हमारे लोक देवता
वृक्ष
-डॉ. खुशालसिंह पुरोहित
दुनिया में सभी प्राचीन सभ्यताओं का आधार मनुष्य का प्रकृति के प्रति प्रेम और आदर का रिश्ता है। इसी में पेड़, पहाड़ और नदी का अवतार के रुप में मनुष्यों, प्राणियों की पूजा की परम्परा का प्रचलन हुआ। मोहनजोदड़ों और हड़प्पा की खुदाई से मिले अवशेषों से पता चलता है कि उस समय समाज में मूर्ति पूजा के साथ ही पेड़-पौधों एवं जीव-जन्तुओं की पूजा की परम्परा भी विद्यमान थी।
वृक्षों का मनुष्य से अलग अपना कोई इतिहास नहीं है। वृक्षों की पूजा दरअसल एक मायने में अपने पूर्वजों को आदर प्रकट करने का माध्यम हैं, जिसकी वजह से आज तक प्रकृति का संतुलन बना रहा है। आज समाज सिर्फ भविष्य की ओर देख रहा है, परन्तु वह यह भूल रहा है कि अंतत: यह प्रकृति ही है जो उसे जिंदा रखेगी।
मानव जीवन के तीन बुनियादी आधार शुद्ध हवा, ताजा पानी और उपजाऊ मिट्टी मुख्य रुप से वनों पर ही आधारित है। इसके साथ ही वनों से कई अप्रत्यक्ष लाभ भी हैं जिनमें खाद्य पदार्थ, औषधियां, फल-फूल, ईधन, पशु आहार, इमारती लकड़ी, वर्षा संतुलन, भूजल संरक्षण और मिट्टी की उर्वरता आदि प्रमुख है।
में है।
वृक्ष
-डॉ. खुशालसिंह पुरोहित
दुनिया में सभी प्राचीन सभ्यताओं का आधार मनुष्य का प्रकृति के प्रति प्रेम और आदर का रिश्ता है। इसी में पेड़, पहाड़ और नदी का अवतार के रुप में मनुष्यों, प्राणियों की पूजा की परम्परा का प्रचलन हुआ। मोहनजोदड़ों और हड़प्पा की खुदाई से मिले अवशेषों से पता चलता है कि उस समय समाज में मूर्ति पूजा के साथ ही पेड़-पौधों एवं जीव-जन्तुओं की पूजा की परम्परा भी विद्यमान थी।
वृक्षों का मनुष्य से अलग अपना कोई इतिहास नहीं है। वृक्षों की पूजा दरअसल एक मायने में अपने पूर्वजों को आदर प्रकट करने का माध्यम हैं, जिसकी वजह से आज तक प्रकृति का संतुलन बना रहा है। आज समाज सिर्फ भविष्य की ओर देख रहा है, परन्तु वह यह भूल रहा है कि अंतत: यह प्रकृति ही है जो उसे जिंदा रखेगी।
मानव जीवन के तीन बुनियादी आधार शुद्ध हवा, ताजा पानी और उपजाऊ मिट्टी मुख्य रुप से वनों पर ही आधारित है। इसके साथ ही वनों से कई अप्रत्यक्ष लाभ भी हैं जिनमें खाद्य पदार्थ, औषधियां, फल-फूल, ईधन, पशु आहार, इमारती लकड़ी, वर्षा संतुलन, भूजल संरक्षण और मिट्टी की उर्वरता आदि प्रमुख है।
जिस पर्यावरण चेतना की बात विकसित देश अब कर रहे है, वह आदिकाल से भारतीय मनीषा का मूल आधार रही है। भारतीय संस्कृति वृक्ष पूजक संस्कृति है। हमारे देश में वृक्षों में देवत्व की अवधारणा और उसकी पूजा की परम्परा प्राचीनकाल से रही है। जहां तक वनस्पतियों के महत्व का प्रश्न है, भारतीय प्राचीन ग्रंथ इनकी महिमा से भरे पड़े है। वृक्षों के प्रति ऐसा प्रेम शायद ही किसी देश की संस्कृति में हो, जहां वृक्ष को मनुष्य से भी ऊंचा स्थान दिया जाता है एवं उनकी पूजा कर सुख और समृद्धि की कामना की जाती है। हमारी वैदिक संस्कृति में पौधारोपण व वृक्ष पूजन की सुदीर्घ परम्परा रही है। प्रयाग का अक्षयवट, अवंतिका का सिद्धवट, नासिक का पंचवट (पंचवटी) गया का बोधिवृक्ष, वृंदावन का वंशीवट जैसे वृक्ष केन्द्रित श्रद्धा के केन्द्रों की परम्परा अनेक शताब्दियों पुरानी है।
वैदिक काल में प्रकृति के आराधक भारतीय मनीषी अपने अनुष्ठानों में वनस्पतियों को विशेष महत्व देते थे। वेदों और आरण्यक ग्रंथों में प्रकृति की महिमा का सर्वाधिक गुणगान है, उस काल में वृक्षों को लोकदेवता की मान्यता दी गयी। वृक्षों में देवत्व की अवधारणा का उल्लेख वेदों के अतिरिक्त प्रमुख रुप से मत्स्यपुराण, अग्निपुराण, भविष्यपुराण, पद्मपुराण, नारदपुराण,रामायण, भगवद्गीता
और शतपथब्राह्मण आदि ग्रंथों में मिलता है। मोटे रुप में देखे तो वेद, पुराण, संस्कृत और सूफी साहित्य, आगम, पंचतंत्र, जातक कथाएं, कुरान, बाईबिल, गुरुग्रंथ साहब हो या अन्य कोई ग्रंथ हों सभी में प्रकृति के लोकमंगलकारी स्वरुप का वर्णन है।
पर्यावरण के प्रति सामाजिक सजगता और पौधारोपण के प्रति सतर्कता हमारे ऋ षियों ने निर्मित की थी, पौधारोपण कब, कहां और कैसे किया जाये उसका लाभ और वृक्ष काटे जाने से होने वाली हानि का विस्तारपूर्वक वर्णन हमारे सभी धर्मो के ग्रंथों
दुनिया में सभी प्राचीन सभ्यताओं का आधार मनुष्य का प्रकृति के प्रति प्रेम और आदर का रिश्ता है। इसी में पेड़, पहाड़ और नदी का अवतार के रुप में मनुष्यों, प्राणियों की पूजा की परम्परा का प्रचलन हुआ। मोहनजोदड़ों और हड़प्पा की खुदाई से मिले अवशेषों से पता चलता है कि उस समय समाज में मूर्ति पूजा के साथ ही पेड़-पौधों एवं जीव-जन्तुओं की पूजा की परम्परा भी विद्यमान थी। भारतीय साहित्य, चित्रकला और वास्तुकला में वृक्ष पूजा के अनेक प्रसंग मिलते है। अजंता के गुफाचित्रों और सांची के तोरण स्तंभों की आकृतियों में वृक्ष पूजा के दृश्य है। जैन और बौद्ध साहित्य में वृक्ष पूजा का विशेष स्थान रहा है। पालि साहित्य में विवरण है कि बोधिसत्व ने रुक्ख देवता बनकर जन्म लिया था।
हमारे सबसे प्राचीन ग्रंथ वेदों में प्रकृति की परमात्मा स्वरुप में स्तुति है। इसके साथ ही वाल्मिकी रामायण, महाभारत और मनुस्मृति में वृक्ष पूजा की विविध विधियों का विस्तार से वर्णन है। नारद संहिता में 27 नक्षत्रों की नक्षत्र वनस्पति की जानकारी दी गयी है। हर व्यक्ति के जन्म नक्षत्र का वृक्ष उसका कु ल वृक्ष है, यही उसके लिये कल्पवृक्ष है, जिसकी आराधना कर मनोवांछित फल प्राप्त किया जा सकता है। सभी धार्मिक आयोजनों एवं पूजापाठ में पीपल, गुलर, पलाश, आम और वट वृक्ष के पत्ते (पंच पल्लव) की उपस्थिति अनिवार्य होती है। नवग्रह पूजा अर्चना के लिये नवग्रह वनस्पतियों की सूची है जिसके अनुसार उन वृक्षों की पूजा-प्रार्थना से ग्रह शांति का लाभ मिल सकता है।
यह धीरे-धीरे बढ़ता है और सैकड़ों वर्षो तक जिंदा रहता है। भारत में समुद्रतटीय प्रदेशों गुजरात, महाराष्ट्र और केरल में कल्पवृक्ष बहुतायत से मिलते है। देश के कुछ चर्चित कल्पवृक्षों में हिमालय में जोशीमठ, राजस्थान में मांगलियावास, बालुन्दा और बांसवाड़ा के कल्पवृक्ष प्रमुख है।
पौराणिक ग्रंथ स्कंदपुराण के हेमाद्रि खंड के अनुसार पांच पवित्र छायादार वृक्षों के समूह को पंचवटी कहा गया है, जिसमें पीपल, बेल, बरगद, आवंला व अशोक शामिल है। पुराणों में दो प्रकार की पंचवटी का वर्णन किया गया हैं। प्रत्येक में इन पांच प्रजातियों की स्थापना विधि, एक नियत दिशा, क्रम व अंतर के स्पष्ट निर्देश है।
भगवान बुद्ध के जीवन की सभी घटनाएं वृक्षों की छाया में घटी। आपका जन्म सालवन में एक वृक्ष की छाया में हुआ। इसके बाद प्रथम समाधि जामुन वृक्ष की छाया में, बोधि प्राप्ति पीपल वृक्ष की छाया में और महानिर्वाण साल वृक्ष की छाया में हुआ। भगवान बुद्ध ने भ्रमणकाल में अनेकों वनों एवं बागों में प्रवास किया था। इनमें वैशाली की आम्रपाली का आम्रवन, पिपिला का सखादेव आम्रवन, नांलदा का पुरवारीक आम्रवन व अनुप्रिय का आम्रवन के नाम उल्लेखनीय है। उसके अतिरिक्त राजाग्रह निम्बिला और कंजगल के वेणु वनों का संबंध भी भगवान बुद्ध से आया है। जैन धर्म में जैन शब्द जिन से बना है, इसका अर्थ है समस्त मानवीय वासनाओं पर विजय करने वाला। तीर्थ का शाब्दिक अर्थ है नदी पार कराने का स्थान अर्थात घाट। धर्मरुपी तीर्थ का जो प्रवर्तन करते है वे तीर्थंकर कहलाते हैं। तपस्या के रुप में सभी तीर्थकरों को विशुद्ध ज्ञान (कैवल्य ज्ञान) की प्राप्ति किसी न किसी वृक्ष की छाया में हुई थी, इन वृक्षों को कैवली वृक्ष कहा जाता है।
सिख धर्म में वृक्षों का अत्यधिक महत्व है। वृक्ष को देवता रुप में देखा गया हैं गुरुकार्य में उपयोग आने वाले धर्मस्थल के पास स्थित वृक्ष समूह को गुरु के बाग कहा जाता है। इनमें गुरु से जुड़े कुछ वृक्ष निम्न है - नानकमता का पीपल वृक्ष, रीठा साहब का रीठा वृक्ष, टाली साहब का शीशम, और बेर साहब प्रमुख है। इसके साथ ही कुछ बेर वृक्ष भी पूजनीय और प्रसिद्ध है। इनमें दुखभंजनी बेरी, बाबा की बेरी और मेहताबसिंह की बेरी के वृक्ष शामिल है।
पृथ्वी पर पाये जाने वाले जिन पेड़-पौधों का नाम कुरान-मस्जिद में आया है, उन पेड़ों को पूजनीय माना गया है। इन पवित्र पेड़ों में खजूर, बेरी, पीलू, मेहंदी, जैतून, अनार, अंजीर, बबूल, अंगुर और तुलसी मुख्य है। इनमें कुछ पेड़-पौधों का वर्णन मोहम्मद साहब (रहमतुल्लाह अलैहे) ने कुरान मस्जिद में किया हैं इस कारण इन पेड़ पौधों का महत्व और भी बढ़ जाता है। हम सभी धर्मग्रंथ पेड़-पौधों के प्रति प्रेम और आदर का पाठ पढ़ाते है। इसी प्रेम और आदरभाव से वृक्षों की सुरक्षा कर हम अपने जीवन में सुख, समृद्धि प्राप्त कर सकते है।
आज की सबसे बड़ी समस्या वनों के अस्तित्व की है। भोगवादी सभ्यता के पक्षधर सारी दुनिया में पेड़ को पैसे के पर्याय के रुप में देखते है, यही कारण है कि दुनिया का कोई हिस्सा ऐसा नहीं बचा है जहां वृक्ष हत्या का दौर नहीं चल रहा हो। हमारे यहां सुखद बात यह है कि भारतीय संस्कृति की परंपरा वृक्षों के साथ सहजीवन की रही है। पेड़ संस्कृति के वाहक है।
यहां प्रकृति की सुरक्षा से ही संस्कृति की सुरक्षा हो सकती है। इस कारण यहां जंभोजी महाराज की सीख है जिसमें कहा गया है कि सिर साटे रुख रहे तो सस्तो जाण, इसी क्रम में धराड़ी और ओरण जैसी परम्पराओं ने जातीय चेतना को प्रकृति चेतना से आत्मसात कर वृक्ष पूजा और वृक्ष रक्षा से जीवन में सुख-समृद्धि की कामना की है। आज इसी भावना को विस्तारित कर हम अपने भविष्य को सुरक्षित रख सकते हैं।
हमारे प्राचीन साहित्य में जिन पवित्र और अलौकिक वृक्षों का उल्लेख है उनमें कल्पवृक्ष प्रमुख है। कल्पवृक्ष को देवताओं का वृक्ष कहा गया है, इसे मनोवांछित फल देने वाला नंदन वृक्ष भी माना जाता है। भारत में बंबोकेसी कल के अडऩसोनिया डिजिटेटा को कल्पवृक्ष कहा जाता है। इसको फ्रांसीसी वैज्ञानिक माइकल अडनसन ने 1754 में अफ्रीका में सेनेगल में सर्वप्रथम देखा था, इसी आधार पर इसका नाम अडऩसोनियाडिजिटेटा रखा गया। नश्वर जगत का कोई भी वृक्ष इसकी विशालता, दीर्घजीविता और आराध्यता में बराबरी नहीं कर सकता है।
सम्पर्कः 19 पत्रकार कॉलोनी, रतलाम, म.प्र. 457001, फ़ोन (07412) 231546, मो. 9425078098
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