विज्ञान की रक्षक भूमिका
- भारत डोगरा
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जलवायु बदलाव की समस्या बहुत आगे जा चुकी है व संतोषजनक समाधान के लिए बहुत कम समय बचा है, अत: वैज्ञानिकों से कुछ अधिक सक्रिय रक्षक भूमिका निभाने की उम्मीद है।
जैसे- जैसे पर्यावरण विनाश व उसमें भी विशेषकर जलवायु बदलाव के संकट की गंभीरता और स्पष्ट होती जा रही है, वैसे- वैसे यह एहसास भी बढ़ रहा है कि आगामी दिनों में विज्ञान व वैज्ञानिकों को बहुत गंभीर चुनौतियों का सामना करना होगा। तेजी से विकट होते पर्यावरणीय संकट के इस दौर में धरती पर जीवन की रक्षा ही सबसे बड़ी चुनौती बनने वाली है और इस चुनौती का सामना करने में वैज्ञानिकों की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण होगी।
निश्चय ही वैज्ञानिकों ने जलवायु बदलाव पर गहराते संकट के बारे में चेतावनी देकर धरती पर जीवन को बचाने के प्रयास में एक महत्त्वपूर्ण रक्षक की भूमिका निभाई है। यह एक उपलब्धि तो है, पर यदि वैज्ञानिक यह चेतावनी दो- तीन दशक पहले दे देते तो जलवायु बदलाव के संकट को समय पर नियंत्रित कर पाने की संभावना बढ़ जाती।
वैज्ञानिक अपनी इस उपलब्धि पर गर्व कर सकते हैं कि उन्होंने जलवायु बदलाव के बड़े खतरे के बारे में चेतावनी देकर दुनिया को ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन को कम करने की जरूरत के बारे में सचेत किया, पर साथ ही वैज्ञानिक समुदाय को इस बारे में आत्म- मंथन भी करना होगा कि आखिर यह चेतावनी देने में उन्हें देरी क्यों हुई? ऐसे आत्म- मंथन में कहीं न कहीं यह निष्कर्ष निकलने की संभावना है कि जन- हित व धरती पर तरह- तरह के जीवन के हित के मामलों के प्रति विज्ञान व वैज्ञानिकों में और प्रतिबद्धता की जरूरत है। यदि तरह- तरह के व्यावसायिक व अन्य संकीर्ण हितों के स्थान पर विज्ञान की इस रक्षक भूमिका को उच्चतम प्राथमिकता दी जाए तो इसके बहुत सार्थक परिणाम मिलेंगे। यह तो सब जानते हैं कि ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन को कम करने सम्बंधी जरूरी निर्णय विभिन्न देशों के नेतृत्व को विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय समझौतों के अनुसार करने हैं। इसमें बहुत समस्याएं आ रही है। ऐसा नहीं है कि वैज्ञानिक समुदाय सर्वसम्मति से कोई महत्त्वपूर्ण सिफारिश करे तो उसे मान लिया जाएगा।
इसके बावजूद वैज्ञानिकों की भूमिका कुछ महत्त्वपूर्ण है चूंकि यह सारा मामला मूलत: विज्ञान का ही है। अत: इस विषय के विशेषज्ञ वैज्ञानिक कुछ भी सर्वसम्मति से कहेंगे तो उसकी उपेक्षा करना आसान नहीं होगा। एक अच्छी बात तो यह हो ही चुकी है कि जलवायु बदलाव पर एक अंतर्राष्ट्रीय पैनल बन चुका है जिसकी रिपोर्ट समय- समय पर आती रही है। कभी- कभी इन रिपोर्टों पर कुछ विवाद भी उठे हैं, पर कुल मिलाकर इन रिपोर्टों ने इस मुद्दे पर विश्व चेतना जगाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। अब समय आ गया है कि ऐसी रिपोर्टों को और भी अधिक मेहनत व निष्ठा से, और भी अधिक सावधानी व निष्पक्षता से तैयार किया जाए ताकि विश्व को बहुत स्पष्ट व विश्वसनीय चेतावनी मिल जाए कि इस सर्वाधिक चिंताजनक समस्या के समाधान के लिए हमारे पास कितना समय बचा है। चूंकि जलवायु बदलाव की समस्या बहुत आगे जा चुकी है व संतोषजनक समाधान के लिए बहुत कम समय बचा है, अत: वैज्ञानिकों से कुछ अधिक सक्रिय रक्षक भूमिका निभाने की उम्मीद है। इसकी बहुत जरूरत भी है। यदि वैज्ञानिक व्यापक सहमति के आधार पर अपनी ओर से ठोस समाधान प्रस्तुत करेंगे तो यह काफी उपयोगी हो सकता है। उदाहरण के लिए वैज्ञानिक ऐसी रिपोर्ट तैयार कर सकते है कि यदि हथियारों का उत्पादन रोक दिया जाए तो इससे ग्रीनहाऊस गैसों का उत्सर्जन जितना कम होगा या यदि विलासिता की वस्तुओं का उत्पादन आधा कर दिया जाए तो इससे जीवाश्म र्इंधन का उपयोग व इसके साथ ग्रीनहाऊस गैसों का उत्सर्जन कितना कम होगा। वरिष्ठ वैज्ञानिकों की हस्ताक्षर वाली ऐसी रिपोर्ट आएगी तो अनुकूल जनमत तैयार करने में कुछ मदद मिलेगी। जनमत तैयार करने में पर्यावरण आंदोलनों की बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका है। अत: वैज्ञानिकों को पर्यावरण आंदोलन के और नजदीक आना चाहिए। इस तरह उनकी रक्षक भूमिका और मजबूत हो सकेगी। केवल जलवायु बदलाव के संदर्भ में ही नहीं, अनेक अन्य संदर्भो में भी वैज्ञानिकों के सहयोग से व उनकी सक्रिय भूमिका से पर्यावरण आंदोलन को बहुत मदद मिल सकती है। दूसरी ओर, पर्यावरण आंदोलन जो व्यापक जनमत व जनशक्ति तैयार करते हैं, उससे वैज्ञानिकों को अपनी निष्पक्ष सलाह स्वतंत्रता से देने में मदद मिलती है।
जैसे- जैसे पर्यावरण विनाश व उसमें भी विशेषकर जलवायु बदलाव के संकट की गंभीरता और स्पष्ट होती जा रही है, वैसे- वैसे यह एहसास भी बढ़ रहा है कि आगामी दिनों में विज्ञान व वैज्ञानिकों को बहुत गंभीर चुनौतियों का सामना करना होगा। तेजी से विकट होते पर्यावरणीय संकट के इस दौर में धरती पर जीवन की रक्षा ही सबसे बड़ी चुनौती बनने वाली है और इस चुनौती का सामना करने में वैज्ञानिकों की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण होगी।
निश्चय ही वैज्ञानिकों ने जलवायु बदलाव पर गहराते संकट के बारे में चेतावनी देकर धरती पर जीवन को बचाने के प्रयास में एक महत्त्वपूर्ण रक्षक की भूमिका निभाई है। यह एक उपलब्धि तो है, पर यदि वैज्ञानिक यह चेतावनी दो- तीन दशक पहले दे देते तो जलवायु बदलाव के संकट को समय पर नियंत्रित कर पाने की संभावना बढ़ जाती।
वैज्ञानिक अपनी इस उपलब्धि पर गर्व कर सकते हैं कि उन्होंने जलवायु बदलाव के बड़े खतरे के बारे में चेतावनी देकर दुनिया को ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन को कम करने की जरूरत के बारे में सचेत किया, पर साथ ही वैज्ञानिक समुदाय को इस बारे में आत्म- मंथन भी करना होगा कि आखिर यह चेतावनी देने में उन्हें देरी क्यों हुई? ऐसे आत्म- मंथन में कहीं न कहीं यह निष्कर्ष निकलने की संभावना है कि जन- हित व धरती पर तरह- तरह के जीवन के हित के मामलों के प्रति विज्ञान व वैज्ञानिकों में और प्रतिबद्धता की जरूरत है। यदि तरह- तरह के व्यावसायिक व अन्य संकीर्ण हितों के स्थान पर विज्ञान की इस रक्षक भूमिका को उच्चतम प्राथमिकता दी जाए तो इसके बहुत सार्थक परिणाम मिलेंगे। यह तो सब जानते हैं कि ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन को कम करने सम्बंधी जरूरी निर्णय विभिन्न देशों के नेतृत्व को विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय समझौतों के अनुसार करने हैं। इसमें बहुत समस्याएं आ रही है। ऐसा नहीं है कि वैज्ञानिक समुदाय सर्वसम्मति से कोई महत्त्वपूर्ण सिफारिश करे तो उसे मान लिया जाएगा।
इसके बावजूद वैज्ञानिकों की भूमिका कुछ महत्त्वपूर्ण है चूंकि यह सारा मामला मूलत: विज्ञान का ही है। अत: इस विषय के विशेषज्ञ वैज्ञानिक कुछ भी सर्वसम्मति से कहेंगे तो उसकी उपेक्षा करना आसान नहीं होगा। एक अच्छी बात तो यह हो ही चुकी है कि जलवायु बदलाव पर एक अंतर्राष्ट्रीय पैनल बन चुका है जिसकी रिपोर्ट समय- समय पर आती रही है। कभी- कभी इन रिपोर्टों पर कुछ विवाद भी उठे हैं, पर कुल मिलाकर इन रिपोर्टों ने इस मुद्दे पर विश्व चेतना जगाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। अब समय आ गया है कि ऐसी रिपोर्टों को और भी अधिक मेहनत व निष्ठा से, और भी अधिक सावधानी व निष्पक्षता से तैयार किया जाए ताकि विश्व को बहुत स्पष्ट व विश्वसनीय चेतावनी मिल जाए कि इस सर्वाधिक चिंताजनक समस्या के समाधान के लिए हमारे पास कितना समय बचा है। चूंकि जलवायु बदलाव की समस्या बहुत आगे जा चुकी है व संतोषजनक समाधान के लिए बहुत कम समय बचा है, अत: वैज्ञानिकों से कुछ अधिक सक्रिय रक्षक भूमिका निभाने की उम्मीद है। इसकी बहुत जरूरत भी है। यदि वैज्ञानिक व्यापक सहमति के आधार पर अपनी ओर से ठोस समाधान प्रस्तुत करेंगे तो यह काफी उपयोगी हो सकता है। उदाहरण के लिए वैज्ञानिक ऐसी रिपोर्ट तैयार कर सकते है कि यदि हथियारों का उत्पादन रोक दिया जाए तो इससे ग्रीनहाऊस गैसों का उत्सर्जन जितना कम होगा या यदि विलासिता की वस्तुओं का उत्पादन आधा कर दिया जाए तो इससे जीवाश्म र्इंधन का उपयोग व इसके साथ ग्रीनहाऊस गैसों का उत्सर्जन कितना कम होगा। वरिष्ठ वैज्ञानिकों की हस्ताक्षर वाली ऐसी रिपोर्ट आएगी तो अनुकूल जनमत तैयार करने में कुछ मदद मिलेगी। जनमत तैयार करने में पर्यावरण आंदोलनों की बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका है। अत: वैज्ञानिकों को पर्यावरण आंदोलन के और नजदीक आना चाहिए। इस तरह उनकी रक्षक भूमिका और मजबूत हो सकेगी। केवल जलवायु बदलाव के संदर्भ में ही नहीं, अनेक अन्य संदर्भो में भी वैज्ञानिकों के सहयोग से व उनकी सक्रिय भूमिका से पर्यावरण आंदोलन को बहुत मदद मिल सकती है। दूसरी ओर, पर्यावरण आंदोलन जो व्यापक जनमत व जनशक्ति तैयार करते हैं, उससे वैज्ञानिकों को अपनी निष्पक्ष सलाह स्वतंत्रता से देने में मदद मिलती है।
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