हमारे देश में स्कूली शिक्षा
शुरू करने की उम्र लगातार कम होती जा रही है। कहीं-कहीं तो बच्चे को दो-ढाई साल की
उम्र में ही स्कूल में डाल दिया जाता है और ये स्कूल नाममात्र के प्ले-स्कूल होते
हैं। यहाँ बच्चों को वर्णमाला, गिनती, अंग्रेज़ी
के शब्द सिखाने का औपचारिक सिलसिला शुरू कर दिया जाता है। मगर दुनिया भर में किए
गए कई अध्ययन दर्शाते हैं कि ऐसा करना हानिकारक हो सकता है। कम से कम इतना तो
स्पष्ट है कि जल्दी स्कूल भेजने से बच्चे को कोई फायदा नहीं होता।
इस संदर्भ में कैम्ब्रिज
विश्वविद्यालय के विकास मनोवैज्ञानिक डेविड व्हाइटब्रेड और प्रारम्भिक बचपन की शिक्षा की सलाहकार स्यू बिंगहैम ने वे तमाम प्रमाण
प्रस्तुत करते हुए यू.के. सरकार से माँग की है कि स्कूल प्रारम्भ करने की उम्र को बढ़ा दिया जाए। फिलहाल इंग्लैण्ड में औपचारिक
स्कूली शिक्षा की शुरुआत 4-5 साल की उम्र में हो जाती है।
ताज़ा बहस की शुरुआत प्रारंभिक
शिक्षा के 130 विशेषज्ञों द्वारा प्रेषित एक पत्र के माध्यम से हुई है। इस पत्र
में औपचारिक स्कूली शिक्षा की उम्र को 4 साल से बढ़ाकर 7 साल करने की माँग की गई है। दरअसल, इंग्लैण्ड में स्कूली शिक्षा की उम्र को घटाने का निर्णय 1870 में
किसी शैक्षणिक वजह से नहीं; बल्कि इसलिए लिया गया था ताकि महिलाओं को काम पर लाया जा सके। आज
भी सरकारी तौर पर यू.के. में साक्षरता व गणित शिक्षा की औपचारिक शुरुआत जल्दी से
जल्दी करने और इन चीज़ों को बच्चों के मूल्यांकन में शामिल रखने का काफी ज़ोर है। यहाँ तक कि शिक्षा विभाग तो कह रहा है कि 2 वर्ष के बच्चों को ही स्कूल
में दाखिल कर देना चाहिए।
मगर बच्चों की दृष्टि से
देखें तो प्रमाण यह है कि कम उम्र में उन्हें स्कूल में धकेलने से काफी नुकसान हो
सकता है। इस बात के प्रमाण मानव वैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक, तंत्रिका वैज्ञानिक और शैक्षिक अध्ययनों से मिले हैं। मसलन, वर्तमान शिकारी-संग्रहकर्ता
समाजों में बच्चों के खेलकूद और अन्य स्तनधारी प्राणियों में बच्चों पर किए गए
अध्ययन दर्शाते हैं कि खेलकूद ने मनुष्य को बेहतर सीखने-वाला और गुत्थियाँ सुलझाने
वाला बनाने में मदद की है।
तंत्रिका वैज्ञानिक अध्ययन भी
इस बात का समर्थन करते हैं कि सीखने में खेलकूद केन्द्रीय भूमिका निभाते हैं। मसलन, 2009 में प्रकाशित पुस्तक 'दी प्लेफुल ब्रेन- वेन्चरिंग टु दी लिमिट ऑफ न्यूरोसाइन्स’ में उन तमाम अध्ययनों पर गौर
किया गया है जो यह दर्शाते हैं कि खेलकूद की गतिविधियाँ तंत्रिकाओं के बीच ज़्यादा
जुड़ाव बनाने में मददगार होती हैं। खास तौर से तंत्रिकाओं के बीच जुड़ाव बनने की
यह क्रिया मस्तिष्क के अगले भाग में देखी गई है जो उच्चतर मानसिक कार्यों में
शामिल होता है।
इसी प्रकार से प्रायोगिक मनोविज्ञान
ने दर्शाया है कि प्रारंभिक शिक्षा में अध्यापन की विधि की अपेक्षा खेलकूद से
सीखने की प्रेरणा ज़्यादा मिलती है। वर्ष 2002 में स्कूल स्तर पर किए गए एक अध्ययन
में स्कूल में छठे वर्ष के अंत में बच्चों की उपलब्धियों की तुलना की गई थी। पता
चला कि जिन बच्चों का स्कूल-पूर्व जीवन 'शिक्षा’की ओर
उन्मुख था उनकी उपलब्धियाँ उन बच्चों से काफी कम रहीं ,जिन्हें खेलकूद का माहौल मिला
था।
इसी प्रकार का एक अध्ययन 2004
में यू.के. में किया गया था। 3000 बच्चों के इस अध्ययन का निष्कर्ष था कि ज़्यादा
देर तक खेलकूद आधारित स्कूल-पूर्व अवधि का बच्चों की उपलब्धियों पर सकारात्मक असर
होता है। न्यूज़ीलैण्ड में एक अध्ययन में पता चला है कि 5 साल की उम्र में शुरू
करें या 7 साल की उम्र में, बच्चों की पठन क्षमता में 11 वर्ष की उम्र में कोई अंतर नहीं होता।
और तो और, 5 साल की
उम्र में शुरू करने वाले बच्चों का पढऩे के प्रति उत्साह जाता रहता है। इसी प्रकार
का एक अध्ययन 55 देशों के 15-वर्षीय बच्चों पर किया गया था और इसमें भी पता चला था
कि जल्दी औपचारिक शिक्षण शुरू करने से उपलब्धि में कोई अंतर नजऱ नहीं आता।
लगता है कि बचपन का स्कूलीकरण
करने में बहुत जल्दी करने से फायदा तो दूर, नुकसान ही होने की आशंका ज़्यादा है। (स्रोत फीचर्स)
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