- निर्देश निधि
निर्मला प्रकृति के रंगीन दुशाले में लिपटा
मेरा छोटा सा गाँव
जेठ की दुपहरी में भुनी हुई रेत पर
जलते हुए मेरे पाँव
पके बेरों की ललक में काँटों को धता बताकर
कठखनी झड़बेरियों के रोज़ उमेठना कान
आज भी याद आते हैं मुझे
भादों की अनमनी बरसात में
रपटनी दौड़, चिकने गारे का चंदन चढ़ाए कपड़े
खेल की मौज और माँ की डाँट की काकटेल का नशा
आज भी ताज़ा है मुझमें
चूल्हे के धुएँ हल्के - हल्के उछालती
माँ की कामधेनु- सी रसोई पर पड़ी सुरमई छान
सम्पदाओं से भरी माँ की राजदार साहूकारिणी टाँड
आज भी भर देती है यादों के खज़ाने मुझमें
बूढ़ी पोखर के चेहरे पर पड़ी गर्वीली झुर्रियाँ
पीपल की पत्तियों की देसी खरताल, उदार घनी छाँव
अब भी साथ - साथ चलते हैं मेरे
पंचायती चबूतरे पर खड़े
सही – गलत फैसलों की उधेड़ बुन से बेख़बर
समय के अंधड़ों में बेख़ौफ़ जमें बुजुर्ग बरगद के अडिग पाँव
गढ़े हैं कहीं गहरे अब भी मुझमें
डोल, काड्ढी लिये कुएँ से पानी ले जाती
भुरिया भाभी की लचकती चाल
पथवारे में चमनों चाची के उपले पाथते मृदंग पर थाप से हाथ
आते - जाते थपथपा जाते हैं मुझे
दालान के चबूतरों पर बैठे बुजुर्ग
प्रौढ़ स्वरलहरियाँ बिखेरते हुक्के
चिलम पर चढ़े लाल अंगार
अब तक भुनते हैं मेरी यादों की आँच में
आँगन वाले बूढ़े नीम पर
साँझ ढले सूरज की जिम्मेदारियाँ सँभालती- सी
जुगनुओं की जगमग जमात और आले में साँझ का दीपक
झिलमिला जाते हैं मेरी बंद आँखों में अब भी
गर्मियों की रात खुले आँगन में चाँदनी बन
बगल में सोता हुआ वो ठंडा - ठंडा चाँद
या सर्दियों की सुबह कोहरा बन
फसलों पर तैरता वो पिघला हुआ- सा आसमान
गोधूलि संग कदमताल कर घर लौटते डँगरों की घंटियाँ
मंदिर के घंटों की सहोदर- सी
बज उठती हैं मेरे कानों में अक्सर
पर शहर का षड्यंत्र तो देखो
तुला है सब यादों को शहरी बनाने मे
मुझसे मेरी धरती, मेरे आसमान छुड़ाने में ।
6 comments:
बहुत-बहुत धन्यवाद उदंती
बेशकीमती कविता शायद निधि जी ही लिख सकती थीं ऐसा मेरा अपना नज़रिया है (भावनाओं के ज्वार में बहकर नहीं )👏👏👏👍👌🙏
बहुत सुन्दर... बधाई निधि जी..
अद्भुत कविता 👌👌👌
गाँव की स्मृति को ताज़ा करती हुई कविता-बधाई।
अद्भुत है।
गाँव के परिवेश का सुंदर चित्रण करती प्रभावशाली कविता। बधाई निर्देश निधि जी। सुदर्शन रत्नाकर
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