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Oct 1, 2025

दो कविताएँः

 - डॉ. कुँवर दिनेश सिंह

1. चल घर चल,  दिवाली आई है







बंधु, चल घर चल, दिवाली आई है,

अनमोल हैं ये घड़ी-पल, दिवाली आई है।

बंधु, चल घर चल, दिवाली आई है।


अमावस की रात में आशा के दीप जलाए,

तेरे अपने जोह रहे बाट तेरी टिकटिकी लगाए,

मन में एक धुन लगाए, तू अब आए, अब आए,

प्रेम की राह निकल, सबने नज़र टिकाई है,

बंधु, चल घर चल, दिवाली आई है।


बूढ़े माँ-बाप बैठे, गिन रहे एक-एक पल,

तेरे इंतज़ार में कब से दोनों हो रहे बेकल,

तेरी राह में दोनों ने, पलकों की दरी बिछाई है,

खो रहे धैर्य का बल, आँखें भी भर आई हैं,

बंधु, चल घर चल, दिवाली आई है।


आँगन में, बीह में, घर में, माँ ने बुहार लगाई है,

माँ ने पकवान बनाए, पिता ने मिठाई लाई है,

बेटे-बहू-पोते की एक झलक को तरस रहे दोनों, 

देख, शाम रही है ढल, घोर कालिमा छाई है,

बंधु, चल घर चल, दिवाली आई है।


शहर की चकाचौंध में, तूने गाँव की डगर बिसराई है,

देख वहाँ माँ ने माटी के दीयों की लड़ी सजाई है,

प्रात: से ही पिता ने राम-राम की रट लगाई है,

शरीकों के भी दीये जल गए, तूने क्यों देर लगाई है?

बंधु, चल घर चल, दिवाली आई है।


2. एक दिवाली दिल में...

दिवाली आई है

हमने घर आँगन की

करी सफ़ाई है,

घर की अटारी पर

सब ओर हमने

दीपमाला सजाई है।


रोशनी के इस त्यौहार पर

स्वयं से विचार कर

मैंने कुछ पल एकाकी होकर

अपने अन्तस् में जोत जलाई है

अपने दिल में दिवाली जगाई है।


दीया है, बाती है,

घी-तेल हैं, दियासलाई है,

मिल जाए प्रेम की अनल

कितनी आस लगाई है!

1 comment:

  1. Anonymous06 October

    मर्मस्पर्शी कविता। चल घर चल, दीवाली आई है। बधाई । सुदर्शन रत्नाकर

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