- डॉ. रत्ना वर्मा
पर्यावरण
में हर साल हो रहे बदलाव इस बात का संकेत है कि हम विनाश के कगार पर पहुँचते चले
जा रहे हैं। अपने आस पास के वातावरण से हमने इस कदर छेडख़ानी की है कि पृथ्वी का हर
हिस्सा प्रदूषित हो गया है। भूकम्प बाढ़ सूखा जैसी आपदाओं से पूरा भारत ही नहीं
पूरी दुनिया जूझ रही है, पर
हम हैं कि इन सबसे कोई सबक लेना ही नहीं चाहते और लगातार अपने पर्यावरण को नुकसान
पहुँचाते चले जा रहे हैं। यदि हम अपनी गलतियों से सबक नहीं लेंगे तो जीना दूभर हो
जाएगा और एक दिन ऐसा आयेगा कि धरती ही नहीं बचेगी।
वर्तमान
में बढ़ती हुई भौतिकवादी प्रवृत्ति के कारण मनुष्य अपनी सुख-सुविधाओं में अधिकाधिक
वृद्धि करने के उद्देश्य से प्राकृतिक सम्पदाओं का अंधाधुंध दोहन कर रहा है जिससे
पर्यावरण का ताना बाना बिगड़ रहा है और प्राकृतिक पर्यावरण से सहज मिलने वाले
जीवनदायी तत्त्व कमजोर पड़ते जा रहे हैं। मानव ने प्राकृतिक संसाधनों का जिस
बेदर्दी से अंधाधुंध दोहन किया है, उसका लाभ तो उसे त्वरित नजर आया लेकिन वह लाभ उस नुकसान की
तुलना में नगण्य है जो समूचे पर्यावरण, प्रकृति एवं उसमें रहने वाले प्राणियों को उठाना पड़ रहा
है। इन दिनों जैसा दृश्य समूचे विश्व में
प्राकृतिक-असंतुलन और पर्यावरण प्रदूषण के रूप में दिखाई दे रहा है वह सब मानवीय
भूलों का ही परिणाम है, अत:
दुनिया में मानवता को यदि बचा कर रखना है तो सबकी भलाई इसी में है कि हम जिस डाल
पर खड़े हैं, उसी को काट गिराने का
आत्मघाती कदम न उठाएँ। हम इस तथ्य को भली-भाँति समझ लें कि प्रकृति का संतुलन ही समस्त
मानवता की प्राणवायु है।
विकास
की अँधी दौड़ ने हमें अपनी परम्पराओं से दूर कर दिया है- जिन जीवनदायी नदियों को
हम अपनी माँ मानते थे उन्हें आज हमने इतना प्रदूषित कर दिया है कि वे अब उपयोग
करने लायक नहीं बची हैं। पेड़ पौधे जिनकी हम पूजा करते थे उनको बेदर्दी से $कत्ल करते चले जा रहे हैं। वे वृक्ष
जो न केवल हमारे पर्यावरण को शुद्ध रखते हैं बल्कि हमारे लिए प्राणवायु हैं उनकी
रक्षा करने के बजाय उन्हें विकास के नाम पर उखाड़ते चले जा रहे हैं। यह बात अब किसी से छिपी नहीं रह गई है कि जिन
भी देशों ने प्रकृति और पर्यावरण का दुरुपयोग व दोहन किया, उन्हें आपदाओं के रूप में प्रकृति का
कोपभाजन भी बनना पड़ा। फिर भी विकास की इस अंधी दौड़ जारी है। धरती की उन अमूल्य संसाधनों का बस दोहन किये
चले जा रहे हैं जो हमारे जीवन को बचाकर रखते हैं।
इस बात से अब कोई इंकार नहीं कर सकता कि जब भी
हमने प्रकृति के नियमों में दखलअंदाजी की है प्रकृति ने बाढ़, सूनामी, भूकंप जैसी विनाशकारी आपदाओं के जरिए
हमें दंड दिया है। इन दिनों सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया प्रकृति की
नाराजगी के रूप में हमें सचेत कर रही है कि हमने अब भी प्रकृति के साथ छेड़छाड़
बंद नहीं की तो मानवता का सर्वनाश अवश्यंभावी है।
दरअसल
पर्यावरण-संरक्षण से अभिप्राय हम पेड़-पौधों का संरक्षण और हरी- भरी पृथ्वी से ही
लगाते हैं। परन्तु वास्तव में इसका
तात्पर्य पेड़-पौधों के साथ-साथ जल, पशु-पक्षी एवं सम्पूर्ण पृथ्वी की रक्षा से होता है। ऐसे में घर-परिवार और स्कूलों में माध्यमिक
स्तर से ही बच्चों में पर्यावरण चेतना जगाने का काम किया जा सकता है। क्योंकि
प्रकृति को जितना बर्बाद हमें करना था कर चुके हैं उन्हें वापस तो नहीं सकते पर
आगे उन्हें दोहराएंगे नहीं ऐसा प्रण तो अब ले ही सकते हैं। जरूरत है पर्यावरण
संरक्षण के लिए एक दृढ़ इच्छा शक्ति की, जो सबको एक साथ मिलकर करना होगा। सरकारी, गैरसरकारी, सामाजिक सभी स्तरों एकजुट होकर
पर्यावरण संरक्षण के लिए प्रयास करने होंगे। अन्यथा बाढ़, सूखा, अतिवृष्टि,अनावृष्टि, सूनामी, भूकंप जैसी आपदाएँ लगातार आती रहेंगी
और जीवन धीरे- धीरे नष्ट होते चला जायेगा।
अपने
प्रकाशन वर्ष से लेकर अब तक उदंती, पर्यावरण, प्रदूषण
के घरेलू से लेकर अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर सवाल उठाती रही है। समाज में व्याप्त
अन्य कुरीतियों और बुराइयों के प्रति भी पत्रिका में समय- समय पर विशेष अंक
प्रकाशित किए जाते रहे हैं। जन जागरण के इन विषयों को पत्रिका के पाठकों ने हमेशा
ही प्रोत्साहित किया है। पिछले वर्षों में पत्रिका में पर्यावरण को लेकर अनेक आलेख
प्रकाशित हुए हैं। उन सभी आलेखों को एक ही अंक में समाहित करना तो मुश्किल है
परंतु हमारी कोशिश होगी कि कुछ अंकों में उन आलेखों को एक जगह सँजो लिया जाये। यह
अंक ऐसा ही एक प्रयास है। अंक में प्रकाशित ये
आलेख ऐसे हैं जिनकी सामयिकता और उपादेयता आज भी बनी हुई है।
विश्वास
है हमेशा की तरह आप सबका सहयोग और प्रोत्साहन मिलता रहेगा।
No comments:
Post a Comment