दुनिया का कूड़ाघर बनता भारत
- नरेन्द्र देवांगन
गुजरात के अलंग तट पर विश्व का सबसे बड़ा कबाडख़ाना है। फ्रांस के विमानवाही पोत क्लिमेंचू को यहां पहियों पर चढ़ाकर गोदी तक लाया जाना था जहां गैस कटर से लैस सैकड़ों मजदूर इसके टुकड़े- टुकड़े करते। लेकिन पर्यावरण समूह ग्रीनपीस ने यह चेतावनी दी थी कि इस युद्धक विमानवाही पोत में सैकड़ों टन एस्बेस्टस भरा पड़ा है, जो पर्यावरण के लिए घातक है। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने हस्तक्षेप किया और इस जहाज को तट पर ही रोक दिया गया। बाद में फ्रांस के राष्ट्रपति ने जहाज को वापस अपने देश भेजने का आदेश दिया। इसी तरह एक अन्य विषैले निर्यात से भरे नार्वे के यात्री जहाज लेडी 2006 की तुड़ाई पर भी सुप्रीम कोर्ट ने राक लगा दी थी।
15 नवबंर 2009 को कोटा (राजस्थान) के कबाड़ में एक बहुत भीषण विस्फोट हुआ जिसमें तीन व्यक्ति मारे गए व अनेक घायल हुए। आसपास की इमारतें भी क्षतिग्रस्त हुर्इं। यह विस्फोस्ट कबाड़ में से धातु निकालने के प्रयास के दौरान हुआ। यह हादसा इकलौता हादसा नहीं था। कबाड़ में विस्फोट की अनेक वारदातें हाल में हो चुकी हैं।
पश्चिम के औद्योगिक देशों के सामने अपने औद्योगिक कचरे के निपटान की समस्या बहुत भयानक है। इसलिए पहले वे अपना कचरा जमा करते हैं फिर उस कचरे को किसी कल्याणकारी योजना के साथ जोड़कर रीसाइक्लिंग प्रौद्योगिकी सहित किसी गरीब या विकासशील देश को बतौर मदद पेश कर देते हैं या बेहद सस्ते दामों पर उसे बेच देते हैं।
इराक युद्ध के समय यहां अमरीकी सेना ने बहुत भीषण बमबारी की थी जिसमें बहुत विनाश हुआ था। उसके बाद की घरेलू हिंसा और हमलों से भी बहुत विनाश हुआ। इस विनाश का मलबा बहुत सस्ती कीमत पर उपलब्ध होने लगा और व्यापारी इसे भारत जैसे देशों में पहुंचाने लगे क्योंकि यहां इसकी प्रोसेसिंग लुहार या छोटी इकाइयां सस्ते में कर देती हैं। पर उन्हें यह नहीं बताया जाता है कि युद्ध के समय के ऐसे विस्फोटक भी इस मलबे में छिपे हो सकते हैं और कभी भी फट सकते हैं। इन विस्फोटकों की उपस्थिति के कारण ही हाल के वर्षों में कबाड़ के कार्य व विशेषकर लोहे के कबाड़ को गलाने के कार्य में बहुत- सी दुर्घटनाएं हो रही हैं।
अब तो कबाड़ के नाम पर रॉकेट और मिसाइलें भी देश में आने लगी हैं। इससे देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए एक नया खतरा पैदा हो गया है। यह हैरत की बात है कि ईरान से लोड होने के बाद भारत के कई राज्यों से गुजरने, दिल्ली पहुंचने और फिर साहिबाबाद स्थित भूषण स्टील फैक्टरी में विस्फोट होने तक किसी ने ट्रकों में भरे कबाड़ की जांच करने की जहमत नहीं उठाई। दिल्ली में तुगलकाबाद स्थित जिस कंटेनर डिपो में ये ट्रक पहुंचे थे, वह खुद 1991, 1993 और 2002 के कबाड़ में आई ऐसी विस्फोटक सामग्री की मार झेल चुका है। तब भी यह सामग्री पश्चिम एशिया से आई थी और हर बार वहीं से माल लाया जा रहा है। कस्टम विभाग द्वारा बिना जांच के आयातित सामग्री को स्वीकार करने का चलन इसमें सहायक की भूमिका निभा रहा है।
भारत दुनिया का सबसे पसंदीदा डंपिंग ग्राउंड (कबाडग़ाह) है। हम सस्ते मलबे के सबसे बड़े आयातक हैं। प्लास्टिक, लोहा या अन्य धातुओं का कबाड़, ल्यूब्रिकेंट के तौर पर अनेक अन्य धातुओं का कबाड़, ल्यूब्रिकेंट के तौर पर अनेक रासायनिक द्रव और अनेक जहरीले रसायन, पुरानी बैटरियां और मशीनें हमारी चालू पसंदीदा खरीदारी सूची में हैं। जब इन्हें इस्तेमाल के लिए दोबारा गलाया जाता है तो इससे निकलने वाला प्रदूषण न केवल यहां की हवा बल्कि मिट्टी और पानी तक में जहर घोल देता है। उस मिट्टी में उपजा हुआ अनाज दूसरी- तीसरी पीढ़ी में आनुवंशिक समस्याएं पैदा कर सकता है। लेकिन इतनी दूर तक जांच- परख करने की सतर्कता भारत सरकार में नहीं है।
बढ़ते ई- कचरे ने पर्यावरणविदों के कान खड़े कर दिए हैं। यह कबाड़ लोगों के स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिए एक बड़ा खतरा है। देश में अनुपयोगी और चलन से बाहर हो रहे खराब कम्प्यूटर व अन्य उपकरणों के कबाड़ से पर्यावरण पर बुरा असर पड़ रहा है। कबाड़ी इस कचरे को खरीदकर बड़े कबाडिय़ों को बेच देते हैं। वे इसे बड़े-बड़े गोदामों में भर देते हैं। इस प्रकार जगह- जगह से एकत्र किए गए आउटडेटेड कम्प्यूटर आदि कबाड़ बड़ी संख्या में गोदामों में जमा हो जाते हैं। इसके अलावा विदेशों से भी भारत में भारी मात्रा में कभी दान के रूप में तो कभी कबाड़ के रूप में बेकार कम्प्यूटर आयात किए जा रहे हैं। यह ई-कचरा प्राय: गैर कानूनी ढंग से मंगाया जाता है। आसानी से धन कमाने के फेर में ऐसा किया जाता है। कम्प्यूटर व्यवसाय से जुड़े लोगों का मानना है कि हमें अपने देश में बेकार हो रहे कम्प्यूटर की अपेक्षा विदेशों से आ रहे ढेरों कम्प्यूटरों से अधिक खतरा है।
भारत की राजधानी दिल्ली में ही ऐसे कबाड़ को कई स्थानों पर जलाया जाता है और इससे सोना, प्लेटिनम जैसी काफी मूल्यवान धातुएं प्राप्त की जाती हैं हालांकि सोने और प्लेटिनम का इस्तेमाल कम्प्यूटर निर्माण में काफी कम मात्रा में किया जाता है। इस ई- कचरे को जलाने के दौरान मर्करी, लेड, कैडमियम, ब्रोमीन, क्रोमियम आदि अनेक कैंसरकारी रासायनिक अवयव वातावरण में मुक्त होते हैं। ये पदार्थ स्वास्थ्य के लिए अनेक दृष्टियों से घातक होते हैं। साथ ही पर्यावरण के लिए खतरनाक होते हैं। कम्प्यूटर व अन्य इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों में प्रयुक्त होने वाला प्लास्टिक अपनी उच्च गुणवत्ता के चलते जमीन में वर्षों यूं ही पड़ा रहता है और पर्यावरण को गंभीर नुकसान पहुंचाता है।
आयातित कचरे के प्रबंधन के बारे में गठित उच्चाधिकार प्राप्त प्रो. मेनन समिति ने ऐसे जहरीले कचरे के आयात पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगाने की सिफारिश की थी। इस समिति का गठन भी सरकार ने अपने आप नहीं किया था बल्कि एक जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 1997 में अंतराष्ट्रीय बेसल कन्वेंशन में सूचीबद्ध कचरों का भारत में प्रवेश प्रतिबंधित किया था। इसके बाद सरकार ने खतरनाक कचरे के प्रबंधन के अलग- अलग पहलुओं की जांच करने के लिए मेनन समिति का गठन किया था। मेनन समिति ने न सिर्फ कई कचरों के आयात पर रोक लगाने की सिफारिश की थी बल्कि जो औद्योगिक कचरा देश में है उसके भंडारण और निपटान के बारे में भी कई महत्त्वपूर्ण सुझाव दिए। लेकिन सरकार ने मात्र 11 वस्तुओं का आयात ही प्रतिबंधित किया, बाकी 19 वस्तुओं को विचारार्थ छोड़ दिया गया। यह उदासीनता तो आयातित कचरे से निकलने वाले जहर से भी खतरनाक है।
इराक युद्ध में अमरीका ने जो बमबारी की थी, उसमें क्षरित युरेनियम का भी उपयोग हुआ था। इस बात को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अब सामान्यत: स्वीकार किया जाता है कि पूरे विश्व में क्षरित युरेनियम युक्त हथियारों का सबसे अधिक उपयोग अभी तक इराक में ही हुआ है। क्षरित युरेनियम वाले बमों से क्षतिग्रस्त टैंक के मलबे में भी क्षरित युरेनियम के अवशेष होते हैं। यदि हमारे देश में बड़े पैमाने पर इस मलबे का आयात होगा तो क्षरित युरेनियम से युक्त धातु हमारे देश में दूर- दूर तक इसके खतरे से अनभिज्ञ लोगों के पास पहुंच जाएगी और वे कैंसर जैसी गंभीर बीमारियों से ग्रस्त हो सकते हैं।
जाहिर है विकसित देश भारत को जिस तरह अपना कूड़ाघर बनाने का प्रयास कर रहे हैं उससे इसकी छवि दुनिया में सबसे बड़े कबाड़ी के रूप में भी उभर रही है। इसे रोकने के लिए कोई प्रभावी कदम नहीं उठाया गया है, तो इसकी वजह यह है कि इस समस्या के प्रति सरकारें उदासीन रही हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि यह कोई बड़ी समस्या नहीं है। यह सरकारी नजरिया है, जो आयातित कचरे के खतरे को बहुत मामूली करके आंकता है। (स्रोत फीचर्स)
- नरेन्द्र देवांगन
विकसित देश भारत को जिस तरह अपना कूड़ाघर बनाने का प्रयास कर रहे हैं उससे इसकी छवि दुनिया में सबसे बड़े कबाड़ी के रूप में भी उभर रही है। इसे रोकने के लिए कोई प्रभावी कदम नहीं उठाया गया है, तो इसकी वजह यह है कि इस समस्या के प्रति सरकारें उदासीन रही हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि यह कोई बड़ी समस्या नहीं है।
15 नवबंर 2009 को कोटा (राजस्थान) के कबाड़ में एक बहुत भीषण विस्फोट हुआ जिसमें तीन व्यक्ति मारे गए व अनेक घायल हुए। आसपास की इमारतें भी क्षतिग्रस्त हुर्इं। यह विस्फोस्ट कबाड़ में से धातु निकालने के प्रयास के दौरान हुआ। यह हादसा इकलौता हादसा नहीं था। कबाड़ में विस्फोट की अनेक वारदातें हाल में हो चुकी हैं।
पश्चिम के औद्योगिक देशों के सामने अपने औद्योगिक कचरे के निपटान की समस्या बहुत भयानक है। इसलिए पहले वे अपना कचरा जमा करते हैं फिर उस कचरे को किसी कल्याणकारी योजना के साथ जोड़कर रीसाइक्लिंग प्रौद्योगिकी सहित किसी गरीब या विकासशील देश को बतौर मदद पेश कर देते हैं या बेहद सस्ते दामों पर उसे बेच देते हैं।
इराक युद्ध के समय यहां अमरीकी सेना ने बहुत भीषण बमबारी की थी जिसमें बहुत विनाश हुआ था। उसके बाद की घरेलू हिंसा और हमलों से भी बहुत विनाश हुआ। इस विनाश का मलबा बहुत सस्ती कीमत पर उपलब्ध होने लगा और व्यापारी इसे भारत जैसे देशों में पहुंचाने लगे क्योंकि यहां इसकी प्रोसेसिंग लुहार या छोटी इकाइयां सस्ते में कर देती हैं। पर उन्हें यह नहीं बताया जाता है कि युद्ध के समय के ऐसे विस्फोटक भी इस मलबे में छिपे हो सकते हैं और कभी भी फट सकते हैं। इन विस्फोटकों की उपस्थिति के कारण ही हाल के वर्षों में कबाड़ के कार्य व विशेषकर लोहे के कबाड़ को गलाने के कार्य में बहुत- सी दुर्घटनाएं हो रही हैं।
अब तो कबाड़ के नाम पर रॉकेट और मिसाइलें भी देश में आने लगी हैं। इससे देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए एक नया खतरा पैदा हो गया है। यह हैरत की बात है कि ईरान से लोड होने के बाद भारत के कई राज्यों से गुजरने, दिल्ली पहुंचने और फिर साहिबाबाद स्थित भूषण स्टील फैक्टरी में विस्फोट होने तक किसी ने ट्रकों में भरे कबाड़ की जांच करने की जहमत नहीं उठाई। दिल्ली में तुगलकाबाद स्थित जिस कंटेनर डिपो में ये ट्रक पहुंचे थे, वह खुद 1991, 1993 और 2002 के कबाड़ में आई ऐसी विस्फोटक सामग्री की मार झेल चुका है। तब भी यह सामग्री पश्चिम एशिया से आई थी और हर बार वहीं से माल लाया जा रहा है। कस्टम विभाग द्वारा बिना जांच के आयातित सामग्री को स्वीकार करने का चलन इसमें सहायक की भूमिका निभा रहा है।
भारत दुनिया का सबसे पसंदीदा डंपिंग ग्राउंड (कबाडग़ाह) है। हम सस्ते मलबे के सबसे बड़े आयातक हैं। प्लास्टिक, लोहा या अन्य धातुओं का कबाड़, ल्यूब्रिकेंट के तौर पर अनेक अन्य धातुओं का कबाड़, ल्यूब्रिकेंट के तौर पर अनेक रासायनिक द्रव और अनेक जहरीले रसायन, पुरानी बैटरियां और मशीनें हमारी चालू पसंदीदा खरीदारी सूची में हैं। जब इन्हें इस्तेमाल के लिए दोबारा गलाया जाता है तो इससे निकलने वाला प्रदूषण न केवल यहां की हवा बल्कि मिट्टी और पानी तक में जहर घोल देता है। उस मिट्टी में उपजा हुआ अनाज दूसरी- तीसरी पीढ़ी में आनुवंशिक समस्याएं पैदा कर सकता है। लेकिन इतनी दूर तक जांच- परख करने की सतर्कता भारत सरकार में नहीं है।
बढ़ते ई- कचरे ने पर्यावरणविदों के कान खड़े कर दिए हैं। यह कबाड़ लोगों के स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिए एक बड़ा खतरा है। देश में अनुपयोगी और चलन से बाहर हो रहे खराब कम्प्यूटर व अन्य उपकरणों के कबाड़ से पर्यावरण पर बुरा असर पड़ रहा है। कबाड़ी इस कचरे को खरीदकर बड़े कबाडिय़ों को बेच देते हैं। वे इसे बड़े-बड़े गोदामों में भर देते हैं। इस प्रकार जगह- जगह से एकत्र किए गए आउटडेटेड कम्प्यूटर आदि कबाड़ बड़ी संख्या में गोदामों में जमा हो जाते हैं। इसके अलावा विदेशों से भी भारत में भारी मात्रा में कभी दान के रूप में तो कभी कबाड़ के रूप में बेकार कम्प्यूटर आयात किए जा रहे हैं। यह ई-कचरा प्राय: गैर कानूनी ढंग से मंगाया जाता है। आसानी से धन कमाने के फेर में ऐसा किया जाता है। कम्प्यूटर व्यवसाय से जुड़े लोगों का मानना है कि हमें अपने देश में बेकार हो रहे कम्प्यूटर की अपेक्षा विदेशों से आ रहे ढेरों कम्प्यूटरों से अधिक खतरा है।
भारत की राजधानी दिल्ली में ही ऐसे कबाड़ को कई स्थानों पर जलाया जाता है और इससे सोना, प्लेटिनम जैसी काफी मूल्यवान धातुएं प्राप्त की जाती हैं हालांकि सोने और प्लेटिनम का इस्तेमाल कम्प्यूटर निर्माण में काफी कम मात्रा में किया जाता है। इस ई- कचरे को जलाने के दौरान मर्करी, लेड, कैडमियम, ब्रोमीन, क्रोमियम आदि अनेक कैंसरकारी रासायनिक अवयव वातावरण में मुक्त होते हैं। ये पदार्थ स्वास्थ्य के लिए अनेक दृष्टियों से घातक होते हैं। साथ ही पर्यावरण के लिए खतरनाक होते हैं। कम्प्यूटर व अन्य इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों में प्रयुक्त होने वाला प्लास्टिक अपनी उच्च गुणवत्ता के चलते जमीन में वर्षों यूं ही पड़ा रहता है और पर्यावरण को गंभीर नुकसान पहुंचाता है।
आयातित कचरे के प्रबंधन के बारे में गठित उच्चाधिकार प्राप्त प्रो. मेनन समिति ने ऐसे जहरीले कचरे के आयात पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगाने की सिफारिश की थी। इस समिति का गठन भी सरकार ने अपने आप नहीं किया था बल्कि एक जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 1997 में अंतराष्ट्रीय बेसल कन्वेंशन में सूचीबद्ध कचरों का भारत में प्रवेश प्रतिबंधित किया था। इसके बाद सरकार ने खतरनाक कचरे के प्रबंधन के अलग- अलग पहलुओं की जांच करने के लिए मेनन समिति का गठन किया था। मेनन समिति ने न सिर्फ कई कचरों के आयात पर रोक लगाने की सिफारिश की थी बल्कि जो औद्योगिक कचरा देश में है उसके भंडारण और निपटान के बारे में भी कई महत्त्वपूर्ण सुझाव दिए। लेकिन सरकार ने मात्र 11 वस्तुओं का आयात ही प्रतिबंधित किया, बाकी 19 वस्तुओं को विचारार्थ छोड़ दिया गया। यह उदासीनता तो आयातित कचरे से निकलने वाले जहर से भी खतरनाक है।
इराक युद्ध में अमरीका ने जो बमबारी की थी, उसमें क्षरित युरेनियम का भी उपयोग हुआ था। इस बात को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अब सामान्यत: स्वीकार किया जाता है कि पूरे विश्व में क्षरित युरेनियम युक्त हथियारों का सबसे अधिक उपयोग अभी तक इराक में ही हुआ है। क्षरित युरेनियम वाले बमों से क्षतिग्रस्त टैंक के मलबे में भी क्षरित युरेनियम के अवशेष होते हैं। यदि हमारे देश में बड़े पैमाने पर इस मलबे का आयात होगा तो क्षरित युरेनियम से युक्त धातु हमारे देश में दूर- दूर तक इसके खतरे से अनभिज्ञ लोगों के पास पहुंच जाएगी और वे कैंसर जैसी गंभीर बीमारियों से ग्रस्त हो सकते हैं।
जाहिर है विकसित देश भारत को जिस तरह अपना कूड़ाघर बनाने का प्रयास कर रहे हैं उससे इसकी छवि दुनिया में सबसे बड़े कबाड़ी के रूप में भी उभर रही है। इसे रोकने के लिए कोई प्रभावी कदम नहीं उठाया गया है, तो इसकी वजह यह है कि इस समस्या के प्रति सरकारें उदासीन रही हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि यह कोई बड़ी समस्या नहीं है। यह सरकारी नजरिया है, जो आयातित कचरे के खतरे को बहुत मामूली करके आंकता है। (स्रोत फीचर्स)
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