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Jul 7, 2024

उदंती.com, जुलाई - 2024

वर्ष- 16, अंक -12

 सफल होने के लिए आपको अकेले चलना होगा। लोग तो तब आपके साथ आते हैं जब आप सफल हो जाते हैं। - सुभाषचंद्र बोस 

अनकहीः  प्रश्न संसद की गरिमा और प्रतिष्ठा का  - डॉ. रत्ना वर्मा

 शिक्षाः पाठ्य पुस्तकों में आर्यों का बदलने लगा इतिहास - प्रमोद भार्गव

 आलेखः राम कथा – अनन्ता -  यशवंत कोठारी

 धरोहरः प्राचीन शहर हम्पी - अपर्णा विश्वनाथ

चिंतनः वह एक पल और ज़िन्दगी... -  प्रियंका गुप्ता

 खानपानः आम फलों का राजा क्यों है? - डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

 जल- प्रबंधनः परंपरागत जल- संरक्षण की बढ़ती उपयोगिता - भारत डोगरा

प्रेरकः प्रयास की दिशा - निशांत

आलेखः सामाजिक चेतना को उन्नत करता है पर्यटन - मीनाक्षी शर्मा ‘मनस्वी’

कविताः कुछ पल - सुरभि डागर 

व्यंग्यः आम आदमी - रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु ’

कहानीः मेरा क्या कसूर है पापा - स्नेह गोस्वामी

 लघुकथाः राँग नंबर -  राजेश पाठक

 कविताः आखिर... प्रेम ही क्यों? - अर्चना राय

 रपटः व्यंग्य, परसाई और जबलपुर - विनोद साव

 किताबेंः समाज को आईना दिखाने का सशक्त प्रयास - भारती पाठक

 लघुकथाः पहचान - पद्मजा शर्मा

जीवन दर्शनः 3 इंडियट्स - विजय जोशी 

अनकहीः प्रश्न संसद की गरिमा और प्रतिष्ठा का

 - डॉ.  रत्ना वर्मा
देश अभी अभी लोकसभा चुनाव के दौर से गुजरा है। चुनाव के दौरान विभिन्न पार्टियों ने अपने लोक-लुभावन वादों के बल पर जनता से वोट माँगे और सौ बार बोले गए उनके सच्चे - झूठे वायदों से भरे भाषणों और घोषणापत्र को सुनते हुए देश की जनता ने अपना बहुमूल्य वोट देकर अपने प्रिय नेताओं को संसद की आसंदी पर बिठा दिया। भारत की जनता ने हमेशा की तरह संसदीय लोकतंत्र में अपना विश्वास जताया है। जनता को अपने नेताओं के वायदों पर बहुत भरोसा है, उन्हें हर बार यही उम्मीद रहती है कि वे इस बार अवश्य सांसद के रूप में देश और जनता की भलाई के लिए काम करेंगे। अपना वोट उन्हें सौंपकर वे इसी खुशफहमी में फिर पाँच साल गुजार देते हैं। 
लोकतंत्र का मंदिर कहे जाने वाले संसद में पहुँचकर, जननेता बहुत ही श्रद्धा और आदर के साथ शपथ ग्रहण करते हैं-  जिसमें संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा रखने की बात होती है, अपने कर्तव्यों का श्रद्धापूर्वक और कर्तव्यनिष्ठा से निर्वहन करने की तथा संविधान और विधि के अनुसार सभी प्रकार के लोगों के साथ भय या पक्षपात, अनुराग या द्वेष के बिना अच्छा व्यवहार करने की प्रतिज्ञा होती है। लेकिन प्रतिज्ञा लेने के तुरंत बाद जिस प्रकार का परिवर्तन हमारे जन - नेताओं के व्यवहार में परिलक्षित होता है, उसे देखकर सोचने पर विवश होना पड़ता है कि हमने देश का प्रतिनिधि चुनकर भेजा है या व्यक्तिगत राग-द्वेष से भरे उस व्यक्ति को चुन लिया है, जो सिर्फ अपने फायदे के लिए पद का उपयोग कर रहा है। 
 वर्तमान राजनीति का यह परिदृश्य, हमें सोचने पर मजबूर कर देता है कि क्या यही है लोकतंत्र का सच्चा स्वरूप है? संसद की में जिस प्रकार के भाषण सुनने को मिल रहे हैं,  पक्ष- प्रतिपक्ष  जिस प्रकार की भाषा में अपनी बात रख रहे हैं, वह सब चिंतनीय है। अब मामला इतना गंभीर होते जा रहा है कि संसद में छीना- छपटी और हाथापाई वाले दृश्य भी नजर आने लगे हैं। ऐसा लगता है मानों एक- दूसरे को नीचा दिखाने की प्रतियोगिता हो रही हो।  संसद की कानून- व्यवस्था को ताक पर रख कर सम्माननीय जनप्रतिनिधि धर्म, जाति, भाषा और क्षेत्रीयता का परचम लहराते और नारेबाजी करते नजर आते हैं । 
ऐसा व्यवहार करके हमारे सम्माननीय प्रतिनिधि क्या साबित करना चाहते हैं, ऐसे शब्दों का इस्तेमाल ही क्यों करना, जिसे बाद में लोकसभा/राज्यसभा अध्यक्ष को विलोपित करने जैसा कदम उठाना पड़ता है। इतने अभद्र और गलत शब्दों का उपयोग कि उसे हम अपने संसदीय इतिहास की फाइलों में सँजो नहीं सकते। परंतु आजकल हमारी मीडिया उन शब्दों को विलोपित भी कहाँ होने देती है। बार- बार उस क्लिपिंग को दिखाकर इतना प्रचारित करती है कि अमर्यादित व्यवहार करने वाले उसपर खुशी जाहिर करते हैं कि हमें  तो जो बोलना था, बोल दिया और जनता तक बात पहुँच भी गई। 
“संसद की गरिमा को लेकर 2014 की वह बात याद आ रही है जब प्रणब मुखर्जी हमारे राष्ट्रपति थे - तब तीन उत्कृष्ठ सांसदों को पुरस्कृत किए जाने वाले समारोह में उन्होंने कहा था कि ईश्वर के लिए दोनों सदनों के सदस्य, सदन की गरिमा और प्रतिष्ठा को बनाए रखें, जो हमें विरासत में मिली है, हमें इसे और आगे ले जाना है। यह (संसद) आजादी का प्रतीक है। इसे बनाए रखना हम सदस्यों की जिम्मेदारी है। तब राष्ट्रपति ने नरेन्द्र मोदी का बगैर नाम लिए कहा कि उन्हें यह देखकर अच्छा लगा कि लोकसभा चुनाव में पूर्ण बहुमत हासिल करने वाली पार्टी के नेता ने संसद में प्रवेश करने से पहले उसके द्वार पर झुककर नमन किया, यह संसद की पवित्रता और  गरिमा का सम्मान करने का प्रतीक है।”
परंतु संसद की गरिमा बनाए रखने की बात अब बीते जमाने की बात हो गई है।  और अब जो कुछ हो रहा है, वह सब लोकतांत्रिक देश के लिए शर्मसार करने वाली बातें हैं। अब तो ऐसा लगने लगा है कि संसद की गरिमा और सम्मान को बचाए रखने के लिए सख्त नियम और कानून बनाने होंगे, ताकि ऐसा करने वालों पर अनुशासनात्मक कार्यवाही की जा सके। जैसा कि सभी जानते हैं संसद की कार्यवाही के दौरान प्रति मिनट लाखों करोड़ों रुपये खर्च होते हैं। आखिर वह पैसा भी तो जनता की गाढ़ी कमाई का ही हिस्सा होता है।  एक समय यह भी आवाज उठी थी कि जनप्रतिनिधि यदि जनता के उम्मीदों पर खरा नहीं उतरेगा, तो उनका चुनाव रद्द करवाने का अधिकार जनता को मिलना चाहिए। पर इस विषय को उठाकर कोई भी जननेता अपने पैरों पर कुल्हाड़ी नहीं मारना चाहता। 
प्रश्न अब भी यही है कि जनता जननेताओं लोकलुभावन झूठे वायदों पर भरोसा करके कब तक ठगी जाती रहेगी, देश की तरक्की की उपेक्षा करके वे छल- कपट और  भ्रष्टाचार में लिप्त रहते हुए देश को लूटकर, लोकहित और लोकतंत्र की बातें करना आज के जन नेताओं का प्रमुख काम रह गया है। ऐसे में हम एक ईमानदार और स्वच्छ प्रशासन की उम्मीद कर भी कैसे सकते हैं। लेकिन नाउम्मीद होकर, हाथ पर हाथ रखकर बैठे रहना भी तो कायरता है; अतः इन सबका विरोध करते हुए बदलाव की पहल तो करनी ही होगी। पक्ष और विपक्ष में वैचारिक मतभेद तो होते ही हैं, वाद- विवाद भी होते हैं;  परंतु चुने हुए जनप्रतिनिधियों को भेड़चाल में न चलते हुए देशहित  को ध्यान में रखते हुए, लोक कल्याण की भावना को प्रमुखता देते हुए,  मर्यादित आचरण के साथ सकारात्मक और गंभीर रुख अपनाते हुए एक स्वस्थ वातावरण तैयार करना होगा, तभी संसद की गरिमा कायम रह पाएगी और लोक का तंत्र भी उनके प्रति आदर और सम्मान की भावना रख पाएगा।

शिक्षाः पाठ्य पुस्तकों में आर्यों का बदलने लगा इतिहास

  - प्रमोद भार्गव

    राष्ट्रीय शैक्षिक एवं अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) की पुस्तकों में पढ़ाए जाने वाले भारत के इतिहास में आर्य अब आक्रमणकारी नहीं, बल्कि भारतीय मूल के रूप में दर्शाए गए हैं। 21 वर्ष की खींचतान और दुनिया भर में हुए अध्ययनों के बाद आखिरकार यह तय हो गया कि “आर्य सभ्यता” भारतीय ही थी। राखीगढ़ी के उत्खनन से निकले इस सच को देश के पाठ्यक्रमों में शामिल करने का श्रेय ‘राखीगढ़ी मैन’ के नाम से प्रसिद्ध हुए प्राध्यापक वसंत शिंदे को जाता है। एनसीईआरटी की कक्षा 12वीं की किताबों में बदलाव किया गया है। इसमें इतिहास की पाठ्य पुस्तक में ‘ईंट, मोती और हड्डियाँ - हड़प्पा सभ्यता’ नामक पाठ में आर्यों को मूल भारतीय होना बताया है। इसके अलावा कक्षा 7, 8, 10 और 11 के इतिहास और समाजशास्त्र के पाठ्यक्रमों में भी बदलाव किया गया है। 

इतिहास तथ्य और घटना के सत्य पर आधारित होता है; इसलिए इसकी साहित्य की तरह व्याख्या संभव, नहीं है। विचारधारा के चश्में से इतिहास को देखना उसके मूल से खिलवाड़ है; परंतु अब आर्यों के भारतीय होने के संबंधी एक के बाद एक शोध आने के बाद इतिहास बदला जाने लगा है। इस सिलसिले में पहला शोध स्टेनफोर्ड विश्वविद्यालय के टॉमस कीवीशील्ड ने किया था। 2003 में ‘अमेरिकन जर्नल ऑफ ह्यूमन जेनेटिक्स’ में प्रकाशित इस शोध-पत्र में सबसे पुरानी जाति और जनजाति के वंशाणु (जीन) के आधार पर आर्यों को भारत का मूल निवासी बताया गया था। हालाँकि वर्ष 2009 में वाराणसी हिंदू विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रो. लालजी सिंह और प्रो. थंगराज ने भी आनुवांशिक परीक्षण के बाद आर्यों को मूल भारतीय बताया था। 2019 में प्रो. वसंत शिंदे द्वारा राखीगढ़ी उत्खनन से मिले 4000 साल पुराने वंशाणु की जांच में सबसे बड़ा सच सामने आया। शोध में पाया गया कि राखीगढ़ी से मिला जीन वर्तमान के प्रत्येक भारतीय व्यक्ति में उपलब्ध है। इसके आधार पर यह तथ्य स्थापित हुआ कि भारतीय सभ्यता और संस्कृति आर्यों के द्वारा निर्मित है। एनसीआरईटी के इतिहास पाठ्यक्रम निर्धारण समिति के अध्यक्ष बनने पर प्रो. शिंदे ने इस तथ्य के आधार पर पाठ्यक्रम में संशोधन कराए हैं। इसी पुस्तक में मराठा शासक छत्रपति शिवाजी के नाम के साथ छत्रपति और महाराज जोड़ा गया है। इसी तरह कक्षा 12वीं के समाजशास्त्र विषय के पाठ्यक्रम से सांप्रदायिक दंगों के चित्र हटाए गए है। इतिहास पुस्तकों में यह बदलाव सिनौली- राखीगढ़ी में हुए उत्खननों में मिले साक्ष्यों के आधार पर संभव हुआ है।

गोया, अब यह अवधारणा पलट गई है कि आर्य न तो विदेशी थे और न ही उन्होंने कभी भारत पर आक्रमण किया। अतएव आर्य भारत के मूल निवासी थे। हरियाणा के हिसार जिले के राखीगढ़ी में की गई पुरातत्त्वीय खुदाई में 5000 साल पुराने मिले दो मानव कंकालों के डीएनए अध्ययन के निष्कर्ष से यह धारणा सामने आई है। इन कंकालों में एक पुरुष और एक स्त्री का था। इनके कई नमूने लेकर उनका आनुवंशिक अध्ययन पुरातत्व एवं संग्रहालय विभाग, भारत सरकार, डेक्कन विश्व-विद्यालय पुणे, सीसीएमबी हैदराबाद और हार्वड स्कूल ऑफ मेडिसन बोस्टन यूएसए ने किया है। इस डीएनए विश्लेषण में यह भी स्पष्ट हो गया है कि आर्य और द्रविड़ मूल भारतीय हैं। राखीगढ़ी हड़प्पा सभ्यता के सबसे बड़े केंद्रों में से एक है। करीब 300 एकड़ में फैले इस क्षेत्र में पुरातत्वविदों ने 2015 में उत्खनन किया था।

    आर्य हमलावर के रूप में विदेश से आए होते और नरसंहार किया होता, तो मानव कंकालों के शरीर पर घावों के निशान होते। भारतीय संस्कृति और भाषाएँ नष्ट हो गई होतीं। ऐसा होता, तो आक्रमण की बात सिद्ध होती। व्यापार व पर्यटन आदि के लिए भारत में विदेशी समय-समय पर आते रहे हैं और भारतीय भी विदेश जाते रहे हैं। इन कारणों से जीन में मिलावट होती रही हैं। साफ है, आर्य भारत के ही थे। प्रोफेसर शिंदे ने  राखीगढ़ी के उत्खनन के समय बताया था कि अलग-अलग खुदाई में 106 से भी ज्यादा नर-कंकाल मिले हैं। साथ ही भिन्न आकार व आकृति के हवन-कुंड और कोयले के अवशेष मिले हैं। तय है भारत में 5000 साल पहले हवन होते थे। यहीं सरस्वती और इसकी सहायक दृश्यवंती नदी के किनारे हड़प्पा सभ्यता के निशान मिले हैं। ये लोग सरस्वती की पूजा करते थे।

ये आनुवंशिक अनुसंधान ऐतिहासिक- अवधारणाओं को बदलने के आधार बने हैं। ‘आर्यों’ के ऊपर ‘आनुवंशिकी’ आनुवंशिक के आधार पर इसके पहले भी एक शोध सामने आया है। उससे तय हुआ है कि भारतीयों की कोशिकाओं का जो आनुवंशिकी ढ़ाँचा है, वह बहुत पुराना है। डीएनए के आधार पर एक महत्वपूर्ण खोज से साबित हुआ है कि भारत के बहुसंख्यक लोगों के दक्षिण भारतीय दो आदिवासी समुदाय पूर्वज हैं। मानव इतिहास के विकास क्रम में ये स्थितियाँ जैविक प्रक्रिया के रुप में सामने आई हैं। एक अन्य सूचना प्रौद्योगिकी तकनीक द्वार किए गए अध्ययन ने तय किया है कि भगवान श्रीकृष्ण हिन्दू मिथक और पौराणिक कथाओं के काल्पनिक पात्र न होकर एक वास्तविक चरित्र नायक थे और कुरुक्षेत्र के मैदान में हकीकत में महाभारत युद्ध लड़ा गया था।

      आनुवांशिक संरचना के आधार पर हैदराबाद की संस्था ‘सेंटर फॉर सेल्युलर एंड मॉलिक्यूलर बायोलॉजी’ के वैज्ञानिकों द्वारा किए गए इस शोध से जो निष्कर्ष सामने आए थे, उनसे स्पष्ट हुआ था कि मूल भारतीय ही ‘आर्य‘ थे। इस शोध का आधार भारतीयों की कोशिकाओं का आनुवंशिक ढाँचा है, जिसका सिलसिलेवार अध्ययन किया गया। जिससे तय हुआ कि भारतीयों की कोशिकाओं का संरचनात्मक ढाँचा पाँच हजार साल से भी ज्यादा पुराना है। इस आधार पर यह कहानी एकदम निराधार साबित हो जाती है कि भारत के लोग 3.5 हजार साल पहले किसी दूसरे देश से आक्रमणकारियों के रूप में यहाँ आए थे। यदि आए होते तो हमारा आनुवंशिक ढाँचा भी  3.5 हजार साल से ज्यादा पुराना नहीं होता। क्योंकि जब वातावरण बदलता है , तो आनुवंशिक ढाँचा भी बदल जाता है। इस तथ्य को इस मिसाल से समझा जा सकता है, मसलन हमारे बीच से कोई व्यक्ति आज अमेरिका या ब्रिटेन जाकर रहने लग जाए , तो उसकी जो चौथी-पाँचवीं पीढ़ी होगी, उसकी सवा-डेढ़ सौ साल बाद आनुवंशिक  संरचना अमेरिका या ब्रिटेन निवासियों जैसी होने लग जाएगी ; क्योंकि इन देशों के वातावरण का असर उसकी आनुवंशिक संरचना पर पड़ेगा।

       भारतीय संस्कृति के निर्माता  और वेदों के रचयिता आर्य भारत के मूल निवासी थे। यदि प्राचीन भारतीय इतिहास को भारतीय दृष्टि से देखें, तो आर्य भारत के ही मूल निवासी थे। पाश्चात्य इतिहास लेखकों ने पौने दो सौ साल पहले जब प्राच्य विषयों और प्राच्य विद्याओं का अध्ययन शुरू किया, तो बड़ी कुटिल चतुराई से जर्मन विद्वान व इतिहासविद् मैक्समूलर ने पहली बार ‘आर्य’ शब्द को जाति सूचक शब्द से जोड़ दिया। वेदों का संस्कृत से जर्मनी में अनुवाद भी पहली बार मैक्समूलर ने ही किया था। ऐसा इसलिए किया गया, जिससे आर्यों को अभारतीय घोषित किया जा सके। जबकि वैदिक युग में ‘आर्य’ और ‘दस्यु’ शब्द पूरे मानवीय चरित्र को दो भागों में बाँटते थे। प्राचीन साहित्य में भारतीय नारी अपने पति को ‘आर्य-पुरुष’ अथवा ‘आर्य-पुत्र’ नाम से संबोधित करती थी। इससे यह साबित होता है कि आर्य श्रेष्ठ पुरुषों का संकेत-सूचक शब्द था। ऋग्वेद, रामायण, महाभारत, पुराण व अन्य संस्कृत ग्रंथों में कहीं भी आर्य शब्द का प्रयोग जातिसूचक शब्द के रुप में नहीं हुआ है। आर्य का अर्थ ‘श्रेष्ठि’ अथवा ‘श्रेष्ठ’ भी है। वैदिक युग में तो वैसे भी जाति व्यवस्था थी ही नहीं। हाँ, वर्ण- व्यवस्था जरूर अस्तित्व में आ गई थी। इसके अलावा वेद तथा अन्य संस्कृत साहित्य में कहीं भी उल्लेख नहीं है कि आर्य भारत में बाहर से आए। यदि आर्य भारत में बाहर से आए होते, तो प्राचीन विपुल संस्कृत साहित्य में अवश्य इस घटना का उल्लेख व स्पष्टीकरण होता।

       ताजा शोध का सार है कि सबसे पहले 65 हजार साल पहले अंडमान और दक्षिण भारत में लोगों का आगमन और आबादी का क्रम शुरू हुआ। इसके करीब 25 हजार साल बाद भारत में लोगों के आने का सिलसिला शुरू हुआ। इस अध्ययन दल के निदेशक डॉ. लालजी सिंह का कहना था कि हम सब भारतीय उत्तर और दक्षिण के इन आदि पुरखों की ही संताने हैं। सवर्ण-अवर्ण जातियों और आदिवासियों के आनुवंशिक गुण व लक्षण कमोबेश एक जैसे हैं। इसलिए आर्य और द्रविड़, अनार्य के परिप्रेक्ष्य में कोई विभाजित रेखा खींचने की जरूरत नहीं रह जाती ? इस अध्ययन से सामने आया है कि जब भारतीय समाज में निर्माण की प्रक्रिया शुरू हुई तब अलग-अलग कबीलों या समूहों से जातियों का उदय हुआ। फलस्वरूप अखण्ड भारत का उत्तर और दक्षिण भारत में विभाजन तो व्यर्थ है ही कबीले और जातियाँ भी बेमानी हैं;  क्योंकि सभी भारतीय समुदाय व जातियाँ एक ही कुटुम्ब से विकसित हुए हैं।

    ये शोध भाषा, रंग और नस्ल जैसे भेद भरे विभाजक छद्म को भी नामंजूर करते हैं। दरअसल उत्तर और दक्षिण के विभाजन की बात तो अंग्रेज हुक्मरानों ने बाँटों और राज करो के दृष्टिकोण के चलते की थी। उन्नीसवीं शताब्दी में योरोपीय विचारकों ने अपने वंशों के लोगों को श्रेष्ठ प्रमाणित करने के नजरिए से रंग व नस्ल के आधार पर श्रेष्ठता की अवधारणा गढ़ी। मसलन गोरा रंग श्रेष्ठ माना गया। इसी के अनुसार गोरे, गेहुँए और ताँबई त्वचा वाले उत्तर भारतीय श्रेष्ठ और काले या साँवले रंग वाले दक्षिण भारतीय हेय मान लिए गए। उत्तर की भाषा संस्कृत और दक्षिण की भाषाओं को भिन्न परिवारों में रखा गया ; जबकि इन सभी भाषाओं की जननी संस्कृत रही है। गंगा घाटी से आयरलैंड तक की भाषाएँ एक ही आर्य परिवार की आर्य भाषाएँ हैं। इसी कारण इन भाषाओं में लिपि एवं उच्चारण की भिन्नता होने के बावजूद अपभ्रंशी समरूपता है और इन भाषाओं का उद्गम स्त्रोत संस्कृत है। इससे भी यह निश्चित होता है कि आदिकाल में एक ही परिवार की आर्य भाषाएँ बोलने व लिखने वाले पूर्वज कहीं एक ही स्थान पर रहे हैं। बंगाली इतिहासकार ए.सी. दास इस स्थान अथवा मूल भारतीयों का निवास स्थल ‘सप्त सिंधु’ मानते हैं , जो पंजाब में था। अब आर्यों के मूल भारतीय होने की अवधारणा को मान्यता मिल रही हैं। तब इतिहास के इस तथ्य के बदलाव को केवल शालेय पुस्तकों में परिवर्तन तक सीमित न रखते हुए उच्च शिक्षा में भी बदलाव किए जाने जरूरी हैं। अतएव नए शोधों से आए परिणाम की इस सैद्धांतिकी को स्वीकारा जाना चाहिए।

सम्पर्कः शब्दार्थ 49,श्रीराम कॉलोनी, शिवपुरी (म.प्र.), मो. 09425488224, 09981061100

आलेखः राम कथा - अनन्ता

  -  यशवंत कोठारी

राम के चरित्र ने हजारों वर्षों से लेखकों, कवियों, कलाकारों, बुद्धिजीवियों को आकर्षित किया है, शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र हो जिसमें राम के चरित्र या रामायण की चर्चा न होती हो। राम कथा स्वयं में सम्पूर्ण काव्य है, संपूर्ण कथा है और संपूर्ण नाटक हैं। इस संपूर्णता के कारण ही राम कथा को हरिकथा की तरह ही अनन्ता माना गया है। फादर कामिल बुल्के ने सुदूर देश से आकर राम कथा का गंभीर अध्ययन, अनुशीलन किया और परिणामस्वरूप राम कथा जैसा वृहद ग्रन्थ आकारित हुआ। रामकथा के संपूर्ण परिप्रेक्ष्य को यदि देखा जाए तो ऐसा ग्रन्थ अन्य किसी भाषा में उपलब्ध नहीं हुआ है।

वैदिक साहित्य में रामकथा के पात्रों का वर्णन मिलता है। शायद राम कथा का प्रवचन उन दिनों थोड़ा बहुत रहा होगा। दशरथ, राम आदि के नामों का उल्लेख भी पाया गया है। सीता को कृषि की देवी के रूप में निरूपित किया गया है तथा एक अन्य सीता को सूर्य की पुत्री के रूप में दर्शाया गया है। सीता शब्द भी अनेक बार आया है। वैदिक साहित्य में रामायण से संबंधित पात्रों के नाम अलग-अलग ढंग से विविध रूपों में आते है, मगर ये आपस में संबंधित नहीं है। राम कथा की कथा वस्तु भी कहीं दृष्टिगोचर नहीं होती है। वाल्मीकि कृत रामायण को सर्व प्रथम तथा प्रामाणिक ग्रन्थ माना जा सकता है। महाभारत में भी राम कथा का वर्णन है। अरण्य पर्व, द्रोणपर्व आदि में रामथा का वर्णन है। बौद्ध साहित्य में भी रामकथा का विस्तृत वर्णन है। वास्तव में दशरथ जातक नामक ग्रन्थ को रामकथा का आधार ग्रन्थ माना जाता है। हजारों विद्वानों ने रामकथा को मूल रूप में व्याख्यायित किया गया है।

आदि कवि वाल्मीकि के जन्म से काफी पहले ही राम कथा का आख्यान प्रचलन में आ चुका था। वाल्मीकि ने इस कथा को आधार बनाकर रामकथा रामायण के रूप में पहली बार विस्तार से तथा समसामयिकता के आधार पर प्रस्तुत किया। रामकथा में मूल स्रोत के लिए, पाश्चत्य विद्वान ए वैबर ने दशरथ जातक को आधार माना है। दूसरा आधार होमर का माना गया है, मगर होमर की मूल कथा रामायण की कथा से काफी अलग है, अतः राम कथा का मूलाधार दो तीन स्वतंत्र आख्यान ही है, जिन्हें बाद में वाल्मीकि ने कथा सूत्र में पिरोकर रामायण के रूप में प्रस्तुत किया।

डॉ. याकोबी ने राम कथा का आधार दो भागों में विभाजित किया है, जिन्हें ऐतिहासिक माना गया है, जबकि दूसरे भाग में जो कथा है, उसका मूल स्रोत वैदिक साहित्य में वर्णित देवताओं की कथाओं को माना है। रामकथा की ऐतिहासिकता को लेकर विद्वानों में मतभेद है। एक तरफ नितान्त कल्पना को सहारा माना गया है तो दूसरी तरफ इसे ऐतिहासिक कथानक मानने वाले लोग हैं।

रामकथा का प्रारंभिक विकास कैसे हुआ होगा? वे कौन से कारक थे, जिन्होनें मिलकर राम कथा का निर्माण किया होगा। वास्तव में रामकथा प्रारंभ से ही हमारी संस्कृति में फैली हुई है। रामकथा तीनों धर्मों यथा ब्राह्मण, बौद्ध तथा जैन में रूपायित की गई। अन्य साहित्य, संस्कृति तथा कला में भी राम कथा प्रभावशाली ढंग से निरूपित की गई।

संस्कृत साहित्य में भी रामकथा का विस्तार से उपयोग किया गया। वाल्मीकि के बाद भी कई कवियों, लेखकों ने रामकथा को आधार बनाया। धार्मिक, साहित्य एवं ललित साहित्य दोनों में ही राम कथा को विकसित किया गया।

अन्य भारतीय भाषाओं में भी रामकथा को पर्याप्त स्थान दिया गया है। कम्बन कृत रामायण, रंगनाथ कृत द्विपद रामायण, तिक्कन कृत निर्वचनोतर रामायण, मोल्ल रामायण, रघुनाथ रामायण, रामचरितम, आनन्द रामायण, अध्यात्म रामायण, आदि प्रमुख रामकथा ग्रन्थ है।

सिंहली भाषा, कश्मीरी भाषा, असमिया आदि में भी राम कथा का वर्णन है। कृतिवास कृत रामायण बंगाली का प्रमुख रामकथा ग्रन्थ है। हिन्दी व अवधी का प्रसिद्ध रामकथा ग्रन्थ  रामचरित मानस है, जिसके अन्य सभी ग्रन्थ फीके हैं।

रामकथा पर आधारित नरेन्द्र कोहली की उपन्यास शृंखला भी पठनीय है। 

मराठी भाषा में भावार्थ रामायण है जो एकनाथ द्वारा लिखी गयी है। उर्दू फारसी में भी रामकथाएँ लिखी गयी हैं। अलबदायूनी ने रामायण का फारसी में अनुवाद किया है। रामायण मसीही भी जहाँगीर काल में लिखी गई थी ।

तिब्बत रामायण, खोतानी रामायण, हिन्देशिया रामायण, मलयन अर्वाचीन रामकथा, जापान की रामकथा आदि भी उपलब्ध हैं।

रामकथा में कुछ है ऐसा, जो सबको आकर्षित करता है। राजनीति, धर्म, आधुनिकता, देशी-विदेशी सब रामकथा से प्रभावित होते है। दुःख सुख में, जीवन की सांध्य बेला में, असफलता निराशा, हताशा के क्षणों में आज भी हजारों- हजार लोगों का एक मात्र अवलम्बन रामकथा ही है, जो वाल्मीकि कृत रामायण नहीं पढ़ समझ सकते, वे तुलसीकृत या अपनी भाषा की रामकथा पढ़ते हैं, समझते हैं और अपने दुख दर्द को कम करते हैं। राम ही नहीं, रामायण के अन्य पात्र भी चरित्र- चित्रण की दृष्टि से श्रेष्ठ हैं और जब भी वे पढ़े जाते हैं, तो लगता है कि संपूर्ण घटनाक्रम व्यक्ति के जीवन से ही संबंधित है। इसी कारण व्यक्ति को धार्मिकता के अलावा मनोवैज्ञानिक ढंग से भी रामकथा प्रभावित करती है। धर्म, राजनीति के अलावा रामकथा एक अत्यंत श्रेष्ठ आख्यान है और आने वाले हजारों वर्ष तक यह एक श्रेष्ठ आख्यान रहेगा तथा लेखकों  को अपनी ओर आकर्षित करता रहेगा।

धरोहरः प्राचीन शहर हम्पी

  - अपर्णा विश्वनाथ 

अतिशयोक्ति नहीं होगी अगर भारत को ऐतिहासिक धरोहरों का कुंभ कहा जाए।

अतुल्य भारत के गौरवशाली इतिहास की आश्चर्यचकित कर देने वाली गाथाएँ भारत के कण- कण में रची बसी है। हरी भरी प्रकृति, इसकी विस्तृत बाहें, कलकल बहती नदियाँ और झरझर बहते झरने मानो भारत के सोने की चिड़ियाँ होने की दास्ताँ सुनाते हैं।

ऐसी ही एक समृद्धशाली इतिहास विशाल और विस्तृत हम्पी की भी है। जो आज के कर्नाटक राज्य में स्थित है।

इसके गौरवशाली और समृद्धशाली इतिहास की गाथा सदियों से अडिग यहाँ की पाँच-दस मंजिला जितनी ऊँची-ऊँची गोल चट्टानों के टीलें सुनाते हैं कि कभी तुंगभद्रा नदी के तट पर बसी हम्पी मध्यकालीन हिन्दू राज्य विजयनगर साम्राज्य की राजधानी हुआ करती थी। 

वर्तमान में यह आंध्र प्रदेश राज्य की सीमा से समीप मध्य कर्नाटक के पूर्वी हिस्से में बसा है।

हम्पी तुंगभद्रा नदी के तट पर स्थित पत्थरों और असाधारण प्रकृति से से घिरा एक पवित्र शहर है। यहाँ लगभग पाँच सौ से अधिक मंदिरों की ख़ूबसूरत शृंखलाएँ है। इसलिए इसे मंदिरों का शहर भी कहा जाता है।

अपने समृद्ध धरोहरों एवं असंख्य आकर्षणों के चलते यह देश दुनिया के प्रसिद्ध पर्यटक स्थलों में से एक है।

कभी किष्किन्धा कहलाने वाले कर्नाटक के बारे में जानते हैं और अपनी जानकारी में थोड़ा सा इज़ाफ़ा करते हैं।

कहते हैं ना, हमारे भारत का समृद्ध इतिहास हमारे शेष बचे मंदिरों में दिखाई देते हैं।

हम्पी विजयनगर हिन्दुओं के सबसे विशाल साम्राज्यों में से एक था। सन्1336 ई. में इस साम्राज्य की स्थापना हरिहर और बुक्का नामक दो भाइयों ने की थी। 1509 से 1529 के बीच कृष्णदेव राय ने यहाँ शासन किया। विजयनगर साम्राज्य के अन्तर्गत कर्नाटक, महाराष्ट्र और आन्ध्र प्रदेश के राज्य आते थे। कृष्णदेव राय एक महान राजा थे। इनके बल बुद्धि और शासनकाल के अनेक प्रचलित किस्से हैं।

कृष्णदेव राय के दरबार में सलाहकार के रूप में पंडित चतुर तेनालीरामा को कौन नहीं जानता। नंदन और चंदामामा जैसे बाल पत्रिका बच्चों में खासा प्रचलित हुआ करती थी; क्योंकि उसमें नियमित रूप से तेनालीराम के मशहूर और पेट को गुदगुदाने वाले किस्से छपते थे। इन किस्से कहानियाँ के जरिए राजा कृष्णदेव राय के बारे में भी बच्चे जान लिया करते थे।

राज कृष्णदेव राय ने अपने शासनकाल में राज्य का काफी विस्तार किया और अधिकतर स्मारकों का निर्माण भी करवाया।

 वैसे हम्पी की सभी मंदिर अद्वितीय है लेकिन हम्पी के कुछ मन्दिर अद्भुत हैं- 

★विठ्ठल मन्दिर

निःसंदेह आश्चर्यचकित कर देनी वाली स्मारकों में से एक है। विठ्ठल मंदिर द्रविड़ वास्तुकला का अद्भुत नमूना है।

इसमें मुख्य आकर्षण इसकी 56 खम्भों वाला रंगमंडप है। इन्हें संगीतमय खंभे के नाम से जाना जाता है। क्योंकि इन खंभों को थपथपाने पर इनमें से संगीत की लहरियाँ निकलती है। 

★हम्पी रथ

दूसरे हॉल के पूर्वी हिस्से में अद्भुत और प्रसिद्ध शिला-रथ जिसे हम्पी रथ भी कहते हैं है। पत्थर का बना रथनुमा मन्दिर भगवान विष्णु के वाहन गरुड़ को समर्पित है। यह द्रविड़ वास्तुकला का अद्भुत नमूना है। ग्रेनाइट पत्थर को तराशकर इसमें मंदिर बनाया गया। यह एक रथ के आकार में है। कहा जाता है कि इसके पहिये घूमते भी थे और वास्तव में रथ पत्थर के पहियों से चलता था। आश्चर्यचकित करने वाला तथ्य यह भी कि शिला रथ का हर हिस्सा खुल जाता था। 

लेकिन अब रथ को बचाने के लिए इसपर सीमेंट का लेप लगा दिया गया है। अब यह अपनी जगह स्थिर है। ना जाने हम्पी ऐसे और कितने रहस्यमय, विस्मयकारी स्मारकों से पटा पड़ा है।

1986 में यूनेस्को ने इस प्राचीन शहर को विश्व विरासत स्थल घोषित कर संरक्षण में ले लिया है। 

★हम्पी वृक्ष

 हेमकूट मन्दिर परिसर में इस वयोवृद्ध वृक्ष को विठ्ठल वृक्ष/ रथ वृक्ष कहा जाता है। इसका नाम तेलुगु में नूर वरहालू ,हिन्दी में गुलचीन/ क्षीर चंपा, कन्नड़ा में देव कनागिले तथा अंग्रेजी नाम प्लूमेरिया है। इस पेड़ की उम्र 158 साल बताई जाती है। इस वैभवशाली पेड़ की विशालता देखते बनती है।

★विरूपाक्ष मन्दिर

 इसका निर्माण राजा कृष्णदेव राय ने 1509 में अपने राज्याभिषेक के समय बनवाया था और हम्पी शहर के भगवान विरूपाक्ष ( विष्णु) को समर्पित किया था। इसे पंपापटी मंदिर भी कहा जाता है। 

चिंतनः वह एक पल और ज़िन्दगी...

  -  प्रियंका गुप्ता 

आजकल आए दिन अख़बारों, न्यूज़ चैनल्स पर हम कहीं-न-कहीं किसी आत्महत्या की ख़बर पढ़ते-देखते रहते हैं। कभी सूखे या बाढ़ जैसी किसी प्राकृतिक आपदा के चलते कर्ज़े में डूबा किसान अकेला या अपने पूरे परिवार समेत अपनी इहलीला समाप्त करने को मजबूर होता है, तो कहीं कुछ अलग तरह की पारिवरिक समस्याओं से जूझता कोई इंसान मौत को गले लगा लेता है। बोर्ड के इम्तिहान के बाद रिज़ल्ट आने तक तो कुछ वर्ष पूर्व तक जाने कितनी कच्ची उम्र के बच्चे दुनिया ठीक से देखने से पहले ही इस दुनिया को अलविदा कह जाते थे। आखिर हारकर CBSE बोर्ड समेत कई राज्यों के बोर्ड ने ग्रेडिंग प्रणाली लागू की ताकि इस तरह की मर्मान्तक घटनाओं पर कुछ हद तक काबू पाया जा सके।

ऊपर की बहुत सारी घटनाओं की वजह तो कहीं-न-कहीं आर्थिक स्थिति पर आकर रुक जाती हैं। जब इंसान को रोटी के ही लाले पड़ जाएँ, तब तो उसका हार मानना कुछ समझ भी आता है (हालाँकि एक अमूल्य इंसानी ज़िन्दगी को ख़त्म कर देने के लिए यह वजह भी किसी तरह से जायज़ नहीं ठहराई जा सकती); पर जब आर्थिक रूप से ठीक- ठाक या सम्पन्न और बहुत हद तक नामी- गिरामी शख़्सियतें अपनी मर्जी से इस बेशकीमती ज़िन्दगी से पल्ला झाड़ लेते हैं, तो मन सोचने पर मजबूर हो जाता है कि वो ऐसा कौन- सा पल होता है जिसमें इंसान यह कायरतापूर्ण, लेकिन कठिन फ़ैसला ले लेता है...?

यह तो मानी हुई बात है कि आत्महत्या का फ़ैसला लेना एक मानसिक स्थिति का परिणाम है, और इस मानसिकता का एकमात्र कारण है-डिप्रेशन यानी कि अवसाद...।

बहुत लोगों का यह मानना है कि आत्महत्या एक क्षणिक भावावेश में उठाया गया कदम है। कुछ मामलों में यह बात सही भी है, पर सभी मामलों में नहीं...। कई बार इस अंतिम फ़ैसले पर पहुँचने से पहले व्यक्ति बहुत चिन्तन- मनन करता है। खुद को इस दुनिया से विदा करने के लिए तैयार करता है। तभी ऐसे कई सारे मामलों में हम पाते हैं कि ऐसा व्यक्ति अपने अन्तिम समय में बेहद बदला हुआ महसूस होता है। कुछ दिनों पहले तक एकदम चुप सा हो चुका, कटा-कटा रहने वाला वही व्यक्ति आम दिनों से ज़्यादा खुशनुमा, मिलनसार और आत्मीय हो जाता है। ज़रूरी नहीं कि यह बदलाव सिर्फ आत्महत्या की पूर्वसूचना हो, शायद यह उसकी स्थिति में सुधार का भी संकेत हो। पर जो भी हो, ऐसे व्यक्ति के आसपास जो अपने हों, उन्हें सतर्कता की बेहद ज़रूरत है। सिर्फ बड़े ही नहीं, आज की बदलती जीवनशैली और गला-काट प्रतियोगी युग में बच्चे भी इस डिप्रेशन के शिकार हो रहे हैं, जो उनकी आधी-अधूरी समझ और संघर्ष की कम क्षमता के मद्देनज़र और भी भयानक बात है।

एक आम इंसान जब ऐसा कोई कदम उठाता है, तो सिर्फ़ उसके आसपास या उसको जानने वाले लोगों तक ही यह सीमित रह जाता है, पर जब कोई सेलिब्रिटी की हैसियत रखने वाला ऐसा करता है, तो पूरे देश, समाज और मीडिया के साथ-साथ आम जनजीवन भी उसकी परिस्थितियों के बारे में अपने अपने हिसाब से कयास लगाना शुरू कर देता है, जिसमें से सबसे ज़्यादा अहम रूप से उभर कर सामने आता है-प्रेम सम्बन्ध में मिली असफलता...। मुझसे बहुत सारे लोग ऐसे मिले हैं, जिन्होंने डिप्रेशन का दूसरा नाम ही किसी के प्यार में धोखा खाना मान लिया है। अफ़सोस की बात यह है कि अच्छा-खासा पढ़े लिखे होने के बावजूद वे डिप्रेशन को पीलिया, ब्लडप्रेशर आदि किसी अन्य बीमारी की तरह नहीं देखना चाहते, जिसका इलाज सही दवा और आवश्यक का‍उन्सलिंग और देखभाल से सम्भव है। डिप्रेशन किसी भी मामूली सी लगने वाली वजह से भी हो सकता है, मसलन एक स्कूल, कॉलेज़ या नौकरी से किसी दूसरे स्कूल, कॉलेज़ या नौकरी में जाना...जगह-परिवर्तन, किसी अपने की लम्बी बीमारी या उसकी मौत (इस अपने की मौत में बेहद प्रिय पालतू जानवर की मौत भी शमिल है), किसी सपने का पूरा न हो पाना, किसी दोस्त का साथ छूटना, किसी खास परिस्थिति से सामन्जस्य न बिठा पाना, अपनी इच्छाओं का लगातार गला घोंटते जाना...इत्यादि-इत्यादि बहुत लम्बी लिस्ट बनाई जा सकती है, जो अवसाद या डिप्रेशन की मूल वजह हो सकती है। 

डिप्रेशन भी किसी अन्य बीमारी की तरह अपने कई स्तर पर हो सकता है। शुरुआती स्तर का अवसाद सम्हालना खुद उस व्यक्ति के हाथ में हो सकता है, अगर समय रहते उसे पहचान लिया जाए। ऐसे में वह व्यक्ति खुद अपने हिसाब से अपनी जीवन शैली में परिवर्तन लाकर उससे उबर सकता है। पर अगर यही बीमारी अपने अन्तिम ‘एक्यूट स्टेज़’ तक जा पहुँची, तब इसे सम्हालने के लिए सही इलाज के साथ-साथ उस इंसान के किसी अपने का सहयोग बेहद ज़रूरी है। इसी एक्यूट स्टेज़ में पहुँचकर उस व्यक्ति के दिमाग में आत्महत्या के विचार पनपना शुरू हो जाते हैं, जो धीरे-धीरे बहुत गहरे तक अपनी पैठ बना लेते हैं। समय रहते चेत गए तो ठीक, वरना दिमाग़ में हो रहे विभिन्न रसायनिक असन्तुलन से उपजी यह बीमारी उसे मौत की नींद सुला कर ही दूर होगी।

दुःखद बात यह है कि ऐसे मामलों में उसके आसपास... उसके साथ रहने वाले लोग उसके जाने के बाद ही इस चेतावनी को समझ पाते हैं। उन्हें तब याद आता है कि आम तौर पर बेहद खुशनुमा रहने वाला वो व्यक्ति पिछले कई दिनों से गुमसुम सा...चिड़चिड़ा होकर बात-बात पर रो पड़ने वाला हो गया था। उसकी इस हरकत से इरीटेट होने वाले उसके अपने समय रहते जान ही नहीं पाते कि अपने खोल में सिमट जाने वाला वह व्यक्ति अन्दर से उन अपनों में से किसी भी एक सहारे के लिए किस कदर बेचैनी महसूस कर रहा होता है। एक तरफ़ आप उससे परेशान होकर उसका साथ छोड़ते हैं, दूसरी तरह वह आपको उस परेशानी से मुक्त करने के लिए हमेशा के लिए आपका साथ छोड़ कर चल देता है। यहाँ समझने वाली बात यह है कि एक्यूट डिप्रेशन से ग्रस्त व्यक्ति खुद बहुत बड़ी दुविधा में जीता है। वह आपका साथ नहीं चाहता, पर आपको साथ छोड़ते देख बर्दाश्त भी नहीं कर पाता। वो नहीं जानता कि अपनी बातों, अपने व्यवहार से वह आपको हर्ट कर रहा, पर आपकी बातों से वह बहुत आसानी से हर्ट हो जाता है। हर छोटी-बड़ी बात का अपराधबोध बेवजह वह अपने अन्दर पालता जाता है, बिना यह समझे कि उसमे उसका कोई दोष था भी नहीं...। यक़ीन मानिए, खूनी और मुज़रिम खुद को भले इस दुनिया का बादशाह समझें, एक्यूट डिप्रेशन का मरीज़ एक चींटी के मरने का अपराधी भी खुद को मानता हुआ अपने आप को इस धरती का सबसे बड़ा बोझ समझता है...और पहला मौका मिलते ही वह इस धरती को अपने बोझ से आज़ाद कर देता है।

एक आम धारणा है कि अकेले रहने वाला या निठल्ला रहने वाला व्यक्ति ही अवसादग्रस्त होता है, परन्तु अधिकतर मामलों में सच होने के बावजूद यह एक सार्वभौमिक सत्य नहीं है। यहाँ हमको ‘अकेले रहने’ और ‘अकेले होने’ का फ़र्क समझना पड़ेगा। हो सकता है हमेशा भीड़ से घिरा रहने वाला...एक भरे-पूरे परिवार में अपनों के बीच रहने वाला बेहद सफ़ल इंसान भी अन्दर से बिल्कुल अकेला हो...और यही अकेला होना बेहद घातक साबित हो सकता है...।

सवाल यह उठता है कि यह अकेलापन कम कैसे हो...? मेरा मानना है कि अगर इस पूरी दुनिया में आपके पास एक भी इंसान ऐसा है, जिसके सामने आप अगर खुलकर हँस सकते हैं, तो समय पड़ने पर ज़ार-ज़ार रो भी सकते हों...उससे बड़ी से बड़ी खुशियाँ बाँटना आप भले भूल जाएँ, पर आपके छोटे-से-छोटे ग़म में अगर आपके आँसू पोंछने और आपको सांत्वना देता हुआ ‘मैं हूँ न’ कहने के लिए वह हमेशा तैयार हो, तब आप सबसे सम्पन्न और भरे-पूरे व्यक्ति हैं। 

दुर्भाग्य की बात यह है कि आम जनता को इस बीमारी की सही और सच्ची जानकारी ही नहीं...। बहुत से आत्मगर्वित लोग किसी अवसादग्रस्त व्यक्ति को ‘पागल’ कहकर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं, और शायद यही वजह है कि कुछ लोग अपनी इस बीमारी को पहचान लेने के बावजूद इसके इलाज के लिए किसी मनोचिकित्सक के पास जाने या किसी अपने से इसका ज़िक्र भी करने में बेहद हिचकते हैं। अन्त क्या होता है, यह कहने की ज़रूरत नहीं...। ऐसे में कितना अच्छा हो यदि दीपिका पादुकोण जैसे ही कुछ और भी खास और आम लोग सामने आकर इस बीमारी के प्रति समाज में जागरूकता फैलाएँ। लोगों को समझाएँ कि यह पागलपन नहीं, बल्कि एक खास तरह का केमिकल लोचा है, जो किसी भी और बीमारी की तरह देखा जाना चाहिए।

आज हमको ज़रूरत है तो सिर्फ़ इतनी कि हम अपने आसपास के किसी अपने को इस बीमारी की गर्त में जाने ही न दें...। जब जितना हो सके, किसी को अपने होने का अहसास दिला सकें...ताकि कोई ज़िन्दगी से कितना भी हैरान-परेशान रहे, पर उससे नाराज़ तो न हो कभी...। ■

सम्पर्कः ‘प्रेमांगन’, एम.आई.जी- 292, कैलाश विहार, आवास विकास योजना-एक, कल्याणपुर, कानपुर-208017 (उ.प्र) मोबाइल- 9919025046  


खान - पानः आम फलों का राजा क्यों है?

 - डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

देश में आम का मौसम जारी है, और इसी के साथ यह बहस भी कि आम की कौन सी किस्म सबसे बढ़िया है। तेलंगाना के लोगों का कहना है कि ‘बंगनपल्ली' और ‘बेनिशां' आम का कोई सानी नहीं है; आम की कोई भी अन्य किस्म इनके आसपास भी नहीं ठहरती। मेरी पत्नी और उनका परिवार गुजरात से है; उनका कहना है कि सबसे अच्छे आम रत्नागिरी या हापुस (Alphonso) हैं। और उत्तर प्रदेश के रहवासी मेरे दोस्त दसहरी आम के गुण गाते नहीं थकते।
आम के बगीचे लगाने, पैदावार और आम के शौकीन लोगों के हिसाब से भारत पहले नंबर पर है और फिर चीन, थाईलैंड, इंडोनेशिया, फिलीपींस, पाकिस्तान और मेक्सिको का नंबर आता है। हालांकि, दुनिया भर में पैदा होने वाले कुल आमों में से 54.2 प्रतिशत के योगदान साथ भारत आम उत्पादन में सबसे अव्वल है। हम न सिर्फ सबसे ज़्यादा आम खाते हैं, बल्कि निर्यात भी करते हैं। पिछले साल हमने 28,000 मीट्रिक टन आम निर्यात किए थे और इससे करीब 4 अरब रुपए कमाए थे।
डॉ. के. टी. अचया अपनी पुस्तक ए हिस्टोरिकल डिक्शनरी ऑफ इंडियन फूड में बताते हैं कि आम मूलत: भारत का देशज है, जिसे उत्तरपूर्वी पहाड़ों और म्यांमार में उगाया जाता था, और पड़ोसी देशों में निर्यात किया जाता था। आजकल, आम के बगीचे उत्तर प्रदेश, बिहार, गुजरात, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, ओडिशा और पश्चिम बंगाल में लगाए जाते हैं; प्रत्येक राज्य के फलों का अपना विशेष स्वाद होता है।
पिछली गणना के अनुसार, भारत में आम की 1000 से अधिक किस्में हैं। इतनी विविध किस्मों का श्रेय जाता है आम के पौधों की आसान ग्राफ्टिंग को। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के तीन केन्द्र आम अनुसंधान में अग्रणी हैं। इसके अलावा, नई दिल्ली स्थित नेशनल रिसर्च सेंटर ऑन प्लांट बायोटेक्नॉलॉजी आम के पौधे के बुनियादी जीव विज्ञान को समझने के लिए उसके जीनोम का विश्लेषण कर रहा है। आम को फलों का राजा क्यों कहा जाता है?इसका कारण यह है कि आम न केवल स्वादिष्ट होता है, बल्कि यह सबसे स्वास्थ्यप्रद भी है; अन्य फलों के मुकाबले एक आम से अधिक विटामिन A, B, C, E और K, तथा अन्य धात्विक यौगिक (मैग्नीशियम, कॉपर, पोटेशियम), और एंटीऑक्सीडेंट मिलते हैं। हालांकि इनमें से कुछ स्वास्थ्य लाभ कई अन्य फलों से भी मिलते हैं, लेकिन आम सबमें अव्वल है क्योंकि इसमें अन्य की तुलना में विटामिन, खनिज और फाइबर सबसे अधिक होते हैं। इसलिए इसकी बादशाहत है।
अमेरिका के क्लीवलैंड क्लीनिक की वेबसाइट पर एक दिलचस्प लेख है, जिसका शीर्षक है: मैंगोलिशियस: आम के प्रमुख छह स्वास्थ्य लाभ (Mangolicious: the top six health benefits of mango)। ये लाभ हैं : 
1. यह आपका पेट दुरुस्त करता है; इसका उच्च फाइबर परिमाण कब्ज़ और पेट फूलने से निपटने में मदद करता है;
2. आम भूख को नियंत्रित करने में मदद करता है, जो आपको अपने स्वास्थ्यकर खाने के लक्ष्यों पर टिके रहने में मदद कर सकता है;
3. आम में मौजूद विटामिन और एंटीऑक्सीडेंट बालों और त्वचा को स्वस्थ रखते हैं;
4. इसमें मौजूद घुलनशील फाइबर कोलेस्ट्रॉल को कम करने में मदद करते हैं; 
5. आम खाने से रक्तचाप नियंत्रित रहता है; और
6. आम में मौजूद एक एंटीऑक्सीडेंट - मैंगिफेरिन - कुछ प्रकार के कैंसर को रोकने में मदद करता है। और तो और, हैदराबाद विश्वविद्यालय के एक शोध दल ने भी यह पता लगाया है कि मैंगिफेरिन अल्सर को कम करता है।
स्वाद, किस्में, उपलब्धता और स्वास्थ्य लाभ - इन सभी के मद्देनज़र चलिए हम सभी अपने-अपने पसंदीदा बादशाह आम का लुत्फ उठाएँ! (स्रोत फीचर्स)

जल- प्रबंधनः परंपरागत जल- संरक्षण की बढ़ती उपयोगिता

 - भारत डोगरा

इस वर्ष फरवरी के महीने से ही कर्नाटक के एक बड़े क्षेत्र से गंभीर जल संकट के समाचार मिलने आरंभ हो गए थे। दूसरी ओर, पिछले वर्ष बरसात के मौसम में हिमाचल प्रदेश जैसे कई राज्यों में बाढ़ से भयंकर तबाही हुई थी। जलवायु बदलाव के इस दौर में विभिन्न स्तरों पर बाढ़ और सूखे दोनों के संकट अधिक गंभीर हो सकते हैं।

देखने में तो बाढ़ और सूखे की बाहरी पहचान उतनी ही अलग है, जितनी पर्वत और खाई की - एक ओर वेग से बहते पानी की अपार लहरें, तो दूसरी ओर बूँद-बूँद पानी को तरसती सूखी प्यासी धरती। इसके बावजूद प्राय: देखा गया है कि बाढ़ और सूखे दोनों के मूल में एक ही कारण है और वह है उचित जल प्रबंधन का अभाव। 

जल संरक्षण की उचित व्यवस्था न होने के कारण जो स्थिति उत्पन्न होती है, उसमें हमें आज बाढ़ झेलनी पड़ती है, तो कल सूखे का सामना करना पड़ सकता है। दूसरी ओर, यदि हम जल संरक्षण की समुचित व्यवस्था कर लें, तो न केवल बाढ़ पर नियंत्रण पा सकेंगे: अपितु सूखे की स्थिति से भी बहुत हद तक राहत मिल सकेगी।

भारत में वर्षा और जल संरक्षण का विशेष अध्ययन करने वाले मौसम विज्ञानी पी. आर. पिशारोटी ने बताया है कि युरोप और भारत में वर्षा के लक्षणों में कई महत्त्वपूर्ण अंतर हैं। युरोप में वर्षा पूरे साल धीरे-धीरे होती रहती है। इसके विपरीत, भारत के अधिकतर भागों में वर्ष के 8760 घंटों में से मात्र लगभग 100 घंटे ही वर्षा होती है। इसमें से कुछ समय मूसलाधार वर्षा होती है। इस कारण आधी वर्षा मात्र 20 घंटों में ही हो जाती है। अत: स्पष्ट है कि जल संग्रहण और संरक्षण युरोप के देशों की अपेक्षा भारत जैसे देशों में कहीं अधिक आवश्यक है। इसके अलावा, भारत की वर्षा की तुलना में युरोप में वर्षा की औसत बूँद काफी छोटी होती है। इस कारण उसकी मिट्टी काटने की क्षमता भी कम होती है। युरोप में बहुत सी वर्षा बर्फ के रूप में गिरती है जो धीरे-धीरे धरती में समाती रहती है। भारत में बहुत सी वर्षा मूसलाधार वर्षा के रूप में गिरती है, जिसमें मिट्टी को काटने और बहाने की बहुत क्षमता होती है।

दूसरे शब्दों में, हमारे यहा की वर्षा की यह स्वाभाविक प्रवृत्ति है कि यदि उसके पानी के संग्रहण और संरक्षण की उचित व्यवस्था नहीं की गई, तो यह जल बहुत सारी मिट्टी बहाकर निकट की नदी की ओर वेग से दौड़ेगा और नदी में बाढ़ आ जाएगी। चूँकि अधिकतर जल, न एकत्र होगा, न धरती में रिसेगा, अत: कुछ समय बाद जल संकट उत्पन्न होना भी स्वाभाविक ही है। इन दोनों विपदाओं को कम करने के लिए या दूर करने के लिए जीवनदायी जल का अधिकतम संरक्षण और संग्रहण आवश्यक है। 

इसके लिए पहली आवश्यकता है वन, वृक्ष व हर तरह की हरियाली जो वर्षा के पहले वेग को अपने ऊपर झेलकर उसे धरती पर धीरे से उतारे, ताकि यह वर्षा मिट्टी को काटे नहीं अपितु काफी हद तक स्वयं मिट्टी में ही समा जाए या रिस जाए और पृथ्वी के नीचे जल के भंडार को बढ़ाने का अत्यंत महत्त्वपूर्ण कार्य संपन्न करे।

दूसरा महत्त्वपूर्ण कदम यह है कि वर्षा का जो शेष पानी नदी की ओर बह रहा है उसके अधिकतम संभव हिस्से को तालाबों या पोखरों में एकत्र कर लिया जाए। वैसे इस पानी को मोड़कर सीधे खेतों में भी लाया जा सकता है। खेतों में पड़ने वाली वर्षा का अधिकतर जल खेतों में ही रहे, इसकी व्यवस्था भू-संरक्षण के विभिन्न उपायों जैसे खेत-तालाब, मेड़बंदी, पहाड़ों में सीढ़ीदार खेत आदि से की जा सकती है। तालाबों में जो पानी एकत्र किया गया है वह उसमें अधिक समय तक बना रहे इसके लिए तालाबों के आसपास वृक्षारोपण हो सकता है व वाष्पीकरण कम करने वाला तालाब का विशेष डिज़ाइन बनाया जा सकता है। तालाब से होने वाले सीपेज का भी उपयोग हो सके, इसकी व्यवस्था हो सकती है। एक तालाब का अतिरिक्त पानी स्वयं दूसरे में पहुँच सके और इस तरह तालाबों की एक शृंखला बन जाए, यह भी कुशलतापूर्वक करना संभव है।

वास्तव में जल संरक्षण के ये सब उपाय हमारे देश की ज़रूरतों के अनुसार बहुत समय से किसी न किसी रूप में अपनाए जाते रहे हैं। चाहे राजस्थान व बुंदेलखंड के तालाब हों या बिहार की अहर पईन व्यवस्था, नर्मदा घाटी की हवेली हो या हिमालय की गूलें, महाराष्ट्र की बंधारा विधि हो या तमिलनाडु की एरी व्यवस्था, इन सब माध्यमों से अपने-अपने क्षेत्र की विशेषताओं के अनुसार स्थानीय लोगों ने वर्षा के जल के अधिकतम और बढ़िया उपयोग की तकनीकें विकसित कीं। औपनिवेशिक शासन के दिनों में विभिन्न कारणों से हमारी तमाम परंपरागत व्यवस्थाओं का ढाँचा चरमराने लगा। जल प्रबंधन पर भी नए शासकों और उनकी नीतियों की मार पड़ी। किसानों और ग्रामीणों की आत्मनिर्भरता तो अंग्रेज़ सरकार चाहती ही नहीं थी, उपाय क्या करती। फिर भी तरह-तरह के शोषण का बोझ सहते हुए लोग जहाँ-तहाँ अपनी व्यवस्था को जितना सहेज सकते थे, उन्होंने इसका प्रयास किया।

दुख की बात यह है कि स्वतंत्रता के बाद भी जल प्रबंधन के इन आत्म-निर्भर, सस्ते और स्थानीय भौगोलिक विशेषताओं का पूरा ध्यान रखने वाले परंपरागत तौर-तरीकों पर ध्यान नहीं दिया गया। औपनिवेशिक शासकों ने जल प्रबंधन की जो नीतियाँ अपनाई थीं, उसमें उनके अपने स्वार्थों के साथ-साथ युरोप में वर्षा के पैटर्न पर आधारित सोच हावी थी। इस सोच के आधार पर स्थानीय स्तर के जल- संरक्षण को अधिक महत्त्व नहीं दिया गया। बाद में धीरे-धीरे इस क्षेत्र के साथ बड़ी निर्माण कंपनियों, ठेकेदारों व उनसे लाभ उठाने वाले अधिकारियों व नेताओं के स्वार्थ भी जुड़ गए। निहित स्वार्थ जब नीति पर हावी हो गए तो गाँवों के सस्ते और आत्म-निर्भर तौर तरीकों की बात भला कौन सुनता, समझता? 

गाँव की बढ़ती आबादी के साथ मनुष्य व पशुओं के पीने के लिए, सिंचाई व निस्तार के लिए पानी की आवश्यकता बढ़ती जा रही थी, अत: परंपरागत तौर-तरीकों को और दुरूस्त करने की, उन्हें बेहतर बनाने की आवश्यकता थी। यह नहीं हुआ और इसके स्थान पर अपेक्षाकृत बड़ी नदियों पर बड़े व मझोले बाँध बनाने पर ज़ोर दिया गया। पानी के गिरने की जगह पर ही उसके संरक्षण के सस्ते तौर तरीकों के स्थान पर यह तय किया गया कि उसे बड़ी नदियों तक पहुँचने दो, फिर उन पर बाँध बनाकर कृत्रिम जलाशय में एकत्र कर नहरों का जाल बिछाकर इस पानी के कुछ हिस्से को वापिस गाँवों में पहुँचाया जाएगा। निश्चय ही यह दूसरा तरीका अधिक मँहगा था और गाँववासियों की बाहरी निर्भरता भी बढ़ाता था।

इस तरीके पर अधिक निर्भर होने से हम अपनी वर्षा के इस प्रमुख गुण को भी भूल गए कि विशेषकर वनस्पति आवरण कम होने पर उसमें अत्यधिक मिट्टी बहा ले जाने की क्षमता होगी। यह मिट्टी कृत्रिम जलाशयों की क्षमता और आयु को बहुत कम कर सकती है। मूसलाधार वर्षा के वेग को सँभालने की इन कृत्रिम जलाशयों की क्षमता इस कारण और भी सिमट गई है। आज हालत यह है कि वर्षा के दिनों में प्रलयंकारी बाढ़ के अनेक समाचार ऐसे मिलते हैं, जिनके साथ यह लिखा रहता है - अमुक बाँध से पानी अचानक छोड़े जाने पर यह विनाशकारी बाढ़ आई। इस तरह अरबों रुपये के निर्माण- कार्य, जो बाढ़ से सुरक्षा के नाम पर किए गए थे, वे ही विनाशकारी बाढ़ का स्रोत बने हुए हैं। दूसरी ओर, नहरों की सूखी धरती और प्यासे गांव तक पानी पहुँचाने की वास्तविक क्षमता उन सुहावने सपनों से बहुत कम है, जो इन परियोजनाओं को तैयार करने के समय दिखाए गए थे। इन बड़ी और महत्वाकांक्षी परियोजनाओं के अनेकानेक प्रतिकूल पर्यावरणीय और सामाजिक परिणाम भी स्पष्ट रूप से सामने आ चुके हैं।

जो लोग विकास कार्यों में केवल विशालता और चमक-दमक से प्रभावित हो जाते हैं उन्हें यह स्वीकार करने में वास्तव में कठिनाई हो सकती है कि सैकड़ों वर्षों से हमारे गाँवों में स्थानीय ज्ञान और स्थानीय ज़रूरतों के आधार पर जो छोटे स्तर की आत्म-निर्भर व्यवस्थाएँ जनसाधारण की सेवा करती रही हैं, वे आज भी बाढ़ और सूखे का संकट हल करने में अरबों रुपयों की लागत से बनी, अति आधुनिक इंजीनियरिंग का नमूना बनी नदी-घाटी परियोजनाओं से अधिक सक्षम हैं। वास्तव में इस हकीकत को पहचानने के लिए सभी पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर अपनी विरासत को पहचानने और पूर्वजों के संचित ज्ञान के विनम्र मूल्यांकन की आवश्यकता है।

यह सच है कि इस परंपरा में अनेक कमियाँ भी मिलेंगी। हमारे पुराने समाज में भी अनेक विषमताएँ थीं और ये विषमताएँ कई बार तकनीक में भी खोट पैदा करती थीं। जिस समाज में कुछ गरीब लोगों की अवहेलना होती हो, वहाँ पर अन्याय भी ज़रूर रहा होगा कि उनको पानी के हकों से भी वंचित किया जाए या उनसे भेदभाव हो। एक ओर हमें इन पारंपरिक विकृतियों से लड़ना है और उन्हें दूर करना है। लेकिन दूसरी ओर यह नहीं भूलना चाहिए कि विशेषकर जल -प्रबंधन की हमारी विरासत में गरीब लोगों का बहुत बड़ा हाथ है; क्योंकि इस बुनियादी ज़रूरत को पूरा करने में सबसे ज़्यादा पसीना तो इन मेहनतकशों ने ही बहाया था। आज भी जल प्रबंधन का परंपरागत ज्ञान जिन जातियों या समुदायों के पास सबसे अधिक है उनमें से अधिकतर गरीब ही हैं। जैसे केवट, मल्लाह, कहार, ढीमर, मछुआरे आदि। ज़रूरत इस बात की है कि स्थानीय जल- प्रबंधन का जो ज्ञान और जानकारी गाँव में पहले से मौजूद है, उसका भरपूर उपयोग आत्म-निर्भर और सस्ते जल-व संग्रहण और संरक्षण के लिए किया जाए और इसका लाभ सब गांववासियों को समान रूप से दिया जाए। 

महाराष्ट्र में पुणे ज़िले में पानी पंचायतों के सहयोग से ग्राम गौरव प्रतिष्ठान ने दर्शाया है कि कैसे भूमिहीनों को भी पानी का हिस्सा मिलना चाहिए और पानी का उपयोग बराबर होना चाहिए। परंपरागत तरीकों को इस तरह सुधारने के प्रयास निरंतर होने चाहिए, पर परंपराओं की सही समझ बनाने के बाद। यदि सरकार बजट का एक बड़ा हिस्सा जल- संग्रहण और संरक्षण के इन उपायों के लिए दे और निष्ठा तथा सावधानी से कार्य हो तो बाढ़ व सूखे का स्थायी समाधान प्राप्त करने में बहुत सहायता मिलेगी। (स्रोत फीचर्स)

प्रेरकः प्रयास की दिशा

 - निशांत

यह विश्व की सबसे अधिक पढ़ी गई प्रेरक लघुकथा है। बचपन में मैंने इसे कहीं पढ़ा और यह मुझे इसी रूप में पढ़ने को मिलती रही है। प्रसिद्ध लघुकथाओं के स्वरूपों में समय के साथ ही परिवर्तन आ जाते हैं और यह स्वाभाविक भी है, लेकिन यह लघुकथा न्यूनतम परिवर्तनों के साथ पीढ़ी-दर-पीढ़ी पढ़ी जाती रही है। बहुत संभव है कि आप इसे पहले ही कहीं पढ़ चुके होंः

कभी ऐसा हुआ कि एक बड़े जहाज का इंजन खराब हो गया। जहाज के मालिक ने बहुत सारे विशेषज्ञों को बुलाकर उसकी जाँच कराई; लेकिन किसी को भी समझ में नहीं आया कि इंजन में क्या गड़बड़ थी।

जब किसी को भी जहाज के इंजन की खराबी का कारण पता न चला; तो एक बूढ़े मैकेनिक को बुलाया गया; जो बहुत छोटी उम्र से ही जहाज के इंजनों को ठीक करने का काम कर रहा था।

बूढ़ा मैकैनिक अपने औजारों का बक्सा लेकर आया और आते ही काम में जुट गया। उसने इंजन का बारीकी से मुआयना किया।

जहाज का मालिक भी वहीं था और उसे काम करते देख रहा था। बूढ़े मैकेनिक ने इंजन को जाँचने के बाद अपने बक्से से एक छोटी- सी हथौड़ी निकाली और इंजन के एक खास हिस्से पर हथौड़ी से धीरे से चोट की। चोट पड़ते ही इंजन गड़गड़ाते हुए चल पड़ा। बूढ़े ने हथौड़ी बक्से में वापस रख दी। उसका काम पूरा हो गया था।

एक हफ्ते बाद जहाज के मालिक को बूढ़े मैकैनिक का बिल मिला जिसमें उसने इंजन की मरम्मत के लिए दस हजार रुपये चार्ज किए थे।

बिल देखते ही मालिक चकरा गया। उसे लगा कि बूढ़े मैकेनिक ने ऐसा कुछ नहीं किया था, जिसके लिए उसे इतनी बड़ी रकम दी जाए।

उसने बिल के साथ एक नोट लिखकर वापस भेज दिया कि मरम्मत के काम का आइटम-वाइज़ बिल भेज दीजिए।

बूढ़े मैकेनिक ने बिल रिवाइज़ करके भेज दिया। बिल में लिखा थाः

 - हथौड़ी से चोट करने की फीस – रु. 5।00/-

- चोट करने की जगह खोजने की फीस – रु. 9,995/-

- कुल- – रु. 10,000/-

 – अपने सपनों को पूरा करने के लिए प्रयास करना बहुत ज़रूरी है; लेकिन इससे भी अधिक महत्वपूर्ण इस बात का ज्ञान होना है कि प्रयास किस दिशा में किए जाएँ

मैंने इस कहानी के स्रोत की खोज करने का प्रयास किया तो मुझे पता चला कि यह कहानी जनरल इलेक्ट्रिक कंपनी में काम करनेवाले एक मैकेनिक चार्ल्स स्टीनमेट्ज़ से संबंधित एक वास्तविक घटना पर आधारित है। उसे एक बड़े इलेक्ट्रिक जेनेरेटर को रिपेयर करने के लिए बुलाया गया था। जेनरेटर का निरीक्षण करने के बाद उसने उसके एक पार्ट पर चॉक से निशान लगा दिया और स्टाफ को समझाया कि उस पार्ट पर क्या काम करने की ज़रूरत है। कंपनी ने उसके बड़े बिल को जब डिटेल के साथ प्रस्तुत करने के लिए लौटा दिया, तब उसने चॉक का निशान लगाने के लिए एक डॉलर चार्ज किया और बाकी की रकम उस पार्ट को खोजने के लिए चार्ज की। (हिन्दी ज़ेन से)

आलेखः सामाजिक चेतना को उन्नत करता है पर्यटन

 - मीनाक्षी शर्मा ‘मनस्वी’

अनंत काल से ही मानव जिज्ञासु प्रवृत्ति का रहा है । उसकी इन्हीं लालसाओं ने उसे कुछ समय के लिए घर से बाहर निकलकर प्रकृति को देखने , समझने और महसूस करने के लिए प्रेरित किया । पूर्व काल में जरूरतें उन्हें बाहर दूर- दराज के इलाकों में जाने को बाध्य करती थीं। कभी व्यापार करने के लिए तो कभी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए घर से दूर जाना पड़ता था । 

लेकिन आज समय बदल गया है । पर्यटन एक शौक बनकर उभरा है । हालाँकि ये शौक भी आपमें नई ऊर्जा का संचार कर सकने में सक्षम है । ज्ञानार्जन के लिए भी उत्तम है । नए स्थान पर जाकर नए लोगों से मिलना, उनकी संस्कृति की झलक पाना .....भाषा, खान- पान, परिधान, व्यवहार इन सभी का भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तित हो जाना लाज़मी है ।

अपनी- अपनी रुचि के अनुसार कोई आस्था के केंद्रों के लिए धार्मिक यात्रा को महत्त्व देते हैं, तो कुछ प्रकृति के सौंदर्य की झलक पाने निकल पड़ते हैं । समुद्र, नदियाँ, पहाड़, वनक्षेत्र सभी आकर्षण का केंद्र हैं ।

वर्तमान युग में जबकि आप घर बैठे- बैठे ही इंटरनेट के माध्यम से प्रत्येक स्थल की संपूर्ण जानकारी प्राप्त कर सकते  हैं तब कहीं भी आना जाना ज्यादा सुलभ हो गया है ।

पर्यटन आपकी सामाजिक चेतना को भी उन्नत करता है । नए स्थल पर नए लोगों से मिलकर  बहुत कुछ सीखने का भी अवसर मिलता है । यह उन स्थलों के लोगों के लिए भी वाणिज्यिक विकास का माध्यम बनता है ।

आदि काल से ही लोग घुमक्कड़ रहे हैं । इसी कारण महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने तो पूरा ‘घुम्मकड़ शास्त्र’ ही लिख डाला था जब उन्होंने अनेकों देशों की यात्रा की और अपने अनुभव उसमें साझा किए ।

पूर्व में घुमक्कड़ व्यक्ति के द्वारा ही एक सभ्यता का दूसरी सभ्यता से परिचय हुआ ।

पर्यटन का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य इस भागदौड़ भरी जिंदगी में से कुछ सुकून के पल तलाशना और मनोरंजन करना भी है । जो कि आजकल की परिस्थितियों को देखकर आवश्यक प्रतीत होता है । जीवन की इस आपाधापी में कुछ पल अपने लिए निकाल पाना सबसे मुश्किल कार्य हो गया है, जो कि घर से कहीं दूर प्रकृति के बीच रहकर ही पाए जा सकते हैं ।

पंचभूत से बना यह शरीर, प्रकृति के बीच जाकर उसके साथ तारतम्य बिठाकर जिस मानसिक शांति का अनुभव करता है, वह अनमोल है ।

आपने अक्सर अनुभव किया होगा जब भी आप किसी पर्यटन स्थल से घूमकर कुछ दिनों पश्चात अपने घर लौटते हैं, तब आप एक अलग ही आनंद का अनुभव करते हैं ।

ये कहीं ना कहीं आपके पंच तत्त्वों को भी संतुलित करता है । आपके आकाश तत्त्व को उभारकर आपको अधिक कल्पनाशील बनाता है । आपमें नव विचारों का सृजन करता है। जोश भरता है, साथ ही साथ स्थिरता भी देता है । जल का गुण है- ग्राह्यता....जब वह किसी में प्रकाशित होता है तब वह आसानी से दूसरे लोगों के साथ तालमेल बिठा पाने के योग्य बन जाता है । इस प्रकार समझ को विकसित कर जीवन के नए आयाम खोलता है ।जीवन की नीरसता को पुनः एक सार्थक अभिव्यक्ति प्रदान करता है ।

तो ज़रूरी है समय- समय पर जीवन की एकरसता को भंग कर, अपने व्यक्तित्व के विकास के लिए , अपने परिवार के साथ मूल्यवान समय व्यतीत करने के लिए किसी पसंदीदा स्थल पर भ्रमण के लिए निकलें और वहाँ से प्राप्त होने वाली सकारात्मक ऊर्जा से अपने भावी जीवन की मजबूत और सुंदर नींव रखें ।

"सैर करने को निकले घर से हम,

तन्हाइयाँ लेकर ;

मगर लौटे तो ढेरों खुशनुमा यादें,

सँजो लाए ।"

सम्पर्कः  अलीगढ़ , उत्तर प्रदेश ,8604634044

कविताः कुछ पल

 
 - सुरभि डागर

कुछ पलों में 

बड़ा मुश्किल होता है 

भावों को शब्दों में पिरोना,

बिखर जाते हैं कई बार

हृदय तल में 

मानों धागे से मोती 

निकल दूर तक

छिटक रहे हों ।

अनेकों प्रयास किए

समेटने के

परन्तु  छूट ही जाते कुछ 

मोती और

तलाश  रहती है बस धागे में 

पिरोकर माला बनाने की

रह जाती है बस अधूरीसी कविता

कुछ गुम हुए 

मोतियों के बिना ।

व्यंग्यः आम आदमी

  - रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु ’ 

आम आदमी वह जीव है, जो आम उगाता है, रखवाली करता है, आम बेचता है और खुद आम की गुठली से भी कोसों दूर रहता है। यह आम आदमी बहुत सौभाग्यशाली होता है; क्योंकि यह स्थिति से समझौता कर लेना जानता है। ट्रेन के भीतर भीड़ हो, तो यह छत पर सवार हो लेता है; क्योंकि इसे ताजा हवा खाने का बहुत शौक है। यहाँ तक कि लू और शीत- लहर में भी आराम से छत पर लेटा रह सकता है। दुर्घटना होने पर बिना किसी परेशानी के परलोक की यात्रा पर निकल पड़ता है। इसकी लाश की शिनाख़्त नहीं हो पाती; क्योंकि ज़्यादातर लाशें इसकी सूरत से मिलती-जुलती होती हैं। मायामय संसार के प्रति इसकी यह विरक्ति अनुकरणीय है। इसकी संख्या मरने पर घट जाती है। इसे गणित के चमत्कारों में शामिल किया जा सकता है। कई आम आदमियों की मौत एक ‘खास आदमी’ की मौत के बराबर होती है। सुविधा के लिए हम गणना ‘खास आदमी’ के आधार पर करते हैं।

उफ़नती हुई नदियों की बाढ़ का कहना ही क्या? आँधी और तूफ़ान से बचे झोंपड़े बाढ़ के साथ-साथ बहुत दूर तक सैर कर लेने की हसरत मन में बसाए रहते हैं। शुभ घड़ी आने पर ये जलधारा के साथ बाजी लगाकर जल-विहार के लिए निकल पड़ते हैं। आम आदमी अकाल पड़ने पर जानवर की तरह घास पर भी गुजारा कर लेता है। फुटपाथ पर रैन-बसेरा कर सकता है। बिना खाए, बिना सोए भी रह सकता है।

इसे भाषण सुनने का बहुत शौक होता है; इसीलिए खास आदमी कमजोरी का लाभ उठाते हैं। इसे विशेष रूप से अगवा की गई गाड़ियों में भरकर सभा मण्डप में पहुँचाया जाता है। इसे आया देखकर नेताओं के कण्ठ पर सरस्वती अवतरित हो जाती है। वे आम आदमी की पीड़ा से पिघलकर आश्वासनों का हलवा परोसने लगते हैं, घोषणाओं की चटनी चटाने लगते हैं। इनसे प्रभावित होकर आम आदमी ताली बजाता है, अवसर के अनुकूल जिन्दाबाद या मुर्दाबाद के नारे लगाता है। सभा विसर्जित हो जाती है। जननेता एयर कंडिशण्ड कार में बैठकर बरसों के लिए सिधार जाते हैं। भूलोक उनके लौटने की प्रतीक्षा करता रहता है। आम आदमी अपने धूल-भरे चेहरे को गमछे में पोंछकर घर लौट आता है।

अच्छा साहित्यकार आम आदमी पर लिखता है। वह आम आदमी के प्रति वचनबद्ध होता है। इस प्रतिबद्धता के बिना उसे नींद नहीं आती, भोजन नहीं पचता। आम आदमी की बिसात भले ही दो जून का भोजन जुटाने की न हो; परन्तु यह निरीह प्रतिबद्ध साहित्यकार इस मुग़ालते में रहता है कि आम आदमी उसे पढ़ रहा है। इसलिए पढ़ रहा है कि जो कुछ भी लिखा जा रहा है, उसका केन्द्र-बिन्दु यह आम आदमी है। हाँ, जब यह प्रतिबद्ध लेखक किसी रिक्शे वाले के सम्पर्क में आता है, तो उसके चार आने अधिक माँगने पर लताड़ पिलाता है- ‘‘दिन दहाड़े लूट रहे हो। शर्म नहीं आती!’’ लुटेरे को शर्म आ जाती है; पर इस लेखक को शर्म नहीं आती है। यह सेठों की ड्योढी पर खड़ा चंदा वसूलने के लिए स्तुति गाता रहता है। सीढ़ियों से नीचे उतरकर- ‘हम सब साथी, हम मज़दूर’ गाता है। मंच पर ‘लहू का रंग एक है’ गाता है,  तो हमजोलियों की श्रेष्ठता का निर्धारण हिन्दू-मुसलमान के आधार पर करता है। फिर हिन्दुओं की श्रेष्ठता का निर्धारण जातिगत आधार पर करता है। बेचारा आम आदमी इसकी चालाकी में फँसकर लहूलुहान हो जाता है।

आम आदमी धर्म के बारे में ज्यादा नहीं जानता। वह धर्मशास्त्रों को कम ही पढ़ पाता है; परन्तु धर्म या जाति के नाम पर जितने बवण्डर होते हैं, उनमें बढ़-चढ़कर हिस्सा लेता है। या यों समझिए- उसे हर प्रकार की भट्टी में ईंधन की तरह झोंक दिया जाता है। आम आदमी नेता नहीं होता, वरन् भीड़ होता है। भीड़ का काम है भेड़ बनकर अनुसरण करना। जनहित और जनभावना की दुहाई देकर लोग प्रायः अपना उल्लू सीधा करने में लगे रहते हैं। ‘आम आदमी’ की सेवा करने के नाम पर बहुत से फ़र्जी जनसेवकों की रोजी-रोटी चल रही है।

राजनेता ‘आम आदमी’ का जबरदस्त समर्थन करते हैं। जैसे ही इनके पैरों में जनसेवा का दर्द शुरू होता है, ये पदयात्रा पर निकल पड़ते हैं। सेब-सन्तरे का जूस पीकर महीने, कई-कई महीने भटकते रह सकते हैं। उसे अन्याय और अत्याचार से जूझने की सलाह दे सकते हैं। बाजार बन्द कराते हैं। अपना प्रभाव घटने पर रैली कराते हैं। रैली से थैली तक का मार्ग योजनाबद्ध तरीके से तय करते हैं। थैली के बल पर जब चाहे भीड़ जुटा लेते हैं। भीड़ जुटाने पर सबको एक ही लाठी से हाँकते हैं। कागजों पर कुएँ खुदवाते हैं, सड़कें बनवाते हैं। जरूरतमंदों की सहायता करते हैं। ये खुद सबसे बड़े जरूरतमंद होते हैं। विज्ञापनों के द्वारा देश का जीर्णोद्धार करने की घोषणा करते हैं। यह क्या कम चमत्कार है?

हम सब कामना करते हैं कि यह आम आदमी सदा बना रहे। अगर यह नहीं रहेगा, तो अपने राम की तुरुप चाल किस पर चलेगी? ‘बार’ में  बैठकर बहसें कैसे होंगी? बिना आम आदमी का डर दिखाए सेठों की तिजौरियों से पैसा कैसे निकाला जाएगा? आम आदमी नहीं होगा, तो साम्प्रदायिक दंगों में लाठी-भाला कौन चलाएगा? आम आदमी के न होने से सचमुच अपनी बहुत दुर्गति हो जाएगी। हे ईश्वर, इस आम आदमी को फटीचर ही रहने देना। इसकी हालत सुधर गई, तो बहुतों की जीविका छिन जाएगी। फिर अपने देश में दंगे नहीं होंगे। यदि दंगे नहीं होंगे, तो दुनिया में हमको कौन जानेगा? दंगे नहीं होंगे, तो राजनीति के दावपेंच दम तोड़ देंगे। दावपेंच छूट जाएँगे, दलों की दलदल का क्या होगा!

कहानीः मेरा क्या कसूर है पापा

  - स्नेह गोस्वामी

बाहर की डोरबेल बजी और अधीरता से बजती चली गई । चकले पर रोटी बेलती सुमी के हाथ से घबराहट में पेड़ा नीचे गिर गया । उसने झुककर आटा का वह पेड़ा उठाया ही था कि लुढ़कता हुआ बेलन सीधा उसके पैरों पर आकर गिरा । सुमी की चीख निकल गई । वह अचानक लगी इस चोट से बिलबिला उठी थी । उधर दरवाजे की घंटी लगातार बजे जा रही थी । लँगड़ाते हुए उसने बाहर जाकर दरवाजा खोला ही था कि राजेंद्र सिंह ने खींचकर चपेड़ दे मारी – हरामजादी, किससे बातों में मगन हो रही थी ? कब से दरवाजा खटखटा रहा हूँ और तूने कानों में कड़वा तेल डाल रखा है । सुनाई ही नहीं देता तुझे?

तब तक रसोई में तवे पर डाली रोटी जलने की महक आने लगी थी, तो पापा को वहीं डाँट लगाते छोड़ सुमी एक हाथ से अपना गाल सहलाती हुई पैर घसीटते हुए रसोई की ओर लपकी । तवे पर रोटी जलकर काली हो चुकी थी । उसने फटाफट वह रोटी उतार कर डस्टबिन में डाली । तवे को अच्छी तरह खुरचकर साफ किया । धो-पोंछकर दोबारा तवे पर चढ़ा दिया । तवा मँजने से चमक आया था । उसके मन में एक साध जागी – काश कोई उसे भी इसी तरह धो माँज देता तो बिना किसी कसूर के जन्म- जन्म के लिए माथे पर लगी कालिख उतर जाती । 

उसने एक ठंडा हौंका लिया । दीदी तुम इस तरह घर छोड़ कर क्यों चली गई । सारी जिंदगी के लिए तुम्हारे हिस्से की भी सजा मेरे हिस्से आ गई । 

 आँखों में छलक आए आँसू उसने जबरन वहीं पलक में सोख लिये थे । पापा अब माँ पर गरज रहे थे । माँ चुपचाप अपराधिन की तरह गर्दन झुकाए सुन रही थी ।

 बेटियाँ पैदा कर- करके घर भर लिया । इन्हें सँभालना नहीं आया तुझे । इन्हें कोई अक्ल शऊर भी सिखाया होता । सारा दिन घर में बैठी पता नहीं क्या करती रहती हो । इन पर नजर भी नहीं रख सकती । कहीं मुँह दिखाने लायक  नहीं छोड़ा तुम माँ बेटियों ने ।  

 कितने अच्छे थे वे दिन जब वह इस घर की लाडली बेटी हुआ करती थी । एक बहन बड़ी थी, लगभग पाँच साल बड़ी बहन, सुनीता बहन । उसे वह प्यार से सुनी दीदी कहती । मम्मी सुनीता को चिड़िया कहती और उसे परी । उन दोनों से छोटा एक भाई भी था टीटू यानी की नरेंद्र सिंह, उससे ढाई साल छोटा। कितना हँसता खेलता परिवार था उनका । पूरा दिन घर बच्चों के हँसने खेलने और शरारतों से गुलजार रहता। रसोई में माँ तरह तरह के पकवान बनाती और सब एकसाथ बैठ चाव से मजा ले ले कर खाते । छुट्टी वाले दिन पिकनिक का कार्यक्रम बनता । कभी रोजगार्डन, कभी चिड़ियाघर तो कभी किसी आसपास की रिश्तेदारी में । पापा हरपल उनके साथ बने रहते । दफ्तर से पापा लौटते, तो टीटू  उनके कंधे पर सवार रहता । दीदी का चेहरा फूलों- सा खिला रहता । मम्मी सब को खुश देख निहाल हुई रहती । पापा की सीमित- सी आय थी, पर मम्मी अपनी सुघढ़ता और समझदारी से उसी में गृहस्थी को सुचारू रूप से चलाए जा रही थी कि कभी किसी चीज का अभाव महसूस ही नहीं हुआ। कपड़े सस्ते और सादा होते जिन्हें मम्मी और दीदी घर पर सिलाई मशीन से सिल लेती । उन पर सुन्दर कढ़ाई करके उन्हें डिजाइनर बना देती । तरह तरह के लैस और पाइपिंग लगा कर फ्राक और स्कर्ट सिले जाते ।  धुले प्रेस किए वह कपड़े पहन कर जब वे भाई- बहन कहीं बाहर जाते, तो खुद को किसी राजकुमार या राजकुमारी से कम न समझते । रिश्तेदार और पड़ोसी बार- बार छूकर देखते और पूछते – कौन से शो रूम से खरीदी है ये ड्रेस । हमें भी बताओ, हम भी अपने बच्चों के लिए लाएँ, तो वे खिलखिला कर भाग खड़े होते । 

पढाई में वे तीनों भाई बहन बहुत होशियार तो नहीं थे कि कक्षा के पहले तीन विद्यार्थियों में स्थान बना पाते;  पर इतना जरूर था कि हर साल अच्छे अंकों से पास हो जाते और उस जमाने में बिना किसी ट्यूशन के अपने बलबूते परीक्षा पास कर जाना किसी चमत्कार से कम न था । सब के साठ प्रतिशत के आसपास अंक आ ही जाते तो राजेंद्र सिंह गर्व से राह चलते पड़ोसियों को रोककर बताते – अजी बहुत होशियार है हमारे टीटू । बासठ प्रतिशत अंक लेकर पास हुए है और छुटकी परी, उसके तो पैंसठ प्रतिशत अंक बने हैं । ये बड़की,  इसकी तो बड़ी क्लास है, बड़ी पढ़ाई फिर भी उनसठ प्रतिशत अंक ले आई । माँ के साथ घर का सारा काम करवाती है, फिर भी पढाई में बहुत बढ़िया हैं । इसे तो मैं प्रोफेसर बनाऊँगा। टीटू बनेगा पुलिस का सबसे बड़ा अफसर और परी बनेगी बड़े अस्पताल की डॉक्टर या नर्स । पर उनके ये सारे सपने उस दिन बिखर गए, जब दीदी सामने चौंक पर खुली मुनियारी की दुकान के नौकर के साथ भाग गई । 

वह दिन रोज जैसा ही दिन था, दीदी तब बारहवीं में थी । बोर्ड की डेटशीट निकल चुकी थी। प्रेक्टिकल हो चुके थे और आजकल प्री बोर्ड परीक्षाएँ चल रही थी । बस एक महीना और फिर दीदी का दाखिला शहर के बड़े कालेज में हो जाना था । वह बी. एस .सी करेगी फिर एम.एस सी और फिर एक दिन प्रोफेसर हो जाएगी । दीदी से ज्यादा हम इस बात को सोच सोचकर उत्तेजित होते रहते । सुमी तब आठवीं कक्षा में थी और टीटू पाँचवी में । दीदी अब देर रात तक जागकर पढ़ती- लिखती रहती। कभी कभी पूरी रात इसी तरह पढ़ते- पढ़ते बिता देती । मम्मी और पापा उन्हें इस तरह मेहनत करते देखते तो खुश हो जाते । 

एक रात परी की नींद खुली, तो वह पानी पीने के लिए उठी । चिड़िया दीदी अभी तक लिखने में व्यस्त थी । परी ने उत्सुकता से उस कागज पर झाँका तो उसका मुँह खुला का खुला रह गया। दीदी दो पेज लिखने के बाद कागज पर दिल में तीर घुसा रही थी । एकदम उसके मुँह से निकला - लव लेट .. इसके आगे वह बोल पाती, इससे पहले ही सुनीता ने उसके मुँह के आगे अपनी हथेली अड़ा दी थी – प्लीज परी । घर में किसी को मत बताना। वरना घर के लोग मुझे मार डालेंगे।  वह आँखों में विनती भर धीरे से फुसफुसाई थी ।

पर तुम इस तरह आधी रात को किसे लिख रही हो यह सब। 

वो मेरी क्लास में मीरा है न, उसने कहा था मेरे लिए लिख देना, तो उसके लिए लिख रही थी। उसे अपने पड़ोस में रहने वाला रवि पसंद है । तुम कहती हो, तो आज के बाद नहीं लिखूँगी । बस आज भर लिख लेने दो । उसने मुझे मम्मी की कसम दे रखी है ।

ठीक है , बस आज ही । दोबारा लिखोगी, तो मम्मी से बता दूँगी । 

नहीं लिखूँगी मेरी प्यारी बहना । 

उसके बाद से दीदी डरी- डरी से रहने लगी थी । बहुधा अकेले में मेरे हाथ पकड़ लेती – परी तुमने बताया तो नहीं न माँ को । प्लीज मत बताना । तुम्हें विद्या पढ़ाई की कसम । काले नागराज की कसम । वे तरह- तरह की कसमें देकर मुझे बार- बार रोकती । मैं उन्हें विश्वास दिलाती कि किसी से न कहूँगी; पर उन्हें यकीन आता ही न था ।

और इसके चार दिन बाद रोज की तरह दीदी स्कूल के लिए  तैयार हुई, अच्छे से नाश्ता किया । अपना स्कूल बैग पीठ पर लादा। रसोई के कोने में बने मंदिर के सामने खड़े होकर भगवान की मूर्ति को नमस्कार किया और स्कूल जाने के लिए घर से निकली । उसके बाद तीन बजे । चार बजे । पाँच भी बज गए: पर दीदी स्कूल से घर नहीं लौटी । माँ को घबराहट होनी शुरू हुई, तो उन्होंने पापा से कान्टैक्ट किया । पापा अपनी बेटी को लेकर पूरी तरह से विश्वस्त थे– क्यों परेशान होती हो । समझदार बच्ची है, कहीं काम पड़ गया होगा । आती होगी । वे टेनिस खेलने क्लब चले गए । 

पर माँ को चैन कहाँ, उन्होंने जितनी सहेलियों के नम्बर पता थे, उन सबके घर में फोन मिलाए । पर सुनीता दीदी का कहीं भी पता नहीं था । टीटू दो तीन लड़कियों के घर जानता था वह साइकिल पर सवार हो, उनके घर गया और लौटते हुए खबर लाया कि दीदी तो आज स्कूल गई ही नहीं । ऐसा कैसे हो सकता है । सुमी दौड़कर उनकी किताबों के पास पहुँची । किताबें कापियाँ तो सारी की सारी वहीं धरी थी, फिर ये लड़की स्कूल बैग में क्या ले गई । कपड़ों की अलमारी खोली गई । वहाँ से चार पाँच नए सूट नदारद थे । माँ ने अपनी अलमारी देखी । सुनीता की अँगूठियाँ चेन और टाप्स, माँ की चार चूड़ियाँ और उनके  साथ साथ पाँच हजार रुपये ... । माँ तो धम्म से वहीं बैठ गई । दोनों हाथों से सिर थाम लिया था । इस लड़की से ऐसी उम्मीद तो बिल्कुल नहीं थी। 

  पापा रोज की तरह रात आठ बजे क्लब से लौटे थे । लौटते ही खबर मिली कि सुनीता अभी तक स्कूल से नहीं लौटी, तो वे भी घबरा गए । माँ ने डरते- डरते उन्हें अलमारी से कपड़े और जेवर गायब होने की खबर दी, तो उनका गुस्सा माँ पर फूट गया – तुम करती क्या रहती हो सारा दिन । तुम्हे इतना भी पता नहीं चलता कि ये लड़कियाँ सारा दिन क्या गुल खिलाती रहती हैं । माँ कहना तो चाहती थी कि तुम्हें ही कौन सा पता चला, पर वे चुपचाप सुनती रही । पापा ने स्टेशन और बस स्टैंड छान मारे थे पर दीदी को न मिलना था न मिली । पूरा घर तनाव में था । माँ सदमे में थी और पापा अजीब सी मनःस्थिति में । तीन दिन घर में चूल्हा नहीं जला था । चौथे दिन पड़ोस के सूरज प्रकाश अंकल के घर दीदी ने टेलीफोन कर अपनी और जयंत की शादी की खबर दी, तो पापा का गुस्सा फट पड़ा था – ये लड़की अचानक इतनी बड़ी हो गई कि अकेले ही शादी का फैसला कर ले । सिर्फ फैसला ही नहीं शादी भी कर ले और पड़ोसियों को फोन पर अपनी बेशर्मी की खबर दे । पैदा करके पालते- पोसते हम रह गए और वह लड़का सब कुछ हो गया । पड़ोसी ज्यादा सगेवाला हो गया ।

फिर शाम तक यह बात भी पता चल गयी कि यह जयंत तो नाइयों का बेटा है, जो चौक वाली दुकान पर दो- तीन हजार रुपये की नौकरी कर रहा था । उस दिन पापा बेहद हताश और बौखलाए हुए थे । बार बार कहते – इस लड़की के लिए मैंने क्या क्या सपने देखे थे । सब बर्बाद कर दिए । अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारी है । देखना भुगतेगी । बद्दुआ की तरह कुछ बोल उनके मुँह से अस्फुट फूटते । माँ कुछ तो इस अचानक घटी घटना से कुछ पापा के डर से बिल्कुल सहम गई थी । अगले दिन यह खबर पूरे मौहल्ले की ज्वलंत खबर बन कर चर्चा का विषय हो गई । पापा ने दफ्तर जाना बंद कर दिया था। बात- बात में खीझे रहते । टीटू बाहर खेलने जाता, तो था पर जैसे ही किसी को सुनीता के बारे में बात करते सुनता, घर आकर तोड़- फोड़ करना शुरु कर देता । धीरे धीरे इस बात को पंद्रह दिन बीते फिर बीस फिर धीरे- धीरे घर सामान्य होने की कोशिश करने लगा । पर उस दिन के बाद पापा बेहद शक्की और गुस्सैल हो गए थे । वह पढ़ने बैठती, तो पापा बीसियों बार आकर झाँक जाते कि पढ़ ही रही है न, कहीं कोई प्रेमपत्र तो नहीं लिखा जा रहा । स्कूल छोड़ने खुद जाते । बीच में भी कई बार स्कूल देखने चले जाते कि वह स्कूल में ही है न । वह साल बीतते ही उसका स्कूल छुड़वा दिया गया था । जो पढ़ना है घर में पढ़ लेगी। प्राइवेट परीक्षा देगी । उसका छत पर जाना , बाहर सड़क पर निकलना सब पूरी तरह से प्रतिबंधित हो गया था । कभी माँ कुछ कहना चाहती, तो पापा गरज उठते – जाहिल औरत एक बेटी तो घर से भगा दी, अब दूसरी को भी भगाने का इरादा है । जरा सी भी उल्टी सीधी हरकत नजर आई तो माँ बेटी को काटकर डाल दूँगा । माँ बीमार रहने लगी थी । उनके सिर में भयंकर असहनीय दर्द रहने लगा था । घर का सारा काम सुम्मी के सिर आ पड़ा था।

इसी बीच एक दिन सुनी दीदी अपने पति के साथ शहर लौट आई थी । हमारे घर से दो मौहल्ले छोड़ कर उनकी ससुराल थी। पति आवारा, कम पढा लिखा, निकम्मा लड़का था। जब तक जेब में पैसे रहे , सब ठीक ही था । पैसे खत्म हो गए तो मार- पीट लड़ाई झगड़े शुरु हो गए । कई महीने सहन किया । अंत में किसी तरह मनाकर ससुराल ले आई थी । ससुराल में भी घर से भागी हुई इस लड़की के लिए कोई इज्जत न थी । एक दिन शाम को वे घर की दहलीज पर आ खड़ी हुई । टीटू ने देखा तो चहका – माँ पापा देखो अपनी सुनी आई है । पापा ने वही से गरज कर कहा – मर गई हमारी सुनी । तुझे मुँह दिखाते लाज नहीं आई । जा वहीं, जहाँ से आई है । घर के दरवाजे उनके मुँह पर बंद कर दिए गए । उस दिन उन्हें अपनी अधूरी छूटी पढ़ाई का बहुत अफसोस हुआ होगा । दीदी की सिसकियों की आवाजें देर तक बंद दरवाजे के बाहर सुनती रही । हम दोनों भाई बहन किताबों के पीछे छिपे हुए टुकुर- टुकुर देखते रहे । आखिर सुनीता उठकर चली गई । अब किसी शोरूम में नौकरी करती हैं । चार हजार मिलते हैं ।

पापा ने सुकून महसूस किया होगा कि उनकी दुआ या बद्दुआ सही साबित हो गई । पर सुमी, सुमी पर पहरे बढ़ गए । उसकी एक एक गतिविधि पर तीन जोड़ी आँखें टिकी रहती । घर में रिश्तेदारों का आन- जाना सीमित हो गया था केवल गिने- चुने लोग आते । उसमें भी सुमी सात तालों में बंद रखी जाती । सुमी हिस्टिरिक हो गई। किसी पुरुष की आवाज सुनते ही उसे दौरा पड़ जाता । वह बेहोश हो हो जाती । इसी बीच उसकी मौसी ने सलाह दी कि इसके लिए कोई वर ढूँढकर विदा कर दो । पहले तो पापा भड़क  गए –  इसकी शादी करके क्या करूँगा । ये भी भाग जाएगी किसी दिन किसी के साथ देख लेना । पर बाद में मान गए । एक बैंक में क्लर्क लड़का खोजा गया । लड़के के पिता नहीं थे । माँ थी, दो भाई थे । एक सादे से समारोह में शादी सम्पन्न हुई । सुमी ससुराल गई तो सही पर अपनी सहम , डर को साथ लेकर । पति या देवर जैसे ही उसके सामने आते वह दहशत के मारे बेहोश हो जाती । उसके दाँत जुड़ जाते । जब भी दौरा पड़ता, उसके हाथ पैर बुरी तरह से काँपते और हाथ में पकड़ी वस्तुएँ गिरकर बिखर जातीं, टूट- फूट जातीं, । तंग आकर ससुराल वाले सात महीने बाद ही सुमी को मायके छोड़ गए । बीमारी के चलते तलाक हो गया । अब सुमी पापा के घर में है। हमेशा पथराई नजरों से सबको पूछ रही है – मेरा क्या कसूर था पापा। 

मो. 8054958004


लघुकथाः राँग नंबर

  -  राजेश पाठक

सुमित पटना से गिरिडीह जा रहा था। स्टेशन पर वर्षों बाद कॉलेज के सहपाठी रमन से उसकी भेंट हो गई । इस तरह अक्समात् भेंट होने से दोनों के मन के भीतर कॉलेज के दिनों की पुरानी सुखदायी स्मृतियाँ हिचकोले मारने लगीं। वे एक-दूसरे से हाथ मिला ही रहे थे कि उन्हें उनकी ट्रेन आने का अनाउंसमेंट सुनाई दिया । एक-दूसरे से पूछताछ के क्रम में पता चला कि वे दोनों एक ही ट्रेन से सफर करने वाले थे।

रमन ने कहा - चलो अब ट्रेन में जगह लेकर घंटों बात करेंगे। पुरानी खट्टी-मिट्ठी स्मृतियों को ताजा करेंगे। सुमित ने भी हाँ में अपना सिर हिलाया। उसने सोचा भी कि आज का दिन कितना खुशनुमा है कि पुराने दोस्त से भेंट भी हो गई, नई-पुरानी बातें भी होंगी और सफर भी आसानी से कट जाएगा। सुमित का सफर चार घंटे का जबकि रमन का सफर दो घंटे का था। ट्रेन आई। दोनों दोस्त ट्रेन में सवार हो गए। जगह भी साथ-साथ बना ली। थोड़ी देर बाद जब सुमित ने देखा कि रमन अपनी नजरें अपने मोबाइल से नहीं हटा पा रहा था,  तो उसने ही रमन से बातचीत शुरू करने के लिहाज से पूछ बैठा- अच्छा तो रमन बताओ कि तुम्हारे कितने बच्चे हैं और सब क्या कर रहे हैं?

रमन- थोड़ी देर रुको, एक मैसेज आया है, उसे पढ़कर जवाब दे लेने दो, फिर बताता हूँ।

सुमित रमन के चेहरे को देखता रहा। रमन कभी मंद-मंद मुस्कुराता, तो कभी हँस भी देता, कुछ मैसेज टाइप भी करता रहता। कहीं से कोई कॉल भी आती तो हँस - हँसकर जवाब भी देता रहता। इस तरह करते - करते दो घंटे का समय बीत गया। इस दरम्यान रमन की सुमित से कोई बात नहीं हुई। देखते - देखते रमन के गंतव्य वाला स्टेशन भी आ चुका था।

रमन वहाँ उतरने के लिए उठ खड़ा हुआ और सुमित से कहा - सॉरी यार! तुमसे बात नहीं हो सकी । ऐसा करो कि तुम अपना मोबाइल नंबर जल्दी से दे दो, ढेर सारी बातें करनी हैं तुमसे। मैं घर पहुँचते ही तुमसे बात करूँगा।

सुमित ने रमन को  रॉंग नंबर दे दिया।

सम्पर्कः सहायक सांख्यिकी पदाधिकारी, जिला सांख्यिकी कार्यालय, गिरिडीह, झारखंड -815301

email- hellomrpathak@gmail.com, मो. नं. 9113150917


कविताः आखिर... प्रेम ही क्यों?

 


 -  अर्चना राय

अक्सर ये सुनती हूँ कि

तुम्हारी कविता का विषय

प्रेम ही क्यों होता है?

क्या इससे इतर

कुछ लिखने- कहने नहीं होता ?

 

कहीं ऐसा तो नहीं...

 कि तुमने प्रसिद्धि

 का रास्ता, प्रेम  को ही

तो नहीं मान लिया

 

तुमने ऐसा

तो  नहीं मान लिया है न?

प्रेम में बसी शीतलता...

 समर्पण की भावना ... और

स्नेहिल स्पर्श....

जिसे पढ़ने वाला

नशेड़ी की तरह

लती बनकर..

 प्रेम के सिवा

कुछ और पसंद ही नहीं करता

कहीं तुमने....

इसी लत को

सफलता का रास्ता तो

नहीं मान लिया है ? 

 

तुम जरा गौर तो करो

थोड़ा-सा तो चिंतन और करो

दुनिया में क्या कुछ नहीं है

प्रेम के सिवा...

कभी नजर उन पर  भी

डालो... लिखो उन पर भी

जो आज की सबसे बड़ी

विडंबनाएँ हैं

 

मैंने पूछा, कहाँ है कुछ

मुहब्बत के सिवा..

मैं देखती हूँ जहाँ- जहाँ

बिखरा दिखता है

प्रेम हर उस जगह... 

 

सुनकर मेरी बात..

जोर का ठहाका लगा

वे बोले...

 

राजनीति के हथकंडे है...

आतंकवाद के अंगारे...

गरीबी के मारे तो

कहीं... परिवार के दुत्कारे भी हैं

संकट में धरती है...

मानवता हर जगह घटती दिखती है...

और भी बहुत कुछ है...

 क्योंकर इन पर कोई कविता

नहीं रचती? ....

प्रेम के छद्म संसार को नहीं

हकीकत के धरातल को 

क्यों नहीं रचती

 

मानकर उनकी बात

आज लिखने बैठी हूँ

प्रेम से अलग विषय

पर कोई  नई कविता

 

जैसे ही प्रेम से नजरें हटाकर

कुछ और विषय

पर लिखने... दृष्टि उठाती हूँ

न जाने क्यों... अचानक से

पूरी सृष्टि ही बंजर

और बेरंग... सी नजर आई

और घबराकर आँखें मुँद जाती हैं

अचानक...

मुँदी आँखों मैंने देखा....

 

सृष्टि ही नहीं स्रष्टा भी

प्रेम के इर्दगिर्द घूमता नज़र

आता है....


- भेड़ाघाट जबलपुर