और गायन के बीच
कुछ तो रिश्ता है!
हर साल त्यागराजा आराधना के
दिन सैकड़ों गायक, तिरुवयरु
में इकट्ठे होकर एक
सुर में पंचरत्न गीत गाते हैं। इन गीतों का सृजन संत त्यागराजा ने किया था। जब वे
एक साथ एक सुर में इन गीतों को गाते हैं तो उनका ह्रदय भक्ति भाव से भर जाता है और
उस समय उनकी धड़कन को मापना बहुत ही रोचक होगा। यह सुझाव मैं फ़्रंटियर्स इन
फिजि़योलॉजी के 9 जुलाई 2013 के अंक में प्रकाशित एक पर्चे के आधार पर दे रहा हूँ।
यह पर्चा डॉ. ब्योर्न विकहॉफ के नेतृत्व में डॉक्टरों, वैज्ञानिकों और गायकों की एक
टीम ने लिखा है। इस पर्चे का उद्देश्य इस बात पर प्रकाश डालना है कि कैसे गायन और
विशेष रूप से वृंद गायन स्वास्थ्य को बढ़ावा देता है। पर्चे में बताया गया है कि
गायक की श्वसन दर और दिल की धड़कन के बीच कुछ तालमेल होता है।
यह काफी समय से पता है कि
श्वसन दर दिल की धड़कन को और उसके ज़रिए रक्तचाप को प्रभावित करती है। हमारे
बुज़ुर्ग सहजता से इस बात को महसूस भी करते थे और तरह-तरह के प्राणायाम जैसे श्वसन
व्यायाम करते थे। इस परिकल्पना को जाँचने के लिए 2009 में नेपाल मेडिकल कॉलेज, काठमाँडू के डॉ. टी.
प्रामाणिक और उनकी टीम ने एक प्रयोग किया था। उन्होंने वालंटियर्स को धीमी गति से
प्राणायाम करने को कहा (इसमें दोनों नासा छिद्रों से 4 सेकंड तक धीरे-धीरे सांस
लेना और फिर दोनों छिद्रों से 6 सेकेण्ड में धीरे-धीरे सांस छोडऩा था, कोई उदर श्वसन यानी भस्त्रीका
नहीं) और उनकी धड़कन और रक्त चाप नापे। जब इस व्यायाम को 5 मिनिट के लिए किया गया
था तब उच्च और निम्न ब्लड प्रेशर में गिरावट दिखी। साथ ही धड़कन में भी कुछ गिरावट
नज़र आई। इसी के समान एक और समूह ने इसी तरह का व्यायाम किया मगर पहले उन्हें
पैरासिम्पेथेटिक दवा दी गई थी। इस समूह में उपरोक्त असर नहीं देखा गया।
ऐसा क्यों होता है? श्वसन दर और हृदय गति में
परस्पर सम्बंध तो पहले से पता है। सांस लेते वक्त नाड़ी की गति बढ़ती है और छोड़ते
समय घटती है। वेगस तंत्रिका मस्तिष्क को हृदय और उदर से जोड़ती है। यह उत्तेजित हो
जाती है और हृदय की धड़कन को कम करती है। दरअसल न्यूयार्क के एक ग्रुप ने एक ऐसी
मशीन बनाई है जिसे रेस्पीरेट कहते हैं। इस मशीन से आपको धीमी गति से श्वसन (10
सांस प्रति मिनट) करवाकर उच्च रक्तचाप को ठीक करने की बात कही जाती है।
गायन से इसका क्या लेना-देना? एक दूसरे स्वीडिश समूह ने
2003 दर्शाया था कि में गायन सत्र के बाद केवल धड़कन ही कम नहीं होती बल्कि रक्त
सीरम में ऑक्सीटोसीन जैसे अणुओं की सांद्रता भी बढ़ती है। हम यह तो नहीं जानते कि
इस सबका क्या मतलब है, लेकिन गायन
से स्वास्थ्य में सुधार आता है और उत्तेजना को कम करने में मदद मिलती है।
विकहॉफ और उनके साथी इसी
पृष्ठभूमि में अपने परिणामों को देख रहे हैं। उन्होंने वालंटियर्स को तीन गायन
सम्बंधी व्यायाम करने को कहा। पहले गु्रप को केवल मंत्र उच्चारण के लिए कहा गया
(जैसे बौद्ध लोग सिक्किम या थाइलैंड के पैगोडा में करते हैं)। इसमें हृदय गति कम
हुई और ब्लड प्रेशर भी कम हुआ। दूसरे समूह को वैसे ही गुनगुनाने को कहा गया था। इस
मामले में जो अंतर देखा गया वह उतना नियमित नहीं था जितना मंत्र उच्चारण में देखा
गया था। तीसरे समूह को 'फेयरेस्ट लॉर्ड जीसस’समूह में गाने को कहा गया। इस प्रकार श्वसन के तीन संयोजन प्राप्त
हुए। जिसमें समूह गान में गाने वालों के परिणाम सबसे उल्लेखनीय थे। जब वे एक सुर
में गाते थे, तब उनकी
धड़कन भी तालमेल में होने लगती थी। दूसरे शब्दों में संगीत संरचना गायकों की धड़कन
को निर्धारित करती है।
इस प्रकार संगीत ऑटोनोमस
तंत्रिका तंत्र से दो तरह से संवाद करता है- वेगस तंत्रिका की कडिय़ों और उसकी
क्रियाओं के ज़रिए और श्रव्य संकेतों के ज़रिए। गायन नियमित श्वसन की माँग करता
है।
श्वसन और हृदय गति दोनों ही
ऑटोनोमस तंत्रिका तंत्र के ज़रिए जुड़ी हुई हैं। मस्तिष्क की वेगस तंत्रिका पैरासिम्पैथेटिक ढंग से धड़कन को नियमित करती
है। इससे श्वसन और दिल की धड़कन का तालमेल बनाने में मदद मिलती है। समूह गान इन
दोनों क्रियाओं को अंजाम देता है।
इस अध्ययन के व्यापक दार्शनिक
और सामाजिक निहितार्थ हैं। शोधकर्ताओं को लगता है कि इस तरह कि सामूहिक क्रियाएँ
साझा परिप्रेक्ष्य और साझा इरादों को जन्म देती है। 'दूसरे शब्दों में गायक गायन
के माध्यम से इस दुनिया के अपने आत्मकेंद्रित नज़रिए को 'साझा नज़रि ’में बदल सकता है जो उन्हें
दुनिया को एक ही नज़रिए से देखने में मदद करेगा (उदाहरण के लिए धर्म, राजनीति या फुटबॉल टीम) और इस
तरह से यह भी परिभाषित होगा कि हम कौन हैं। यदि समूह गान से सामूहिक नज़रिया पनपता
है, तो इससे
सामाजिक बँधनों में गहराई आएगी।यानी समूह गान हृदय के लिए एक व्यापक और गहरे अर्थ
में लाभदायक हो सकता है। समूह गान मिज़ाज का नियंत्रण करता है और सामाजिक बँधनों
को पुख्ता करता है। ओहायो स्टेट विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ म्यूजि़क के डेविड
ह्यूरॉन हमेशा से सोचते रहे हैं कि आखिर लोग साथ-साथ गाते ही क्यों हैं। कहीं
संगीत एक आनुवंशिक अनकूलन तो नहीं, जो लोगों को परस्पर लाभ के लिए एक समुदाय के रूप में बाँधता है।
(स्रोत फीचर्स)
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