Aug 13, 2015
Aug 12, 2015
हमारे सरकारी स्कूल... हाईकोर्ट का फैसला
हमारे
सरकारी स्कूल... हाईकोर्ट का फैसला
- डॉ. रत्ना वर्मा
पिछले दिनों जारी इलाहाबाद हाई कोर्ट के एक
ऐतिहासिक फैसले ने, जिसमें
निर्देश दिया गया है कि उत्तर प्रदेश के
सभी नौकरशाहों और सरकारी कर्मचारियों के लिए उनके बच्चों को सरकारी प्राथमिक
विद्यालय में पढ़वाना अनिवार्य किया जाए। हाईकोर्ट ने यह भी आदेशित किया है कि ऐसी
व्यवस्था की जाए कि अगले शिक्षा-सत्र से इसका अनुपालन सुनिश्चित हो सके। हाई कोर्ट
ने इस फैसले में यह स्पष्ट किया है कि सरकारी खजाने से वेतन या सुविधा ले रहे बड़े
लोगों के बच्चे जब तक अनिवार्य रूप से प्राथमिक शिक्षा के लिए सरकारी स्कूलों में
नहीं पढ़ेंगे, तब तक उनकी
दशा में सुधार नहीं होगा।
यह फैसला क्या आया चारों ओर
बवाल मच गया। इस फैसले ने न सिर्फ उत्तर प्रदेश अपितु समूचे देश के सरकारी स्कूलों
की शिक्षा व्यवस्था पर सवालिया निशान लगा दिया है, साथ ही इस फैसले ने समस्त
नौकरशाहों और सरकारी कर्मचारियों की नींद भी उड़ा दी है। इस फैसले ने पूरे देश को
झझकोर दिया है।
लेकिन सच तो यही है कि देश के
अन्य राज्यों में भी हालात कोई बेहतर नहीं हैं। यह सभी जानते हैं सरकारी स्कूल
उपेक्षित और खस्ताहाल हैं। कहीं बारिश में छत टपकते हैं ,तो स्कूल भवन के अभाव में
पेड़ के नीचे पढ़ाई होती है, न पर्याप्त शिक्षक है न लाइब्रेरी, खेल का मैदान होना तो इन
स्कूलों के लिए अनावश्यक ही माना जाता है, और टॉयलट जैसी प्राथमिक जरूरत की ओर तो सरकार सिर्फ घोषणाएँ ही
करती रह जाती है। ऐसा नहीं है कि इन सबके लिए कभी आवाज नहीं उठाई गई हो, सरकार किसी की भी हो सभी के
कार्यकाल में इन मुद्दों पर आवाज उठाई जाती है पर ढाक के वही तीन पात....
इन सबको देखते हुए क्या यह
प्रश्न उठाना सही नहीं होगा कि सरकारी स्कूलों की बदतर हालात को सुधारने में अरुचि दिखाने के पीछे यह एक बहुत बड़ा कारण
है कि उनके अपने बच्चे तो निजी स्कूलों में अच्छी से अच्छी शिक्षा पा रहे है, तो वे क्योंकर सरकारी स्कूलों
के स्तर को सुधारने में रुचि लेंगे। सरकारी स्कूल तो मात्र गरीब वर्ग के लिए ही रह
गये। हाईकोर्ट की यह टिप्पणी कि राज्य में
तीन तरह से शिक्षा व्यवस्था बँटी हुई हैं, कान्वेंट स्कूल, मीडियम स्कूल और सरकारी स्कूल, भारत के स्कूली शिक्षा व्यवस्था पर करारा प्रहार है। इसमें कोई दो
मत नहीं कि पैसों वालों के लिए सर्वसुविधा सम्पन्न कान्वेंट स्कूल हैं, जो
कान्वेंट का खर्च वहन नहीं कर सकते ,उनके लिए मीडियम स्कूल हैं जहाँ कुछ कम पैसे
वाले अपने बच्चों को भेज कर कान्वेंट स्कूल के बच्चों के साथ मुकाबला करने की
कोशिश करते हैं जिसके चलते आज शिक्षा ने व्यावसायिक रूप ले लिया है और तीसरा
सरकारी स्कूल जहाँ देश के गरीब बच्चे पढऩे के लिए मजबूर हैं।
देखा जाए तो हाईकोर्ट का यह फैसला सरकार के गाल
पर करारा तमाचा है। इस फैसले के बाद पूरे देश में सरकारी स्कूलों की स्थिति को
सुधारने की दिशा में काम करने की आवश्यकता है। बहुत सी संस्थाएँ समय- समय पर
सरकारी स्कूलों की दशा पर सर्वेक्षण करके सरकार को यह चेताती रही हैं कि हालात
बद-से बदतर है पर चुनावी घोषणाओं की तरह जनता को देश की शिक्षा व्यवस्था पर
भी सुधार के सिर्फ वादे ही मिलते रहे हैं। लेकिन अब यदि इस फैसले के बाद इन
स्कूलों की व्यवस्था में सुधार किया जाता है तो यह पूरे देश के लिए एक ऐतिहासिक
कदम होगा। सरकारी स्कूल के गरीब बच्चे भी कान्वेंट के बच्चों की बराबरी करेंगे और
उच नीच के भेदभाव की खाई भी मिटेगी। यदि ऐसा होता है तो यह आजादी के बाद का सबसे
बड़ा और सबसे क्रांतिकारी कदम होगा।
परंतु इस फैसले का एक दुखद
पहलू यह भी है कि शिक्षा की बदहाल स्थिति के खिलाफ आवाज उठाने वाले उस शिक्षक को इसकी
बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है। इलाहाबाद हाई
कोर्ट में राज्य में शिक्षा की स्थिति में सुधार लाने के इरादे से याचिका दायर
करने वाले सुल्तानपुर के शिक्षक शिव कुमार पाठक को सरकार ने नौकरी से बर्खास्त कर
दिया है। यदि सरकार अपने पहले ही कदम में इस तरह की कार्यवाही कर रही है तो आगे वह
स्कूलों की स्थिति को सुधारने के लिए क्या कदम उठायेगी इसमें संदेह उत्पन्न होता
है।
इस फैसले के बाद से समूचे देश
से अलग अलग प्रतिक्रिया भी आ रही है- जहाँ अधिकतम ने इस फैसले का स्वागत किया है ,वहीं
नौकरशाह कह रहे हैं कि अपने बच्चों को कौन से स्कूल में पढ़ाना है यह व्यक्ति
विशेष का निजी मामला है, किसी विशेष स्कूल में पढ़ाने के लिए उन्हें बाध्य नहीं किया जा
सकता। जो भी हो कोर्ट के फैसले के बाद
सरकारी स्कूलों के हालात बदलने चाहिए। जब तक सरकारी स्कूलों को अन्य व्यावसायिक शिक्षा संगठनों
की तरह सुविधा सम्पन्न और गुणवत्ता से पूर्ण नहीं किया जाएगा , तब तक शिक्षा में
अमीरी और गरीबी की खाई को पाटना असंभव है। यदि स्कूली शिक्षा से इस खाई को पाटने
का प्रयास आरंभ किया जाएगा तो आगे जाकर और भी बहुत सी खाइयों को पाटा जा सकता है।
ये खाइयाँ कौन -सी हैं, इसका कोई सर्वेक्षण नहीं किया
गया है। सरकारी स्कूलों की सबसे बड़ी खामी है, संसाधनों का अभाव। जहाँ संसाधन हैं, उनका सही उपयोग नहीं होता।
शिक्षक कम और बच्चों की भीड़, जिसको सन्तुलित करना ज़रूरी है। शिक्षकों के बहुत सारे पद खाली
पड़े रहते हैं । अनिश्चित भविष्य से चिन्तित ठेके के शिक्षकों का शोषण बदस्तूर
जारी है। स्थायी शिक्षक में ऐसे बहुत से मिल जाएँगे जो समय पर विद्यालय नहीं
पहुँचते। दूर-दराज़ के क्षेत्रों में कई-कई दिन तक गायब रहना भी एक बीमारी है। ऐसे
सेवाकालीन प्रशिक्षणों का भी अभाव है, जो उनको नवीनतम जानकारी लैस रख सकें। घिसी-पिटी प्रशिक्षण -विधियों
से आज का शिक्षण सम्भव नहीं। अधिकारी भी निरीक्षण के नाम पर खानापूरी ही ज़्यादा
करते हैं। तरह-तरह की रिपोर्ट और विवरण से कागजों का पेट भरने में शिक्षकों की
शक्ति नष्ट हो जाती है। उच्च अधिकारी सही समय पर वेतन पाजाते हैं; लेकिन शिक्षक समुदाय को कई-कई
महीने बाद वेतन के दर्शन होते हैं। सरकारी स्कूल एक जंग खाई मशीन है, जिसकी तरफ़ हमारे योजनाकारों
ने ध्यान ही नहीं दिया है। ईमानदारी से प्रयास करने पर ही सुधार हो सकता है। सरकारी
स्कूलों में कॉन्वेण्ट और प्राइवेट
स्कूलों से अधिक योग्य शिक्षक हैं; लेकिन इनका सदुपयोग नहीं किया गया।मध्याह्न –भोजन से लेकर जनगणना आदि तक
के शिक्षणेतर कार्यों में शिक्षक खप जा रहे हैं।शिक्षा की जड़ खोखली इसलिए की जा
रही है; ताकि आम
आदमी अच्छी शिक्षा से महरूम रहे। शिक्षा की दूकाने चलाने वाले मालामाल होते रहें
और देश की बौद्धिक सम्पदा व्यर्थ के कामों में गर्क हो जाए।
शिक्षा की समस्या को गम्भीरता से लेना होगा, तभी साधारण जन के साथ न्याय
हो सकता है।
कथ्य और पथ्य
- रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु’
कुछ लोग पहले तोलते हैं, फिर बोलते हैं।
कुछ सिर्फ़ बोलते हैं, वह सार्थक हो या
निरर्थक, इससे उनका कुछ भी लेना-देना नहीं। वे फुँफकारते हैं, दुत्कारते हैं; सुनते नहीं; क्योंकि उनके कान नहीं होते। कुछ और भी आगे होते हैं ,वे अपनी बात का वज़न खो चुके होते हैं, इसलिए वे न तोलते हैं, न बोलते हैं, वे सिर्फ़ भौंकते हैं। ऐसे लोग धन्य हैं; क्योंकि वे एक ही योनि में दो-दो जन्मों का आनन्द ले लेते हैं। कोई सुने न सुने, गुने न गुने। जो पैदा ही बोलने के लिए हुए हैं, तो उनको बोलना ही है। इस तरह के बोलने वालों की
श्रेणियाँ तय की जानी ज़रूरी हैं। गलती से अगर आपने फोन कर दिया, तो वे आपके कान गर्म होने तक (उनकी बातों से या फोन की
गर्मी से) आपकी जान नहीं छोड़ेंगे। अगर वे खुद फोन कर रहे हैं; तो अपनी बात आपके सामने पटककर बिदा हो जाएँगे।
कुछ कानून की बात करते हैं ; लेकिन जब उन्हें
मौका मिलता है, मर्यादा के पन्ने
फाड़कर हवा में उछाल देते हैं। कुछ को
जब मिर्गी का दौरा पड़ता है, तभी बोलते हैं। क्या बोलते हैं, इन्हें खुद भी पता नहीं। कुछ दिनों बाद ये सींग -पूँछ
दबाकर गायब हो जाते हैं।जिह्वा की मिर्गी के दौरे से पीडि़त इन लोगों के बारे में
किसी कवि ने कहा है-
जिह्वा ऐसी बावरी, कह गई सरग पताल।
आपुन तो भीतर गई, जूती खात कपाल ।
अब खोंपड़ी जूती खाए या पुचकारी जाए, इनको फ़र्क नहीं पड़ता। इन बोलने वालों में से कुछ ने
दस्ताने पहन रखे हैं, धर्मनिरपेक्षता
के, बुद्धिजीवी के, मानवाधिकार के।
मानव अधिकार का मतलब किसी आम आदमी के अधिकार की चिन्ता से नहीं है। आम आदमी के साथ
जीना-मरना लगा ही रहता है। यही उसकी नियति है। इस आम आदमी को जो सरे -राह अचानक
हलाक़ कर देता है, उसे न्याय मिलना चाहिए , उसे सज़ा नहीं
होनी चाहिए, उसके लिए आवाज़ उठानी चाहिए। उसके लिए लल्लू से लेकर
बल्लू तक सभी गला फ़ाड़ बहस करने लगते हैं। बेचारा आम आदमी तो प्राथमिकी लिखवाने
से भी वंचित कर दिया जाता है। दस्ताने पहनकर बात करने वाले लोगों के दस्ताने नहीं
उतरवाइए । ऐसा करेंगे, तो इनके खून
-रंगे हाथ नज़र आ जाएँगे। इनको बहुत से काम करने हैं। दुनिया को अहिंसा का सन्देश
देना है, अखबारों में नाम आना है, विवादों को हवा
देनी है, हाय-हाय और मुर्दाबाद के नारे लगाने हैं । अगर इनका
कोई सगा और बेकसूर मारा जाता, तो इनकी ज़बान पर
ताले लग जाते। जिनका कोई सगा आतंकवाद की भेंट चढ़ा है, जिनका घर -बार और
पूरा भविष्य बर्बाद हुआ है, उनसे पूछा जाए कि
फाँसी देना गलत है या सही? करौन्दे की तो
बात ही छोडि़ए, जिसको कभी झरबेरी
का काँटा भी न चुभा हो, उसके मुँह से
साधु-महात्माओं जैसी बात अच्छी नहीं लगती। आम जन की मौत या हत्या पर इन भौंकने
वालों की आँखें नम नहीं होतीं। किसी क्रूरतम व्यक्ति के मारे जाने पर इनका
मानव-धर्म वाला ज़मीर कैसे जाग उठता है! इसका डी एन ए टेस्ट होना चाहिए।
बीमार आदमी को दवाई दी जाती है, कुछ पथ्य (परहेज़)
भी बताया जाता है। बोलने वालों को भी चाहिए वे सिर्फ़ भोंपू नहीं हैं, ईश्वर ने उनको कान भी दिए हैं, जनमानस को भी समझें और कुछ सुनना भी सीखें। यह उनको
छूट है कि कोई उनके सगे सम्बन्धी को मारे, तो चादर ओढ़कर सो
जाएँ । पुलिस को खबर न करें और न कोर्ट के चक्कर लगाएँ। क़ातिल पड़ोसी से प्रेम
जताने के लिए सीमा पर जाकर कैण्डिल जलाएँ, देश में सुरक्षा
में तैनात जवान शहीद हो जाएँ तो सहानुभूति के दो शब्द भी न कहें। हिंसा करने वाले
की निन्दा न करें, बल्कि उनसे डरकर
चुप रहें।
यह देश सबका है, लेकिन उनका नहीं
है ,जो इस देश का कल्याण नहीं सोचते। जो देश का कल्याण न
सोचकर पूरी ताकत इसे कमज़ोर करने में लगाते
हैं, जिनको अपना घर भरने से ही फ़ुर्सत नहीं, जिनके पास अपने दाग धोने या उनको देखने का समय नहीं है, वे भौंककर अपने फ़ेफ़ड़े कमज़ोर न करें। कुछ कहना है
तो पहले तोल लें। कथ्य के साथ पथ्य ज़रूरी है। अपनी बेहूदी बातों से, बचकानी हरक़तों से देश और समाज को कमज़ोर न करें। दो
जून की रोटी जुटाने वाले का जीना हराम न करें, उसे जीने दें।
उसे मज़हब की आग में न झोंकें। इस देश का निर्माण बातूनी लोगों ने नहीं किया, कर्मशील लोगों ने किया है। आग जहाँ लगती है, केवल उसी क्षेत्र को जलाती है, लेकिन बातों की आग पूरे समाज को तबाह करती है। वाग्वीर
घोड़े नहीं है, फिर भी इनको लगाम
देना ज़रूरी है।
सम्पर्क: टॉवर एफ़, 305 छठा तल, मैक्सहाइट,
सैक्टर-62 , पोस्ट ऑफ़िस पी एस राइ -131029, जिला सोनीपत
(हरियाणा)
आज़ादी का गीत
इक दूजे से प्यार है हमको
- नमिता राकेश
आज़ादी की धुन में हमने कितने साल गुज़ारे हैं
अंग्रेज़ों से टक्कर ली है हम हिम्मत कब हारे
हैं
गोरों के उस राज में हमने ऐसे भी दिन काटे थे
गर कोई आहट कान में आती सोते से उठ जाते थे
दिल ही दिल में गीत हमेशा आज़ादी के गाते थे
और जऱा भी लब खोले तो हमको हंटर मारे हैं
हिन्दू मुस्लिम प्यार से रहते भारत के ऐवानो में
फर्क कोई महसूस न होता अपनों में बेगानो में
फ़िक्र मुहब्बत का होता है ग़ज़लों में अफसानों
में
दुश्मन के भी काम आते हैं ये किरदार हमारे हैं
वीर दिलावर इस भारत में साधू पीर पैगम्बर हैं
इसमें गंगा जमुना बहती झरने और समंदर हैं
नस्ल-ओ-रंग का फर्क नहीं सब इक मिट्टी के गागर
हैं
इक दूजे से प्यार है हमको ये अंदाज़ हमारे हैं
शिक्षा में अराजकता
सब कुछ
लुटाकर होश में आए
तो क्या किया?
-स्वराज सिंह
आज का चौंका देने और व्यथित करने वाला समाचार 'छह लाख
तीस हज़ार मेडिकल छात्रों को 4 हफ़्ते में दोबारा देनी होगी परीक्षा’-यह आदेश
सुप्रीम कोर्ट को देना पड़ा। कारण-परीक्षा की आंसर की लीक होना। इस काम में
संलिप्त छात्र, शिक्षक और डॉक्टर पकड़ में आए। लीक करने का सौदा 15-50 लाख में हुआ। क्यों हुआ ऐसा? हमेशा इस
तरह की घटनाएँ क्यों होती हैं? कुछ प्रदेशों
में नकल का खुला ताण्डव होता रहा। कुछ ऐसे भी स्थान हैं, जहाँ
सीढ़ी लगाकर नकल कराने की घटनाएँ नहीं होतीं। क्या वे संस्थाएँ पाक- साफ़ हैं।
छापामार दस्ते अपने आने की सूचना पहले दे दें या चालाक लोग अपने सूत्रों से पहले
ही पता कर लें, तो कुछ भी पता नहीं लगेगा। कहीं-कहीं ऊपर के
अधिकारियों का नकल कराने में मौन सहयोग होता है। इस तरह से स्कूली परीक्षाएँ पास
करने वाले हर बार कुछ न कुछ रास्ते तलाश लेंगे। जो आज पचास लाख देकर पेपर या 'आंसर की’खरीदेगा
वह कल जन सेवा करेगा या लूट का बाज़ार खड़ा करेगा?
आज हमारे
देश में शिक्षा का स्तर इतना गिर चुका है कि जब मैंने इसकी हक़ीक़त को जानने का
प्रयास किया तो हक़ीक़त जानकर मैं सन्न रह गया। मेरे एक परिचित का बच्चा दिल्ली के
एक सरकारी स्कूल में पढ़ता है। वह 9वीं कक्षा में इस वर्ष फेल हो गया। उन्होंने
मुझे अपने बच्चे के फेल होने के बारे में बताया।
मैंने अपने कुछ परिचित शिक्षकों से इस सम्बन्ध में गहराई से बात की, तो पता
लगा यह सब CCE
पैटर्न और NDP( No
Detention Policy) की देन
है। आठवीं तक कोई छात्र फेल नहीं हो सकता ,इसलिए
छात्रों ने पढऩा-लिखना बिलकुल छोड़ दिया। आठवीं तक तो छात्र स्कूल में नाम लिखवाकर
वर्षभर स्कूल न भी आए, तो भी वह पास हो जाता है। बस उस छात्र को एक
दिन आकर उत्तर पुस्तिका पर केवल रोल नम्बर लिखने की जरूरत है। परीक्षक उसकी उत्तर
पुस्तिका पर शून्य नम्बर दे देगा और वह अगली कक्षा में चला जाएगा। आठवीं तक छात्र
के माता-पिता चाहें तो भी उसे फेल नहीं कर सकते। छात्रों में पढऩे की आदत बिल्कुल
नहीं रही या ये कहे कि आदत पड़ी ही नहीं। पढऩे की उम्र में जिसने नहीं पढ़ा वह आगे
चलकर क्या पढ़ेगा? यही कारण है कि यह छात्र 9वीं कक्षा में फेल हो
गया। पिछले वर्ष से 9वीं कक्षा की SA संकलित
मूल्यांकन) में 25 प्रतिशत अंक लाना अनिवार्य कर दिया। छात्रों की पढऩे की
आदत है नहीं ; अत: मैं
जिस विद्यालय की बात कर रहा हूँ वहाँ 9वीं में 300 में से केवल 75 छात्र ही SA परीक्षा
में 25 प्रतिशत अंक ले पाए। बाक़ी बच्चे फेल हो गए। उन्होंने बताया कि 2014-2015 तक
जो विद्यार्थी ग्यारहवीं कक्षा में आते थे उनमें से बहुत से SA परीक्षा
में फेल होते थे ,परंतु वे दसवीं की FA
(रचनात्मक मूल्यांकन) के 40 अंकों के आधार पर परीक्षा उत्तीर्ण कर लेते थे। तब 25
प्रतिशत की शर्त नहीं थी। SA व FA के नम्बर
जुड़कर पास होते थे। 9वीं कक्षा में यदि SA परीक्षा
में 25% अंक लाने की शर्त न होती, तो ये सभी
पास हो गए होते। इनकी बातों में मुझे सच्चाई नज़र आई। मैंने सोचा यदि शिक्षा
व्यवस्था की सही जानकारी चाहिए तो शिक्षकों से अवश्य बात करनी चाहिए। शिक्षकों से
ही क्यों; बल्कि विद्यालय के छोटे-बड़े हर कर्मचारी से।
हर व्यक्ति कोई न कोई गहरी बात बताता है और अच्छा सुझाव भी देता है। परंतु
विडम्बना यह है कि पॉलिसी ऐसे लोग बनाते है, जिनका
स्कूली शिक्षा से कोई नाता नहीं होता। शिक्षक भी छात्रों का हित चाहते है; परंतु जब
छात्र स्कूल ही न आए, आए तो किताब कॉपी न लाए तो अध्यापक किसे और
कैसे पढ़ाएँ। अभिभावक बुलाने से भी बच्चे के बारे में बात करने स्कूल नहीं आते।
पैसा लेने जरूर आ जाते हैं। ड्रेस के लिए मिले पैसे से ड्रेस नहीं खरीदते और
किताबों के लिए मिले पैसे से किताबें नहीं खरीदते।
सरकार
द्वारा छात्रों को हर सम्भव सहायता प्रदान करने के बाद भी छात्रों का विद्यालय से
पलायन रुकने का नाम नहीं ले रहा है। शाम की पाली के विद्यालयों की स्थिति और भी
भयावह है, अधिकतर बच्चें अपने घर के किसी न किसी काम काज़
से जुड़े होते है; कोई पटरी बाजार लगता है, कोई सब्जी
बेचता है, कोई किसी होटल में कार्य करता है। होटल में काम
करने वाले एक छात्र से बात हुई, उसका कहना
था कि उसके घर में बहुत ही अशांति है। बार-बार इस छात्र का नाम कट जाता था फिर भी
इसके माता-पिता स्कूल नहीं आते थे। यह छात्र अनेक तरह के नशे करता था। आखिर दो साल
फेल होकर वह छात्र घर बैठ गया। सरकारी विद्यालयों में जो छात्र पढऩे आते है , वे
बहुधा मज़दूरी करने वाले परिवारों से है। आठवीं कक्षा में पढऩे वाले एक छात्र ने
इसी साल अपने पिता का मर्डर कर दिया; कारण यह
था कि उसका पिता रोज़ दारू पीकर घर में हंगामा करता था और उसकी माँ को पीटता था।
घर का जो सामान हाथ लग जाए, उसे बेच लेता था। एक दिन अपनी माँ का पिटना इससे देखा
नहीं गया; इसने कृपाण से अपने पिता पर वार कर दिया, जिससे
उसकी मृत्यु हो गई। यह छात्र अभी भी पढ़ रहा है और किसी प्रकार अपना घर भी चला रहा
है।
स्कूलों
में बँटने वाला मिड डे मील भी जी का जंजाल अधिक है। एक तो उसे बाँटने की
जिम्मेदारी ऊपर मिड डे मील की गुणवत्ता। आए दिन मिड डे मील खाने से बीमार होने
वाले छात्रों के समाचार आते रहते है।
विद्यालय का काफी समय मिड डे मील बाँटने में ही लग जाता है। अब तक कोई ऐसी
व्यवस्था नहीं बन पाई कि समय भी बच जाए और गुणवत्ता को भी बनाया जा सके। कब, कहाँ, कौन क्या
लापरवाही कर दे; कुछ पता नहीं।
बारहवीं
का परीक्षा परिणाम भी यहाँ नक़ल के बल पर ही आता है। स्कूलों के शिक्षक परीक्षा
केंद्रों पर जाकर नक़ल कराते है। अधिकारी भी चाहते है कि उनके क्षेत्र के विद्यालयों
का रिजल्ट अच्छा रहे , अत: वे भी नक़ल रोकने के स्थान पर उसे बढ़ावा
देते हैं। सी बी एस ई बोर्ड के परीक्षा सेंटर आपस में ऐसे स्कूलों में डालें जाते
है, जहाँ छात्रों को एक-दूसरे विद्यालयों की नक़ल
में सहायता मिल सके। बहुत से छात्र तो ऐसे है जो अपना नाम भी नहीं लिख पाते।
ग्यारहवीं कक्षा में पढऩे वाले अधिकतर छात्र किताब पढऩे में असमर्थ रहते है।
शिक्षा का स्तर गिरने का एक बड़ा कारण स्कूलों में वर्ष भर बँटने वाला पैसा भी है।
अध्यापक वर्षभर विभिन्न योजनाओं के तहत पैसा बाँटने और छात्रों के एकाउंट खुलवाने
में लगे रहते हैं।
प्रधानाचार्यों
का ध्यान छात्रों की शिक्षा की और कम विभिन्न मदों में खरीदारी से मिलने वाले
कमीशन में अधिक रहता है। ज्यादातर हैड ऑफ स्कूल ऐसे हैं, जो सामान
उन्हीं डीलर से खरीदते है,जो ज्यादा
कमीशन देते है। कुछ तो ऐसे हैं, जो एजेंट
से खाली बिल लेते है। सामान पहले का ख़रीदा हुआ ही दिखा देते है। अधिकतर स्कूलों
में सामान की खरीदारी के लिए कोई कमेटी भी नहीं होती । यदि होती है तो उसमे ऐसे
लोगों को रखते है, जो विद्यालय प्रमुख से गाहे- बगाहे कोई न कोई
लाभ उठाते रहते हैं। उनको जहाँ भी कहा जाए, वे आँख
बंद करके हस्ताक्षर कर देते है।
शिक्षकों को पढ़ाई के इतर भी अन्य कार्य करने
पड़ते हैं, जैसे-कभी मकान गणना, कभी
जनगणना तो कभी आर्थिक सर्वे। चुनाव ड्यूटी के दौरान तो छात्रों की पढ़ाई बिलकुल
चौपट हो जाती है। चुनावी ट्रेनिग जो काम एक दिन में हो सकता है, चुनाव
आयोग द्वारा उसके लिए कई-कई दिन बुलाया
जाता है। अनेक विद्यालयों में अध्यापकों को अपने ऑफिस के कार्य भी स्वयं करने
पड़ते है।
यदि हम
शिक्षा के स्तर में सुधार चाहते हैं तो अन्य उपायों के साथ-साथ यह भी जरूरी है कि
स्कूलों में एजेंट के माध्यम से की जाने वाली ख़रीदारी पर अंकुश लगाया जाए और पहले
की तरह सुपर बाज़ार और कॉपरेटिव स्टोर जैसी संस्थाएँ स्थापित की जाए, जहाँ
विद्यालयों की ज़रूरत का सभी सामान मिल सके। इससे विद्यालयों में व्याप्त
भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाया जा सकेगा। विद्यालयों के मुखिया का ध्यान पूरी एकाग्रता
के साथ विद्यालय और विद्यार्थियों के हित में लग सकेगा। कुछ वर्ष पहले विद्यालयों
में छात्रों की दाखिला प्रक्रिया केन्द्रीयकृत करके दाखिले में धाँधली को लगभग बंद
कर दिया गया। इसी प्रकार के प्रयास से विद्यालय के लिए खरीदारी में होने वाले भ्रष्टाचार को रोका जा
सकेगा।
शिक्षा में सुधार के लिए छात्रों की दसवीं बोर्ड
की परीक्षा को अनिवार्य बनाया जाए। एक सेक्शन में छात्रों की अधिकतम संख्या
निश्चित की जाए। CCE पैटर्न को तुरंत समाप्त किया जाए, स्न्र
परीक्षा का वेटेज कम की जाए तथा NDP (No Detention Policy) को तुरंत समाप्त किया जाए, तभी
छात्रों का रुझान पढाई की और हो सकेगा। अन्यथा बिना पढ़े-लिखे ही पढ़े-लिखों की
कतार लंबी होती चली जाएगी और जो आने वाले समय में समाज के लिए बहुत ही घातक सिद्ध
होगा।कामचोरी करने वाले शिक्षकों पर अंकुश लगाया जाए। सरकारी स्कूलों में करोड़ों रुपये वेतन आदि पर खर्च होते हैं।
समय-समय पर शिक्षकों का भी मूल्यांकन होना
चाहिए कि उन्होंने जो बरसों पहले पढ़ा था, उसी पर
निर्भर हैं, उसी की जुगाली कर रहे हैं या कुछ नया भी पढ़
रहे हैं। कम से कम पाँच साल में किसी परीक्षा के माध्यम से यह मूल्यांकन किया जाए।
सम्भव है बहुत से शिक्षक उत्तीर्ण भी न हो
सकें। निरन्तर खोखली होती शिक्षा की जड़ को नष्ट होने से बचाया जाए। अपने देश की
परिस्थिति एवं परिवेश के अनुरूप ही शिक्षा-नीति निर्धारित की जाए। छात्रों की
उपस्थिति सुनिश्चित की जाए। स्कूल में 20 प्रतिशत उपस्थिति वाला छात्र 70 प्रतिशत
अंक कैसे लाएगा? उसके खराब परीक्षा-परिणाम के लिए किसी शिक्षक
को कैसे उत्तरदायी ठहराया जाएगा? अभिभावक
की सक्रिय भागीदारी ज़रूरी है। बोर्ड अपना परीक्षा-परिणाम सुधारने के लिए क्या
रचनात्मक काम कर रहा है, उस पर भी
नज़र रखना ज़रूरी है। हमारी पूरी पीढ़ी के भविष्य का सवाल है। अगर आज हम इस पर
ध्यान नहीं देंगे तो कल पछताने के लिए समय नहीं मिलेगा। कमोबेश यही स्थिति भारत भर
में मिलेगी। हमें जाग जाना चाहिए, अन्यथा फिर वही होगा-'सब कुछ
लुटाकर होश में आए तो क्या किया?’
लोक- संस्कृति
संस्कृति
का लौकिक सन्दर्भ
- विद्यानिवास मिश्र
जैसे भारतीय संस्कृति के बारे में भ्रान्त धारणा है, यह कोरी आध्यात्मिक या अलौकिक संस्कृति है, लोक से इसका कुछ लेना देना नहीं, उसी प्रकार संस्कृत के बारे में यह अतिरेकी प्रचार है कि यह लोकभाषा नहीं है, इसके वाड्मय में केवल दर्शन है, अध्यात्म है, उपदेश है, अलौकिक जगत की बातें हैं। परन्तु वास्तविकता मिली नहीं, जब तक वह लोक में ओतप्रोत नहीं जब तक लोक व्यवहार से वह जुड़ा नहीं, तब तक उस ज्ञान को कोई मूर्त रूप नहीं मिलता। जिस संस्कृत भाषा का व्याकरण पाणिनि ने रचा, उसे उन्होंने देवभाषा नहीं कहा, उसे केवल भाषा कहा। जिसे हम संस्कृत का आदिकाव्य कहते है, उस वाल्मीकि रचित रामायण की भूमिका में न केवल यह प्रश्न उठाया गया कि कौन इस समय इस लोक में ऐसा आदर्श मनुष्य है जो सत्यवादी हो, कृतज्ञ हो, धीर हो, वीर हो, जिससे देवता भी भय खायें, जो सभी प्राणियों के हित में तत्पर हो और इसी प्रश्न के उत्तर में राम का चरित रचा गया, बल्कि उस काव्य को ब्रह्मा का आशीर्वाद मिला कि महर्षि तुम्हारी यह कथा लोक में प्रचारित होगी।
लोक बड़ा व्यापक अर्थ है, उसका पहला अर्थ तो यह है कि
जो कुछ भी इन्द्रियों के द्वारा अनुभव किया जाय, वह लोक है, दूसरा अर्थ है- जो यहाँ, जो अब है, वह लोक है। इसका तीसरा अर्थ है जनसमष्टि। लोक से ही निकला है शब्द
लोक। इसी से जुड़े शब्द हैं लोकलज्जा लोकव्यवहार, लोकसंग्रह और लोकहित। संस्कृत
वाड्मय में अदृश्य अतीन्द्रिय की चिन्ता न हो, ऐसी बात नहीं, पर चिन्ता ऐन्द्रिय और दृश्य की चिन्ता से जुड़ी हुई है। संस्कृत
वाड्मय में इसीलिए मनोरम ऋतु चित्र हैं, मनोरम देश वर्णन है, लोकस्मृति के मनोरम प्रसंग हैं, लोक के उत्सव और लोकाचार के वर्णन ही नहीं, उन्हें अत्यधिक महत्त्वदिया गया है।
संस्कृत में इसी कारण एक और दार्शनिक विचार है
तो दूसरी ओर कामसूत्र, अर्थशास्त्र
राजशास्त्र कुट्टनीयत, नर्ममाला, समरांगणसूत्रधार वायुशास्त्र जैसे ग्रन्थ हैं , जिनमें लौकिक
जीवन के विविध पक्षों पर विचार है, महाभारत और रामायण जैसे ग्रन्थों में जहाँ मोक्ष की चिन्ता है, वहीं राजव्यवहार, सामान्यजीवन के नियमों तथा
मनुष्य को प्रभावित करने वाली प्रकृति की विविध रंगतों के भी चित्रण है।
बाहर के कुछ दुराग्रही
विद्वान तो नाराज इसी बात पर हैं कि संस्कृत साहित्य बहुत लौकिक है, यहाँ तक कि कभी-कभी बहुत ही
उच्छृंखल है, भोगप्रधान
है, पर कैसा
ढोंग है कि दर्शन के ग्रन्थ दु:खवादी हैं, वैराग्यपरक हैं। उन विचारकों की समझ में सीधी बात धँसती ही नहीं कि
राग-विराग विरोधी नहीं होते, एक दूसरे के पूरक होते हैं। इसी तरह जहाँ सम्पूर्ण जीवन की
स्वीकृति है, वहाँ इसके
ऐन्द्रिय पक्ष को छोडऩा ही ढोंग है, उसे स्वीकार करते हुए उसी की सघनता और तीव्रता के भीतर लोकोत्तर की
अवधारणा की जा सकती है। लोकोत्तर को समझने के लिए समझाने के लिए जो भी भाषा
प्रयुक्त होगी, उसे लौकिक
होना ही पड़ेगा, इसलिए लोक
के अनुभव को लोक की प्रसिद्धि को माने बिना परमार्थ भी नहीं सधता।
भर्तृहरि ने वाक्यपदीय में यह
सिद्धान्त प्रतिपादित किया कि जो व्यवहार निरन्तर चले आ रहे हैं, जिन व्यवहारों को लोक ने
मान्यता दे रखी है, जो जीवन को
व्यवस्थित रखते हैं वे तर्क के विषय नहीं होते। उन्होंने बात तो की भाषा के
सन्दर्भ में। भाषा लोक की स्वीकृति पर ही
चलती है, क्यों वह
प्रयोग, दूसरा नहीं, इस प्रश्न की यहाँ संगति नहीं, क्योंकि स्वीकृति उपयुक्त
बातों को लेकर होती है, परन्तु
उनका यह सिद्धांत सभी प्रकार के लोक व्यवहारों पर लागू होता है। स्व. पूज्य स्वामी
अखंडानन्द जी कहते थे, लोक
व्यवहार लोकायत से चलता है, तभी उसमें सामंजस्य होता है, वहाँ अदृश्य जन्मान्तर के सिद्धान्त को या सभी कुछ ब्रह्म है, ये सिद्धान्त लागू किये जाएँ
तो अव्यवस्था उत्पन्न होगी। वहाँ कर्मवाद का तर्क लेकर चोरी के माल को पूर्वजन्म
की सम्पत्ति कह कर छोड़ा जा सकता है। इसीलिए स्मृतियों के व्यवहार अध्याय या महाभारत का
अनुशासन पर्व या शुक्रनीति या कामन्दकनीति या चाणक्य का अर्थशास्त्र, ये सभी पश्चिम के कुछ
विचारकों को बहुत निर्मम और बहुत निर्नैतिक
लगते हैं। हाँ, निर्मम तो
हैं ;पर निर्नैतिक नहीं, क्योंकि वहाँ लोक कल्याण और लोक में विश्वसनीयता प्रमुख
नीतिनिर्धारक सिद्धान्त हैं। इसीलिए लोक के स्वरूप के परिवर्तन के साथ उनमें
परिवर्तन होते रहने का विधान भी है। देशकाल-निरपेक्ष रह कर लोक में कोई नियम नहीं
बनते। यदि लोकहित का विरोध न हो तो कुलरीति को भी मान्यता है, पर यदि लोकहित प्रभावित होता
है तो कुलहित की उपेक्षा करनी पड़ती है। पूज्य स्वामी जी के कहने का अभिप्राय यह
था कि लोकायत अद्वैत का विरोधी नहीं, दोनों के क्षेत्र अलग हैं, दोनों के धरातल अलग हैं। मानव व्यवहार संश्लिष्ट और बहुआयामी होता
है, इसलिए
उसमें सभी पक्षों के लिए उचित स्थान न हो तो व्यक्ति समष्टि के साथ सामंजस्य नहीं
रख पाता।
संस्कृत के काव्यों, नाटकों और स्फुट मुक्तकों को
पढ़े तो अनेक प्रकार के जीवन की छटाएँ मिलेंगी। संस्कृत ने लोक व्यवहार को इतना
आदर दिया कि उसने प्राकृत कविता, प्राचीन तमिल कविता, अपभ्रंश गीति सबसे बहुत कुछ लिया, कथानक, उक्तिमाधुर्य, लयदारी और पूरी की पूरी
लोकोक्ति। लोक व्यवहार पर आधृत हजारों लौकिक न्याय प्रचलित हैं, जैसे स्थाली पुलाक न्याय, बटलोई से चावल के दो दाने
निकालकर पूरे चावल के पकने की परीक्षा जैसे होती है, वैसे ही दो एक बानगी लेने से
ही पूरी स्थिति का परिज्ञान हो जाता है। पणिनि ने ऐसे न जाने कितने लोक व्यवहार के
अनुभवों को अंकित करते हुए उसमें प्रचलित मुहावरों का विश्लेषण किया है।
एक मुहावरा है जो ,आज भी
प्रचलित है, मुँह
ताकना। ऐसे मुँह ताकने वाले निठल्ले के लिए संस्कृत में शब्द है लालाटिक, जो ललाट की ओर निहारता रहता
है। संस्कृत भाषा में गृहस्थी के मनोरम चित्र हैं, गरीब घर के भी, सम्पन्न घर के भी, सामान्य किसान घर के अमृतभेजन पर श्लोक है-
तरूसां सर्षपशाकं नवोदनं
सशराणि च दधीनि
अल्पव्ययेन सुन्दरि ग्रामजनो
मिष्टमश्नाति।
मलाई की पर्त वाला दही, बहुत कम में ही गाँव का आदमी
कितना बढिय़ा भोजन करता है। संस्कृत के दर्शन शास्त्र भी लौकिक उदाहरणों से ही अपनी
बात हृदयमंग करते हैं, कुम्हार और
जुलाहे के हस्तकौशल के उदाहरण पटे पड़े हैं, दर्शन की पोथियों में।
लोक के प्रति इस सजग दृष्टि
के कारण ही संस्कृत साहित्य शताब्दियों बाद भी इतना मोहक बना हुआ है। उसकी एक-एक
सूक्ति कंठहार बनी हुई हैं, उन्हीं सूक्तियों से आधुनिक भाषा की भीतरी बुनावट रची गयी है, कबीर की वाणी हो, तुलसी के भक्तिधारा हो, रईसी में पले भारतेन्दु का
गद्य-पद्य हो, रामचन्द्र
शुक्ल की आलोचना हो, वर्तमान
रम्य साहित्य हो, सभी के लिए
संस्कृत अक्षय स्रोत बनी हुई है, सिर्फ इसलिए संस्कृत का लौकिक पक्ष बड़ा रमणीय है, वह रूमानी नहीं है, कुछ अधिक गहरा है, उसका सम्बन्ध मनुष्य की सनातन
संवेदना से है। प्रेम और ताप के सादृश्य की बात कालिदास ने की और कहा- प्रिय जितना
ही जलाता है, उतना ही
संतृप्त करता है, जैसे चढ़ते
असाढ़ का तपा हुआ दिन यकायक बादलों से सँवरा जाता है बरस कर हरषा जाता है। इसी बात
को अपभ्रंश के कवि ने कहा- प्रिय ने बड़ा सताया, पर उनके बिना काज नहीं सरता, आग घर जला देती है, तो भी उस आग की तलब सुबह शाम होती ही होती है।
साथ ही संस्कृत वाड्मय का ऐसा
भंडार है, जिसे हमने प्राचीन
इतिहास को सौंप रखा है, उसकी सतत
वर्तमानता हमारी नजरों से ओझल हो गयी है।
घर बनाने से सम्बद्ध शास्त्र
अभी इंजीनियरी में नहीं पढ़ाये जाते, औषधिविज्ञान भी बाहर चाहे बहुत महत्तपूर्ण हो, हमारे लिए अभी जादुई अजूबा
है। उद्यान, कृषि, हस्ती-आयुर्वेदी, शालिहोत्र घोड़ों का पालन, धातुविज्ञान मुद्राविज्ञान, मौसम विज्ञान, गणित और खगोल-ज्योतिष की
सामग्री केवल कौतुक का विषय है हम इनका परीक्षण करके इन्हें खारिज करें, यह तो हो सकता है, पर उन्हें बिना परीक्षण के
हमने, समयोपयोगी
नहीं है, इस कारण
खारिज कर दिया है, यह अन्ध
वैज्ञानिक दृष्टि संस्कृत वाड्मय के महत्त्वपूर्ण पक्ष को लोगों की पहुँच के बाहर
रखे हुए है। इधर संगणक संरचना में संस्कृत के उपयोग की आँधी-सी चली है, पर लोग यह भूल गये हैं कि
संस्कृत भाषा समग्र जीवन की भाषा है। इसलिए उसमें निहित जीवन के विविध पक्षों को
उजागर किया जाय तो निश्चय ही हमारे चिन्तन में ताजगी और स्वाभाविकता आएगी, क्योंकि संस्कृत किसी न किसी
रूप में हमारे मन में ऐसी रची-पची है कि बिना उसके हम अपने को कहीं न कहीं कुछ
अधूरा मानते हैं। हमारी संस्कृति का लोकपक्ष और संस्कृत का लोकपक्ष आज के दिन भी
स्पृहणीय है, क्योंकि वह
अनावश्यक भावोच्छ्वास के बिना मनोरम है, सजीव है और खुला हुआ है।
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