इस अंक में
अनकहीः अपनी जड़ों की ओर लौटना होगा - डॉ. रत्ना वर्मा
पर्व-संस्कृतिः समुद्र-मंथन से अवतरित लक्ष्मी के रूप में समाई प्रकृति - प्रमोद भार्गव
कविताः 1. दीप क्या है? 2. दीपक जलते रहना - रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
पर्व- संस्कृतिः छत्तीसगढ़ की दीपावली में मिट्टी कला - डॉ. सुनीता वर्मा
दो कविताएँः 1. दिवाली आई है, 2. एक दिवाली दिल में... - डॉ. कुँवर दिनेश सिंह
कविताः ज्योति का उत्सव मनाएँ - डॉ. शिवजी श्रीवास्तव
पर्यावरणः तेज़ आवाज़ और आपके कान - डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी
पर्व संस्कृतिः जाने कहाँ गए वो दिन... - प्रियंका गुप्ता
कविताः क्या रखा है अब इन बातों में - डॉ. कविता भट्ट शैलपुत्री
संस्मरणः पार्क की सुनहरी शाम - जैस्मिन जोविअल
वृद्ध दिवसः अनुभव का पिटारा है इनके पास - जेन्नी शबनम
दो लघुकथाएँः 1. आम आदमी, 2. और यह वही था - डॉ. शंकर पुणतांबेकर
दो लघुकथाएँः 1. मकान, 2. संतू - श्याम सुन्दर अग्रवाल
पंजाबी कहानीः विषधर - बचिंत कौर - अनुवाद : सुभाष नीरव
कविताः आत्मदीप - हरिवंशराय बच्चन
व्यंग्यः अमीर बचाइए, सिस्टम बचेगा - जवाहर चौधरी
नज़्में: दीवाली के दीप जले - फ़िराक़ गोरखपुरी
किताबेंः ‘कुछ रंग’ ग्राम्य जीवन की संवेदनाओं का रंगमंच - पूनम चौधरी
उम्दा अंक
ReplyDeleteदिवाली का उजास फैलाता, प्रकाशमय अंक!
ReplyDeleteसुंदर अंक । दिवाली की शुभकामनाएँ
ReplyDeleteबहुत सुंदर अंक! हार्दिक बधाई!🎊
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