साहित-सा दफ्तर गया। उत्साहित इसलिए कि आदमी ने सुन रखा था कि अब देश आजाद है। देश में लोकतंत्र है। अमीर-गरीब सब बराबर हैं यहाँ। अब किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं होता। देश समाजवाद की ओर बढ़ रहा है। वह मामूली आदमी समाजवाद के झाँसे में आकर यह मान बैठा कि देश में अब हर आदमी बराबर है। यहाँ सब काम नियमानुसार होने लगे हैं। वह खुशी-खुशी अपना साधारण-सा काम करवाने ऑफिस में पहुँच गया।

ऑफिस साफ-सुथरा था। सामने ही देशभक्ति, जनसेवा और ईमानदारी की घोषणा करते हुए पोस्टर को देखकर आदमी का मन प्रसन्न हो गया। उसने सामने की टेबल पर बैठे हुए बाबू से अपने काम के विषय में बताया। बाबू उसी तरह मुस्कुराया, जैसे दुकानदार ग्राहक को देखकर मुस्कुराता है। आदमी ने अपने काम के विषय में बाबू को समझाया।

बाबू ने अपने अंदाज में कहा: “चाय पिएँगे?” आदमी कुछ कह पाता उसके पहले ही बाबू ने चपरासी को बुलाकर आदेश दिया: “देखते नहीं, कितनी देर से बैठे हैं ये! चाय पीना चाहते हैं।”

चपरासी ने आदमी से पूछा: “सिर्फ चाय पिएँगे या समोसे भी लाऊँ?”

आदमी कुछ निर्णय ले पाता, उसके पहले ही बाबू ने कहा: “अभी चाय ही ठीक रहेगी। आज ये पहली बार इस ऑफिस में आए हैं। सौ रुपये ले लो इनसे और दफ्तर में सबके लिए चाय ले आओ।” आदमी को मालूम नहीं था कि यह हर ऑफिस की कार्यशैली है। उसने औपचारिकता समझते हुए सौ का नोट चपरासी के हाथ में थमा दिया।

चाय पीने के पश्चात बाबू ने आदमी के केस में तनिक दिलचस्पी दिखाई। आदमी ने पुनः विस्तार से अपनी परेशानी बाबू को सुनाई। बाबू ने संक्षिप्त-सा जवाब देते हुए कहा - “इस काम के लिए नई फाइल खोलनी होगी। समय लगेगा। फिलहाल तो आप एक आवेदन पत्र छोड़ जाइए। फाइल तो खुले। आगे आप इसी प्रकार आते रहिए। समय-समय पर और जो कागज लगेंगे, हम आपको बता देंगे।”

इतना कहकर बाबू दूसरी फाइलों में व्यस्त हो गया। आदमी ने वहीं आवेदन बनाकर बाबू को पकड़ा दिया।

“ठीक है। आपका आवेदन लगाकर हम आपकी फाइल खोल देते हैं। एक सप्ताह पश्चात् आइएगा। हम आपके केस को समझ लें, पश्चा त् आपको बताएँगे कि इस फाइल में और क्या-क्या कागज लगेंगे।” कहकर बाबू ने आदमी से लम्बी नमस्ते की।

आदमी घर आ गया। सोचने लगा, चलो हफ्तेभर में अपना काम हो जाएगा। आदमी भोला था। अनुभवहीन था। वह तो ऑफिस में देशभक्ति, जनसेवा और ईमानदारी का स्लोगन पढ़कर ही खुश हो गया था। हफ्ता गुजरते देर नहीं लगती। अगले हफ्ते आदमी पूरे विश्वास के साथ कि आज उसका काम अवश्य हो जाएगा, दफ्तर पहुँच गया। बाबू ने उसे आदरपूर्वक बिठाया और उसके बैठते ही चपरासी को चाय पिलाने का आदेश दे दिया। बाबू ने आदमी से चाय के लिए सौ रुपये माँगने में कोई देर नहीं की।

चाय पीकर बाबू ने आदमी को बतायाः “केस बहुत कमजोर है। मैंने आपके केस की स्टडी कर ली है। फाइल में कुछ कागज और लगेंगे। कुछ सर्टिफिकेट्स, केस हिस्ट्री, सुबूत इत्यादि। मैंने लिस्ट बना दी है। अगली बार आएँ इतने कागज और ले आएँ, आपकी फाइल में लगाना जरूरी है।“

हाथ में बाबू द्वारा थमाई गई लिस्ट लेकर आदमी पढ़ ही रहा था कि बाबू ने कहा- “अगले हफ्ते मैं छुट्टी पर जा रहा हूँ। वैसे भी आपको ये कागज जुटाने में वक्त लगेगा। अब आप पन्द्रह दिनों बाद आइएगा।”

आदमी कुछ कहने की स्थिति में नहीं था। उसका उत्साह जाता रहा। वह चुपचाप घर आ गया। सचमुच, जो कागज बाबू ने उससे माँगे थे, उन्हें जुटाने में उसे पसीना आ गया और पूरे दो सप्ताह लग गए। फिर भी वह सारे कागज लेकर पन्द्रह दिनों के पश्चात दफ्तर पहुँचा। अबकी उसने बिना बाबू के कहे चपरासी को बुलाकर सौ रुपये देते हुए पूरे दफ्तर को चाय पिलाने के लिए कहा। चपरासी खुश हुआ। बाबू ने मुस्कराते हुए कहा- “धीरे-धीरे आप ऑफिस की कार्यप्रणाली समझते जा रहे हैं। लाइए, आपके कागज देखता हूँ।”

अब तक चाय आ गई। चाय की चुस्कियों के साथ बाबू ने कागजों पर एक उड़ती हुई नजर डालकर कहा- “अब आपकी फाइल चलाते हैं। ऑडीटर, सुपरवाइजर और सुपरिन्टेंडेंट की टेबिल से होते हुए यह फाइल साहब की टेबिल पर जाएगी। तत्पश्चात् साहब ही इस केस में कोई निर्णय ले पाएँगे, तब तक आपको इंतजार करना पड़ेगा। मेरी तरफ से आज यह फाइल आगे बढ़ा दी जाएगी।” आदमी ने सशंकित होकर पूछा-“अब मैं कब आऊँ?”

“बस, अगले हफ्ते। ऑडीटर महोदय देख लें। वे फाइल में कोई ऑब्जेक्शन निकालेंगे, तो आपको उसका जवाब जरूर देना पड़ेगा। तत्पश्चात् सुपरवाइजर साहब अपनी टीप के साथ फाइल आगे बढ़ाएँगे। सुपरिण्टेंडेंट साहब के पास फाइल पहुँचने के पश्चात् वे केस को डिटेल में देखेंगे। संतुष्ट होने के पश्चात् फाइल उनकी टीप के साथ साहब की टेबिल पर पहुँच जाएगी। वे उसे देखकर अपना निर्णय दे देंगे। थोड़ा धैर्य रखिए। इतना समय तो लगता ही है, हर फाइल में।” बाबू ने आदमी से आत्मीयता दिखाते हुए कहा।

इस बार बाबू ने आदमी को पुनः आने के लिए कोई समय सीमा नहीं बताई। आदमी ने सोचा साहब के पहले तीन लोगों के पास से फाइल को गुजरना है। इस प्रकार कम-से-कम पन्द्रह दिन तो लग ही जाएँगे। उसने दो सप्ताह पश्चात फिर ऑफिस में दस्तक दी। बाबू ने छूटते ही पूछा: “इतने दिनों कहाँ रहे? पिछले हफ्ते ही ऑडीटर ने फाइल में कुछ आपत्तियाँ दर्ज कर फाइल वापस कर दी। लीजिए इनके जवाब बनाकर लाइए।” -यह कहकर आगे की फाइल आदमी की तरफ बढ़ा दी।

आदमी ने ऑडीटर की नोटशीट पढ़ी। मामूली-सी आपत्तियाँ थीं, मानो आपत्तियाँ निकालनी ही हैं, इसलिए निकाली गई थीं। उसने वहीं उनका विस्तृत जवाब बनाया और बड़े बाबू को थमा दिया। बड़े बाबू ने जवाब पढ़ा और उसे फाइल में अटैच करते हुए कहा- “फाइल का पेट तो भरना ही पड़ता है। अच्छा किया आपने तुरंत जवाब लगा दिया। अब देखते हैं आगे क्या होता है।”

“अब कब आऊँ?”-आदमी ने निराश स्वर में बड़े बाबू से पूछा।

“दस दिनों पश्चात् आ जाएँ तब तक सुपरिण्टेंडेंट साहब भी छुट्टी से आ जाएँगे। उनकी बिटिया की शादी है। इन दिनों छुट्टी पर हैं। उसके बाद फाइल सीधे साहब की टेबिल पर होगी। बस, समझो कि आपका काम हो गया।” बड़े बाबू ने स्नेहपूर्वक आदमी को समझाया।

दरवाजे पर आदमी को अपने पड़ोसी होशियारीलाल मिल गए। वे हँस-हँसकर चपरासी से बतिया रहे थे। आदमी ने उनसे सौहार्दवश पूछा- “कैसे आना हुआ भई?”

होशियारीलाल पान चबाते हुए, जो अभी-अभी चपरासी ने उनके हाथ में दिया था, बोले: “एक काम है हमारा। आज ही केस फाइल बनवाई है। बाबू ने दो दिन बाद बुलाया है।”

आदमी चौंककर बोला- “मुझे तो कभी एक हफ्ते के पहले उन्होंने नहीं बुलाया?” चपरासी हँसा। उसने छुट्टे रुपये होशियारीलाल की ओर बढ़ाए। चाय-नाश्ते और पान के लिए शायद होशियारीलाल ने उसे कोई बड़ा नोट दिया था। बाकी रुपये वह लौटाने को हुआ। होशियारी लाल ने लापरवाही से कहा- “रख लो, तुम्हारे हैं।” तत्पश्चात् आदमी की ओर मुखातिब होकर बोले-“ये चपरासी मेरा परिचित है। इसने पहले ही मुझसे फाइल में वजन रखने के लिए कह दिया था। मैंने वही किया। अब देखते हैं, दो दिनों पश्चात् फाइल कहाँ तक पहुँचती है।”

ये वजन रखना क्या होता है? सोचता हुआ आदमी अपने घर आ गया। दो महीने होने को आ रहे हैं और उसका एक मामूली-सा काम उस दफ्तर में अटका हुआ है। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि इतना विलंब क्यों हो रहा है?

दस दिनों पश्चात वह फिर बड़े बाबू के सामने था। आदमी को आज गुस्सा आ रहा था। स्थिति भाँपकर बड़े बाबू ने उसे आदरपूर्वक बिठाया। चपरासी को तुरंत ठंडा पानी लाने के लिए कहा। चपरासी ने थोड़ी देर में मुस्कुराते हुए उसके सामने ठंडा पानी पेश किया। आदमी ने ऊँचे स्वर में बड़े बाबू से पूछा- “मेरी फाइल का क्या हुआ?”

बड़े बाबू ने शांत स्वर में कहा- “ऑडीटर ने फाइल आगे बढ़ा दी है। बस, अब सुपरिण्टेंडेंट की टीप लग जाए, तो फाइल साहब के पास पहुँच जाएगी।”

“सुपरिण्टेंडेंट की टीप आखिर कब लगेगी?” आदमी ने झल्लाकर पूछा।

“फाइल में अब तक बहुत कागज लग चुके हैं। बहुत मोटी हो गई है आपकी फाइल। अब उसे पढ़ने में सुपरिण्टेंडेंट साहब को समय तो लगेगा। वे जल्दबाजी में कोई काम नहीं करते। हर फाइल को पूरी तरह इत्मीनान से पढ़ते हैं, फिर उस पर अपनी टीप लिखते हैं। आपको तो मालूम है कि वे अभी-अभी बिटिया की शादी निपटाकर आए हैं। अभी उनका मन स्थिर नहीं है। शादी-ब्याह में कितने काम कामकाज नहीं होते सिर पर। जल्द ही आपकी फाइल देखेंगे। धैर्य रखिए।” बड़े बाबू ने अतिरिक्त स्नेह के साथ समझाया। दूर खड़े चपरासी की मुस्कुराहट अभी कम नहीं हुई थी।

आदमी अन्यमनस्क-सा कुछ देर बैठा रहा। उसकी समझ में नहीं आया कि वह क्या करे? बड़े बाबू ने फिर समझाया-“देखिए, हर काम में समय लगता है। कहीं भी हथेली पर सरसों नहीं उगती। आपका काम भी हो जाएगा। आठ-दस दिन बाद आप फिर मिल लीजिएगा। तब तक शायद कुछ बात बन जाए।”

आदमी चिंतित, परेशान और गुस्से से भरा हुआ उठा और सीधे ऑफिस के बाहर आ गया। चपरासी अब भी उसी प्रकार मुस्कुरा रहा था। आदमी ने उसे अपने पास बुलाया और पूछा- “ये फाइल पर वजन रखना क्या होता है?”

चपरासी ने कहा- “ये आप होशियारीलाल जी से पूछ लीजिएगा। आपके तो परिचित हैं वे।”

दो दिनों तक होशियारीलालजी नहीं मिले। शायद कहीं बाहर गए थे। सोमवार को एक पतली-सी फाइल लिये पप्पू के होटल में चाय पीते हुए मिल गए। आदमी ने उन्हें देखते ही अपनी पूरी व्यथा-कथा सुना डाली। होशियारी ने हँसकर हाथ की फाइल दिखाते हुए कहा-“ये मेरे काम की फाइल है। दो दिनों में मेरा काम हो गया। ये ऑर्डर की कॉपी अभी-अभी ऑफिस से लेकर आया हूँ। आप फालतू के कागज लगाकर फाइल मोटी करते रहे। नोटों का वजन उस पर आपने नहीं रखा; इसलिए अब तक ऑफिस के चक्कर लगा रहे हैं। अब तो कुछ कीजिए, जिससे आपकी फाइल निपटे।”

आदमी अब गंभीरतापूर्वक सोच रहा है कि उसे यथास्थिति से समझौता करना है या इसे बदलने के लिए सार्थक उपाय करने हैं? उसे लग रहा है उपाय करना ही ज्यादा ठीक होगा।

सम्पर्कः 376. बी/आर, महालक्ष्मी नगर , इंदौर.452010

कविताः मैं नेह -लता हूँ

  - प्रणति ठाकुर

नहीं तुम्हारी पग -बाधा मैं नेह - लता हूँ...

 










स्नेह - छाँव बनकर मैं तेरे साथ चली हूँ

 बन निर्झरणी प्रति- पल स्नेह अगाध झरी हूँ

जीवन के झंझावातों से  क्लांत पड़ा जब अंतस् तेरा  

भर पाई अनुराग प्रबल मैं वो अपगा  हूँ

नहीं तुम्हारी पग -बाधा मैं नेह - लता हूँ...

 

तेरे मौन जगत् में तेरा राग बनी हूँ

हर तेरी पीड़ा सतरंगी फाग बनी हूँ

शमित, तृषित तेरे अंतर की व्यथा बढ़ी जब

बन परछाई गंधसार की साथ सदा हूँ 

नहीं तुम्हारी पग -बाधा मैं नेह - लता हूँ...

 

अपना तन -मन वार - वार हूँ नहीं अघाई

अपने शोणित से गढ़ती तेरी परछाई

बने द्वारकाधीश अगर तुम मोहन मेरे

तेरी खातिर युग -युग से मैं ही राधा हूँ

नहीं तुम्हारी पग -बाधा मैं नेह -लता हूँ...

 

यशोधरा मैं ही थी, मुख तुम मोड़ गए थे

मैं ही थी उर्मिल, दुख से उर जोड़ गए थे

अग्निकुण्ड में कितनी बार मुझे परखोगे 

बस कर दो अब, आज नहीं मैं जनक सुता हूँ

नहीं तुम्हारी पग -बाधा मैं नेह -लता हूँ...

नहीं तुम्हारी पग -बाधा मैं नेह -लता हूँ...


कालजयी कहानीः उधड़ी हुई कहानियाँ

 - अमृता प्रीतम

मैं और केतकी अभी एक दूसरी की वाकिफ नहीं हुई थीं कि मेरी मुस्कराहट ने उसकी मुस्कराहट से दोस्ती गाँठ ली।

मेरे घर के सामने नीम के और कीकर के पेड़ों में घिरा हुआ एक बाँध है।

बाँध की दूसरी ओर सरसों और चनों के खेत हैं।

इन खेतों की बाईं बगल में किसी सरकारी कालेज का एक बड़ा बगीचा है।

इस बगीचे की एक नुक्कड़ पर केतकी की झोंपड़ी है।

बगीचे को सींचने के लिए पानी की छोटी-छोटी खाइयाँ जगह-जगह बहती हैं ।

पानी की एक खाई केतकी की झोपड़ी के आगे से भी गुज़रती है।

इसी खाई के किनारे बैठी हुई केतकी को मैं रोज़ देखा करती थी।

कभी वह कोई हंडिया या परात साफ कर रही होती और कभी वह सिर्फ पानी की अंजुलियाँ भर-भरकर चाँदी के गजरों से लदी हुई अपनी बाँहें धो रही होती।

चाँदी के गजरों की तरह ही उसके बदन पर ढलती आयु ने माँस की मोटी-मोटी सिलवटें डाल दी थीं।

पर वह अपने गहरे साँवले रंग में भी इतनी सुन्दर लगती थी कि माँस की मोटी-मोटी सिलवटें मुझे उसकी उमर की सिंगार-सी लगती थीं।

शायद इसीलिए कि उसके होंठों की मुस्कराहट में अजीब-सी भरपूरगी थी, एक अजीब तरह की सन्तुष्टि, जो आज के ज़माने में सबके चेहरों से खो गई है। मैं रोज़ उसे देखती थी और सोचती थी कि उसने जाने कैसे यह भरपूरता अपने मोटे और साँवले होंठों में सम्भालकर रख ली थी। मैं उसे देखती थी और मुस्करा देती थी। वह मुझे देखती और मुस्करा देती। और इस तरह मुझे उसका चेहरा बगीचे के सैकड़ों फूलों में से एक फूल जैसा ही लगने लगा था। मुझे बहुत-से फूलों के नाम नहीं आते, पर उसका नाम, मुझे मालूम हो गया था-“माँस का फूल।”

एक बार मैं पूरे तीन दिन उसके बगीचे में न जा सकी। चौथे दिन जब गई, तो उसकी आँखें मुझसे इस तरह मिलीं जैसे तीन दिनों से नहीं, तीन सालों से बिछुड़ी हुई हों।

“क्या हुआ बिटिया! इतने दिन आई नहीं ?”

“सर्दी बहुत थी अम्माँ! बस बिस्तर में ही बैठी रही ।”

“सचमुच बहुत जाड़ा पड़ता है तुम्हारे देश में”

“तुम्हारा कौन-सा गाँव है अम्मा ?”

“अब तो यहाँ झोपड़ी डाल ली, यही मेरा गाँव है।”

“यह तो ठीक है, फिर भी अपना गाँव अपना गाँव होता है।”

“अब तो उस धरती से नाता टूट गया बिटिया! अब तो यही कार्तिक मेरे गाँव की धरती है और यही मेरे गाँव का आकाश है।”

“यही कार्तिक” कहते हुए उसने झुग्गी के पास बैठे हुए अपने मर्द की तरफ देखा। आयु के कुबड़ेपन से झुका हुआ एक आदमी ज़मीन पर तीले और रस्सियाँ बिछाकर एक चटाई बुन रहा था। दूर पड़े हुए कुछ गमलों में लगे हुए फूलों को सर्दी से बचाने के लिए शायद चटाइयों की आड़ देनी थी।

केतकी ने बहुत छोटे वाक्य में बहुत बड़ी बात कह दी थी। शायद बहुत बड़ी सच्चाइयों को अधिक विस्तार की ज़रूरत नहीं होती। मैं एक हैरानी से उस आदमी की तरफ देखने लगी , जो एक औरत के लिए धरती भी बन सकता था और आकाश भी।

“क्या देखती हो बिटिया! यह तो मेरी 'बिरंग चिट्ठी' है।”

“बैरंग चिट्ठी!”

“जब चिट्ठी पर टिक्कप नहीं लगाते तो वह बिरंग हो जाती है।”

“हाँ अम्माँ! जब चिट्ठी पर टिकट नहीं लगी होती, तो वह बैरंग हो जाती है।”

“फिर उसको लेने वाला दुगुना दाम देता है।”

“हाँ अम्मा! उसको लेने के लिए दुगने पैसे देने पड़ते हैं।'”

“बस यही समझ लो कि इसको लेने के लिए मैंने दुगने दाम दिए हैं। एक तो तन का दाम दिया और एक मन का ।”

मैं केतकी के चेहरे की तरफ देखने लगी। केतकी का सादा और साँवला चेहरा ज़िन्दगी की किसी बड़ी फिलासफी से सुलग उठा था।

“इस रिश्ते की चिट्ठी जब लिखते हैं, तो गाँव के बड़े-बूढ़े इसके ऊपर अपनी मोहर लगाते हैं।”

“तो तुम्हारी इस चिट्ठी के ऊपर गाँव वालों ने अपनी मोहर नहीं लगाई थी ?”

“नहीं लगाई तो क्‍या हुआ! मेरी चिट्ठी थी, मैंने ले ली। यह कार्तिक की चिट्ठी तो सिर्फ केतकी के नाम लिखी गई थी।”

“तुम्हारा नाम केतकी है? कितना प्यारा नाम है। तुम बड़ी बहादुर औरत हो अम्माँ!

“मैं शेरों के कबीले में से हूँ।”

“वह कौन-सा कबीला है अम्मा?”

“यही जो जंगल में शेर होते हैं, वे सब हमारे भाई-बन्धु हैं। अब भी जब जंगल में कोई शेर मर जाए, तो हम लोग तेरह दिन उसका मातम मनाते हैं। हमारे कबीले के मर्द लोग अपना सिर मुँडा लेते हैं, और मिट्टी की हंडिया फोड़कर मरने वाले के नाम पर दाल-चावल बाँटते हैं।''

“सच अम्मा?”

“मैं चकमक टोला की हूँ। जिसके पैरों में कपिल धारा बहती है।'

“यह कपिल धारा क्‍या है अम्माँ!”

“तुमने गंगा का नाम सुना है?”

“गंगा नदी?”

“गंगा बहुत पवित्र नदी है, जानती हो न?”

“जानती हूँ।”

“पर कपिल धारा उससे भी पवित्र नदी है। कहते हैं कि गंगा मइया एक साल में एक बार काली गाय का रूप धारण कर कपिल धारा में स्नान करने के लिए जाती है।

“वह चकमक टोला किस जगह है अम्मा?”

“करंजिया के पास”

“और यह करंजिया ?”

“तुमने नर्मदा का नाम सुना है?”

“हाँ सुना है।”

“नर्मदा और सोन नदी भी नज़दीक पड़ती हैं।”

“ये नदियाँ भी बहुत पवित्र हैं?”

“उतनी नहीं, जितनी कपिल धारा। यह तो एक बार जब धरती की खेतियाँ सूख गई थीं, और लोग बचारे उजड़ गए थे तो उनका दुःख देखकर ब्रह्मा जी रो पड़े थे। ब्रह्माजी के दो आँसू धरती पर गिर पड़े। बस जहाँ उनके आँसू गिरे वहाँ ये नर्मदा नदी और सोन नदी बहने लगीं। अब इनसे खेतों को पानी मिलता है।”

“और कपिल धारा से?”

“इससे तो मनुष्य की आत्मा को पानी मिलता है। मैंने कपिल धारा के जल में इशनान किया और कार्तिक को अपना पति मान लिया।”

“तब तुम्हारी उमर क्‍या होगी अम्मा?”

“सोलह बरस की होगी ।”

“पर तुम्हारे मॉ-बाप ने कार्तिक को तुम्हारा पति क्‍यों न माना?”

 “बात यह थी कि कार्तिक की पहले एक शादी हुई थी। इसकी औरत मेरी सखी थी।

बड़ी भली औरत थी। उसके घर चुन्दरू-मुंदरू दो बेटे हुए। दोनों ही बेटे एक ही दिन जन्मे थे। हमारे गाँव का ‘गुनिया' कहने लगा कि यह औरत अच्छी नहीं है। इसने एक ही दिन अपने पति का संग भी किया था और अपने प्रेमी का भी। इसीलिए एक की जगह दो बेटे जन्मे हैं।”

“उस बेचारी पर इतना बड़ा दोष लगा दिया?”

“पर गुनिया की बात को कौन टालेगा। गाँव का मुखिया कहने लगा कि रोपी को प्रायश्चित करना होगा। उसका नाम रोपी था। वह बेचारी रो-रोकर आधी रह गई।”

“फिर?”

“फिर ऐसा हुआ कि रोपी का एक बेटा मर गया। गाँव का गुनिया कहने लगा कि जो बेटा मर गया, वह पाप का बेटा था; इसीलिए मर गया है।

“फिर?”

“रोपी ने एक दिन दूसरे बेटे को पालने में डाल दिया और थोड़ी दूर जाकर महुए के फूल डलियाने लगी। पास की झाड़ी से भागता हुआ एक हिरन आया। हिरन के पीछे शिकारी कुत्ता लगा हुआ था। शिकारी कुत्ता जब पालने के पास आया, तो उसने हिरन का पीछा छोड़ दिया और पालने में पड़े हुए बच्चे को खा लिया ।”

“बेचारी रोपी।”

“अब गाँव का गुनिया कहने लगा कि जो पाप को बेटा था, उसकी आत्मा हिरन की जून में चली गई। तभी तो हिरन भागता हुआ उस दूसरे बेटे को भी खाने के लिए पालने के पास आ गया।”

“पर बच्चे को हिरन ने तो कुछ नहीं कहा था। उसको तो शिकारी कुत्ते ने मार दिया था।

“गुनिए की बात को कोई नहीं समझ सकता बिटिया! वह कहने लगा कि पहले तो पाप की आत्मा हिरन में थी, फिर जल्दी से उस कुत्ते में चली गई। गुनिया लोग बात की बात में मरवा डालते हैं। बसाई का नन्‍दा जब शिकार करने गया था, तो उसका तीर किसी हिरन को नहीं लगा था। गुनिया ने कह दिया कि ज़रूर उसके पीछे उसकी औरत किसी गैर मरद के साथ सोई होगी, तभी तो उसका तीर निशाने पर नहीं लगा। नन्‍दा ने घर आकर अपनी औरत को तीर से मार दिया ।”

“गुनिया ने कार्तिक से कहा कि वह अपनी औरत को जान से मार डाले। नहीं मारेगा तो पाप की आत्मा उसके पेट से फिर जनम लेगी और उसका मुख देखकर गाँव की खेतियाँ सूख जाएँगी ।”

“फिर?”

कार्तिक अपनी औरत को मारने के के लिए सहमत न हुआ। इससे गुनिया भी भी नाराज़ हो गया और गाँव के लोग भी।”

“गाँव के लोग नाराज़ हो जाते हैं, तो क्या करते हैं?” “लोग गुनिया से बहुत डरते हैं। सोचते हैं कि अगर गुनिया जादू कर देगा, तो सारे गाँव के पशु मर जाएँगे; इसलिए उन्होंने कार्तिक का हुक्का-पानी बंद कर दिया।

“पर वे यह नहीं सोचते थे कि अगर कोई इस तरह अपनी औरत को मार देगा, तो वह खुद ज़िन्दा कैसे बचेगा?”

“क्यों, उसको क्‍या होगा?”

“उसको पुलिस नहीं पकड़ेगी?”

“पुलिस नहीं पकड़ सकती। पुलिस तो तब पकड़ती है, जब गाँववाले गवाही देते हैं। पर जब गाँववाले किसी को मारना ठीक समझते हैं, तो पुलिस को पता नहीं लगने देते ।”

“फिर क्‍या हुआ”

“बेचारी रोपी ने तंग आकर महुए के पेड़ से रस्सी बाँध ली और अपने गले में डालकर मर गई।”

“बेचारी बेगुनाह रोपी!”

“गाँववालों ने तो समझा कि खतम हो गई। पर मुझे मालूम था कि बात खत्म नहीं हुई; क्योंकि कार्तिक ने अपने मन में ठान लिया था कि वह गुनिया को जान से मार डालेगा। यह तो मुझे मालूम था कि गुनिया जब मर जाएगा, तो मरकर राखस बनेगा ।”

“वह तो जीते जी भी राक्षस था!”

“जानती हो राक्षस क्‍या होता है?

“क्या होता है?”

“जो आदमी दुनिया में किसी को प्रेम नहीं करता, वह मरकर अपने गाँव के दरखतों पर रहता है। उसकी रूह काली हो जाती है, और रात को उसकी छाती से आग निकलती है। वह रात को गाँव की लड़कियों को डराता है।”

“फिर?”

“मुझे उसके मरने का तो गम नहीं था; पर मैं जानती थी कि कार्तिक ने अगर उसको मार दिया, तो गाँव वाले कार्तिक को उसी दिन तीरों से मार देंगे।

“फिर?”

“मैंने कार्तिक को कपिल धारा में खड़े होकर वचन दिया कि मैं उसकी औरत बनूँगी। हम दोनों इस देश से भाग जाएँगे। मैं जानती थी कि कार्तिक उस देश में रहेगा तो किसी दिन गुनिया को ज़रूर मार देगा। अगर वह गुनिया को मार देगा, तो गाँववाले उसको मार देंगे।”

“तो कार्तिक को बचाने के लिए तुमने अपना देश छोड़ दिया?”

“जानती हूँ, वह धरती नरक होती है, जहाँ महुआ नहीं उगता। पर क्या करती? अगर वह देश न छोड़ती तो कार्तिक ज़िन्दा न बचता और जो कार्तिक मर जाता तो वह धरती मेरे लिए नरक बन जाती । देश-देश इसके साथ घूमती रही । फिर हमारी रोपी भी हमारे पास लौट आई।”

“रोपी कैसे लौट आई?”

“हमने अपनी बिटिया का नाप रोपी रख दिया था। यह भी मैंने कपिल धारा में खड़े होकर अपने मन से वचन लिया था कि मेरे पेट से जब कभी कोई बेटी होगी, मैं उसका नाम रोपी रखूँगी। मैं जानती थी कि रोपी का कोई कसूर नहीं था। जब मैंने बिटिया का नाम रोपी रखा तो मेरा कार्तिक बहुत खुश हुआ।”

“अब तो रोपी बहुत बड़ी होगी?” “अरी बिटिया! अब तो रोपी के बेटे भी जवान होने लगे। बड़ा बेटा आठ बरस का है और छोटा बेटा छह बरस का। मेरी रोपी यहाँ के बड़े माली से ब्याही है। हमने दोनों बच्चों के नाम चुन्दरू-मुन्दरू रखे हैं।”

“वही नाम , जो रोपी के बच्चों के थे?”

“हाँ, वही नाम रखे हैं। मैं जानती हूँ, उनमें से कोई भी पाप का बच्चा नहीं था।”

“मैं कितनी देर केतकी के चेहरे की तरफ देखती रही ।

कार्तिक की वह कहानी , जो किसी गुनिए ने अपने निर्दयी हाथों से उधेड़ दी थी, केतकी अपने मन के सुच्चे रेशमी धागे से उस उधड़ी हुई कहानी को फिर से सी रही थी।

यह एक कहानी की बात है। और मुझे भी मालूम नहीं, आपको भी मालूम नहीं कि दुनिया के ये 'गुनिए' दुनिया की कितनी कहानियों को रोज़ उधेड़ते हैं।