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Aug 12, 2015

लोक- संस्कृति


संस्कृति का लौकिक सन्दर्भ

विद्यानिवास मिश्र

 जैसे भारतीय संस्कृति के बारे में भ्रान्त धारणा है, यह कोरी आध्यात्मिक या अलौकिक संस्कृति है, लोक से इसका कुछ लेना देना नहीं, उसी प्रकार संस्कृत के बारे में यह अतिरेकी प्रचार है कि यह लोकभाषा नहीं है, इसके वाड्मय में केवल दर्शन है, अध्यात्म है, उपदेश है, अलौकिक जगत की बातें हैं। परन्तु वास्तविकता मिली नहीं, जब तक वह लोक में ओतप्रोत नहीं जब तक लोक व्यवहार से वह जुड़ा नहीं, तब तक उस ज्ञान को कोई मूर्त रूप नहीं मिलता। जिस संस्कृत भाषा का व्याकरण पाणिनि  ने रचा, उसे उन्होंने देवभाषा नहीं कहा, उसे केवल भाषा कहा। जिसे हम संस्कृत का आदिकाव्य कहते है, उस वाल्मीकि रचित रामायण की भूमिका में न केवल यह प्रश्न उठाया गया कि कौन इस समय इस लोक में ऐसा आदर्श मनुष्य है जो सत्यवादी हो, कृतज्ञ हो, धीर हो, वीर हो, जिससे देवता भी भय खायें, जो सभी प्राणियों के हित में तत्पर हो और इसी प्रश्न के उत्तर में राम का चरित रचा गया, बल्कि उस काव्य को ब्रह्मा का आशीर्वाद मिला कि महर्षि तुम्हारी यह कथा लोक में प्रचारित होगी।

लोक बड़ा व्यापक अर्थ है, उसका पहला अर्थ तो यह है कि जो कुछ भी इन्द्रियों के द्वारा अनुभव किया जाय, वह लोक है, दूसरा अर्थ है- जो यहाँ, जो अब है, वह लोक है। इसका तीसरा अर्थ है जनसमष्टि। लोक से ही निकला है शब्द लोक। इसी से जुड़े शब्द हैं लोकलज्जा लोकव्यवहार, लोकसंग्रह और लोकहित। संस्कृत वाड्मय में अदृश्य अतीन्द्रिय की चिन्ता न हो, ऐसी बात नहीं, पर चिन्ता ऐन्द्रिय और दृश्य की चिन्ता से जुड़ी हुई है। संस्कृत वाड्मय में इसीलिए मनोरम ऋतु चित्र हैं, मनोरम देश वर्णन है, लोकस्मृति के मनोरम प्रसंग हैं, लोक के उत्सव और लोकाचार के वर्णन ही नहीं, उन्हें अत्यधिक महत्त्वदिया गया है।
 संस्कृत में इसी कारण एक और दार्शनिक विचार है तो दूसरी ओर कामसूत्र, अर्थशास्त्र राजशास्त्र कुट्टनीयत, नर्ममाला, समरांगणसूत्रधार  वायुशास्त्र जैसे ग्रन्थ हैं , जिनमें लौकिक जीवन के विविध पक्षों पर विचार है, महाभारत और रामायण जैसे ग्रन्थों में जहाँ मोक्ष की चिन्ता है, वहीं राजव्यवहार, सामान्यजीवन के नियमों तथा मनुष्य को प्रभावित करने वाली प्रकृति की विविध रंगतों के भी चित्रण है।
बाहर के कुछ दुराग्रही विद्वान तो नाराज इसी बात पर हैं कि संस्कृत साहित्य बहुत लौकिक है, यहाँ तक कि कभी-कभी बहुत ही उच्छृंखल है, भोगप्रधान है, पर कैसा ढोंग है कि दर्शन के ग्रन्थ दु:खवादी हैं, वैराग्यपरक हैं। उन विचारकों की समझ में सीधी बात धँसती ही नहीं कि राग-विराग विरोधी नहीं होते, एक दूसरे के पूरक होते हैं। इसी तरह जहाँ सम्पूर्ण जीवन की स्वीकृति है, वहाँ इसके ऐन्द्रिय पक्ष को छोडऩा ही ढोंग है, उसे स्वीकार करते हुए उसी की सघनता और तीव्रता के भीतर लोकोत्तर की अवधारणा की जा सकती है। लोकोत्तर को समझने के लिए समझाने के लिए जो भी भाषा प्रयुक्त होगी, उसे लौकिक होना ही पड़ेगा, इसलिए लोक के अनुभव को लोक की प्रसिद्धि को माने बिना परमार्थ भी नहीं सधता।
भर्तृहरि ने वाक्यपदीय में यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया कि जो व्यवहार निरन्तर चले आ रहे हैं, जिन व्यवहारों को लोक ने मान्यता दे रखी है, जो जीवन को व्यवस्थित रखते हैं वे तर्क के विषय नहीं होते। उन्होंने बात तो की भाषा के सन्दर्भ में। भाषा  लोक की स्वीकृति पर ही चलती है, क्यों वह प्रयोग, दूसरा नहीं, इस प्रश्न की यहाँ संगति नहीं, क्योंकि स्वीकृति उपयुक्त बातों को लेकर होती है, परन्तु उनका यह सिद्धांत सभी प्रकार के लोक व्यवहारों पर लागू होता है। स्व. पूज्य स्वामी अखंडानन्द जी कहते थे, लोक व्यवहार लोकायत से चलता है, तभी उसमें सामंजस्य होता है, वहाँ अदृश्य जन्मान्तर के सिद्धान्त को या सभी कुछ ब्रह्म है, ये सिद्धान्त लागू किये जाएँ तो अव्यवस्था उत्पन्न होगी। वहाँ कर्मवाद का तर्क लेकर चोरी के माल को पूर्वजन्म की सम्पत्ति कह कर छोड़ा जा सकता है। इसीलिए स्मृतियों के व्यवहार अध्याय या महाभारत का अनुशासन पर्व या शुक्रनीति या कामन्दकनीति या चाणक्य का अर्थशास्त्र, ये सभी पश्चिम के कुछ विचारकों को बहुत निर्मम और बहुत निर्नैतिक  लगते हैं। हाँ, निर्मम तो हैं ;पर निर्नैतिक नहीं, क्योंकि वहाँ लोक कल्याण और लोक में विश्वसनीयता प्रमुख नीतिनिर्धारक सिद्धान्त हैं। इसीलिए लोक के स्वरूप के परिवर्तन के साथ उनमें परिवर्तन होते रहने का विधान भी है। देशकाल-निरपेक्ष रह कर लोक में कोई नियम नहीं बनते। यदि लोकहित का विरोध न हो तो कुलरीति को भी मान्यता है, पर यदि लोकहित प्रभावित होता है तो कुलहित की उपेक्षा करनी पड़ती है। पूज्य स्वामी जी के कहने का अभिप्राय यह था कि लोकायत अद्वैत का विरोधी नहीं, दोनों के क्षेत्र अलग हैं, दोनों के धरातल अलग हैं। मानव व्यवहार संश्लिष्ट और बहुआयामी होता है, इसलिए उसमें सभी पक्षों के लिए उचित स्थान न हो तो व्यक्ति समष्टि के साथ सामंजस्य नहीं रख पाता।
संस्कृत के काव्यों, नाटकों और स्फुट मुक्तकों को पढ़े तो अनेक प्रकार के जीवन की छटाएँ मिलेंगी। संस्कृत ने लोक व्यवहार को इतना आदर दिया कि उसने प्राकृत कविता, प्राचीन तमिल कविता, अपभ्रंश गीति सबसे बहुत कुछ लिया, कथानक, उक्तिमाधुर्य, लयदारी और पूरी की पूरी लोकोक्ति। लोक व्यवहार पर आधृत हजारों लौकिक न्याय प्रचलित हैं, जैसे स्थाली पुलाक न्याय, बटलोई से चावल के दो दाने निकालकर पूरे चावल के पकने की परीक्षा जैसे होती है, वैसे ही दो एक बानगी लेने से ही पूरी स्थिति का परिज्ञान हो जाता है। पणिनि ने ऐसे न जाने कितने लोक व्यवहार के अनुभवों को अंकित करते हुए उसमें प्रचलित मुहावरों का विश्लेषण किया है।
एक मुहावरा है जो ,आज भी प्रचलित है, मुँह ताकना। ऐसे मुँह ताकने वाले निठल्ले के लिए संस्कृत में शब्द है लालाटिक, जो ललाट की ओर निहारता रहता है। संस्कृत भाषा में गृहस्थी के मनोरम चित्र हैं, गरीब घर के भी, सम्पन्न घर के भी, सामान्य किसान घर के अमृतभेजन पर श्लोक है-
तरूसां सर्षपशाकं नवोदनं सशराणि च दधीनि
अल्पव्ययेन सुन्दरि ग्रामजनो मिष्टमश्नाति।
मलाई की पर्त वाला दही, बहुत कम में ही गाँव का आदमी कितना बढिय़ा भोजन करता है। संस्कृत के दर्शन शास्त्र भी लौकिक उदाहरणों से ही अपनी बात हृदयमंग करते हैं, कुम्हार और जुलाहे के हस्तकौशल के उदाहरण पटे पड़े हैं, दर्शन की पोथियों में।
लोक के प्रति इस सजग दृष्टि के कारण ही संस्कृत साहित्य शताब्दियों बाद भी इतना मोहक बना हुआ है। उसकी एक-एक सूक्ति कंठहार बनी हुई हैं, उन्हीं सूक्तियों से आधुनिक भाषा की भीतरी बुनावट रची गयी है, कबीर की वाणी हो, तुलसी के भक्तिधारा हो, रईसी में पले भारतेन्दु का गद्य-पद्य हो, रामचन्द्र शुक्ल की आलोचना हो, वर्तमान रम्य साहित्य हो, सभी के लिए संस्कृत अक्षय स्रोत बनी हुई है, सिर्फ इसलिए संस्कृत का लौकिक पक्ष बड़ा रमणीय है, वह रूमानी नहीं है, कुछ अधिक गहरा है, उसका सम्बन्ध मनुष्य की सनातन संवेदना से है। प्रेम और ताप के सादृश्य की बात कालिदास ने की और कहा- प्रिय जितना ही जलाता है, उतना ही संतृप्त करता है, जैसे चढ़ते असाढ़ का तपा हुआ दिन यकायक बादलों से सँवरा जाता है बरस कर हरषा जाता है। इसी बात को अपभ्रंश के कवि ने कहा- प्रिय ने बड़ा सताया, पर उनके बिना काज नहीं सरता, आग घर जला देती है, तो भी उस आग की तलब सुबह शाम होती ही होती है।
साथ ही संस्कृत वाड्मय का ऐसा भंडार है, जिसे हमने प्राचीन इतिहास को सौंप रखा है, उसकी सतत वर्तमानता हमारी नजरों से ओझल हो गयी है।

घर बनाने से सम्बद्ध शास्त्र अभी इंजीनियरी में नहीं पढ़ाये जाते, औषधिविज्ञान भी बाहर चाहे बहुत महत्तपूर्ण हो, हमारे लिए अभी जादुई अजूबा है। उद्यान, कृषि, हस्ती-आयुर्वेदी, शालिहोत्र घोड़ों का पालन, धातुविज्ञान मुद्राविज्ञान, मौसम विज्ञान, गणित और खगोल-ज्योतिष की सामग्री केवल कौतुक का विषय है हम इनका परीक्षण करके इन्हें खारिज करें, यह तो हो सकता है, पर उन्हें बिना परीक्षण के हमने, समयोपयोगी नहीं है, इस कारण खारिज कर दिया है, यह अन्ध वैज्ञानिक दृष्टि संस्कृत वाड्मय के महत्त्वपूर्ण पक्ष को लोगों की पहुँच के बाहर रखे हुए है। इधर संगणक संरचना में संस्कृत के उपयोग की आँधी-सी चली है, पर लोग यह भूल गये हैं कि संस्कृत भाषा समग्र जीवन की भाषा है। इसलिए उसमें निहित जीवन के विविध पक्षों को उजागर किया जाय तो निश्चय ही हमारे चिन्तन में ताजगी और स्वाभाविकता आगी, क्योंकि संस्कृत किसी न किसी रूप में हमारे मन में ऐसी रची-पची है कि बिना उसके हम अपने को कहीं न कहीं कुछ अधूरा मानते हैं। हमारी संस्कृति का लोकपक्ष और संस्कृत का लोकपक्ष आज के दिन भी स्पृहणीय है, क्योंकि वह अनावश्यक भावोच्छ्वास के बिना मनोरम है, सजीव है और खुला हुआ है।

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