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Apr 9, 2015

उदंती मार्च-अप्रैल- 2015

उदंती मार्च-अप्रैल- 2015                
प्रकृति अपनी उन्नति और विकास में रुकना नहीं जानती और अपना अभिशाप प्रत्येक अकर्मण्यता पर लगाती है। - गेटे
पर्यावरण विशेष

Apr 8, 2015

प्रकृति और पर्यावरण

प्रकृति और पर्यावरण
  - डॉ. रत्ना वर्मा
पर्यावरण में हर साल हो रहे बदलाव इस बात का संकेत है कि हम विनाश के कगार पर पहुँचते चले जा रहे हैं। अपने आस पास के वातावरण से हमने इस कदर छेडख़ानी की है कि पृथ्वी का हर हिस्सा प्रदूषित हो गया है। भूकम्प बाढ़ सूखा जैसी आपदाओं से पूरा भारत ही नहीं पूरी दुनिया जूझ रही है, पर हम हैं कि इन सबसे कोई सबक लेना ही नहीं चाहते और लगातार अपने पर्यावरण को नुकसान पहुँचाते चले जा रहे हैं। यदि हम अपनी गलतियों से सबक नहीं लेंगे तो जीना दूभर हो जाएगा और एक दिन ऐसा आयेगा कि धरती ही नहीं बचेगी।
वर्तमान में बढ़ती हुई भौतिकवादी प्रवृत्ति के कारण मनुष्य अपनी सुख-सुविधाओं में अधिकाधिक वृद्धि करने के उद्देश्य से प्राकृतिक सम्पदाओं का अंधाधुंध दोहन कर रहा है जिससे पर्यावरण का ताना बाना बिगड़ रहा है और प्राकृतिक पर्यावरण से सहज मिलने वाले जीवनदायी तत्त्व कमजोर पड़ते जा रहे हैं। मानव ने प्राकृतिक संसाधनों का जिस बेदर्दी से अंधाधुंध दोहन किया है, उसका लाभ तो उसे त्वरित नजर आया लेकिन वह लाभ उस नुकसान की तुलना में नगण्य है जो समूचे पर्यावरण, प्रकृति एवं उसमें रहने वाले प्राणियों को उठाना पड़ रहा है।  इन दिनों जैसा दृश्य समूचे विश्व में प्राकृतिक-असंतुलन और पर्यावरण प्रदूषण के रूप में दिखाई दे रहा है वह सब मानवीय भूलों का ही परिणाम है, अत: दुनिया में मानवता को यदि बचा कर रखना है तो सबकी भलाई इसी में है कि हम जिस डाल पर खड़े हैं, उसी को काट गिराने का आत्मघाती कदम न उठाएँ। हम इस तथ्य को भली-भाँति समझ लें कि प्रकृति का संतुलन ही समस्त मानवता की प्राणवायु है।
विकास की अँधी दौड़ ने हमें अपनी परम्पराओं से दूर कर दिया है- जिन जीवनदायी नदियों को हम अपनी माँ मानते थे उन्हें आज हमने इतना प्रदूषित कर दिया है कि वे अब उपयोग करने लायक नहीं बची हैं। पेड़ पौधे जिनकी हम पूजा करते थे उनको बेदर्दी से $कत्ल करते चले जा रहे हैं। वे वृक्ष जो न केवल हमारे पर्यावरण को शुद्ध रखते हैं बल्कि हमारे लिए प्राणवायु हैं उनकी रक्षा करने के बजाय उन्हें विकास के नाम पर उखाड़ते चले जा रहे हैं।  यह बात अब किसी से छिपी नहीं रह गई है कि जिन भी देशों ने प्रकृति और पर्यावरण का दुरुपयोग व दोहन किया, उन्हें आपदाओं के रूप में प्रकृति का कोपभाजन भी बनना पड़ा। फिर भी विकास की इस अंधी दौड़ जारी है।  धरती की उन अमूल्य संसाधनों का बस दोहन किये चले जा रहे हैं जो हमारे जीवन को बचाकर रखते हैं।
 इस बात से अब कोई इंकार नहीं कर सकता कि जब भी हमने प्रकृति के नियमों में दखलअंदाजी की है प्रकृति ने बाढ़, सूनामी, भूकंप जैसी विनाशकारी आपदाओं के जरिए हमें दंड दिया है। इन दिनों सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया प्रकृति की नाराजगी के रूप में हमें सचेत कर रही है कि हमने अब भी प्रकृति के साथ छेड़छाड़ बंद नहीं की तो मानवता का सर्वनाश अवश्यंभावी है।
दरअसल पर्यावरण-संरक्षण से अभिप्राय हम पेड़-पौधों का संरक्षण और हरी- भरी पृथ्वी से ही लगाते हैं।  परन्तु वास्तव में इसका तात्पर्य पेड़-पौधों के साथ-साथ जल, पशु-पक्षी एवं सम्पूर्ण पृथ्वी की रक्षा से होता है।  ऐसे में घर-परिवार और स्कूलों में माध्यमिक स्तर से ही बच्चों में पर्यावरण चेतना जगाने का काम किया जा सकता है। क्योंकि प्रकृति को जितना बर्बाद हमें करना था कर चुके हैं उन्हें वापस तो नहीं सकते पर आगे उन्हें दोहराएंगे नहीं ऐसा प्रण तो अब ले ही सकते हैं। जरूरत है पर्यावरण संरक्षण के लिए एक दृढ़ इच्छा शक्ति की, जो सबको एक साथ मिलकर करना होगा। सरकारी, गैरसरकारी, सामाजिक सभी स्तरों एकजुट होकर पर्यावरण संरक्षण के लिए प्रयास करने होंगे। अन्यथा बाढ़, सूखा, अतिवृष्टि,अनावृष्टि, सूनामी, भूकंप जैसी आपदाएँ लगातार आती रहेंगी और जीवन धीरे- धीरे नष्ट होते चला जायेगा।
अपने प्रकाशन वर्ष से लेकर अब तक उदंती, पर्यावरण, प्रदूषण के घरेलू से लेकर अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर सवाल उठाती रही है। समाज में व्याप्त अन्य कुरीतियों और बुराइयों के प्रति भी पत्रिका में समय- समय पर विशेष अंक प्रकाशित किए जाते रहे हैं। जन जागरण के इन विषयों को पत्रिका के पाठकों ने हमेशा ही प्रोत्साहित किया है। पिछले वर्षों में पत्रिका में पर्यावरण को लेकर अनेक आलेख प्रकाशित हुए हैं। उन सभी आलेखों को एक ही अंक में समाहित करना तो मुश्किल है परंतु हमारी कोशिश होगी कि कुछ अंकों में उन आलेखों को एक जगह सँजो लिया जाये। यह अंक ऐसा ही एक प्रयास है। अंक में प्रकाशित ये  आलेख ऐसे हैं जिनकी सामयिकता और उपादेयता आज भी बनी हुई है।
विश्वास है हमेशा की तरह आप सबका सहयोग और प्रोत्साहन मिलता रहेगा।                          

पर्यावरण को दाँव पर लगाके नहीं

नदी पर्यटन
पर्यावरण को दाँव पर लगाके नहीं
- वी. के. जोशी
गंगा सदैव से पूजनीय, पाप- विमोचिनी माता समान मानी गई है। एक डुबकी मात्र से समस्त पाप धुल जाते हैं ऐसी मान्यता है। आज भी ऋषिकेश में देश- विदेश से लाखों यात्री गंगा में डुबकी लगाने आते हैं। पिछले चालीस वर्षों में गंगा के किनारे हिमालय में बियासी तथा मैदान में ऋषिकेश में पर्यटन का एक नया आयाम देखने में आया है। नदी पर्यटन अथवा रिवर टूरिज्म आज पर्यावरणविदों एवं समाजशास्त्रियों दोनों के लिए चिंता का विषय बन चुका है। इन दो स्थानों के बीच की जगह अब रिवर राफ्टिंग और कैम्पिंग दोनों ही कामों के लिए प्रयोग में लाई जाती है। नदी के एकदम किनारे पर टेंट कॉलोनी बनाई जाती है। नदी पर इन सबका क्या असर पड़ता होगा- आइये एक नजर डालें।
गोविन्दवल्लभ पन्त इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन इनवायरमेंट एंड डेवेलपमेंट के श्रीनगर, गढ़वाल केन्द्र के एन ए फारुकी, टी के बुदाल एवं आर के मैखुरी ने इस प्रकार के पर्यटन का गंगा के पर्यावरण एवं क्षेत्र के समाज व संस्कृति पर पडऩे वाले प्रभाव पर शोध किया। अपने शोध को इन्होंने करेंट साईंस में प्रकाशित किया था। इनकी रिपोर्ट से इस पर्यटन के अनेक पहलुओं पर ज्ञान प्राप्त होता है। पहाड़ के खूबसूरत ढलान, हरे- भरे वन, नदियां, झरने आदि पर्यटकों को अनायास ही मोह लेते हैं। हमारे पहाड़ स्वदेशी एवं विदेशी दोनों प्रकार के पर्यटकों को सदियों से आकर्षित करते रहे हैं। इधर हाल के कुछ वर्षों में पर्यटन एक उद्योग रूप ले चुका है। विश्व में पिछले 40 वर्षों से पर्यटन एक बेहद सफल उद्योग रहा है- मानते हैं फारुखी व उनके सह- शोधकर्ता । अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर देखा जाये तो पर्यटन का जीएनपी में योगदान 5.5 तथा रोजगार में 6 प्रतिशत योगदान रहा है।
प्रश्न यह है कि यदि यह इतना कमाऊ उद्योग है तो समस्या कहाँ है? दरअसल पर्यटन को बढ़ावा मिलने के कारण लोग अचानक एक स्थान विशेष पर आ पहुंचते हैं। पर इस प्रकार हजारों या लाखों लोगों के आने से उस स्थान की संस्कृति या पर्यावरण पर क्या प्रभाव पड़ता है इस पर कभी गहराई में शोध नहीं किया गया। फारुखी आदि को इस दिशा में शोध कर समस्याओं को उजागर करने में अग्रणी माना जा सकता है। पर्यटन जहां एक ओर पर्वतीय युवाओं को रोजगार देता है तो दूसरी ओर सामाजिक तालमेल बिगाड़ भी देता है। मसलन तलहटी में काम करने वाले युवा, टूरिस्ट कैम्प में सामान ढोने के कुली का काम अधिक लाभकारी समझते हैं। चमक- दमक के लालच में अपना पुश्तैनी रोजगार छोड़कर कुलीगिरी करने वाले यह युवा बहुधा शराब आदि की लत के भी शिकार हो जाते हैं, जिसका परिणाम होता है पारिवारिक कलह।
गो कि स्थानीय समाज एवं सरकार पर्यटन को एक अच्छा उद्योग मानते हैं क्योंकि इसके कारण लोगों की आय में अंतर आया है। पर इस अच्छाई के साथ जो बुराई आती है उसे नजरंदाज कर दिया गया है। 'गंगा एक पूजनीय नदी है, उस पर नदी राफ्टिंग करना क्या नदी का अपमान नहीं है' - इस बात पर किसी ने विचार नहीं किया ना ही इस दिशा में कोई शोध हुआ है। नदी के किनारे 36 कि. मी. तक कौडियाला से ऋषिकेश तक अनेक पर्यटक कैम्प लगाए जाते हैं।
फारुखी एवं उनके सहयोगियों ने इस क्षेत्र का विशेष अध्ययन किया। फारुखी आदि ने देखा कि इन कैंपों के 500 मी के दायरे में लगभग 500 गाँव हैं। ब्रह्मपुरी एवं शिवपुरी (ऋषिकेश के निकट) 1994 में दो निजी कैम्प स्थल थे। इसके अतिरिक्त 1996 के पूर्व गढ़वाल मंडल विकास निगम के शिवपुरी व बियासी में मात्र दो कैम्प स्थल हुआ करते थे। 1997 के बाद से अचानक इन कैम्पों की बाढ़ सी आ गई है। अब यह 45 कैम्प गंगा के किनारे 183510 वर्ग मीटर के क्षेत्र पर फैले हैं। सबसे अधिक कैम्प सिंग्ताली और उसके बाद शिवपुरी में हैं। इस लेखक को याद है कि 1979 में सर्वे के दौरान शिवपुरी में ऋषिकेश में अधिकारियों से गंगा के किनारे एक टेंट लगाने की इजाजत नहीं मिली थी- क्योंकि अधिकारियों को भय था कि गंगा गंदी हो जायेगी। अब तो इन कैम्पों में प्रति कैम्प 15 से 35 पर्यटक रहते हैं। इसके अतिरिक्त वहाँ काम करने वाले लोग अलग से इन स्थानों पर प्रति कैम्प औसत शौचालय 4 से 10 तक हैं, तथा हर कैम्प की अपनी रसोई एवं भोजनालय अलग से है।
पर्यटकों से पैसा कमाने की होड़ में अनेक स्थानीय लोगों ने भी नदी के किनारे अपनी जमीन पर कैम्प लगा लिए तथा बहुतों ने अपनी जमीन टूर ऑपरेटरों को बेच दी। यही कारण है कि इस क्षेत्र में टेंट कालोनियों की भरमार हो चुकी है। फारुखी ने यह डाटा 2006 में एकत्रित किया था। बढ़ते हुए उद्योग को देखते हुए प्रतिवर्ष इसमें 10 प्रतिशत इजाफे को नकारा नहीं जा सकता। स्थानीय लोगों ने इस उद्योग के प्रति मिली जुली प्रतिक्रिया व्यक्त की है। कुछ को लगता है कि इस उद्योग से उनकी माली हालत सुधरी है तो कुछ का कहना है बाहरी लोगों के आने से उनमें सामाजिक सांस्कृतिक असुरक्षा की भावना बढ़ी है। सरकार का नदी पर्यटन को बढ़ाने का रवैया तो ठीक है, पर टूरिज्म के नाम पर होने वाले गतिविधियों पर नजर रखनी जरूरी है। गोवा में टूरिज्म के नाम पर खुली छुट मिलने के बाद क्या हुआ यह बात किसी से छिपी नहीं है। इसलिए कितनी स्वतंत्रता देनी चाहिए यह तो सरकार ही तय कर सकती है।
गंगा के किनारे इन टूरिस्ट कैम्पों का प्रयोग रिवर राफ्टिंग के लिए भी खूब होता है। फारुखी के अनुसार 2004- 05 के दौरान 12726 पर्यटकों ने इन स्थानों का प्रयोग किया। इन कैम्पों के लिए सरकार ने पाबन्दिया ठीक- ठाक लगाई हैं, जैसे जितना क्षेत्र कैम्प के लिए आवंटित है उसके बाहर टेंट नहीं लगा सकते, शाम 6 बजे के बाद राफ्टिंग की सख्त मनाही है, कैम्प में खाना बनाने के लिए लकड़ी जलाना मना है, कैम्प फायर केवल राजपत्रित अवकाशों एवं रविवारों में ही की जा सकती है, उस पर भी जमीन में लकड़ी रख कर नहीं जला सकते, उसके लिए विशेष प्रकार की लोहे की ट्रे का प्रयोग करना होता है। कैम्प फायर के लिए लकड़ी केवल वन विभाग से ही ली जायेगी ऐसे भी आदेश हैं। कैम्प फायर के बाद राख को बटोर कर नियत स्थान पर ही फेंकना होता है, नदी में डालने पर एकदम मनाही है। कैम्प में सोलर लाईट का प्रयोग किया जा सकता है रात नौ बजे तक तेज आवाज का संगीत एवं पटाखों पर सख्त पाबंदी है। शौचालय नदी से कम से कम 60 मी.की दूरी पर होने चाहिए, जिनके लिए सूखे टाईप के सोक पिट आवश्यक हैं। इतना ही नहीं वन अधिकारी को किसी भी समय कैम्प का मुआयना करने का अधिकार होगा तथा यदि किसी भी शर्त का उल्लंघन पाया गया तो कैम्प के मालिक को जुर्म के हिसाब से जुर्माना या सजा तक हो सकती है। पर काश यह सब कायदे माने जा रहे होते! फारुखी के अनुसार कैम्प नियत से अधिक क्षेत्र में लगाये जाते हैं तथा अन्य सभी नियमों का खुलेआम उल्लंघन होता है। सबसे खराब है नदी से एकदम सटा कर शौच टेंट लगाना। बरसात में इनके गड्ढे पानी से भर जाते हैं तथा मल सीधे नदी में पहुँच जाता है। कैम्प फायर जब भी लगाई जाती है उसकी राख सीधे नदी में झोंक दी जाती है।
स्थानीय लोगों और टूर ऑपरेटरों को इन कैम्पों से जितना फायदा होता है उससे कई गुना अधिक पर्यावरण का नुकसान होता है। फारुखी के अनुसार 1970 से 2000 के बीच जैव- विविधता में 40 प्रतिशत की गिरावट आई है, जबकि आदमी का पृथ्वी पर दबाव 20 प्रतिशत बढ़ गया। विकास कुछ इस प्रकार हुआ है कि अमीर अधिक अमीर हो गए और गरीब अधिक गरीब। ऐसी अवस्था में फारुखी व उनके साथी कहते हैं कि जब झुण्ड के झुण्ड अमीर टूरिस्ट आते हैं तो सभी स्थानीय वस्तुओं की मांग कई गुना अधिक बढ़ जाती है। इनमें सबसे अधिक मांग बढ़ती है लकड़ी की। गरीब गाँव वाले टूरिस्ट कैम्पों को लकड़ी बेचने में कुताही नहीं करते- उनको भी लालच रहता है। लकड़ी की मांग इतनी बढ़ चुकी है कि स्थानीय लोगों को सीजन में मुर्दा फूकने तक को लकड़ी नहीं मिल पाती। दूसरी ओर स्थानीय लड़कियों एवं स्त्रियों को नहाने के लिए नित्य नए स्थान ढूँढने पड़ते हैं क्योंकि उनके क्षेत्रों पर कैम्प वालों का कब्जा हो चुका होता है।
इसलिए समय की मांग है कि नदी पर्यटन को और अधिक बढ़ावा देने के पूर्व सरकार उस क्षेत्र का इनवायरोन्मेंट इम्पैक्ट एस्सेस्मेंट करवा ले- ताकि क्षेत्र के सांस्कृतिक और सामाजिक व पर्यावरणीय बदलाव का सही आंकलन हो सके। इन कैम्पों से कितना कचरा नित्य निकलता है उसका सही आंकलन कुछ उसी प्रकार हो सके जैसा सागर माथा बेस कैम्प में एवरेस्ट जा रहे पर्वतारोहियों के लिए किया जाता रहा है।
हिमालय में और विशेषकर गंगा के किनारे एडवेंचर टूरिज्म एवं नदी टूरिज्म को हम बढ़ावा दे रहे हैं- यह पश्चिमी देशों की नकल है- कोई बुराई नहीं है, केवल ध्यान इस बात का रखना जरूरी है कि उन देशों ने इस प्रकार के टूरिज्म को बढ़ावा अपनी संस्कृति, सामाजिक परिस्थति या पर्यावरण को दांव पर लगा कर नहीं किया। उलटे कैम्प में आने वाले पर्यटकों को यह बार- बार बतलाया जाता है कि वह केवल वहाँ की प्रकृति का आनंद लें न कि वहाँ की पर्यावरणीय एवं सामाजिक पवित्रता को अपवित्र करें।
(www.hindi.indiawaterportal.org)
संपर्क: 2, इम्प्रूवमेंट ट्रस्ट फ्लैट, हैवलॉक रोड, लखनऊ 226001

विज्ञान की रक्षक भूमिका

विज्ञान की रक्षक भूमिका
भारत डोगरा
जलवायु बदलाव की समस्या बहुत आगे जा चुकी है व संतोषजनक समाधान के लिए बहुत कम समय बचा है, अत: वैज्ञानिकों से कुछ अधिक सक्रिय रक्षक भूमिका निभाने की उम्मीद है।
जैसे- जैसे पर्यावरण विनाश व उसमें भी विशेषकर जलवायु बदलाव के संकट की गंभीरता और स्पष्ट होती जा रही है, वैसे- वैसे यह एहसास भी बढ़ रहा है कि आगामी दिनों में विज्ञान व वैज्ञानिकों को बहुत गंभीर चुनौतियों का सामना करना होगा। तेजी से विकट होते पर्यावरणीय संकट के इस दौर में धरती पर जीवन की रक्षा ही सबसे बड़ी चुनौती बनने वाली है और इस चुनौती का सामना करने में वैज्ञानिकों की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण होगी।
निश्चय ही वैज्ञानिकों ने जलवायु बदलाव पर गहराते संकट के बारे में चेतावनी देकर धरती पर जीवन को बचाने के प्रयास में एक महत्त्वपूर्ण रक्षक की भूमिका निभाई है। यह एक उपलब्धि तो है, पर यदि वैज्ञानिक यह चेतावनी दो- तीन दशक पहले दे देते तो जलवायु बदलाव के संकट को समय पर नियंत्रित कर पाने की संभावना बढ़ जाती।
वैज्ञानिक अपनी इस उपलब्धि पर गर्व कर सकते हैं कि उन्होंने जलवायु बदलाव के बड़े खतरे के बारे में चेतावनी देकर दुनिया को ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन को कम करने की जरूरत के बारे में सचेत किया, पर साथ ही वैज्ञानिक समुदाय को इस बारे में आत्म- मंथन भी करना होगा कि आखिर यह चेतावनी देने में उन्हें देरी क्यों हुई? ऐसे आत्म- मंथन में कहीं न कहीं यह निष्कर्ष निकलने की संभावना है कि जन- हित व धरती पर तरह- तरह के जीवन के हित के मामलों के प्रति विज्ञान व वैज्ञानिकों में और प्रतिबद्धता की जरूरत है। यदि तरह- तरह के व्यावसायिक व अन्य संकीर्ण हितों के स्थान पर विज्ञान की इस रक्षक भूमिका को उच्चतम प्राथमिकता दी जाए तो इसके बहुत सार्थक परिणाम मिलेंगे। यह तो सब जानते हैं कि ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन को कम करने सम्बंधी जरूरी निर्णय विभिन्न देशों के नेतृत्व को विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय समझौतों के अनुसार करने हैं। इसमें बहुत समस्याएं आ रही है। ऐसा नहीं है कि वैज्ञानिक समुदाय सर्वसम्मति से कोई महत्त्वपूर्ण सिफारिश करे तो उसे मान लिया जाएगा।
इसके बावजूद वैज्ञानिकों की भूमिका कुछ महत्त्वपूर्ण है चूंकि यह सारा मामला मूलत: विज्ञान का ही है। अत: इस विषय के विशेषज्ञ वैज्ञानिक कुछ भी सर्वसम्मति से कहेंगे तो उसकी उपेक्षा करना आसान नहीं होगा। एक अच्छी बात तो यह हो ही चुकी है कि जलवायु बदलाव पर एक अंतर्राष्ट्रीय पैनल बन चुका है जिसकी रिपोर्ट समय- समय पर आती रही है। कभी- कभी इन रिपोर्टों पर कुछ विवाद भी उठे हैं, पर कुल मिलाकर इन रिपोर्टों ने इस मुद्दे पर विश्व चेतना जगाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। अब समय आ गया है कि ऐसी रिपोर्टों को और भी अधिक मेहनत व निष्ठा से, और भी अधिक सावधानी व निष्पक्षता से तैयार किया जाए ताकि विश्व को बहुत स्पष्ट व विश्वसनीय चेतावनी मिल जाए कि इस सर्वाधिक चिंताजनक समस्या के समाधान के लिए हमारे पास कितना समय बचा है। चूंकि जलवायु बदलाव की समस्या बहुत आगे जा चुकी है व संतोषजनक समाधान के लिए बहुत कम समय बचा है, अत: वैज्ञानिकों से कुछ अधिक सक्रिय रक्षक भूमिका निभाने की उम्मीद है। इसकी बहुत जरूरत भी है। यदि वैज्ञानिक व्यापक सहमति के आधार पर अपनी ओर से ठोस समाधान प्रस्तुत करेंगे तो यह काफी उपयोगी हो सकता है। उदाहरण के लिए वैज्ञानिक ऐसी रिपोर्ट तैयार कर सकते है कि यदि हथियारों का उत्पादन रोक दिया जाए तो इससे ग्रीनहाऊस गैसों का उत्सर्जन जितना कम होगा या यदि विलासिता की वस्तुओं का उत्पादन आधा कर दिया जाए तो इससे जीवाश्म र्इंधन का उपयोग व इसके साथ ग्रीनहाऊस गैसों का उत्सर्जन कितना कम होगा। वरिष्ठ वैज्ञानिकों की हस्ताक्षर वाली ऐसी रिपोर्ट आएगी तो अनुकूल जनमत तैयार करने में कुछ मदद मिलेगी। जनमत तैयार करने में पर्यावरण आंदोलनों की बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका है। अत: वैज्ञानिकों को पर्यावरण आंदोलन के और नजदीक आना चाहिए। इस तरह उनकी रक्षक भूमिका और मजबूत हो सकेगी। केवल जलवायु बदलाव के संदर्भ में ही नहीं, अनेक अन्य संदर्भो में भी वैज्ञानिकों के सहयोग से व उनकी सक्रिय भूमिका से पर्यावरण आंदोलन को बहुत मदद मिल सकती है। दूसरी ओर, पर्यावरण आंदोलन जो व्यापक जनमत व जनशक्ति तैयार करते हैं, उससे वैज्ञानिकों को अपनी निष्पक्ष सलाह स्वतंत्रता से देने में मदद मिलती है।

हरित भवन : परम्परा की ओर लौटना होगा

हरित भवन
 परम्परा की ओर लौटना होगा
- के. जयलक्ष्मी
भवनों में हरित तकनीकों का इस्तेमाल करने से न केवल ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम होगा, बल्कि बिजली व पानी पर लागत भी घटेगी। इसके लिए डिजाइन के स्तर पर सटीक योजना बनाने और सही सामग्री व उपकरणों का इस्तेमाल करने की जरूरत होगी।
आज दुनिया की 40 फीसदी से अधिक ऊर्जा का इस्तेमाल भवनों में होता है। इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) के एक अनुमान के अनुसार वर्ष 2050 तक 38 फीसदी ऊर्जा का इस्तेमाल भवनों में होने लगेगा। इस प्रक्रिया में 3800 मेगाटन कॉर्बन उत्सर्जित होगा।
वल्र्डवॉच इंस्टीट्यूट के अनुसार दुनिया के ताजे पानी का छठवां हिस्सा भवनों में इस्तेमाल होता है। कुल जितनी लकड़ी पैदा होती है, उसका एक चौथाई हिस्सा और उसकी सामग्री व ऊर्जा का 40 फीसदी हिस्सा भी भवनों पर खर्च होता है।
यदि भवनों का निर्माण ग्रीन डिजाइन के सिद्धांतों के आधार पर किया जाए तो 40 प्रतिशत या उससे भी अधिक ऊर्जा बचाई जा सकती है। एक अन्य अध्ययन बताता है कि हरित भवनों की रहवास क्षमता में 6 से 26 फीसदी तक की बढ़ोतरी की जा सकती है और इस तरह श्वसन संबंधी बीमारियों में 9 से 20 फीसदी तक की कमी संभव है।
आईपीसीसी की चतुर्थ आकलन रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि भवनों में इस्तेमाल होने वाली ऊर्जा से उत्सर्जित कॉर्बन डाइऑक्साइड की मात्रा में वर्ष 2020 तक 29 फीसदी तक की कमी की जा सकती है और वह भी बगैर किसी अतिरिक्त लागत के। रिपोर्ट का आकलन है कि इस क्षेत्र को 70 फीसदी तक अधिक ऊर्जा कुशल बनाया जा सकता है।
भारत में निर्माण उद्योग हर साल 13 प्रतिशत की दर से विकास कर रहा है। खर्च, कच्ची सामग्री के इस्तेमाल और इसके पर्यावरणीय प्रभावों के मद्देनजर यह उद्योग एक बड़ी भूमिका में है। भारत में इस तरह का कोई बेसलाइन आंकड़ा उपलब्ध नहीं है कि भवनों में ऊर्जा का कितना इस्तेमाल होता है। लेकिन केंद्रीय ऊर्जा मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार सरकारी भवनों में इस्तेमाल होने वाली कुल बिजली का 20 से 25 फीसदी हिस्सा गलत डिजाइन की वजह से बर्बाद हो जाता है। इससे एक अरब रुपए से अधिक का नुकसान होता है।
हालांकि अब स्थिति बदलती नजर आ रही है। वर्ष 2003 में भारत में हरित भवन केवल 20 हजार वर्गफीट में ही थे। आज इसका व्यवसाय ढाई करोड़ वर्गफीट तक की लंबी छलांग लगा चुका है। यहां हरित भवन व्यवसाय की बाजार क्षमता 15 हजार करोड़ रुपए से भी अधिक है।
भारत में 80 फीसदी से अधिक प्रोजेक्ट्स को लीड रेटिंग (लीडरशिप इन एनर्जी एंड एनवॉयरमेंटल डिजाइन - एलईईडी रेटिंग) मिली हुई है। हालांकि देश में ऐसे पेशेवरों की जरूरत बहुत ज्यादा है जो इन भवनों के निर्माण और संचालन प्रक्रिया की निगरानी कर सकें। हरित भवन तकनीक ऊर्जा, पानी और अन्य प्राकृतिक संसाधनों का टिकाऊ इस्तेमाल सुनिश्चित करती है। लीड रेटिंग मानव एवं पर्यावरण स्वास्थ्य के पांच प्रमुख क्षेत्रों में प्रदर्शन को मान्यता देकर पूर्ण भवन एप्रोच को बढ़ावा देती है। ये पांच क्षेत्र हैं - स्थल का टिकाऊ विकास, पानी की बचत, ऊर्जा दक्षता, सामग्री का चयन और घर के अंदर पर्यावरणीय गुणवत्ता। हालांकि इनमें से कुछ पहलू भारत के संदर्भ में प्रासंगिक नहीं हैं। यही वजह है कि भारत के संदर्भ में नई रेटिंग प्रणाली अपनाई गई - लीड इंडिया फॉर कोर एण्ड शैल और लीड इंडिया फॉर न्यू कंस्ट्रक्शन।
बड़े बिल्डर तो अपनी ब्राांडिंग के लिए यह प्रमाणीकरण हासिल करने को उत्सुक होंगे, लेकिन जरूरत इस बात को लेकर जागरूकता पैदा करने की है कि हरित भवनों के निर्माण से बिजली और पानी के बिलों में कितनी ज्यादा बचत संभव है। इस बारे में आम तौर पर लोगों को जानकारी नहीं है।
हरित भवनों के सम्बंध में सबसे बड़ी हिचक इस बात को लेकर है कि इनके निर्माण में सामान्य भवनों की तुलना में छह फीसदी पूंजी अधिक लगती है। लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि केवल पूंजीगत लागत ही अधिक होती है। अन्य लगातार होने वाले खर्च इसमें घटते जाते हैं और इस तरह बढ़ी हुई पूंजीगत लागत की भरपाई एक या दो साल में हो सकती है।

हरित भवनों के निर्माण से बिजली और पानी के बिलों में कितनी ज्यादा बचत संभव है। इस बारे में आम तौर पर लोगों को जानकारी नहीं है।
कर्नाटक के गुलबर्गा स्थित पुलिस मुख्यालय में ऐसा वास्तु अपनाया गया कि एयरकंडीशनर की जरूरत न पड़े। यहां गर्मियों के दौरान पारा 45 डिग्री सेल्सियस से ऊपर पहुंच जाता है। लेकिन इस भवन में बिजली की बचत 23 फीसदी और पानी की बचत 47 फीसदी रही। इस भवन को लीड रेटिंग मिली जो इस बात का सबूत है कि वहां कार्यरत कर्मचारी बेहद आरामदायक स्थितियों में काम करते हैं।
क्या करना होगा
एक हरित भवन की सबसे अहम जरूरत यह है कि उसमें अधिकतम ऊर्जा कार्य-निष्पादन होना चाहिए ताकि वहां के रहवासियों को वांछित तापमान और उचित प्रकाश मिल सके। अधिकतम ऊर्जा कार्य-निष्पादन किसी भवन की डिजाइन में ऐसी सौर ऊर्जा तकनीकों (पैसिव सिस्टम) व भवन निर्माण सामग्री का इस्तेमाल करने से प्राप्त होगा जिनसे परंपरागत प्रणालियों जैसे एचवीएसी पर न्यूनतम भार आए। पैसिव सिस्टम प्राकृतिक स्रोतों जैसे सूर्य का प्रकाश, हवा और वनस्पतियों का इस्तेमाल कर भवन में रहने वालों के लिए उचित तापमान व प्रकाश की सुविधा प्रदान करता है।
ठंडे मौसम वाले क्षेत्र में स्थित किसी भवन के लिए ऐसे उपाय अपनाना जरूरी है कि सूर्य से मिलने वाली गर्मी का अधिकतम दोहन किया जा सके। इंसुलेशन का निर्माण और चमक रहित दोपहर की रोशनी ऐसी ही कुछ विशेषताएं हैं। भवन का एक हिस्सा जमीन के भीतर रहने से भी अंदरूनी तापमान को नियंत्रित करने में मदद मिलती है। हवा व सूर्य की रोशनी के आगमन या अवरोध में किसी भी भवन के लैंडस्केप की अहम भूमिका होती है। टेरेस गार्डन घर को अंदर से शीतल रख सकता है।
स्पेस कंडिशनिंग की अवधारणा में भूमिगत वायु सुरंगों के नेटवर्क का इस्तेमाल किया जाता है। ये सुरंगें जमीन के नीचे एक निश्चित गहराई में बिछाई जाती हैं जहां तापमान स्थिर रहता है। इससे भवन के अंदर के तापमान को स्थिर रखने में मदद मिलती है। शीर्ष पर समतल प्लेट वाली सौर चिमनी गर्म हवा को निकलने का रास्ता देकर पूरे भवन को हवादार बनाती है। एट्रिअम से प्राकृतिक प्रकाश आता है और कृत्रिम रोशनी पर निर्भरता कम होती है।
एचवीएसी
बिजली का 40 फीसदी हिस्सा एचवीएसी (गर्मी, हवा और वातानुकूलन) पर खर्च होता है, जबकि 20 फीसदी प्रकाश पर। सौर ऊर्जा की वास्तु अवधारणा के साथ पारंपरिक प्रणालियों (एचवीएसी) पर लोड कुछ साधारण उपायों से काफी हद तक कम किया जा सकता है। ये उपाय इस तरह हैं: 1. भवन और अन्य सहायक सुविधाओं के लिए रोशनी की व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए कि बर्बादी रोकी जा सके। 2. यह तय कर लें कि रात के समय भवन के कौन-से हिस्से रोशन रहेंगे और किस समयावधि के दौरान। 3. यह पता करने के लिए कि प्रकाश का न्यूनतम स्वीकार्य स्तर क्या होना चाहिए, यह जानना भी जरूरी है कि अमुक जगह रोशनी का वास्तविक मकसद क्या है। 4. ऊर्जा दक्ष बल्ब और लैम्प का ही इस्तेमाल करना चाहिए। 5. प्रकाश और अन्य आउटडोर विद्युत संचालित क्रियाओं के लिए ऊर्जा के नवीकरणीय स्रोतों का इस्तेमाल करना चाहिए।
किसी हरित भवन के निर्माण में सबसे महत्त्वपूर्ण घटक इस्तेमाल की जाने वाली सामग्री होती है, लेकिन उसी की सर्वाधिक उपेक्षा की जाती है। हमारे भवन के मानक केवल संचालन ऊर्जा को कम करने पर ध्यान देते हैं और अन्य महत्त्वपूर्ण कारकों जैसे पानी, अवशिष्ट पदार्थों, घर के अंदर के वायु प्रदूषण, कच्ची निर्माण सामग्री, नवीकरणीय ऊर्जा का इस्तेमाल इत्यादि को यूं ही छोड़ दिया जाता है। उनमें सन्निहित यानी एम्बेडेड ऊर्जा पर फोकस नहीं होता है।
निर्माण सामग्री
मिट्टी से र्इंट और र्इंट से सीमेंट, ग्लास और प्लास्टिक की तरफ रुझान का मतलब है विकेंद्रीकृत व्यवस्था से केंद्रीकृत व्यवस्था की ओर जाना। इससे सामग्री का दूर- दूर से परिवहन बढ़ा है। इसका मतलब है बड़ी मात्रा में जीवाश्म र्इंधन का उपयोग और फिर कॉर्बन का उत्सर्जन। इससे भवनों में एम्बेडेड ऊर्जा का तत्व काफी बढ़ गया है।
आर्किटेक्चर पत्रिका कनेडियन आर्किटेक्ट ने करीब 30 निर्माण सामग्रियों की एम्बेडेड ऊर्जा की गणना की है। इनमें सबसे ज्यादा एम्बेडेड ऊर्जा एलुमिनियम में पाई गई जो 227
मेगाजूल प्रति किलो है। अन्य निर्माण सामग्री की एम्बेडेड ऊर्जा के लिए तालिका देखें।
बैंगलूरु स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस ने विभिन्न निर्माण सामग्रियों का इस्तेमाल करने वाले भवनों का तुलनात्मक आकलन किया। इसमें पाया गया कि एक बेहद मजबूत क्रांकीट निर्मित बहुमंजिला इमारत में ऊर्जा की अधिकतम खपत 4.21 गीगाजूल प्रति वर्ग मीटर रही, जबकि र्इंटों से बनी पारंपरिक दो मंजिला इमारत में यही खपत 2.92 गीगाजूल प्रति वर्ग मीटर रही, जो 30 फीसदी कम है।
कई आर्किटेक्ट और भवन निर्माता पारंपरिक निर्माण सामग्रियों जैसे मिट्टी, चिकनी मिट्टी, सूखी घास, पत्थर, लकड़ी और बांस को लेकर अभिनव प्रयोग कर रहे हैं। उनका दावा है कि इसमें प्लास्टर की कोई जरूरत नहीं होती है और इस तरह निर्माण की लागत भी कम हो जाती है।
भारत भवन निर्माण की पारंपरिक विधियों से बहुत कुछ सीख सकता है। उदाहरण के लिए जैसलमेर का किला, वहां की हवेलियों और गलियों को देखा जा सकता है। पारे के 50 डिग्री सेल्सियस तक पहुंचने के बावजूद वहां रहने वालों को कोई दिक्कत नहीं होती क्योंकि इन इमारतों में ऐसे तरीके अपनाए गए हैं जिनसे गर्मी परावर्तित हो सके और हवा प्रवेश कर सके। एक अन्य उदाहरण गुलबर्गा का है। वहां के पुराने भवनों में छोटे प्रवेश द्वारों के साथ मोटी- मोटी बाहरी दीवारें बनी हुई हैं। इससे बाहर की गर्मी अंदर नहीं आ पाती। इनकी छतें ठोस मिट्टी से बनी हुई हैं। सभी कमरों की डिजाइन ऐसी है कि वे बीच में स्थित आंगन में खुलते हैं। इससे उनमें भरपूर हवा आती- जाती है।
गर्मी को रोकने के लिए आधुनिक तरीके के रूप में हाई परफार्मेंस ग्लास का इस्तेमाल किया जाता है। इससे पारंपरिक ग्लास की तुलना में ऊर्जा में 35 से 40 फीसदी तक की बचत हो सकती है, लेकिन लागत दुगनी आती है। और फिर ग्लास में एम्बेडेड ऊर्जा बहुत ज्यादा होती है।
ग्लास का इतना अधिक इस्तेमाल इसलिए होता है क्योंकि इसे लगाना आसान होता है और इसे ऐसी टिकाऊ सामग्री के रूप में बेचा जाता है जिस पर पेंटिंग इत्यादि की भी कोई जरूरत नहीं होती। लेकिन कोई भी इस बात को नहीं समझना चाहता कि इसमें कितनी ऊर्जा समाई रहती है। इसे महसूस करना हो तो आप अपने शहर की ऐसी इमारत के सामने खड़े हो जाइए जो ग्लास से बनी हो। आपको तापमान का एहसास हो जाएगा।
कांक्रीट का जंगल
कांक्रीट और ग्लास से गर्मी भवन के अंदर ही बनी रहती है। इसी वजह से एयर कंडीशनरों पर लोड बढ़ जाता है। दुनिया भर के शहरों में गर्मी के टापू बनने का यह एक प्रमुख कारण है। कार्यालयों में वातानुकूलन के सम्बंंध में एक अन्य समस्या कूलिंग की है। जरूरी 23 से 26 डिग्री के बजाय अधिकांश जगहों पर यह तापमान 17-18 डिग्री सेल्सियस होता है। इसका मतलब है बिजली की और अधिक खपत।
व्यावसायिक इमारतों में पानी के इस्तेमाल को लेकर बहुत कम आंकड़े उपलब्ध हैं, लेकिन घरों में 30 फीसदी पानी केवल टॉयलेट फ्लश में बह जाता है (प्रति फ्लश 10 लीटर)। चूंकि पानी का संकट दिनों-दिन गहराता ही जा रहा है, इसका समाधान आज की सबसे बड़ी जरूरत है। हरित भवनों में पानी की खपत पारंपरिक इमारतों की तुलना में 30-40 फीसदी तक कम होती है। अधिकांश हरित भवन ऐसे होते हैं जिनसे एक भी बूंद पानी या सीवेज में बहने वाला पानी उनके परिसर को छोड़कर नहीं जाता। सारा वहीं इस्तेमाल हो जाता है।
पुराने भवनों में थोड़ा-सा सुधार कर उन्हें सक्षम बनाया जा सकता है। बिजली और पानी की कमी के इस दौर में यह बहुत जरूरी हो गया कि हम इन संसाधनों का संरक्षण करें और उनका किफायत से इस्तेमाल करें।
स्वेच्छा से या बलपूर्वक?
हरित भवन तकनीक का इस्तेमाल स्वेच्छापूर्वक होना चाहिए या कानून के जरिए? अतीत में देखने में आया है कि ऊर्जा ऑडिट से देश में कुछ लोगों को पैसा कमाने का एक नया माध्यम मिल गया। भारत में पहले से ही भवन निर्माण सम्बंधी दो कोड लागू हैं। एक राष्ट्रीय भवन कोड और दूसरा ऊर्जा संरक्षण भवन कोड (ईसीबीसी) जिसे ब्यूरो ऑफ एनर्जी एफिशिएंसी ने जारी किया है। ये दोनों कोड मोटे तौर पर स्वैच्छिक हैं। हाल ही में ईसीबीसी को व्यावसायिक भवनों के लिए अनिवार्य कर दिया गया, लेकिन सरकारी भवनों को अब भी इससे मुक्त रखा गया है।
ईसीबीसी उस भवन पर लागू होता है जहां 500 किलोवॉट या उससे अधिक का लोड है और जिसका इस्तेमाल व्यावसायिक रूप से किया जा रहा है। यह मुख्यत: भवन के वेंटिलेटिंग, हीटिंग, कूलिंग और लाइटिंग सिस्टम पर निगरानी रखता है। यह आवासीय, सरकारी, कृषि और औद्योगिक इकाइयों पर लागू नहीं होता। क्यों?
अलबत्ता, ईसीबीसी कुछ और पहलुओं जैसे वैकल्पिक एयर कंडीशनिंग सिस्टम, थर्मल स्टोरेज, छत के पंखे और रेगुलेटर्स, पानी का पुन: इस्तेमाल या रिसाइक्लिंग, रेन वॉटर हार्वेस्टिंग, एम्बेडेड ऊर्जा, सामग्री, बिजली बचाने वाली प्रकाश व्यवस्था, पार्किंग स्थल और उसकी प्रकाश व्यवस्था व वेंटिलेशन इत्यादि की उपेक्षा करता है।

प्रकृति के नियम से छल

             सब कुछ पाने की लालसा
                                - बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण
अगर समुद्र का जलस्तर दो मीटर बढ़ गया तो मालद्वीप और बांग्लादेश जैसे निचाई वाले देश डूब जाएंगे। इसके अलावा मौसम में बदलाव  सकता है कुछ क्षेत्रों में सूखा पड़ेगा तो कुछ जगहों पर तूफान आएगा और कहीं भारी वर्षा होगी।

सामान्य जीवन प्रक्रिया में जब अवरोध होता है तब पर्यावरण की समस्या जन्म लेती है। यह अवरोध प्रकृति के कुछ तत्वों के अपनी मौलिक अवस्था में न रहने और विकृत हो जाने से प्रकट होता है। इन तत्वों में प्रमुख हैं जल, वायु, मिट्टी आदि। पर्यावरणीय समस्याओं से मनुष्य और अन्य जीवधारियों को अपना सामान्य जीवन जीने में कठिनाई होने लगती है और कई बार जीवन-मरण का सवाल पैदा हो जाता है।
प्रदूषण भी एक पर्यावरणीय समस्या है जो आज एक विश्वव्यापी समस्या बन गई है। पशु-पक्षी, पेड़-पौधे और इंसान सब उसकी चपेट में हैं। उद्योगों और मोटरवाहनों का बढ़ता उत्सर्जन और वृक्षों की निर्मम कटाई प्रदूषण के कुछ मुख्य कारण हैं। कारखानों, बिजलीघरों और मोटरवाहनों में खनिज ईंधनों (डीजल, पेट्रोल, कोयला आदि) का अंधाधुंध प्रयोग होता है। इनको जलाने पर कार्बन डाइआक्साइड, मीथेन, नाइट्रस आक्साइड आदि गैसें निकलती हैं। इनके कारण हरितगृह प्रभाव नामक वायुमंडलीय प्रक्रिया को बल मिलता है, जो पृथ्वी के तापमान में वृद्धि करता है और मौसम में अवांछनीय बदलाव ला देता है। अन्य औद्योगिक गतिविधियों से क्लोरोफ्लोरोकार्बन (सीएफसी) नामक मानव-निर्मित गैस का उत्सर्जन होता है जो उच्च वायुमंडल के ओजोन परत को नुकसान पहुंचाती है। यह परत सूर्य के खतरनाक पराबैंगनी विकिरणों से हमें बचाती है। सीएफसी हरितगृह प्रभाव में भी योगदान करते हैं। इन गैसों के उत्सर्जन से पृथ्वी के वायुमंडल का तापमान लगातार बढ़ रहा है। साथ ही समुद्र का तापमान भी बढऩे लगा है। पिछले सौ सालों में वायुमंडल का तापमान 3 से 6 डिग्री सेल्सियस बढ़ा है। लगातार बढ़ते तापमान से दोनों ध्रुवों पर बर्फ गलने लगेगी। अनुमान लगाया गया है कि इससे समुद्र का जल एक से तीन मिमी प्रतिवर्ष की दर से बढ़ेगा। अगर समुद्र का जलस्तर दो मीटर बढ़ गया तो मालद्वीप और बांग्लादेश जैसे निचाई वाले देश डूब जाएंगे। इसके अलावा मौसम में बदलाव आ सकता है - कुछ क्षेत्रों में सूखा पड़ेगा तो कुछ जगहों पर तूफान आएगा और कहीं भारी वर्षा होगी।
प्रदूषक गैसें मनुष्य और जीवधारियों में अनेक जानलेवा बीमारियों का कारण बन सकती हैं। एक अध्ययन से ज्ञात हुआ है कि वायु प्रदूषण से केवल 36 शहरों में प्रतिवर्ष 51779 लोगों की अकाल मृत्यु हो जाती है। कलकत्ता, कानपुर तथा हैदराबाद में वायु प्रदूषण से होने वाली मृत्युदर पिछले 3-4 सालों में दुगुनी हो गई है। एक अनुमान के अनुसार हमारे देश में प्रदूषण के कारण हर दिन करीब 150 लोग मरते हैं और सैकड़ों लोगों को फेफड़े और हृदय की जानलेवा बीमारियां हो जाती हैं।
उद्योगीकरण और शहरीकरण से जुड़ी एक दूसरी समस्या है जल प्रदूषण। बहुत बार उद्योगों का रासायनिक कचरा और प्रदूषित पानी तथा शहरी कूड़ा-करकट नदियों में छोड़ दिया जाता है। इससे नदियां अत्यधिक प्रदूषित होने लगी हैं। भारत में ऐसी कई नदियां हैं, जिनका जल अब अशुद्ध हो गया है। इनमें पवित्र गंगा भी शामिल है। पानी में कार्बनिक पदार्थों (मुख्यत: मल-मूत्र) के सडऩे से अमोनिया और हाइड्रोजन सलफाइड जैसी गैसें उत्सर्जित होती हैं और जल में घुली आक्सीजन कम हो जाती है, जिससे मछलियां मरने लगती हैं। प्रदूषित जल में अनेक रोगाणु भी पाए जाते हैं, जो मानव एवं पशु के स्वास्थ्य के लिए बड़ा खतरा हैं। दूषित पानी पीने से ब्लड कैंसर, जिगर कैंसर, त्वचा कैंसर, हड्डी-रोग, हृदय एवं गुर्दों की तकलीफें और पेट की अनेक बीमारियां हो सकती हैं, जिनसे हमारे देश में हजारों लोग हर साल मरते हैं।
एक अन्य पर्यावरणीय समस्या वनों की कटाई है। विश्व में प्रति वर्ष 1.1 करोड़ हेक्टेयर वन काटा जाता है। अकेले भारत में 10 लाख हेक्टेयर वन काटा जा रहा है। वनों के विनाश के कारण वन्यजीव लुप्त हो रहे हैं। वनों के क्षेत्रफल में लगातार होती कमी के कारण भूमि का कटाव और रेगिस्तान का फैलाव बड़े पैमाने पर होने लगा है।
फसल का अधिक उत्पादन लेने के लिए और फसल को नुकसान पहुंचाने वाले कीटों को मारने के लिए कीटनाशकों का उपयोग किया जाता है। अधिक मात्रा में उपयोग से ये ही कीटनाशक अब जमीन के जैविक चक्र और मनुष्य के स्वास्थ्य को क्षति पहुंचा रहे हैं। हानिकारक कीटों के साथ मकड़ी, केंचुए, मधुमक्खी आदि फसल के लिए उपयोगी कीट भी उनसे मर जाते हैं। इससे भी अधिक चिंतनीय बात यह है कि फल, सब्जी और अनाज में कीटनाशकों का जहर लगा रह जाता है, और मनुष्य और पशु द्वारा इन खाद्य पदार्थों के खाए जाने पर ये कीटनाशक उनके लिए अत्यंत हानिकारक सिद्ध होते हैं।
आज ये सब पर्यावरणीय समस्याएं विश्व के सामने मुंह बाए खड़ी हैं। विकास की अंधी दौड़ के पीछे मानव प्रकृति का नाश करने लगा है। सब कुछ पाने की लालसा में वह प्रकृति के नियमों को तोडऩे लगा है। प्रकृति तभी तक साथ देती है, जब तक उसके नियमों के मुताबिक उससे लिया जाए।
एक बार गांधीजी ने दातुन मंगवाई। किसी ने नीम की पूरी डाली तोड़कर उन्हें ला दिया। यह देखकर गांधीजी उस व्यक्ति पर बहुत बिगड़े। उसे डांटते हुए उन्होंने कहा, 'जब छोटे से टुकड़े से मेरा काम चल सकता था तो पूरी डाली क्यों तोड़ी? यह न जाने कितने व्यक्तियों के उपयोग में आ सकती थी।' गांधीजी की इस फटकार से हम सबको भी सीख लेनी चाहिए। प्रकृति से हमें उतना ही लेना चाहिए जितने से हमारी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हो सकती है। पर्यावरणीय समस्याओं से पार पाने का यही एकमात्र रास्ता है।

पृथ्वी को भी चाहिए टॉनिक

जब आप बीमारी से कमजोर हो जाते हैं तो डाक्टर कोई शक्तिवद्र्धक टानिक लेने को कहता है। जब स्वयं पृथ्वी कमजोर हो जाए तो क्या यही नुस्खा आजामाया जा सकता है? अमरीकी वैज्ञानिकों की मानें तो उत्तर है 'हां'।
वायुमंडल में कार्बन डाइआक्साइड की मात्रा बढऩे के कारण पृथ्वी का तापमान बढ़ता जा रहा है। कुछ भावुक वैज्ञानिकों ने इसे पृथ्वी को बुखार आना कहा है। उन्होंने इलाज स्वरूप दवाई भी सुझाई है। उनका मानना है कि यदि पृथ्वी को लौह-युक्त टानिक पिला दिया जाए तो उसका बुखार उतर सकता है।
अमरीकी पत्रिका नेशनल वाइल्ड लाइफ में प्रकाशित एक समाचार के मुताबिक यदि सागरों में भारी मात्रा में लोहा छितरा दिया जाए तो इससे सागर जल में रह रहे शैवालों में जनसंख्या विस्फोट हो जाएगा।
शैवाल एक प्रकार के सूक्ष्म पादप हैं जो सभी पौधों के समान वायुमंडल से कार्बन डाइआक्साइड सोखकर अपने लिए भोजन बनाते हैं। सागर जल में लौह तत्व की कमी होती है, जिसके कारण शैवालों की संख्या नियंत्रण में रहती है। इस कमी को कृत्रिम उपायों से पूरा करके उनकी संख्या में वृद्धि की जा सकती है। इससे वायुमंडल के कार्बन डाइआक्साइड में भी कमी होगी, और साथ- साथ पृथ्वी का तापमान भी नहीं बढ़ेगा, यानी पृथ्वी के बुखार पर काबू हो जाएगा।
अमरीका के राष्ट्रीय अनुसंधान परिषद की एक बैठक पर बोल रहे वैज्ञानिकों ने इस अनूठे नुस्खे को 'संभावनीय' बताया है। केलिफोर्निया के मोस लैंडिंग मरीन लेबरटरी के निदेशक कहते हैं कि इस दशक के अंत तक इस ओर ठोस कार्रवाई की जाएगी। उनका कहना है कि दक्षिण ध्रुव के चारों ओर के सागरों में और प्रशांत महासागर के लगभग 20 प्रतिशत क्षेत्र पर लोहा फैलाना होगा, तभी कार्बन डाइआक्साइड की मात्रा में उल्लेखनीय प्रभाव पड़ेगा।
अन्य वैज्ञानिक इस प्रकार की कार्रवाइयों का यह कहकर विरोध करते हैं कि इतने बड़े पैमाने पर किए गए प्रयोगों का सागरीय जीवतंत्र और पृथ्वी की जलवायु पर विपरीत असर पड़े बिना नहीं रहेगा। अत: महासागरों की प्रकृति पर किसी भी प्रकार के मानवी हस्तक्षेप के पहले दो बार सोच लेना लाभकारी होगा। वरना एक गंभीर समस्या से बचने के चक्कर में हम कोई अन्य महागंभीर समस्या को जन्म दे बैठेंगे।
(लेखक के अन्य लेखों के लिए kudaratnama.blogspot.com देखें।)

बढ़ती आबादी के खतरे

बढ़ती आबादी के खतरे
- डॉ. वाई. पी. गुप्ता
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बढ़ते वाहन, ताप बिजली घर और औद्योगिक इकाइयां दिल्ली में मुख्य प्रदूषक हैं। यहां के 51 लाख से अधिक वाहन 65 प्रतिशत वायु प्रदूषण के लिए उत्तरदायी हैं।
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भारत के पानी की गुणवत्ता खराब है और नागरिकों को मिलने वाले पानी की गुणवत्ता के संदर्भ में इसका स्थान 122 राष्ट्रों में 120वां है। विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली में पानी की आपूर्ति विकासशील देशों के बड़े शहरों में सबसे खराब है।
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आज विकासमान विश्व की आधे से अधिक आबादी शहरों में रह रही है और स्वास्थ्य के लिए एक संकट बनती जा रही है।
भारत की आबादी जुलाई 2007 में 112.9 करोड़ से अधिक हो चुकी है। यह पर्यावरण को प्रदूषित करने के साथ-साथ स्वास्थ्य के लिए विपरीत स्थिति पैदा कर रही है। क्योंकि बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाएं (जैसे प्रभावी मल-जल निकास व्यवस्था, पीने के साफ पानी की आपूर्ति, साफ-सफाई की प्राथमिक व्यवस्था) आबादी के एक बड़े भाग को उपलब्ध नहीं है। बढ़ती आबादी,बढ़ता औद्योगिक कूड़ा, अनाधिकृत कॉलोनियों की बाढ़, जन सेवा और स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी, कूड़े के निपटान तथा वाहनों की बढ़ती संख्या ने स्थिति को और भी खराब कर दिया है। जीवित रहना भी एक गंभीर चुनौती बन गया है।
तेज़ी से हो रहा शहरीकरण भी स्वास्थ्य के लिए एक बड़ा जोखिम बना हुआ है और कई बीमारियों का कारण है। अधिक भीड़-भाड़, कचरे के निपटान की अपर्याप्त व्यवस्था, जोखिम भरी कार्य परिस्थितियां, वायु और पानी प्रदूषण आदि ने शहरी जीवन को बुरी तरह प्रभावित कर रखा है। शहरीकरण के बढऩे से शहरी आबादी की ज़रूरतों के लिए उद्योग को बढ़ावा मिला जिससे काफी हानि हो रही है।
उद्योगों और विश्व के 63 करोड़ से अधिक वाहनों में पेट्रोलियम के उपयोग ने वातावरण को विषाक्त बना दिया है, जिससे फेफड़ों का कैंसर, दमा, श्वसन सम्बंधी बीमारियां हो रही हैं। दिल्ली की आबादी 1.5 करोड़ से अधिक हो चुकी है। यहां वायु प्रदूषण विश्व के शहरों में चौथे स्थान पर है।
मुम्बई, कोलकता, कानपुर और अहमदाबाद भी बुरी तरह से प्रभावित हैं। बढ़ते वाहन, ताप बिजली घर और औद्योगिक इकाइयां दिल्ली में मुख्य प्रदूषक हैं। यहां के 51 लाख से अधिक वाहन 65 प्रतिशत वायु प्रदूषण के लिए उत्तरदायी हैं।
दिल्ली की शहरी आबादी का दम घुट रहा है। यहां हवा में निलंबित कणदार पदार्थों की मात्रा बढक़र विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा अनुशंसित सीमा 60 माइक्रोग्राम से सात गुना अधिक है। इसके कारण दिल्ली की 30 प्रतिशत आबादी सांस की बीमारियों से पीडि़त है। दमा की बीमारी एक मुख्य समस्या है। वायु प्रदूषण के कारण स्कूल जाने वाला प्रत्येक दसवां बच्चा दमा का शिकार है।
वायु प्रदूषण से दिल्ली में प्रति वर्ष 10,000 लोगों की मौत होती है। पानी प्रदूषण और मल-जल के निकास की समस्या ने देश के स्वास्थ्य को खराब कर रखा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार भारत में 70 प्रतिशत पानी की सप्लाई मल-जल से दूषित है।
संयुक्त राष्ट्र ने रिपोर्ट किया है कि भारत के पानी की गुणवत्ता खराब है और नागरिकों को मिलने वाले पानी की गुणवत्ता के संदर्भ में इसका स्थान 122 राष्ट्रों में 120वां है। विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली में पानी की आपूर्ति विकासशील देशों के बड़े शहरों में सबसे खराब है। दिल्ली नगरवासियों के फोरम ने भी कहा है कि दिल्ली का पानी बहुत दूषित है।
प्लास्टिक और विषैला घरेलू मल- जल यमुना नदी को प्रदूषित कर रहे हैं। 1,800 करोड़ लीटर से ज़्यादा अनुपचारित घरेलू और औद्योगिक अवशिष्ट प्रतिदिन यमुना नदी में बहाया जाता है, जिससे पीने के पानी की आपूर्ति खराब हो रही है और उसमें बैक्टीरिया बड़ी मात्रा में पनप रहे हैं। बैक्टीरिया की मात्रा बढऩे से पानी से होने वाली बीमारियों के मामले बढ़ जाते हैं।
हरियाणा में औद्योगिक पदार्थों और महानगरों के अवशिष्ट ने पश्चिमी यमुना नहर के पानी को प्रदूषित करके पीने के पानी की आपूर्ति को तबाह कर दिया है। पानी प्रदूषण के कारण प्रति वर्ष देश के किसी न किसी भाग में कई बीमारियां भयानक रूप से फैलती रहती हैं। दिल्ली की आबादी का एक बड़ा भाग प्रति वर्ष पानीजन्य बीमारियों (हैज़ा, दस्त, गैस्ट्रोएंट्राइटिस) का शिकार होता है। गरीबों के बच्चे पानी से होने वाले संक्रमण की चपेट में जल्दी आ जाते हैं, क्योंकि वे कुपोषण के शिकार होते हैं और उनकी प्रतिरोध क्षमता पूरी तरह विकसित नहीं हो पाती है।
इस देश में प्रति वर्ष लगभग दस लाख बच्चे हैज़ा और आंत्र-शोथ से मरते हैं। इससे पता चलता है कि बढ़ती आबादी और शहरीकरण ने हमारे महानगरों के स्वास्थ्य परिदृश्य को कठिन बना दिया है। इसलिए विश्व स्वास्थ्य संगठन ने शहरों में स्वस्थ जीवन के लिए स्वस्थ शहरों के निर्माण की पहल की है। शहरी जीवन में सुधार के लिए शहरीकरण और आबादी की वृद्धि में कमी लाने के लिए योजना बनानी होगी।
यदि प्राथमिकता के आधार पर पानी की गुणवत्ता के सुधार हेतु कदम नहीं उठाए गए तो दिल्ली के नागरिक बदहाल जीवन जीने को अभिशप्त होंगे। (स्रोत)

जंगल के उपकार:मिट्टी, पानी और बयार

     जंगल  के उपकार
                          मिट्टी,

                           पानी

                           और

                          बयार


कागज बचाएंगे तो वन बचेगा। लिफाफों को बार-बार उपयोग करें। स्कूल कॉलेज में इस दिन जंगलों के बारे में अधिक जानने के लिए विशेष कार्यक्रम आयोजित किए जा सकते हैं। अपने आसपास के जंगल में घूमने जाएं। उनके ताने-बाने को समझेंपेड़पौधों एवं जंतुओं के नाम पता करें। उनके उपयोग के बारे में आदिवासियों या अन्य जानकारों से पता करें। संरक्षण की पहली शर्त है जीवों से जान-पहचान।

हमारे पास उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों में हवा और पानी के बाद सबसे महत्वपूर्ण स्थान जंगल का है। सच पूछा जाए तो ये तीनों आपस में जुड़े हैं। चिपको आंदोलन से निकला नारा- 'क्या है जंगल के उपकार- मिट्टी पानी और बयार' बिलकुल सटीक है। जंगल यानी ऐसा वनस्पति समूह जहां पेड़ों की अधिकता हो, जहां पेड़ों के शीर्ष आपस में मिल- जुलकर घनी छाया प्रदान करते हों, जहां तक नजर जाए लंबे-घने पेड़ ही पेड़ दिखाई दें। खाद्य व कृषि संगठन (एफएओ) के अनुसार दुनिया का लगभग 29 प्रतिशत क्षेत्र जंगलों से ढंका है। इसमें वे स्थान भी शामिल हैं जिन्हें हम घने वन कहते हैं जहां वृक्षाच्छादन जमीन के 20 प्रतिशत अधिक है और वे भी जिन्हें हम विरल वन कहते हैं जहां यह प्रतिशत 20 से कम है। हमारे देश का लगभग 19 प्रतिशत क्षेत्र जंगल हैं। यहां लगभग 6,37,293 वर्ग कि.मी. में जंगल हैं। हमारे देश में 16 प्रकार के जंगल हैं। इनमें सूखे पतझड़ी वन 38 प्रतिशत और नम पतझड़ी वन 30 प्रतिशत हैं। लगभग 7 प्रतिशत वन कंटीले जंगल की श्रेणी में आते हैं।
पर्वतीय स्थानों जैसे उत्तराखंड, हिमाचल पर सदाबहार वन और वर्षा वन भी मिलते हैं। वन सदियों से हमारे जीवन का आधार रहे हैं। इनसे हमें भोजन, इमारती लकड़ी, ईंधन और दवाइयां मिलती हैं। हमारा पूरा हर्बल चिकित्सा तंत्र वनों से प्राप्त होने वाली विभिन्न जड़ी- बूटियों पर ही टिका है। जंगल वन्य जीवों के प्राकृतवास हैं। जंगल है तो जंगल का राजा शेर है। शेर, बाघ आदि का पाया जाना एक अच्छे जंगल की निशानी है। जंगल जहरीले प्रदूषकों को सोखते हैं और हमें स्वच्छ वायु प्रदान करते हैं। ये पृथ्वी की जलवायु को नियंत्रित रखते है, वैश्विक तपन को कम करते हैं। जंगल बारिश के पानी को रोककर नदियों को बारहमासी बनाते हैं, भूमि के क्षरण को रोककर बाढ़ की आपदा घटाते हैं। ये दुनिया की 25 प्रतिशत औषधियों को सक्रिय तत्व उपलब्ध कराते हैं। परंतु खेद की बात है कि इतना उपकार करने वाले वन दिनों दिन सिकुड़ते जा रहे हैं। मुख्य कारण है बढ़ती जनसंख्या, उपभोक्तावाद और शहरीकरण।
वर्ष 1900 में विश्व में कुल वन क्षेत्र 700 करोड़ हैक्टर था जो 1975 तक घटकर केवल 289 करोड़ हैक्टर रह गया। 2000 में यह 230 करोड़ हैक्टर था। वनों के घटने की यह रफ्तार पर्यावरणविदों के लिए चिंता का विषय है। इन्हीं कारणों से चिपको एवं आपिको आंदोलनों की शुरुआत हुई थी। इस संदर्भ में जोधपुर की अमृता देवी का बलिदान नहीं भुलाया जा सकता जिन्होंने खेजड़ी वृक्षों को बचाया था। वनों के घटने से वर्षा कम होती है, वर्षा का पैटर्न बदल जाता है, उपजाऊ मिट्टी कम हो जाती है, भूक्षरण बढ़ता है,
पहाड़ी स्थानों पर भूस्खलन की घटनाएं बढ़ती है, भूमिगत जल का स्तर नीचे चला जाता है और जैव विविधता में कमी आती है।
पूरा विश्व इस चिंता से अवगत है। अत: पूरी दुनिया में पिछले 40 वर्षों से 21 मार्च को विश्व वानिकी दिवस मनाया जाता है। इसका मुख्य उद्देश्य जनता को वनों के महत्व से अवगत कराना है। यह विचार युरोपियन कान्फेडरेशन ऑफ एग्रीकल्चर की 23 वीं आम सभा (1971) में आया था। तभी से इसे पूरी दुनिया में मनाया जा रहा है।
आइए इस पर विचार करें कि विश्व वानिकी दिवस के उपलक्ष्य में आम जन क्या कर सकते हैं- वनों को बचाने के खातिर इन बातों पर आज से ही अमल करना शुरू कर दें। अपने आस-पास फूलों वाले पेड़-पौधे लगाएं। इससे आपका पर्यावरण सुंदर लगेगा और साफ भी रहेगा। नीम, पीपल, बरगद, अमलतास जैसे पेड़ लगाएं। ये आपके घर के आस- पास ठंडक बनाए रखेंगे। इससे आप कम बिजली खर्च करेंगे। गर्मियों में आस- पास लगे पेड़ पौधों को पानी देकर बचाने का प्रयास करें। कागज के दोनों ओर लिखें। इससे आप 50 प्रतिशत कागज बचा सकते है। कागज बचाएंगे तो वन बचेगा। रीसायकल्ड कागज से बने बधाई कार्ड, लिफाफों आदि का प्रयोग करें। लिफाफों को बार-बार उपयोग करें। स्कूल कॉलेज में इस दिन जंगलों के बारे में अधिक जानने के लिए विशेष कार्यक्रम आयोजित किए जा सकते हैं। अपने आसपास के जंगल में घूमने जाएं। उनके ताने-बाने को समझें, पेड़- पौधों एवं जंतुओं के नाम पता करें। उनके उपयोग के बारे में आदिवासियों या अन्य जानकारों से पता करें। संरक्षण की पहली शर्त है जीवों से जान-पहचान। विश्व वानिकी दिवस पर यह प्रण लेें कि लकड़ी से बने फर्नीचर नहीं खरीदेंगे। आजकल स्टील एवं प्लास्टिक के चौखट मिलते हैं इनके उपयोग को बढ़ावा दें, इससे जंगलों पर दबाव कम होगा। विश्व वानिकी दिवस 21 मार्च के दूसरे ही दिन 22 मार्च को विश्वजल दिवस भी मनाया जाता है। पीने के पानी की स्थिति किसी से छिपी नहीं है। इस वर्ष देश के कई हिस्सों में पानी बहुत कम गिरा है जिससे पानी की भयावह समस्या पैदा हो गई है। पानी को लेकर लड़ाई झगड़ा आम हो चला है। इस समस्या से निपटने के लिए पानी के स्रोतों को बचाकर और उपलब्ध पानी का उचित प्रबंधन ही एकमात्र उपाय है। इस मामले में भी आप काफी कुछ कर सकते हैं। जैसे स्कूल, कॉलेज, हॉस्पिटल, में पानी बचाने का अभियान चलाएं, सफाई का काम पानी से नहीं झाड़ू से करें, नहाते एवं ब्रश करते समय नल को खुला ना छोड़ें, मोटे तौलिए की बजाय पतले तौलिए का उपयोग करें, अपने वाहन फव्वारे की बजाय गीले कपड़े से साफ करें, किचन का पानी, दाल-सब्जी धोने से निकला पानी, बर्तन धोने का पानी अपने बगीचे में पेड़-पौधों को दें। इससे आपके पौधे गर्मियों में भी बचे रहेंगे और साफ पानी की बचत भी होगी। इसके अलावा अपने घरों में वर्षा जल संग्रहण तकनीक को अपनाएं। इससे भूमिगत जल स्तर बढ़ता है। अपने आसपास के कुएं, बावडि़यों, तालाबों को गंदा ना करें। मुसीबत में ये परंपरागत जल स्रोत ही काम आते हैं, इनकी उपेक्षा न करें। याद रखें जल है तो कल है और वन है तो जल है। दोनों एक-दूसरे से जुड़े हैं, जीवन का आधार हैं । एक बार फिर जंगल के उपकारों को याद करके वन रक्षा का संकल्प करें। (स्रोत फीचर्स)

खान-पान की आदत बदल कर बचाएँ पर्यावरण

खान-पान की आदत बदल कर बचाएँ पर्यावरण
  -एस. अनंत नारायणन
मांसाहार और पशु पालन के व्यवसाय से कुल वैश्विक ग्रीनहाउस गैस का 18 प्रतिशत उत्पन्न होता है, जो दुनिया भर के यातायात साधनों द्वारा उत्पन्न कुल ग्रीन हाउस गैसों से अधिक है। इसमें यदि मांस उत्पादन में उपयोग होने वाले पानी को भी जोड़ दिया जाए, तो पता चलता है कि यदि हमें दुनिया को इस बड़ी समस्या से बचाना है तो हमें खाने की आदत बदलने पर विचार करना होगा।
जिसने भी अल गोर की यादगार फिल्म 'एन इनकन्वीनिएंट ट्रुथ' देखी है, उसे जरूर इस बात से इत्तेफाक होगा कि शाकाहार धरती की रक्षा कर करता है। फिल्म में पिछले दशकों में विकास की होड़ पर सवाल उठाए गए हैं जिसके चलते पर्यावरण में ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा इस हद तक बढ़ चुकी है कि ग्लोबल वार्मिंग एक खतरा बन गई है। कार्बन डाईऑक्साइड, मीथेन और नाइट्रस ऑक्साइड जैसी गैसों के अणु न सिर्फ आकार में बड़े और भारी होते हैं बल्कि काफी ऊर्जा को संग्रह करके रखने में समर्थ होते हैं। यह सब कुछ सामान्य वातावरणीय गैसों जैसे नाइट्रोजन, ऑक्सीजन, हाइड्रोजन आदि से बिल्कुल इतर है। यही कारण है कि इन भारी गैसों को ग्रीन हाउस गैसों के नाम से जाना जाता है और यही ताप का संचय कर वातावरण के ताप को बढ़ा देती हैं।
तापमान बढऩे के तात्कालिक प्रभाव हमें ध्रुवों और ग्लेशियर की पिघलती बर्फ, बढ़ते समुद्री जल स्तर और वातावरण में हो रहे आकस्मिक एवं अनापेक्षित बदलाव के रूप में दिखने लगे हैं। लेकिन खतरा यह है कि लगातार पिघलते और कम होते जा रहे ग्लेशियरों के चलते चीन और भारत के बड़े-बड़े नदी तंत्रों के जल स्रोत तेजी से घट रहे हैं। आज इन स्रोतों पर आश्रित लोग कल इनके उपयोग से वंचित हो जाएंगे। इसके सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक परिणाम न सिर्फ इन देशों को बल्कि सम्पूर्ण विश्व को प्रभावित करेंगे। सर्वाधिक ग्लोबल वार्मिंग पेट्रोल इंजिनों (जैसे कारें, हवाई जहाज) और कोयले या पेट्रोलियम को जलाकर बिजली बनाने जैसी गतिविधियों के कारण होता है। इसके चलते दुनिया पर दबाव है कि यातायात साधनों का उपयोग कम-से- कम हो, अधिक कार्यकुशल कारों का निर्माण किया जाए, औद्योगिक प्रक्रियाओं को बेहतर बनाया जाए और बिजली बनाने के अन्य साधनों जैसे हवा, ज्वार- भाटा, सूर्य का प्रकाश अथवा परमाणु ऊर्जा का उपयोग किया जाए ताकि पर्यावरण की रक्षा की जा सके और लगातार संकुचित हो रहे पानी के स्रोतों को बचाया जा सके। यह सर्वविदित है कि दुनिया में अलग- अलग देशों में पानी की उपलब्धता और उपभोग में काफी गैर- बराबरी है। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि एक अमेरिकी नागरिक बुरूंडी या युगांडा के एक व्यक्ति की तुलना में 100 गुना अधिक पानी इस्तेमाल करता है। एक आम व्यक्ति को स्वस्थ रहने के लिए रोजाना कम से कम 50 लीटर पानी की जरूरत होती है, जिसमें पीने, भोजन बनाने, साफ-सफाई की जरूरतें शामिल हैं। लेकिन लगभग 55 ऐसे देश होंगे जहां इतना भी पानी उपलब्ध नहीं है। दुनिया भर में कम से कम 100 करोड़ लोग ऐसे हैं जिन्हें पीने के लिए भी पर्याप्त पानी नसीब नहीं है और दुनिया की आधी आबादी तो जरूरी शौच व्यवस्था से भी वंचित है। 1996 में यह अंदाजा लगाया गया था कि हम लोग कुल उपलब्ध स्वच्छ पानी में से आधे से अधिक का उपयोग कर रहे हैं जो 1950 में उपयोग किए जा रहे पानी की मात्रा से 3 गुना अधिक था। तब यह अनुमान भी लगाया गया था कि यदि ऐसे ही चलता रहा तो 2030 तक हमारी जरूरतें उपलब्धता से ज्यादा हो जाएंगी। यह तब की बात है जब पानी के स्रोत गुम होना शुरू नहीं हुए थे। यह सही है कि जैव ईंधन के दहन को ग्लोबल वार्मिंग के सबसे बड़े कारण के रूप में पहचाना गया है मगर एक दूसरा बड़ा कारण और है जिसके चलते ग्रीनहाउस गैसों में इजाफा और पानी की कमी हो रही है। वह है मांस का उपभोग। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन द्वारा जारी एक रिपोर्ट में दर्शाया गया है कि मांसाहार और पशु पालन के व्यवसाय से कुल वैश्विक ग्रीनहाउस गैस का 18 प्रतिशत उत्पन्न होता है, जो दुनिया भर के यातायात साधनों द्वारा उत्पन्न कुल ग्रीन हाउस गैसों से अधिक है। इसमें यदि मांस उत्पादन में उपयोग होने वाले पानी को भी जोड़ दिया जाए, तो पता चलता है कि यदि हमें दुनिया को इस बड़ी समस्या से बचाना है तो हमें खाने की आदत बदलने पर विचार करना होगा। पशु पालने में लगे फार्म हाउस विश्व स्तर पर होने वाले कुल मीथेन उत्सर्जन में से 37 प्रतिशत के लिए जिम्मेदार हैं। मीथेन एक ऐसी ग्रीनहाउस गैस है जो कार्बन-डाईऑक्साइड से 23 गुना ज्यादा असर रखती है। इसके अलावा 65 प्रतिशत नाइट्रस ऑक्साइड भी पशु पालन से पैदा होती है। नाइट्रस ऑक्साइड कार्बन डाईऑक्साइड के मुकाबले
296 गुना अधिक ग्लोबल वार्मिंग प्रभाव रखती है। अकेले अमेरिका में पाले गए पशु सम्पूर्ण मानव समुदाय की अपेक्षा 130 गुना अधिक मल पैदा करते हैं। इसके अलावा 64 प्रतिशत अमोनिया का उत्सर्जन भी इस गतिविधि के हिस्से आता है। यदि हम दुनिया भर के फार्म हाउस में पल रहे पशुओं की बात करें तो इस समय उनकी संख्या लगभग 5500 करोड़ होगी। तुलना करें तो गौमांस उत्पादन सबसे अधिक कार्बन उत्सर्जन के लिए जवाबदेह हैं। प्रति कि.ग्रा. गौमांस उत्पादन में 34.6 कि.ग्रा. कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जित होती है। मांस उत्पादन एक ओर तो कार्बन उत्सर्जन बढ़ाता है जो ग्लोबल वार्मिंग और पानी की समस्या के लिए जिम्मेदार है। इसके अलावा यह गतिविधि पानी के बेतहाशा उपयोग की भी दोषी है। एक कि.ग्रा. गौमांस के उत्पादन में तकरीबन 15 टन पानी लगता है जबकि इतने पानी से 300-400 कि.ग्रा. अनाज का उत्पादन किया जा सकता है। इस प्रकार से एक बड़े भूभाग, पानी, जमीन, ईंधन और मानवीय संसाधनों का उपयोग, चावल, गेहूं और पर्यावरण को दांव पर लगाकर सिर्फ सस्ते मांस के उत्पादन में किया जा रहा है। कितने आश्चर्य की बात है कि मांस की उत्पादकता बढ़ाने के चक्कर में अनाज की पैदावार प्रभावित हो रही है। इसका एक पक्ष यह भी है कि दुनिया की कुल अनाज पैदावार में से भी लगभग 40 प्रतिशत जानवरों को खिलाने में इस्तेमाल होता है। अगर मांस के उत्पादन में प्रयुक्त संसाधनों का लेखा-जोखा तैयार किया जाए तो विचित्र स्थिति नजर आती है। धरती की कुल जमीन के 26 प्रतिशत हिस्से में चारागाह हैं और 33 प्रतिशत कृषि भूमि में उगा अनाज भी जानवर खाते हैं। मांस की बढ़ती मांग के चलते जंगलों की कमी, भूक्षरण, अति-चराई और स्थानीय निवासियों के पलायन की समस्या बढ़ रही है। अमेजन के वर्षा वनों की 70 प्रतिशत जमीन अब चारागाह में बदल चुकी है और शेष जमीन की उपज भी जानवरों के ही काम आती है। पृथ्वी के पर्यावरण को तहस-नहस करने में यातायात, विद्युत उत्पादन, प्लास्टिक आदि के योगदान को अपनी खान-पान की आदत बदल कुछ हद तक कम किया जा सकता है।

दुनिया का कूड़ाघर बनता भारत

           दुनिया का कूड़ाघर  बनता भारत
                        - नरेन्द्र देवांगन

विकसित देश भारत को जिस तरह अपना कूड़ाघर बनाने का प्रयास कर रहे हैं उससे इसकी छवि दुनिया में सबसे बड़े कबाड़ी के रूप में भी उभर रही है। इसे रोकने के लिए कोई प्रभावी कदम नहीं उठाया गया है, तो इसकी वजह यह है कि इस समस्या के प्रति सरकारें उदासीन रही हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि यह कोई बड़ी समस्या नहीं है।
गुजरात के अलंग तट पर विश्व का सबसे बड़ा कबाडख़ाना है। फ्रांस के विमानवाही पोत क्लिमेंचू को यहां पहियों पर चढ़ाकर गोदी तक लाया जाना था जहां गैस कटर से लैस सैकड़ों मजदूर इसके टुकड़े- टुकड़े करते। लेकिन पर्यावरण समूह ग्रीनपीस ने यह चेतावनी दी थी कि इस युद्धक विमानवाही पोत में सैकड़ों टन एस्बेस्टस भरा पड़ा है, जो पर्यावरण के लिए घातक है। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने हस्तक्षेप किया और इस जहाज को तट पर ही रोक दिया गया। बाद में फ्रांस के राष्ट्रपति ने जहाज को वापस अपने देश भेजने का आदेश दिया। इसी तरह एक अन्य विषैले निर्यात से भरे नार्वे के यात्री जहाज लेडी 2006 की तुड़ाई पर भी सुप्रीम कोर्ट ने राक लगा दी थी।
15 नवबंर 2009 को कोटा (राजस्थान) के कबाड़ में एक बहुत भीषण विस्फोट हुआ जिसमें तीन व्यक्ति मारे गए व अनेक घायल हुए। आसपास की इमारतें भी क्षतिग्रस्त हुर्इं। यह विस्फोस्ट कबाड़ में से धातु निकालने के प्रयास के दौरान हुआ। यह हादसा इकलौता हादसा नहीं था। कबाड़ में विस्फोट की अनेक वारदातें हाल में हो चुकी हैं।
पश्चिम के औद्योगिक देशों के सामने अपने औद्योगिक कचरे के निपटान की समस्या बहुत भयानक है। इसलिए पहले वे अपना कचरा जमा करते हैं फिर उस कचरे को किसी कल्याणकारी योजना के साथ जोड़कर रीसाइक्लिंग प्रौद्योगिकी सहित किसी गरीब या विकासशील देश को बतौर मदद पेश कर देते हैं या बेहद सस्ते दामों पर उसे बेच देते हैं।
इराक युद्ध के समय यहां अमरीकी सेना ने बहुत भीषण बमबारी की थी जिसमें बहुत विनाश हुआ था। उसके बाद की घरेलू हिंसा और हमलों से भी बहुत विनाश हुआ। इस विनाश का मलबा बहुत सस्ती कीमत पर उपलब्ध होने लगा और व्यापारी इसे भारत जैसे देशों में पहुंचाने लगे क्योंकि यहां इसकी प्रोसेसिंग लुहार या छोटी इकाइयां सस्ते में कर देती हैं। पर उन्हें यह नहीं बताया जाता है कि युद्ध के समय के ऐसे विस्फोटक भी इस मलबे में छिपे हो सकते हैं और कभी भी फट सकते हैं। इन विस्फोटकों की उपस्थिति के कारण ही हाल के वर्षों में कबाड़ के कार्य व विशेषकर लोहे के कबाड़ को गलाने के कार्य में बहुत- सी दुर्घटनाएं हो रही हैं।
अब तो कबाड़ के नाम पर रॉकेट और मिसाइलें भी देश में आने लगी हैं। इससे देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए एक नया खतरा पैदा हो गया है। यह हैरत की बात है कि ईरान से लोड होने के बाद भारत के कई राज्यों से गुजरने, दिल्ली पहुंचने और फिर साहिबाबाद स्थित भूषण स्टील फैक्टरी में विस्फोट होने तक किसी ने ट्रकों में भरे कबाड़ की जांच करने की जहमत नहीं उठाई। दिल्ली में तुगलकाबाद स्थित जिस कंटेनर डिपो में ये ट्रक पहुंचे थे, वह खुद 1991, 1993 और 2002 के कबाड़ में आई ऐसी विस्फोटक सामग्री की मार झेल चुका है। तब भी यह सामग्री पश्चिम एशिया से आई थी और हर बार वहीं से माल लाया जा रहा है। कस्टम विभाग द्वारा बिना जांच के आयातित सामग्री को स्वीकार करने का चलन इसमें सहायक की भूमिका निभा रहा है।
भारत दुनिया का सबसे पसंदीदा डंपिंग ग्राउंड (कबाडग़ाह) है। हम सस्ते मलबे के सबसे बड़े आयातक हैं। प्लास्टिक, लोहा या अन्य धातुओं का कबाड़, ल्यूब्रिकेंट के तौर पर अनेक अन्य धातुओं का कबाड़, ल्यूब्रिकेंट के तौर पर अनेक रासायनिक द्रव और अनेक जहरीले रसायन, पुरानी बैटरियां और मशीनें हमारी चालू पसंदीदा खरीदारी सूची में हैं। जब इन्हें इस्तेमाल के लिए दोबारा गलाया जाता है तो इससे निकलने वाला प्रदूषण न केवल यहां की हवा बल्कि मिट्टी और पानी तक में जहर घोल देता है। उस मिट्टी में उपजा हुआ अनाज दूसरी- तीसरी पीढ़ी में आनुवंशिक समस्याएं पैदा कर सकता है। लेकिन इतनी दूर तक जांच- परख करने की सतर्कता भारत सरकार में नहीं है।
बढ़ते ई- कचरे ने पर्यावरणविदों के कान खड़े कर दिए हैं। यह कबाड़ लोगों के स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिए एक बड़ा खतरा है। देश में अनुपयोगी और चलन से बाहर हो रहे खराब कम्प्यूटर व अन्य उपकरणों के कबाड़ से पर्यावरण पर बुरा असर पड़ रहा है। कबाड़ी इस कचरे को खरीदकर बड़े कबाडिय़ों को बेच देते हैं। वे इसे बड़े-बड़े गोदामों में भर देते हैं। इस प्रकार जगह- जगह से एकत्र किए गए आउटडेटेड कम्प्यूटर आदि कबाड़ बड़ी संख्या में गोदामों में जमा हो जाते हैं। इसके अलावा विदेशों से भी भारत में भारी मात्रा में कभी दान के रूप में तो कभी कबाड़ के रूप में बेकार कम्प्यूटर आयात किए जा रहे हैं। यह ई-कचरा प्राय: गैर कानूनी ढंग से मंगाया जाता है। आसानी से धन कमाने के फेर में ऐसा किया जाता है। कम्प्यूटर व्यवसाय से जुड़े लोगों का मानना है कि हमें अपने देश में बेकार हो रहे कम्प्यूटर की अपेक्षा विदेशों से आ रहे ढेरों कम्प्यूटरों से अधिक खतरा है।
भारत की राजधानी दिल्ली में ही ऐसे कबाड़ को कई स्थानों पर जलाया जाता है और इससे सोना, प्लेटिनम जैसी काफी मूल्यवान धातुएं प्राप्त की जाती हैं हालांकि सोने और प्लेटिनम का इस्तेमाल कम्प्यूटर निर्माण में काफी कम मात्रा में किया जाता है। इस ई- कचरे को जलाने के दौरान मर्करी, लेड, कैडमियम, ब्रोमीन, क्रोमियम आदि अनेक कैंसरकारी रासायनिक अवयव वातावरण में मुक्त होते हैं। ये पदार्थ स्वास्थ्य के लिए अनेक दृष्टियों से घातक होते हैं। साथ ही पर्यावरण के लिए खतरनाक होते हैं। कम्प्यूटर व अन्य इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों में प्रयुक्त होने वाला प्लास्टिक अपनी उच्च गुणवत्ता के चलते जमीन में वर्षों यूं ही पड़ा रहता है और पर्यावरण को गंभीर नुकसान पहुंचाता है।
आयातित कचरे के प्रबंधन के बारे में गठित उच्चाधिकार प्राप्त प्रो. मेनन समिति ने ऐसे जहरीले कचरे के आयात पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगाने की सिफारिश की थी। इस समिति का गठन भी सरकार ने अपने आप नहीं किया था बल्कि एक जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 1997 में अंतराष्ट्रीय बेसल कन्वेंशन में सूचीबद्ध कचरों का भारत में प्रवेश प्रतिबंधित किया था। इसके बाद सरकार ने खतरनाक कचरे के प्रबंधन के अलग- अलग पहलुओं की जांच करने के लिए मेनन समिति का गठन किया था। मेनन समिति ने न सिर्फ कई कचरों के आयात पर रोक लगाने की सिफारिश की थी बल्कि जो औद्योगिक कचरा देश में है उसके भंडारण और निपटान के बारे में भी कई महत्त्वपूर्ण सुझाव दिए। लेकिन सरकार ने मात्र 11 वस्तुओं का आयात ही प्रतिबंधित किया, बाकी 19 वस्तुओं को विचारार्थ छोड़ दिया गया। यह उदासीनता तो आयातित कचरे से निकलने वाले जहर से भी खतरनाक है।
इराक युद्ध में अमरीका ने जो बमबारी की थी, उसमें क्षरित युरेनियम का भी उपयोग हुआ था। इस बात को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अब सामान्यत: स्वीकार किया जाता है कि पूरे विश्व में क्षरित युरेनियम युक्त हथियारों का सबसे अधिक उपयोग अभी तक इराक में ही हुआ है। क्षरित युरेनियम वाले बमों से क्षतिग्रस्त टैंक के मलबे में भी क्षरित युरेनियम के अवशेष होते हैं। यदि हमारे देश में बड़े पैमाने पर इस मलबे का आयात होगा तो क्षरित युरेनियम से युक्त धातु हमारे देश में दूर- दूर तक इसके खतरे से अनभिज्ञ लोगों के पास पहुंच जाएगी और वे कैंसर जैसी गंभीर बीमारियों से ग्रस्त हो सकते हैं।
जाहिर है विकसित देश भारत को जिस तरह अपना कूड़ाघर बनाने का प्रयास कर रहे हैं उससे इसकी छवि दुनिया में सबसे बड़े कबाड़ी के रूप में भी उभर रही है। इसे रोकने के लिए कोई प्रभावी कदम नहीं उठाया गया है, तो इसकी वजह यह है कि इस समस्या के प्रति सरकारें उदासीन रही हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि यह कोई बड़ी समस्या नहीं है। यह सरकारी नजरिया है, जो आयातित कचरे के खतरे को बहुत मामूली करके आंकता है। (स्रोत फीचर्स)