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Oct 1, 2024

उदंती.com, अक्टूबर- 2024

वर्ष - 17, अंक- 3

 विज्ञान मानवता के लिए एक खूबसूरत तोहफा है,

 हमें इसे बिगाड़ना नहीं चाहिए।  विज्ञान से बेहतर कुछ

हो ही नहीं सकता। विज्ञान का उपयोग विकास के लिए

 होना चाहिए, विनाश के लिए नहीं।  -डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम

इस अंक में

अनकहीः घर से उजाला जा रहा है... - डॉ. रत्ना वर्मा

आलेखः मानस के मोती  - रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

आलेखः लंका विजय के बाद राम अयोध्या विमान से आए थे - प्रमोद भार्गव

कविताः कर्म फल -सत्या शर्मा ‘कीर्ति’

आलेखः रसोईघर से टूटा माताओं का नाता - डॉ. महेश परिमल

प्रेरकः एक सीख ऐसी भी - सुरभि डागर

पर्व- संस्कृतिः सृष्टि की ऊर्जा है देवी दुर्गा - प्रमोद भार्गव

धरोहरः छत्तीसगढ़ में है माता कौशल्या का एकमात्र मंदिर

स्वास्थ्यः नारियल के फायदे अनेक - डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

कविताः तीर्थ के साथ आते हैं पिता - मधु बी. जोशी

कहानीः दहेज की रकम - प्रियंका गुप्ता

कविताः सुनो स्त्री!  - डॉ. शिप्रा मिश्रा

व्यंग्यः आरोप के कारोबार में संभावनाएँ बहुत है - अखतर अली

दो लघुकथाः 1. फूल, 2. अन्तर -  रत्नकुमार साँभरिया

लघुकथाः बुद्ध -  पूनम कतरियार

दो लघुकथाः 1. डोरियाँ, 2. मोबाइल है न! -  अर्चना राय

कविताः आदर्श स्त्री - मंजूषा मन

किताबेंः सवेदनाओं से साक्षात्कार - अंजु खरबन्दा

जीवन दर्शनः श्री कृष्ण से सीखें : सफलता के सूत्र - विजय जोशी

अनकहीः घर से उजाला जा रहा है...


 - डॉ. रत्ना वर्मा

पारम्परिक पर्व त्योहारों को मनाते हुए हम क्या कुछ खोते चले जा रहे हैं, यह आज चिंतन का विषय होते जा रहा है। एक जमाना था, जब पर्व त्योहार का मतलब  परिवार, समाज और  पूरे विश्व को लेकर प्यार, भाईचारा तथा सहयोग की भावना के साथ अपने सांस्कृतिक मूल्यों को पुनर्स्थापित करना हुआ करता था। घर में बनाई गई मिठाई व स्वादिष्ट व्यंजनों से परिवार में खुशहाली छा जाती थी और सब लोग मिल-जुलकर आनंद मनाते थे। रोजमर्रा के दुःख-दर्द भूल कर एक दिन के लिए ही सही, अपने रिश्तेदारों और मित्रों  के साथ मुस्कुराते और सबकी अच्छी सेहत व खुशहाली के लिए मंगल कामना करते थे।   

आज त्योहारों का मतलब क्या रह गया है- भीड़ से भरा बाजार, माल या ऑनलाइन में खुशियाँ खरीदने का दिखावा करते हुए, पैसे को पानी की तरह बहाते लोग। इन सबमें व्यापारी तो भरपूर कमाई करते ही हैं, अमीर अपना धन अपने शौक पूरे करने के लिए उड़ाते हैं, साधारण और मध्यमवर्ग अपनी गाढ़ी कमाई को थोड़ी- सी खुशियाँ खरीदने के लिए सोच समझकर खर्च करते हैं और गरीब वर्ग खर्च न कर पाने पर भी कभी उधार लेकर, तो कभी ओवरटाइम काम करके, खुशियाँ खरीदते हैं। यह तो हुई व्यक्तिगत खुशियों की बात; परंतु बात जब सार्वजनिक रूप से मनाए जाने वाले पर्व- त्योहारों की बात आती है, तब मामला सर्वजन हिताय और सर्वजन सुखाय का हो जाता है। 

 पिछले माह हमने गणेशोत्सव का पर्व धूम- धाम से मनाकर- ‘गणपति बप्पा मोरया, अगले बरस तू जल्दी आ’- कहते हुए उनका विसर्जन किया है; फिर पितरों को अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए दुर्गा पूजन की तैयारी में जुट गए हैं। इसके बाद दशहरा और दीपावली की धूम रहेगी। जाहिर है, ये सब हमें अपनी धरती, अपनी संस्कृति से जुड़े रहने का अहसास कराते हैं। इन सबके माध्यम से भारतीय परम्परा और संस्कृति पल्लवित, पुष्पित, होती है जिसपर हमें गर्व  है।  

एक वह भी समय था, जब चाहे गणपति जी को विराजित करना हो या दुर्गा माता को या रावण दहन का कार्यक्रम,  गाँव या शहर से कुछ दूर खुले मैदान पर इनका आयोजन किया जाता था। दूर- दूर से लोग वहाँ इकट्ठा होते। मेले जैसा माहौल होता। मनोरंजन के साधन होते, लोगों से मेल- मिलाप होता। न सड़कें जाम होने की समस्या, न धक्का- मुक्की, न शोर- शराबा। परंतु अब तो प्रत्येक गली- मोहल्ले में गणेश जी विराजित होते हैं, दुर्गा माता बिठाई जाती हैं और रावण का पुतला जलाया जाता है। ऐसा लगता है यह सब सार्वजनिक उत्सव न होकर अपनी -अपनी गली और कॉलोनी का उत्सव बन गया है। लोगों को यह कहते भी देखा जाता है कि देखो हमारा गणेश तुम्हारे गणेश से कितना भव्य है। इस बात की परवाह किसी को नहीं होती कि दिन रात के शोर- शराबा और कानफोड़ू डीजे की आवाज से लोगों के दिमाग की नसें फटने लगी हैं । बच्चों की पढ़ाई बाधित हो रही है। चारों तरफ गंदगी फैल रही है, जबकि महापर्व दीपावली में तो साल भर की गंदगी को साफ करके देवी लक्ष्मी का आह्वान किया जाता है।

 दीपों का यह पर्व तो हमारी धरती से, फसल से, धन और ऐश्वर्य की देवी लक्ष्मी की पूजा से और 14 वर्षों के वनवास के बाद लंका पर विजय प्राप्त करके लौटे श्रीराम के स्वागत से जुड़ा हुआ है। जब चारों तरफ मिट्टी के दिए जलाकर अमावस्या की रात को जगमगा दिया जाता था। अब सिर्फ परम्परा का निर्वहन करने के लिए गिनती के दीए खरीद कर लाए जाते हैं और बाकी जगमगाहट बिजली के बल्बों और झालर से की जाती है। पटाखों पर प्रतिबंध के बावजूद, इतने पटाखे फोड़े जाते हैं कि पूरा शहर पटाखों के धुएँ से ढक जाता है।  अब तो इन सभी पारम्परिक त्योहारों में राजनीति का प्रदूषण भी घुलता जा रहा है। दशहरे के दिन रामलीला का आयोजन तो होता है; पर रावण वध करने का महत्त्वपूर्ण कार्य धनुषबाण लेकर क्षेत्र के नेता करते दिखाई देते हैं और न जाने किस बुराई पर विजय प्राप्त करने का नारा लगाते हैं। तात्पर्य यही कि अब किसी भी मौके को, जहाँ भीड़ इकठ्ठा होती है, उसे वोट बैंक के रूप में भुनाने की कोशिश की जाती है। 

इसमें कोई दो मत नहीं कि बहुत कुछ बदल गया है, बदलाव प्रकृति का नियम है और समाज के रहन- सहन से लेकर रीति रिवाजों और पर्व त्योहारों में भी परिवर्तन हो रहे हैं और होते हैं। लेकिन इस तरह के विनाशकारी पर्यावरण और सामाजिक बदलाव के लिए क्या हम स्वयं ही जिम्मेदार नहीं हैं? समय के अनुसार सामाजिक बदलाव जरूरी तो हैं;  परंतु यह तभी स्वीकार्य होना चाहिए जब यह मानवता, समाज और हमारे देश की संस्कृति- सभ्यता को समृद्ध करने वाला हो, सकारात्मक हो,  न कि उसे पतन की दिशा में ले जाने वाला।   

जैसे हम ध्वनि प्रदूषण को तो बहुत हल्के में लेते हैं, जबकि आजकल इन सभी पर्व- उत्सव में ध्वनि प्रदूषण अपने चरम पर होता है।  इस वर्ष गणेश पूजा के दौरान डीजे की तेज आवाज के चलते एक व्यक्ति के दिमाग की नस फटने से उसकी मृत्यु ही हो गई। क्या इस विषय को मुद्दा बनाकर देश भर में ध्वनि प्रदूषण को कम करने के लिए कोई पहल होगी और सख्त कदम उठाए जाएँगे?  इसी तरह न पटाखों की आवाज में कमी आ रही है और न बिजली से जलने वाले लट्टूओं की झालर की ल़ड़ियाँ कम हो रही हैं। ऐसे माहौल में आप ही बताइए, हम अपनी संस्कृति, परम्परा, भाईचारा और एकता को किस माहौल में ढूँढे ? जबकि हम अपनी धरती को, अपने रहने वाली जगह को किसी भी तरह के प्रदूषण से मुक्त ही नहीं रख पा रहे हैं। परिणाम तो पूरे विश्व में दिखाई दे रहा है। ग्लोबल वार्मिंग से दिखाई दे रहा तबाही का मंजर किसी को क्यों नजर नहीं आता?

 अब विश्व प्रसिद्ध तिरुपति बालाजी मंदिर के प्रसाद में मांसाहार मिलावट की बड़ी धोखाधड़ी के मामले को ही  लें, यह भी तो भ्रष्टाचार रूपी एक प्रदूषण ही है। मिलावट का यह प्रदूषण सिर्फ प्रसाद में ही नहीं, यह मिलावट तो हमारे जीवन के हर क्षेत्र में न जाने कब से घुस चुका है और सबसे खतरनाक खबर तो नकली दवाइयाँ और उसमें हो रही मिलावट की है। सोचने वाली बात यह है कि जितनी तेजी से प्रसाद में हो रहे मिलावट को लेकर त्वरित कार्यवाही की गई, क्या उतनी ही तेजी से दवाओं में हो रही मिलावट या नकली दवाइयों के मामले में तुरंत कार्यवाही होगी? क्या हमारी सरकार, हमारा प्रशासन अपने राजनीतिक फायदे और अपनी कुर्सी बचाने से इतर जनता की सेहत के बारे  में सोचते हुए मामले को गंभीरता से लेंगे?  क्या मौत के इन सौदागरों खिलाफ कड़े कदम कदम उठाए जाएँगे? या यूँ ही चुप बैठ कर इस अँधियारे पक्ष में कृत्रिम रोशनी के नीचे बैठकर बस मूक दर्शक बने रहेंगे?

 ऐसे में फ़ना निज़ामी कानपुरी का ये शेर याद आ रहा है- 

अँधेरों को निकाला जा रहा है,

मगर घर से उजाला जा रहा है ।

आलेखः मानस के मोती

  - रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

तुलसी और तुलसी के राम के विषय में कुछ कहना  वैसा ही है, जैसे महासागर  की एक बूँद को पा लेना। तुलसी ने अपने काव्य के माध्यम से जो भी कथा कही है, वह उनके व्यापक ज्ञान, गहन अनुभव और  स्वाध्याय की परिणति है। अकेले अयोध्याकाण्ड  में लगभग दो सौ ग्रन्थों का सार निहित है। प्रत्येक काण्ड में तुलसी के स्वाध्याय का सौरभ अभिभूत करता है-

नाना पुराण निगमागम सम्मतं यद् रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि

 स्वान्तः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा भाषा निबंधमति मंजुलमातनोति!

जिसको लेखन में आए सात-आठ ही वर्ष हुए हों, वह अपने नाम के सामने वरिष्ठ साहित्यकार लिखना आरम्भ कर देता है, वहीं तुलसी ने इतना व्यापक अध्ययन किया, फिर भी उनकी विनम्रता से भरी स्वीकारोक्ति देखिए-

कबित बिबेक एक नहीं मोरे, सत्य कहउँ लिखि कागद कोरे!

वाणी और अर्थ यानी शब्द और अर्थ की अभिन्नता पर उनके भाषा  वैज्ञानिक ज्ञान  की गहराई को समझा जा सकता है। यह बात ‘रघुवंशं’ में कालिदास भी कह चुके हैं। वे  जगत् के माता-पिता पार्वती-शिव को वाणी और अर्थ की तरह सम्पृक्त/ एकीकृत/सम्बद्ध मानते हैं

वागर्थाविव संपृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये। 

जगतः पितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरौ।।

तुलसी ने इसी सत्य को चौपाई में कहा है

गिरा अरथ जल बीचि सम, कहिअत भिन्न न भिन्न।

वाणी और अर्थ जल और उसकी लहर के समान अभिन्न हैं।

श्रीरामचरितमानस का अध्ययन करते समय किष्किंधाकाण्ड का एक प्रसंग ऐसा है, जिसके बारे में अर्थ की भ्रान्ति बनी रहती है। उसका कारण है तुलसी के पूरे कथ्य की सूक्ष्मता को न समझना। प्रसंग है मयसुत  मायावी के साथ बालि का युद्ध- 

नाथ बालि अरु मैं द्वौ भाई। प्रीति रही कछु बरनि न जाई॥

मयसुत मायावी तेहि नाऊँ। आवा सो प्रभु हमरें गाऊँ॥1॥

मायावी ने बालि को चुनौती दी। दोनो द्वन्द्व युद्ध के लिए एक गुफा में चले गए। बालि ने सुग्रीव से कहा-

परिखेसु मोहि एक पखवारा। नहिं आवौं तब जानेसु मारा॥3॥

मास दिवस तहँ रहेउँ खरारी। निसरी रुधिर धार तहँ भारी॥

बालि हतेसि मोहि मारिहि आई। सिला देइ तहँ चलेउँ पराई॥4॥

बालि ने एक पखवाड़े यानी पन्द्रह दिन के लिए गुफा के बाहर प्रतीक्षा करने को कहा था।  पन्द्रह दिन में वापस न आने पर समझ लेना कि मैं मारा दिया गया ।

सुग्रीव का कहना है –‘मास दिवस’ वहाँ खड़ा रहा। खून की धारा निकलते देखी, तो डर के कारण गुफा-द्वार पर शिला रखकर पलायन कर आया।

श्रीरामचरितमानस के  मास दिवस का अर्थ  महीना भर किया गया है,  जो सही नहीं है। सुग्रीव को कहा गया था- पन्द्रह दिन तक प्रतीक्षा करने के लिए, फिर वह वहाँ एक महीने  तक क्यों खड़ा रहेगा।

मन्त्रियों ने बिना शासक के नगर को देखा तो सुग्रीव को राजा बना दिया-

मंत्रिन्ह पुर देखा बिनु साईं। दीन्हेउ मोहि राज बरिआईं॥

बाली ताहि मारि गृह आवा। देखि मोहि जियँ भेद बढ़ावा॥5

बाली ने जब सुग्रीव को सिंहासन पर बैठे देखा, तो उसके मन में भेद  का भाव क्यों उत्पन्न हुआ? एक  पखवारे तक खड़े रहने लिए कहा और वह बेचारा महीने भर खड़ा रहा। वस्तुत ऐसा नहीं है। ‘मास’ बारह होते हैं; इसलिए मास दिवस लिखा यानी बारह दिन। चौपाई में बारह /द्वादश  लिखा जाता, तो चौपाई की एक मात्रा अधिक हो जाती। तीस दिवस लिखना तुलसी जी का अभिप्राय होता, तो लिख देते, कोई छन्द दोष नहीं होता; लेकिन वे तीस लिखना ही नहीं चाहते थे।  बारहवें  दिन रुधिर की धार  निकलती देखकर सुग्रीव  डरकर भाग आया। पन्द्रह दिन वहाँ रुका ही नहीं। दूसरा  कारण- चट्टान से गुफा के द्वार को बन्द कर दिया। बालि के मन में भेद उत्पन्न होना स्वाभाविक था; क्योंकि सुग्रीव गद्दी पर  बैठ गया था।

तुलसी ने लोक व्यवहार को लेकर बहुत से अनुभव रामकथा में पिरोए हैं। मित्र को लेकर कहे ये वचन कितने महत्त्वपूर्ण हैं-

-जे न मित्र दुख होहिं दुखारी। तिन्हहि बिलोकत पातक भारी॥

निज दुख गिरि सम, रज करि जाना। मित्रक दुख रज मेरु समाना॥1॥

-कुपथ निवारि सुपंथ चलावा। गुन प्रगटै अवगुनन्हि दुरावा॥2॥

पापान्निवारयति योजयते हिताय, गुह्यं च गूहति गुणान्प्रकटीकरोति, 

आपद्गतं च न जहाति ददाति काले, सन्मित्रलक्षणमिदं प्रवदन्ति सन्तः -नीति शतक

मित्र के नाम पर कुछ प्रपंची लोग भी होते हैं। ‘अहि गति’ -सर्प की गति वालों से भी सावधान किया है, जो सामने होने पर, बनाकर मृदु बचन बोलेंगे और परोक्ष में अहित करेंगे, मन में कुटिलता का पोषण करेंगे-

आगें कह मृदु बचन बनाई। पाछें अनहित मन कुटिलाई॥

जाकर ‍चित अहि गति सम भाई।अस कुमित्र परिहरेहिं भलाई॥4॥

चाणक्य ने भी यही बात कही थी-

परोक्षे कार्यहन्तारं प्रत्यक्षे प्रियवादिनम्।

वर्जयेत्तादृशं मित्रं विषकुम्भं पयोमुखम्॥

लोक- व्यवहार में नारी के सम्मान को वरीयता दी है, वह चाहे किसी भी रूप में क्यों न हो। आज नारी का शोषण चरम पर है। नारी-शोषक को मारने में कोई पाप नहीं है। यह आज के युग की भी माँग है।

अनुज बधू, भगिनी, सुत नारी। सुनु सठ कन्या सम ए चारी॥

इन्हहि कुदृष्टि बिलोकइ जोई। ताहि बधें कछु पाप न होई॥

तुलसी सज्जन और दुर्जन दोनों में एक साम्य मानते हैं, वह है दुःख। दुष्ट का मिलना और सज्जन का बिछुड़ना, दोनों ही दुःखप्रद हैं-

बंदउँ संत असज्जन चरना। दुःखप्रद उभय बीच कछु बरना॥

बिछुरत एक प्रान हरि लेहीं। मिलत एक दुख दारुन देहीं॥2॥

तुलसीदास ने  कुछ विशेष प्रकार के दुष्टों की भी मन के शुद्ध एवं  सच्चे भाव से वन्दना की है, जो बिना किसी  कारण के लोगों को कष्ट पहुँचाते हैं।  आज इस वर्ग की भरमार है। तथाकथित मित्रों में ये हर समय उपलब्ध हैं

बहुरि बंदि खल गन सतिभाएँ। जे बिनु काज दाहिनेहु बाएँ॥

पर हित हानि, लाभ जिन्ह केरें। उजरें हरष, बिषाद बसेरें॥

दूसरों की हानि उनके लिए लाभ है, किसी के उजड़ने पर जिनको हर्ष होता है, बसने या उन्नति होने पर वे विषाद ग्रस्त हो जाते हैं।

समाज में ऐसे बहुत सारे लोग हमें मिलते हैं, जिनकी कथनी और करनी में बहुत अन्तर होता है। ऐसे अवसरवादी लोग अपनी मीठी वाणी से स्वार्थ- सिद्धि कर लेते हैं। तुलसी ने उनकी पहचान बताई है कि उनका सारा सामाजिक साम्राज्य स्वार्थपरता, क्रूरता और झूठ की बुनियाद  पर खड़ा होता है। तुलसी का यह जीवननुभव हम सबको सचेत करता है। मोर की तरह मधुर वचन बोलने वाले ये कठोर हृदय वाले लोग, मोर की तरह सर्प तक को खा जाते है-

झूठइ लेना, झूठइ देना। झूठइ भोजन, झूठ चबेना॥

बोलहिं मधुर बचन जिमि मोरा। खाई महा अहि हृदय कठोरा॥

किसी की प्रशंसा इनको नहीं पचती। तुलसी ने भी दुष्टों को झेला होगा। हमारे आसपास भी ऐसे बहुत से लोग जमा रहते हैं, जिनको पहचान पाना  बहुत कठिन है-

काहू की जौ सुनहि बड़ाई । स्वास लेहिं जनु जुडी आई।

व्यास जी ने धर्म और अधर्म की सरल व्याख्या की है। परोपकार पुण्य के लिए और परपीड़ा पाप के लिए है।  कुछ को दूसरों को पीड़ित और अपमानित करने में ही आनन्द आता है। तुलसीदास जी ने  भी व्यास जी के इस श्लोक को सार रूप में प्रस्तुत किया है-

अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम् । 

परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् ॥

पर हित सरिस धर्म नहिं भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई॥

जगत् में गुण-अवगुण सब हैं। जिसकी जैसी प्रवृत्ति होती है, वह उसी के अनुसार ग्रहण करता है। पानी में कमल और जोंक  दोनों उपजते हैं, लेकिन दोनों के गुण अलग होते है-

उपजहिं एक संग जग माहीं। जलज जोंक जिमि गुन बिलगाहीं॥

कुछ लोग सत्ता  पाकर विवेक खो देते हैं और निरंकुश हो जाते हैं; लेकिन राम की उदारता और न्यायप्रियता देखिए कि वे विनम्रतापूर्वक कहते हैं-

जौं अनीति कछु भाषौं भाई। तौ मोहि बरजहु भय बिसराई॥3॥

वह तो बात थी मर्यादा पुरुषोत्तम राम की, यहाँ तो लोग किसी छोटी-सी संस्था का छोटा-सा पद पाकर दूसरे लोगों को घास-कूड़ा समझने की भूल कर जाते हैं। अवसान देख ही रहे हैं कि जो सत्ता के शीर्ष पर थे, वे आज अतीत की कथा बनकर रह गए हैं। हम और आप तो सामान्य हैं। गधे के सींग की तरह कब पटल से  गायब हो जाएँगे, नहीं कह सकते।

राजा होने का अर्थ, कर्म को महत्त्व देना है। यहाँ तो एक छोटा-सा अधिकारी और छुटभैया नेता भी चाहता है कि उसके अधीन कर्मचारी, नौकर बनकर  उनके काम करें, उसको जूता तक पहनाएँ। सुग्रीव को राम ने जो वस्त्र पहनाए, वे भरत ने अपने हाथों से बनाए थे। आज सेवकों का मुँह जोहने वालों लोगों को इस कथन से सीख लेनी चाहिए- 

सुग्रीवहि प्रथमहिं पहिराए। बसन भरत निज हाथ बनाए॥3॥

सभी के जीवन में उतार -चढ़ाव आते हैं। हमें धैर्यपूर्वक कठिनाइयों का सामना करना चाहिए। अरण्यकाण्ड में तुलसीदास जी ने अनसूया  के माध्यम से  सीता को बताया -धैर्य, धर्म, मित्र और पत्नी की परख आपत्ति के समय होती है। अनसूया का निम्न कथन आने वाले घटनाक्रम (सीता-हरण, सुग्रीव, हनुमान और विभीषण का मिलना, सीता का पातिव्रत्य, लंका में युद्ध  आदि) का संकेत भी है-

धीरज धर्म मित्र अरु नारी, आपद काल परिखिअहिं चारी।

सार रूप में कहें, तो श्रीरामचरितमानस केवल धार्मिक या काव्य की पुस्तक नहीं, बल्कि यह सर्वांगीण  जीवनबोध का ग्रन्थ है, जो हमें प्रति पग पर दिशा निर्देश देता  है। समाज का कोई पक्ष रामचरित मानस में अछूता नहीं रहा है।

आलेखः लंका विजय के बाद राम अयोध्या विमान से आए थे

  - प्रमोद भार्गव

अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के साथ राम की पुरातन एवं सनातन ऐतिहासिकता के साथ-साथ सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की स्थापना भी हो जाएगी। अब विभिन्न रामायणों में दर्ज उस विज्ञान की वैज्ञानिकताओं को भी मान्यता देने की जरूरत है, जिन्हें वामपंथी पूर्वाग्रहों के चलते वैज्ञानिक एवं बुद्धिजीवी न केवल नकारते रहे हैं, बल्कि इनकी ऐतिहासिकता को भी कपोल-कल्पित कहकर उपहास उड़ाते रहे हैं। अतएव यह समय प्राचीन भारतीय विज्ञान के पुनरुत्थान का भी काल है; क्योंकि रामायण और महाभारत कथाएँ नाना लोक स्मृतियों और विविध आयामों में प्रचलित बनी रहकर वर्तमान हैं। इनका विस्तार भी सार्वभौमिक है। देश-दुनिया के जनमानस में राम-कृष्ण की जो मूर्त-अमूर्त छवि बनी हुई है। शायद इसीलिए भवभूति और कालिदास ने रामायण को इतिहास बताया। वाल्मीकि रामायण और उसके समकालीन ग्रंथों में ‘इतिहास’ को ‘पुरावृत्त’ कहा गया है। गोया, कालिदास के ‘रघुवंश’ में विश्वामित्र राम को पुरावृत्त सुनाते हैं। मार्क्सवादी चिंतक डॉ. रामविलास शर्मा ने रामायण को महाकाव्यात्मक इतिहास की श्रेणी में रखा है,  जबकि इन ग्रंथों में विज्ञानसम्मत अनेक ऐसे सूत्र व स्त्रोत मौजूद हैं, जिनके जरिए नए आविष्कार की दिशा में बढ़ा जा सकता है। विज्ञानसम्मत अंशों को  संकलित कर पाठ्यक्रमों में शामिल करने की जरूरत है। ऐसा करने से मेधावी छात्रों में विज्ञानसम्मत महत्त्वाकांक्षा जागेगी और भारतीय जीवन-मूल्यों के इन आधार ग्रंथों से मिथकीय आध्यात्मिकता की धूल झाड़ने का काम भी संपन्न होगा। वैसे भी ज्यादातर रामायणों में उल्लेख है कि भगवान राम लंका विजय के बाद माता सीता,भाई लक्षमण, हनुमान और सुग्रीव के साथ पुष्पक विमान में बैठकर अयोध्या पहुँचे थे। 

 इतिहास तथ्य और घटनाओं के साथ मानव की विकास यात्रा की खोज भी है। यह तय है कि मानव, अपने विकास के अनुक्रम में ही वैज्ञानिक अनुसंधानों से सायास-अनायास जुड़ता रहा है। ये वैज्ञानिक उपलब्धियाँ या आविष्कार रामायण, महाभारतकाल मे उसी तरह चरमोत्कर्ष पर थे, जिस तरह ऋग्वेद के लेखन-संपादन काल के समय संस्कृत भाषायी विकास के शिखर पर थी। रामायण का शब्दार्थ भी राम का ‘अयन’ अर्थात ‘भ्रमण/ गति’ से है।  तीन सौ रामायण और अनेक रामायण विषयक संदर्भ ग्रंथ, जिनके प्रभाव को नकारने के लिए पाउला रिचमैन ने 1942 में ‘मैनी रामायणस द डाइवर्सिटी आफ ए नैरेटिव ट्रेडिशन इन साउथ एशिया’ लिखी और एके रामानुजन ने ‘थ्री हंड्रेड‘ रामायण फाइव एग्जांपल एंड थ्री थॉट्स आन ट्रांसलेशन’ निबंध लिखकर अनर्गल अंशों को गढ़कर  सच्चाई को झुठलाया। जबकि इन्हीं रामायणों, रामायण विषयक संदर्भ ग्रंथों और मदन मोहन शर्मा शाही के बृहद् उपन्यास से  विज्ञानसम्मत आविष्कारों की पड़ताल की जा सकती है। रामायण एकांगी दृष्टिकोण का वृतांत भर नहीं है। इसमें कौटुम्बिक सांसारिकता है। राज-समाज संचालन के कूट-मंत्र हैं। भूगोल है। वनस्पति और जीव जगत हैं। राष्ट्रीयता है। राष्ट्र के प्रति उत्सर्ग का चरम है। अस्त्र-शस्त्र हैं। यौद्धिक कौशल के गुण हैं। भौतिकवाद है। कणाद का परमाणुवाद है। सांख्य दर्शन और योग के सूत्र हैं। वेदांत दर्शन है और अनेक वैज्ञानिक उपलब्धियाँ हैं। गांधी का राम-राज्य और पं. दीनदयाल उपाध्याय के आध्यात्मिक भौतिकवाद के उत्स इन्हीं रामायणों में हैं। वास्तव में रामायण और उसके परवर्ती ग्रंथ कवि या लेखक की कपोल-कल्पना न होकर तात्कालिक ज्ञान के विश्वकोश हैं। जर्मन विद्वान मैक्समूलर ने तो ऋग्वेद को कहा भी था कि यह अपने युग का विश्वकोश है। अर्थात् ‘एन-साइक्लोपीडिया ऑफ वर्ल्ड’ !

लंकाधीश रावण ने नाना प्रकार की विधाओं के पल्लवन की दृष्टि से यथोचित धन व सुविधाएँ उपलब्ध कराई थीं। रावण के पास लड़ाकू वायुयानों और समुद्री जलपोतों के बड़े भण्डार थे। प्रक्षेपास्त्र और ब्रह्मास्त्रों का अकूत भण्डार व उनके निर्माण में लगी अनेक वेधशालाएँ थीं। दूरसंचार व दूरदर्शन के तकनीकी-यंत्र लंका में स्थापित थे। राम-रावण युद्ध केवल राम और रावण के बीच न होकर एक विश्व युद्ध था। जिसमें उस समय की समस्त विश्व-शक्तियों ने अपने-अपने मित्र देश के लिए लड़ाई लड़ी थी। परिणामस्वरूप ब्रह्मास्त्रों के विकट प्रयोग से लगभग समस्त वैज्ञानिक अनुसंधान-शालाएँ उनके आविष्कारक, वैज्ञानिक व अध्येता काल-कवलित हो गए। यही कारण है कि हम कालांतर में हुए महाभारत युद्ध में वैज्ञानिक चमत्कारों को रामायण की तुलना में उत्कृष्ट व सक्षम नहीं पाते हैं। यह भी इतना विकराल विश्व-युद्ध था कि रामायण काल से शेष बचा जो विज्ञान था, वह महाभारत युद्ध के विध्वंस की लपेट में आकर नष्ट हो गया। इसीलिए महाभारत के बाद के जितने भी युद्ध हैं, वे खतरनाक अस्त्र-शस्त्रों से न लड़े जाकर थल सेना के माध्यम से ही लड़े गए दिखाई देते हैं। बीसवीं सदी में हुए द्वितीय विश्व युद्ध में जरूर हवाई हमले के माध्यम से अमेरिका ने जापान के हिरोशिमा-नागाशाकी में परमाणु हमले किए थे।

वाल्मीकि रामायण एवं नाना रामायणों तथा अन्य ग्रंथों में ‘पुष्पक-विमान’ के उपयोग के विवरण हैं। इससे स्पष्ट होता है, उस युग में राक्षस व देवता न केवल विमान-शास्त्र के ज्ञाता थे, बल्कि सुविधायुक्त आकाशगामी साधनों के रूप में वाहन उपलब्ध थे। रामायण के अनुसार पुष्पक-विमान के निर्माता ब्रह्मा थे। ब्रह्मा ने यह विमान कुबेर को भेंट किया था। कुबेर से इसे रावण ने छीन लिया। रावण की मृत्यु के बाद विभीषण इसका अधिपति बना और उसने फिर से इसे कुबेर को दे दिया। कुबेर ने इसे राम को उपहार में दे दिया। राम लंका विजय के बाद अयोध्या इसी विमान से पहुँचे थे।

रामायण में दर्ज उल्लेख के अनुसार पुष्पक-विमान मोर जैसी आकृति का आकाशचारी विमान था, जो अग्नि-वायु की समन्वयी ऊर्जा से चलता था। इसकी गति तीव्र थी और चालक की इच्छानुसार इसे किसी भी दिशा में गतिशील रखा जा सकता था। इसे छोटा-बड़ा भी किया जा सकता था। यह सभी ऋतुओं में आरामदेह यानी वातानुकूलित था। इसमें स्वर्ण-खंभ, मणि निर्मित दरवाजे, मणि-स्वर्णमय सीढ़ियाँ, वेदियाँ (आसन) गुप्त-गृह, अट्टालिकाएँ (केबिन) तथा नीलम से निर्मित सिंहासन (कुर्सियाँ) थे। अनेक प्रकार के चित्र एवं जालियों से यह सुसज्जित था। यह दिन और रात दोनों समय गतिमान रहने में समर्थ था। इस विवरण से ज्ञात होता है, यह उन्नत प्रौद्योगिकी और वास्तुकला का अनूठा नमूना था।

‘ऋग्वेद’ में भी चार तरह के विमानों का उल्लेख है, जिन्हें आर्य-अनार्य उपयोग में लाते थे। इन चार वायुयानों को शकुन, त्रिपुर, सुन्दर और रुक्म नामों से जाना जाता था। ये अश्वहीन, चालक रहित , तीव्रगामी और धूल के बादल उड़ाते हुए आकाश में उड़ते थे। इनकी गति पतंग (पक्षी) की भाँति, क्षमता तीन दिन-रात लगातार उड़ते रहने की और आकृति नौका जैसी थी। त्रिपुर विमान तो तीन खण्डों (तल्लों) वाला था तथा जल, थल एवं नभ तीनों में विचरण कर सकता था। रामायण में ही वर्णित हनुमान की आकाश-यात्राएँ, महाभारत में देवराज इन्द्र का दिव्य-रथ, कार्तवीर्य अर्जुन का स्वर्ण-विमान एवं सोम-विमान, पुराणों में वर्णित नारदादि की आकाश यात्राएँ एवं विभिन्न देवी-देवताओं के आकाशगामी वाहन रामायण-महाभारत काल में वायुयान और हेलीकॉप्टर जैसे यांत्रिक साधनों की उपलब्धि के प्रमाण हैं।

किंवदंती यह भी है कि गौतम बुद्ध ने भी वायुयान द्वारा तीन बार लंका की यात्रा की थी। ऐरिक फॉन डानिकेन की किताब ‘चैरियट्स ऑफ गॉड्स’ में तो भारत समेत कई प्राचीन देशों से प्रमाण एकत्र करके वायुयानों की तात्कालीन उपस्थिति की पुष्टि की गई है। इसी प्रकार डॉ. ओंकारनाथ श्रीवास्तव ने अनेक पाश्चात्य अनुसंधानों के मतों के आधार पर संभावना जताई है कि रामायण में अंकित हनुमान की यात्राएँ वायुयान अथवा हेलीकॉप्टर की यात्राएँ थीं या हनुमान ‘राकेट-बेल्ट‘ बाँधकर आकाश गमन करते थे, जैसा कि आज के अंतरिक्ष-यात्री करते हैं। हनुमान-मेघनाद में परस्पर हुआ वायु-युद्ध हावरक्रफ्ट से मिलता-जुलता है। आज भी लंका की पहाड़ियों पर चौरस मैदान पाए जाते हैं, जो शायद उस कालखण्ड के वैमानिक अड्डे थे। प्राचीन देशों के ग्रंथों में वर्णित उड़ान-यंत्रों के वर्णन लगभग एक जैसे हैं। कुछ गुफा-चित्रों में आकाशचारी मानव एवं अंतरिक्ष वेशभूषा से युक्त व्याक्तियों के चित्र भी निर्मित हैं। ये चित्र मूर्तियों के रूप में दक्षिण भारत के कुछ मंदिरों में भी मिलते हैं। मिस्त्र में दुनिया का ऐसा नक्शा मिला है, जिसका निर्माण आकाश में उड़ान-सुविधा की पुष्टि करता है। इन सब साक्ष्यों से प्रमाणित होता है कि पुष्पक व अन्य विमानों के रामायण में वर्णन कोई कवि की कोई कोरी कल्पना की उड़ान नहीं है।

          ताजा वैज्ञानिक अनुसंधानों ने तय किया है कि रामायण काल में वैमानिकी प्रौद्योगिकी इतनी अधिक विकसित थी, जिसे आज समझ पाना भी कठिन है। रावण का ससुर मयासुर अथवा मय दानव ने भगवान विश्वकर्मा (ब्रह्मा) से वैमानिकी विद्या सीखी और पुष्पक विमान बनाया। जिसे कुबेर ने हासिल कर लिया। पुष्पक विमान की प्रौद्योगिकी का विस्तृत ब्यौरा महर्षि भारद्वाज द्वारा लिखित पुस्तक ‘यंत्र-सर्वेश्रवम्‘ में भी किया गया था। वर्तमान में यह पुस्तक विलुप्त हो चुकी है, लेकिन इसके 40 अध्यायों में से एक अध्याय ‘वैमानिक शास्त्र’ अभी उपलब्ध है। इसमें भी शकुन, सुन्दर, त्रिपुर एवं रुक्म विमान सहित 25 तरह के विमानों का विवरण है। इसी पुस्तक में वर्णित कुछ शब्द जैसे ‘विश्व क्रिया दर्पण’ आज के राडार जैसे यंत्र की कार्यप्रणाली का रूपक है।

नए शोधों से पता चला है कि पुष्पक-विमान एक ऐसा चमत्कारिक यात्री विमान था, जिसमें चाहे जितने भी यात्री सवार हो जाएँ, एक कुर्सी हमेशा रिक्त रहती थी। यही नहीं, यह विमान यात्रियों की संख्या और वायु के घनत्व के हिसाब से स्वमेव अपना आकार छोटा या बड़ा कर सकता था। इस तथ्य के पीछे वैज्ञानिकों का यह तर्क है कि वर्तमान समय में हम पदार्थ को जड़ मानते हैं, लेकिन हम पदार्थ की चेतना को जागृत कर लें तो उसमें भी संवेदना सृजित हो सकती है और वह वातावरण व परिस्थितियों के अनुरूप अपने आपको ढालने में सक्षम हो सकता है। रामायण काल में विज्ञान ने पदार्थ की इस चेतना को संभवतः जाग्रत कर लिया था, इसी कारण पुष्पक- विमान स्व-संवेदना से क्रियाशील होकर आवश्यकता के अनुसार आकार परिवर्तित कर लेने की विलक्षणता रखता था। तकनीकी दृष्टि से पुष्पक में इतनी खूबियाँ थीं, जो वर्तमान विमानों में नहीं हैं। ताजा शोधों से पता चला है कि यदि उस युग का पुष्पक या अन्य विमान आज आकाश गमन कर लें तो उनके विद्युत चुंबकीय प्रभाव से मौजूदा विद्युत व संचार जैसी व्यवस्थाएँ ध्वस्त हो जाएँगी। पुष्पक- विमान के बारे में यह भी पता चला है कि वह उसी व्यक्ति से संचालित होता था, जिसने विमान संचालन से संबंधित मंत्र सिद्ध किया हो, मसलन जिसके हाथ में विमान को संचालित करने वाला रिमोट हो। शोधकर्ता भी इसे कंपन तकनीक (वाइब्रेशन टेकनोलॉजी) से जोड़कर देख रहे हैं। पुष्पक की एक विलक्षणता यह भी थी कि वह केवल एक स्थान से दूसरे स्थान तक ही उड़ान नहीं भरता था, बल्कि एक ग्रह से दूसरे ग्रह तक आवागमन में भी सक्षम था। यानी यह अंतरिक्षयान की क्षमताओं से भी युक्त था।

सम्पर्कः  शब्दार्थ 49, श्रीराम कॉलोनी, शिवपुरी म.प्र., मो. 09425488224, 09981061100


कविताः कर्म फल

  -सत्या शर्मा ‘कीर्ति’

कई बार हमारी प्रार्थनाएँ

साथ देती नहीं हैं हमारा

और करने लगती हैं

प्रदक्षिणा

उल्टे कदमों से


दुखों की गाँठें

खुलने के बदले

कसती जाती हैं

मणिबंध पर

 

हल्दी- केशर का तिलक भी

सौभाग्य नहीं बन पाता

 

चिंताओं की भभूत

चमक उठती है

ललाट के मध्य बिंदु

पर

 

विपरीत परिस्थितियाँ

करती हैं शंखनाद

 

सफलता के प्राचीर पर

लहराने लगती है

असफलता की पताका

 

ग्रहों के खेल में उलझी

हथेलियों की रेखाएँ

करती है जाने कितने जतन

हवन- पूजन

 

पर संचित कर्म

प्रारब्ध कर्म बन

लगाता है फेरा

और हमारे वर्तमान में

लिखता है हमारे ही कर्मों का

लेखा -जोखा।


आलेखः रसोईघर से टूटा माताओं का नाता

 - डॉ. महेश परिमल

देश में 2.49 लाख करोड़ का होगा जंक फूड उद्योग, विश्व में भले ही जंक फूड का कारोबार घटा हो, पर हमारे देश में यह बहुत ही तेजी से बढ़़ रहा है। इसके पीछे बहुत ही वजहें हैं। सबसे बड़ी वजह है भारत में विभिन्न माध्यमों में दिखाए जाने वाले जंक फूड के लोक-लुभावन विज्ञापन। इसका पूरा फायदा बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ उठा रहीं हैं। यह वजह तो हमारे सामने है, पर हम कुछ भी नहीं कर सकते। इस दिशा में सरकार जागेगी अवश्य, पर हमेशा की तरह देर से। दूसरी सबसे बड़ी वजह है, जो हमारे बिलकुल करीब है। हम रोज ही उससे दो-चार होते ही हैं। पर हमें वह दिखाई नहीं देती। देगी भी नहीं; क्योंकि यह एक ऐसा व्यामोह है, जिसमें हम सब उलझे हुए हैं। हम चाहकर भी उससे छुटकारा नहीं पा सकते।

दूसरी वजह पर चर्चा करने के पहले एक बार अपने मोहल्ले या कॉलोनी के गेट पर सुबह-सुबह खड़े हो जाएँ। यह संभव न हो,तो आप दिन में एक बार कॉलोनी के गेट पर आने वालों की सूची ही देख लें। आप पाएँगे कि आने वालों में अधिकतर आयातित नाश्ता या भोजन लाने वाले विभिन्न उत्पादन कंपनियों के कर्मचारी ही होंगे। आखिर ये क्या हो रहा है? क्या लोगों ने घर पर नाश्ता या भोजन बनाना छोड़ दिया? या घर में खाना बनाने वाली या कामवाली बाइयों ने हड़ताल कर दी? क्या अब माँ के हाथ का खाना बच्चों को अच्छा नहीं लगता? या खाना बनाने वाले रामू चाचा के हाथों पर अब वह दम नहीं रहा। उनके बनाए भोजन पर अब उँगलियाँ चाटने का मन नहीं करता? वह खाना जिसे बनाने में माँ खुद को झोंक देती थी, अब वही खाना क्यों हमें अरुचिकर लग रहा है? कमी कहाँ रह गई है, कभी सोचा आपने? फास्ट फूड का यह व्यापार आज इसीलिए लगातार बढ़ रहा है; क्योंकि पहली वजह पर तो कभी न कभी काबू पा ही लिया जाएगा; लेकिन दूसरी बड़ी वजह आज आपके सामने है, इसे आप शायद कभी काबू नहीं पा पाएँगे।

बड़ा शहर हो या छोटा शहर, आज वहाँ तुरंत घर के दरवाजे पर आने वाला खाना सभी को रुचिकर लग रहा है। आपने भी कभी न कभी तो उस आयातित भोजन को चखा ही होगा। कितना मसालेदार, कितना तैलीय, कितना कुरकुरा और कितना लजीज होता होगा। इसका अंदाजा तो आपने अवश्य लगाया होगा। उस मसालेदार और कथित लजीज भोजन के सामने माँ, बहन या पत्नी के हाथों बना नाश्ता या भोजन काफी फीका लगता होगा ना? आप कहेंगे कि मुझे यह सब बिलकुल भी पसंद नहीं, मैं सादा भोजन करने में विश्वास करता हूँ। पर घर की देहरी पर जब आयातित भोजन लाने वाला कर्मचारी आ खड़ा होता है, तो आप भी थोड़ी देर के लिए ललचा तो जाते ही होंगे। अगर आप अपनी जिद पर अड़े रहे, तो फिर बच्चों को क्या जवाब दोगे? वह तो अपनी खुशी में आपको शामिल करना चाहते हैं; पर आपको  उनकी खुशी सुहाती नहीं है। आप बच्चों के सामने बुरे बन जाएँगे। भविष्य में बच्चे आपको दकियानूसी मानेंगे और फिर वे घर में मँगाना बंद कर बाहर से ही वह आयातित भोजन ग्रहण करके आएँगे। तब आप क्या करेंगे? आप कितनी भी कोशिश कर लें, यह मायाजाल आपको उलझाकर ही रहेगा। आप पार्टी में भी जाकर अनजान बन सकते हैं। भीड़ में अकेले हो सकते हैं। आप अपनी सादगी का राग वहाँ नहीं अलाप सकते। आपको कदम-कदम पर इसका सामना करना ही होगा।

यह सच है कि आजकल बच्चों को माँ के हाथ का भोजन अच्छा नहीं लगता। हर माँ की यही शिकायत होती है कि मेरा बच्चा रोज टिफिन ऐसे ही वापस ले आता है। मैं कितना भी अच्छा बनाऊँ, पर इसे तो अपने दोस्तों का ही खाना अच्छा लगता है। बच्चों के दोस्तों की मम्मी ऐसा क्या बनाती है, जो मेरे बच्चे को अच्छा लगता है? इसका राज यदि कभी जानने का अवसर मिलता है, तो बच्चे के दोस्त की मम्मी कह देती है कि उसने तो अपनी माँ या सास से सीखा है। मेरे बच्चे मेरे हाथ का खाना कभी जूठा नहीं छोड़ते। पर इसके पीछे का रहस्य कोई नहीं जानता। या तो वे भी आयातित नाश्ते या भोजन के प्रेमी हैं, या फिर उन्होंने अपने यहाँ कोई मोटे वेतन वाला कुक रखा है। जो सभी के लिए उनके अनुसार रुचिकर नाश्ता या भोजन बनाता है।

वास्तव में आज महिलाओं का रसोईघर से नाता टूटता जा रहा है। वे रसोई घर में जाकर भोजन बनाने के काम को बहुत ही छोटा मानने लगी हैं। उनका सोचना यही है कि इस काम के बजाए यदि हम दूसरा काम करेंगे, तो हमें अपनी तरह से जीने का अवसर मिलेगा और हम अपनी जिंदगी को ज्यादा ही अच्छी तरीके से जी लेंगी। रसोईघर से नाता टूटने का आशय यही है कि आप अपने भोजन से घर के सदस्यों को संतुष्ट नहीं कर पा रहीं हैं। ऐसे में घर का पुरुष एक दिन कहे कि आज मैं सभी के लिए भोजन बनाऊँगा, तो एक साथ विरोध के कई स्वर मुखर हो जाएँगे। आप रहने दीजिए पापा, आपके भोजन का स्वाद हमको पता है। आपको बनाना हो, तो अपने लिए बना लो, पर हम आपके हाथ का भोजन ग्रहण नहीं करेंगे। इस विरोध के सामने पापा का कद बहुत ही छोटा हो जाता है। पापा सोचते हैं, मैं इनके हाथों का खाना पूरे साल भर खा सकता हूँ, भले ही वह मुझे अच्छा न लगे, पर आज जब मैं सबके लिए अपनी पसंद का भोजन बनाना चाहता हूँ, तो विरोध के इतने स्वर मुखर हो गए? आखिर कहाँ कमी रह गई मेरे संस्कार में?

वास्तव में आजकल रसोईघर में जो भोजन तैयार हो रहा है, उसमें समर्पण का पूरी तरह से अभाव है। फोन पर बातचीत के साथ या फिर उससे निकलने वाले गानों की मधुर धुनों के बीच जो भोजन तैयार हो रहा है, उसमें मसाले तो सभी हैं, पर उस समर्पण का पूरी तरह से अभाव है, जो होना चाहिए। इसके साथ ही हम याद करें, बरसों पहले हमारे लिए भोजन बनाती माँ को। वह भोजन बनाते समय यही सोचती रहती थी कि आज मैं जो भोजन बनाऊँगी, उससे मेरे बच्चों का पेट अच्छे से भरेगा, वे भरपेट भोजन करेंगे। यह भोजन भले ही मेरे लिए न बचे, पर मेरे बच्चों को कम न पड़े, ईश्वर यही दया करना। इस भोजन को ग्रहण कर मेरे बच्चे स्वस्थ रहें, मेरी यही कामना है। सोचो, इस विचार के साथ तैयार किया जाने वाला भोजन भला कैसे अरुचिकर हो सकता है? आज की पीढ़ी इस समर्पण को शायद ही समझ पाएगी।

यह भी सच है कि आजकल की माँ भी बहुत व्यस्त हो गई हैं। वे कई भूमिकाओं में विभाजित होती हैं। घर के काम के अलावा उनके पास बहुत से ऐसे काम हैं, जो समाज के लिए अति आवश्यक हैं। उन कामों को संपादित करना भोजन बनाने से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। यदि वे ऐसा न करें, तो सोशल मीडिया में वे सभी हाशिए पर आ जाएँगी; इसलिए घर के सदस्यों के लिए भोजन बनाने से भी अधिक समय महत्त्वपूर्ण कामों को करने में लगाती हैं। कामकाजी महिलाओं की तो बात ही न पूछो, उन्हें तो पल भर के लिए चैन नहीं। उन्हें कदम-कदम पर चुनौतियों का सामना करना होता है। रोज नई चुनौतियाँ उन्हें रसोईघर से दूर कर देती हैं। ऐश्वर्यशाली जीवन जीने वाली महिलाएँ केवल रसोईघर तक ही सीमित नहीं हैं, बाकी सभी जगह उनकी उपस्थिति अनिवार्य है। ऐसे में कैसे बन पाएगा रुचिकर भोजन? हम इस आयातित भोजन में ही अपना शेष जीवन देखते भर रह जाएँगे। साथ ही अनजाने में फास्ट फूड ग्रहण कर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मोहरे बन जाएँगे। बीमार होकर डॉक्टरों के दरवाजे खटखटाएँगे। मानसिक रोग का शिकार होकर मनोचिकित्सक की देहरी पर अपना माथा टेकेंगे। इसके बाद भी हम तथाकथित बाबाओं, साधु-महात्माओं के दरबार में जाने का एक मौका भी नहीं छोड़ेंगे। ये समाज की सच्ची सच्चाई है, जिस पर कोई सरकार कभी रोक नहीं लगा पाएगी। हम ही इस पर अंकुश लगा सकते हैं, क्या आप इसके लिए तैयार हैं? बोलो….

सम्पर्कः  टी 3- 204, सागर लेक व्यू, वृंदावन नगर, अयोध्या बायपास, भोपाल- 462022, मो. 09977276257


प्रेरकः एक सीख ऐसी भी

  - सुरभि डागर

अनुराधा बड़े उमंग से श्राद्ध कर रही थी । ससुर जी के लिए खीर  तो जरूर बनाऊँगी, उड़द- चावल, बूरा सारी चीजें ससुर जी की पसंद की बन रहीं थीं । पंडित जी को  भोजन कराना है। जाओ, बुलाकर ले आओ, साथ ही कपड़े भी बाहर निकालकर रख दो। दक्षिणा भी ऊपर ही रख देना कपड़ों के ।

मैं सोच रही हूँ- पंडित जी को गर्म रजाई और बर्तन भी दे दूँगी, ताकि पूज्य पिताजी को इसका लाभ प्राप्त हो। उनकी आत्मा भी संतुष्ट हो। उनको देखकर भी प्रसन्नता होगी । और वो दुआएँ देंगे।

सासू माँ चारपाई पर बैठी, सब कुछ मौन होकर देख रही थी। राजेश बहुत उलझन में था; पर बोल कुछ नहीं रहा था। 

पंडित जी को बुला लाया और कोने में खड़ा हो गया। पंडित जी के लिए आसन लगा दिया। पंडित जी ने कहा- रसोई से महक बाहर तक आ रही है 

अनुराधा ने कहा- पिताजी की पसंद की सब चीजें बनाई हैं ।

पंडित जी मुस्कुराते हुए बोले- माता जी को चाय मिली या नहीं?  ये तो चुप चारपाई पर बैठी हैं।

अरे पंडित! जी चूल्हा जूठा हो जाता, यदि कोई कुछ खा लेता।  पहले भोजन पिताजी के नाम का है।

पंडित जी पता नहीं क्या सोचकर चुप हो गए। इतने में भोजन की थाली आ गई। भर पेट भोजन किया । और उठ खड़े हुए। ‌ बोले- अब आज्ञा दो ।

 अनुराधा ने पंडित जी को कपड़े बर्तन, रुपये  और गर्म- ठंडे विस्तर दिए- बोली आशू के पापा पंडित जी का सामान पहुँचवा देना । 

राजेश ने अच्छा कहकर फिर मौन धारण कर लिया।

अनुराधा ने कहा- पंडित जी, दुआएँ देकर जाओ हमें। हमारे पिता जी जहाँ हो, खुश हों।

अब तो पंडित जी बोल उठे- दुआएँ तो नहीं; पर एक सीख जरूर दूँगा। जब पिताजी थे, तब उनको पकवान नहीं खिलाएँ। अब माता जी दुःखी हैं। न तुम दोनों इनकी इज्जत करते हो, न समय पर भोजन देते हो। अभी चाय तक नहीं मिली इनको । बिस्तर भी फटा पुराना है।  बर्तन भी अलग कर दिए हैं, बाद में माता जी का भी श्राद्ध इतनी ही प्रसन्नता से करना। जो हुआ, सो हुआ। अब माँ का ध्यान रख लो, तो पिताजी तो‌ आप ही खुश हो जाएँगे, दुआएँ भी देंगें और मैं भी दुआओं से झोली भर दूँगा। फिर करना पिताजी का श्राद्ध और मुझे बुलाना।

 माता जी के नयन गीले हो गए। अपनी साड़ी के पल्लू से आँसू पोछने‌ लगीं।

पर्व- संस्कृतिः सृष्टि की ऊर्जा है देवी दुर्गा

  - प्रमोद भार्गव

भारत में देवी की पूजा वैदिक युग में ही आरंभ हो गई थी। ऋग्वेद के देवी सूक्तम् में सभी देवताओं की आंतरिक शक्ति की बात कही गई है, जो ऊर्जा की प्रतीक है। हरिवंश पुराण में कालरात्रि, निद्रा और योगमाया के समन्वित रूपों के बारे में बताया है कि जब भगवान विष्णु नींद में होते हैं, तब देवी दुर्गा ही विश्व की सुरक्षा करती हैं। इसीलिए देवी कालरात्रि की काया का रंग घने अंधकार की तरह काला है और सिर के बाल बिखरे हुए है। गले में बिजली की तरह चमकने वाली माला डाली है। इनकी तीन आँखें हैं। तीनों नेत्र ब्रह्मांड के सामान अंडाकार हैं। इन चक्षुओं से तीव्र विद्युत की किरणें निरंतर प्रवाहित होती रहती है। जो अक्षय ऊर्जा की द्योतक हैं। यही ऊर्जा सृष्टि में फैली हुई है। इसी ऊर्जा में भगवान शिव का अर्धनारीश्वर रूप दृष्टिगोचर होता रहता है। इस रूप के स्त्री रूप से शरीर विज्ञान सम्मत मानव संरचना में एक्स तत्त्व से है और  पुरुष रूप में वाय तत्त्व से है। अर्थात् यह रूप स्त्री-पुरुष में समानता जताता है। भारतीय वाङ्मय में काम-ऊर्जा को सबसे शक्तिशाली ऊर्जा माना गया। इसीलिए पुरुष में जब वाय गुणसूत्र की अधिकता होती है तो पुरुष और स्त्रीयोचित गुण एक्स की अधिकता होती है तो स्त्री का जन्म होता है।  

दैवीय शक्तियाँ वे हैं, जो मनुष्य के अनुकूल हैं, अर्थात् फलदायी हैं और आसुरी शक्तियाँ वे हैं, जो मनुष्य के प्रतिकूल हैं, अर्थात उसे हानि पहुँचाने में समर्थ हैं। नवरात्रों का आयोजन दो ऋतुओं की परिवर्तन की जिस वेला में होता है, वह इस बात का द्योतक है कि जीवन में बदलाव की स्वीकार्यता अनिवार्य है। नवरात्रों का आयोजन अश्विन मास के शुक्ल पक्ष में किया जाता है। शुक्ल पक्ष घटते अंधकार या अज्ञान का प्रतीक है, वहीं कृष्ण पक्ष बढ़ते अंधकार और अज्ञान का प्रतीक है। प्रति माह उत्सर्जित और विलोपित होने वाले यही दोनों पक्ष जीवन के सकारात्मक और नकारात्मक पक्ष की प्रवृत्ति हैं। प्रकृति से लेकर जीवन में हर जगह अंतर्विरोध व्याप्त है। इन्हीं विरोधाभासी पक्षों में सामंजस्य बिठाने का काम दुर्गा के बहुआयामी रूप करते हैं।

  मार्कंडेय पुराण में प्रकाश और ऊर्जा के बारे में कहा गया है कि ‘देवों ने एक प्रकाश पुंज देखा, जो एक विशाल पर्वत के समान प्रदीप्त था। उसकी लपटों से समूचा आकाश भर गया था। फिर यह प्रकाश पुंज एक पिंड में बदलता चला गया, जो एक शरीर के रूप में अस्तित्व में आया। फिर वह कालांतर में एक स्त्री के शरीर के रूप में आश्चर्यजनक ढंग से परिवर्तित हो गया। इससे प्रस्फुटित हो रही किरणों ने तीनों लोकों को आलोकित कर दिया। प्रकाश और ऊर्जा का यही समन्वित रूप आदि शक्ति या आदि माँ कहलाईं। छान्दोग्य उपनिषद में कहा गया है कि ‘अव्यक्त’ से उत्पन्न तीन तत्त्वों अग्नि, जल और पृथ्वी के तीन रंग सारी वस्तुओं में अंतर्निहित हैं। अतः यही सृष्टि और जीवन के मूल तत्व हैं। अतएव प्रकृति की यही ऊर्जा जीवन के जन्म और उसकी गति का मुख्य आधार है।’ 

इस अवधारणा से जो देवी प्रकट होती है, वही देवी महिषासुर मर्दिनी है। इसे ही पुराणों में ब्रह्माण्ड की माँ कहा गया है। इसके भीतर सौंदर्य और भव्यता, प्रज्ञा और शौर्य, मृदुलता और शांति विद्यमान हैं। चरित्र के इन्हीं उदात्त तत्त्वों से फूटती ऊर्जा इस देवी के चेहरे को प्रगल्भ बनाए रखने का काम करती है। ऋषियों ने इसे ही स्त्री की नैसर्गिक आदि शक्ति माना है और फिर इसी का दुर्गा के नाना रूपों में मानवीकरण किया है। उपनिषदों में इन्हीं विविध रूपों को महामाया, योगमाया और योग निद्रा के नामों से चित्रित व रेखांकित किया गया। इनमें भी महामाया को ईष्वर या प्रकृति की सर्वोच्च सत्ता मानकर विद्या एवं अविधा में विभाजित किया गया है। विद्या व्यक्ति में आनंद का अनुभव कराती हैं, जबकि अविद्या सांसरिक इच्छाओं और मोह के जंजाल में जकड़ती है। विद्या को ही योगमाया या योगनिद्रा के नामों से जाना जाता है। 

योगमाया सृष्टि की वैश्विक व्यवस्था का प्रतीक है, जबकि योगनिद्रा स्रष्टा की समाधि की अवस्था में आई निद्रा है। यह स्थिति चेतन अवस्था से अंधकार के क्षेत्र में प्रवेश को दर्शाती है, जो प्रलय की भी द्योतक है। अंततः यही आदि शक्तियाँ क्षीर सागर में शेष शय्या पर लेटे भगवान नारायण, नारायण यानी जल में निवास करने वाले विष्णु को चेताती हैं कि समाधि के शून्य-भाव से जागो और अंधकारमयी विरोधी ताकतों से ब्रह्माण्ड को मुक्त कराओ। देवी की प्रकृति रूपी यही अवस्थाएँ सत्व, रज और तम गुणों में रूपांतरित होकर सृष्टि को संतुलित बनाए रखने का काम करती है; इसीलिए देवी को आद्या या असाधारण शक्ति कहा गया है। विश्व की इस जननी के बिना शिव भी ‘शव’ मात्र हैं। 

  जब ब्रह्मांड में ऊर्जा का विघटन होता है, तो आसुरी शक्तियाँ जाग्रत हो जाती हैं। ऊर्जा जब अव्यवस्थित हो जाती है, तब ध्वंसात्मक स्थितियों का निर्माण होता है। आज विध्वंसकारी वैज्ञानिक प्रयोगों के चलते दुनियाभर में ऊर्जा का ध्वंसात्मक रूप दिखाई दे रहा है। अराजक बनता यही परिवेष नकारात्मक यानी आसुरी ऊर्जा को बढ़ाता है। इस ऊर्जा को अक्षुण्ण बनाए रखने का काम ब्रह्मा, विष्णु, महेश करते हैं। देवी महात्म्य में कहा भी गया है कि देव और असुरों के बीच जब महायुद्ध हुआ तो वह सौ दिन तक चला। इस समय राक्षस महिश असुरों का राजा था और इंद्र देवताओं के अधिपति थे। इस संघर्ष में असुरों ने देवताओं का परास्त कर दिया। फलतः महिश देवों का भी सम्राट बन बैठा। 

   पराजित देवता प्रजापति ब्रह्मा के नेतृत्व में विष्णु व शिव के पास गए। उन्होंने युद्ध और फिर पराजय का दुखद वृत्तांत विष्णु व शिव को सुनाया। इसे सुनकर दोनों आक्रोश से लाल हो गए। विष्णु ने मुख खोला और उससे तीव्र गति से अक्षय ऊर्जा बाहर आई। ऐसा ही रोश ब्रह्मा और शिव ने ऊर्जा के रूप में मुख से प्रकट किया। इंद्र के शरीर से भी ऊर्जा का प्रस्फुटन हुआ। अन्य देवों ने भी अपने-अपने मुखों से ऊर्जा छोड़ी। ऊर्जा के इस प्रवाह से नकारात्मक ऊर्जा सकारात्मक ऊर्जा में परिवर्तित होने लग गई। मुखों से उत्सर्जित इन ऊर्जा रूपी लपटों ने एक पर्वत का आकार ग्रहण कर लिया। इसी पर्वत से कात्यायनी प्रकट हुईं। दुर्गा का यही रूप महिषासुर मर्दिनी कहलाया। 

लीला भाव में यही दुर्गा चार पैरों के राजा सिंह की पीठ से टिककर खड़ी हैं। सिंह भी क्रूर शक्ति का प्रतीक है, लेकिन उसे वश में कर लिया गया है। देवी अराजक महिश के शरीर को रौंद रही हैं। उनका एक पैर असुर के सिर पर है। महिष शक्तिशाली तो है, लेकिन उसका आचरण क्रूर है, इसलिए वह ब्रह्माण्ड के आध्यात्मिक आधार के अनुकूल नहीं है। यही कारण है कि कात्यायनी महिष को पददलित कर उसके अहंकार को चूर कर देती हैं। महिष के प्राण हरने के बाद कात्यायनी महिषासुर-मर्दिनी कहलाती हैं। इसीलिए इन्हें ब्रह्माण्ड की जननी कहा गया, जो पृथ्वी का प्रतीक है। ब्रह्माण्ड के अस्तित्व का यही बीज है। प्रकृति के इन्हीं रूपों का मानवीकरण करते हुए ऋग्वेद में कहा है कि ‘ज्ञान के सभी विषय और क्रियाकलाप अंततः देवी के रूप हैं। ‘सृष्टि सृजन के आरंभ से लेकर अब तक नारियाँ माँ का रूप हैं। नारी के मातृत्व की डिंब में स्थित इस ऊर्जा को प्रजापति ब्रह्मा ने स्वयं विभाजित करके मानव के अस्तित्व को सृजित किया था। वह नारी ही है, जो अपनी ऊर्जा से मनुष्य को मनुष्यत्व प्रदान करती है। साफ है, भगवती दुर्गा मूल प्रकृति का वह रूप हैं, जिसमें समस्त शक्तियाँ समाहित हैं।  

धरोहरः छत्तीसगढ़ में है माता कौशल्या का एकमात्र मंदिर

भगवान राम का ननिहाल ग्राम चंदखुरी 

हमारे देश में हर जगह भगवान राम के अनेक मंदिर हैं;  लेकिन उनकी माता कौशल्या का इकलौता मंदिर अगर कहीं देखने को मिलेगा, तो वह सिर्फ छत्तीसगढ़ में। कौशल्या माता का यह प्राचीन मंदिर छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से लगभग 27 किलोमीटर दूर ग्राम चंदखुरी में जलसेन तालाब के बीच स्थित है। 

इस स्थान को भगवान राम की माता कौशल्या की जन्मस्थली माना जाता है। प्रभु श्रीराम को गोद में लिये हुए माता कौशल्या की अद्भुत प्रतिमा इस मंदिर को दुर्लभ बनाती है। 1973 में  इस मंदिर का जीर्णोद्धार किए जाने की जानकारी मिलती है । अब पिछले वर्षों में तो माता कौशल्या का यह धाम और भी सुंदर और भव्य हो चुका है। इस प्राचीन मंदिर की खूबसूरती को देखने पर्यटक दूर- दूर से आने लगे हैं।  

माता कौशल्या का जन्मस्थान होने के कारण यह गाँव रामलला के ननिहाल के रूप में प्रसिद्ध है। यही वजह है कि दीपावली के अवसर पर कई दिनों तक ग्राम चंदखुरी  के साथ आस - पास के गाँवों में  घर- घर दिये जलाकर लंका पर विजय और राम जानकी की अयोध्या की वापसी का जश्न मनाते हैं।

भगवान राम की माता कौशल्या कोसल प्रदेश यानी छत्तीसगढ़ की राजकुमारी थी।   पद्म पुराण में उल्लेख है कि कौशल्या कोसलन राजकुमार की बेटी थीं। बाद के ग्रंथों में उन्हें दक्षिण कोसल के राजा सुकौशल और रानी अमृतप्रभा की बेटी बताया गया है। महाकौशल की पूरी प्रजा माता कौशल्या को बहन और भगवान श्रीराम को अपना भानजा मानते हैं। यही वजह है कि छत्तीसगढ़ के लोग इस रिश्ते को आत्मीयता के साथ निभाते हैं। यहाँ के मूल  निवासी अपने भानजे-भानजियों को भगवान का रूप मानकर उनका बहुत सम्मान के साथ आदर सत्कार करते हैं तथा उनके पाँव छूकर उनका आशीर्वाद लेते हैं। 

पुरातात्त्विक जानकारी के अनुसार इस मंदिर को 8वीं 9वीं शताब्दी में सोमवंशी राजाओं ने बनवाया था, जबकि लोककथाओं के आधार पर यहाँ के राजा को माता कौशल्या ने सपने में दर्शन देकर कहा था कि वे इस स्थान पर मौजूद हैं। तब राजा ने सपने वाली उस जगह पर खुदाई करवाई, तो उन्हें यह मूर्ति प्राप्त हुई।  बाद में राजा ने मंदिर बनवाकर मूर्ति की स्थापना की। 

छत्तीसगढ़ का यह गाँव कौशल्या माता के मंदिर के लिए तो प्रसिद्ध है ही, साथ ही यह छोटा- सा गाँव कभी 126 तालाबों के लिए भी मशहूर रहा है।  इस क्षेत्र में गाए जाने वाले एक गीत में  छह कोरी छह आगर तालाब होने का उल्लेख है। एक कोरी बराबर 20,  अर्थात् छह कोरी मतलब हुआ 120 और छह आगर यानी छह और। इस प्रकार कुल 126 तालाब हुए। 

विभिन्न शोधपत्रों, अभिलेखों में यह भी उल्लेख है कि भगवान श्रीराम ने अपना वनवास काल छत्तीसगढ़ के अनेक स्थानों पर व्यतीत किया था। श्री राम ने भाई लक्ष्मण और पत्नी सीता के साथ दंडकारण्य में 10 साल का लंबा समय व्यतीत किया।  राम सबसे पहले अयोध्या से 20 किलोमीटर दूर तमसा नदी के तट पर पहुँचे। तमसा नदी पार करने के बाद  दंडकारण्य (छत्तीसगढ़ ) के घने जंगलों में पहुँचे।  दंडकारण्य में वनवास के दौरान प्रभु श्रीराम छत्तीसगढ़ के कई जगहों से होकर गुजरे थे,  जिनमें सीतामढ़ी-हरचौका (कोरिया), रामगढ़, अम्बिकापुर (सरगुजा ), किलकिला (जशपुर ), शिवरीनारायण (जांजगीर -चांपा), तुरतिया वाल्मिकी आश्रम (बलौदा बाजार),चंदखुरी (रायपुर), राजिम (गरियाबंद), सिहावा सप्तऋषि आश्रम (धमतरी ),जगदलपुर (बस्तर ), रामाराम (सुकमा ) जैसे अनेक स्थलों में राम वनवास से जुड़ी अनेक स्मृतियाँ देखने को मिलती हैं।  इन साक्ष्यों को ही आधार मानते हुए अब क्षेत्र में राम वनगमन पथ को विकसित करने को लेकर बड़े पैमाने पर कार्य चल रहा है। इसके लिए 51 स्थलों को चिन्हित किया गया है। 

विश्वास है यह कार्य पूर्ण हो जाने के बाद संस्कारधानी छत्तीसगढ़ का नाम पर्यटन के क्षेत्र में प्रमुखता से लिया जाएगा। ( उदंती फीचर्स)

स्वास्थ्यः नारियल के फायदे अनेक

- डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

वर्ष 2014 में उमा आहूजा और उनके साथियों ने एशियन एग्री-हिस्ट्री पत्रिका में प्रकाशित एक शोधपत्र में बताया था कि नारियल के पेड़ों को मलेशिया (Malesia) जैव-भौगोलिक क्षेत्र मूल का माना जाता है। जैव-भौगोलिक क्षेत्र यानी वह क्षेत्र जिसमें वितरित जंतुओं और पादपों के गुणों में समानता होती है। मलेशिया जैव-भौगोलिक क्षेत्र में दक्षिण पूर्व एशिया (विशेष रूप से भारत), इंडोनेशिया, ऑस्ट्रेलिया, न्यू गिनी और प्रशांत महासागर में स्थित कई द्वीप समूह आते हैं। इस पेपर में पुरातात्त्विक साक्ष्यों, पुरालेखों एवं ऐतिहासिक अभिलेखों, और इसके उपयोग एवं इससे जुड़ी लोककथाओं के माध्यम से नारियल के इतिहास पर बात की गई है।
पुरातात्त्विक खुदाई के अलावा भारत में नारियल का उल्लेख शिलालेखों तथा धार्मिक, कृषि और आयुर्वेदिक महत्त्व के ग्रंथों में मिला है। इसके उपयोगों की बहुलता ने इसे जीवन-वृक्ष, समृद्धि-वृक्ष और कल्पवृक्ष (एक वृक्ष जो जीवन की सभी ज़रूरतें पूरी करता है) जैसे विशेषणों से नवाज़ा है। लेखक बताते हैं कि इसके खाद्य महत्त्व के अलावा इसके स्वास्थ्य, औषधीय और सौंदर्य लाभ भी हैं।
भारत में, नारियल मुख्य रूप से दक्षिणी राज्यों - केरल, कर्नाटक, तमिलनाडु, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में उगाया जाता है। 90% से अधिक नारियल का उत्पादन इन्हीं राज्यों में होता है। ऐसा इसलिए है; क्योंकि इन पेड़ों को गर्म और रेतीली मिट्टी की आवश्यकता होती है - ऐसी मिट्टी, जिसमें जल- निकासी बढ़िया हो और पोषक तत्त्व  भरपूर हों। साथ ही, इन्हें गर्म और आर्द्र जलवायु, और प्रचुर वर्षा की भी ज़रूरत होती है। 
उत्तर भारत की जलवायु मुख्यत: समशीतोष्ण है, जिसमें - जाड़े में अच्छी ठंड और गर्मियों में भीषण गर्म पड़ती है। इस क्षेत्र में अलग-अलग मौसम होते हैं और वर्षा भी असमान होती है, जो नारियल के पेड़ों की वृद्धि के लिए अनुकूल नहीं है। हालाँकि, पूर्वोत्तर के कुछ राज्य भी उपयुक्त तापमान और वर्षा के चलते नारियल उगाते हैं, लेकिन वहाँ की मिट्टी चिकनी है जो नारियल के पेड़ों के उगने के लिए आदर्श नहीं है।
नारियल की भूमिका
भगवान को प्रसाद में चढ़ाई जाने वाली कई वस्तुओं में नारियल का एक विशेष और उच्च स्थान है। इसका उपयोग धार्मिक और सामाजिक समारोहों में किया जाता है, वहाँ भी जहाँ इसकी खेती नहीं होती। नारियल के पेड़ का रत्ती भर हिस्सा भी बेकार नहीं जाता, सभी हिस्सों को किसी न किसी उपयोग में लिया जाता है। अपनी अनगिनत उपयोगिताओं और खाद्य, चारा एवं पेय के रूप में प्रत्यक्ष उपयोग के ज़रिए नारियल ने विभिन्न समुदायों के लोगों के बीच सांस्कृतिक, सामाजिक, धार्मिक और भाषायी तौर पर जगह बना ली है।
दक्षिण भारत में नारियल दैनिक जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। प्रत्येक मंदिर को नारियल के पेड़ों से सजाया जाता है, इसके (श्री)फल भगवान को चढ़ाए जाते हैं और भक्तों को प्रसाद के रूप में थोड़ा सा खोपरा और नारियल पानी दिया जाता है। 
तरावट और स्वास्थ्य के मामले में नारियल पानी का कोई सानी नहीं है; यह तो अमृत ही है! और, मिठाई ‘कोलिक्कतई' (या ‘मोदक') का भी कोई सानी नहीं है, जो नारियल की ‘गरी' से बनाई जाती है! (यह भगवान गणेश की पसंदीदा मिठाई है)। इसके अलावा, तमिलनाडु में पले-बढ़े होने के कारण मुझे (मेरी इच्छा के विपरीत) मेरी दादी हर महीने अरंडी के तेल या नारियल के तेल से स्नान करने के लिए मजबूर किया करती थीं!
स्वास्थ्य लाभ
नारियल के कई फायदे हैं। वेबसाइट Healthline.com इसकी ‘गरी' में पाए जाने वाले कई पोषक तत्त्वों को सूचीबद्ध करती है: भरपूर वसा, भरपूर फाइबर, और विटामिन ए, डी, ई और के, जो अधिक खाने को नियंत्रित करते हैं और पेट को स्वस्थ रखने में मदद करते हैं। 
इसके तेल की बात करें तो कुछ समूहों का सुझाव है कि नारियल का तेल शरीर की धमनियों और नसों में रक्त प्रवाह को लाभ पहुँचाता है, इस प्रकार यह हमारे हृदय की सेहत के लिए फायदेमंद होता है। कुछ समूह यह भी सुझाव देते हैं कि इससे अल्ज़ाइमर रोग थोड़ा टल सकता है, हालांकि इस सम्बंध में अधिक प्रमाण की आवश्यकता है। 
एक वरिष्ठ नागरिक होने के नाते मैं नारियल तेल का उपयोग करता हूँ, इस उम्मीद में कि यह मुझे ऐसी स्थितियों से बचाएगा। मैं अक्सर अपने सुबह के नाश्ते में टोस्ट पर मक्खन की जगह नारियल का तेल ही लगाता हूँ। मेरी दादी देखतीं, तो प्रसन्न होतीं! (स्रोत फीचर्स)

कविताः तीर्थ के साथ आते हैं पिता

  - मधु बी. जोशी


पिता के साथ 

आता था हरिद्वार

लाख के सुन्दर गिट्टों में

सुगढ़ गंगाजलियों में

लकड़ी के लुभावने खिलौनों 

शंख की सुन्दर मालाओं में


प्रसाद भी लाते थे पिता

मीठे इलायचीदाने

फीके मुरमुरे

तुलसीदल और फूल


प्रसाद बड़े लोगों की चीज था

वे श्रद्धा से उसे माथे लगाते

फिर मुँह में डालते

हम तो यूँ ही चबा जाते

इलायचीदाने और मुरमुरे

रोज बेचता था मालीराम

तुलसीदल और फूल

हमारी बाड़ी में बहुत थे

बड़े हुए तो जाना 

हरिद्वार 

एक व्यावसायिक कस्बा है

मन्दिर हैं वहाँ, 

मठ भी

महन्त और दुकानदार भी

मीठे इलायचीदाने

फीके मुरमुरे

तुलसीदल और फूल

सभी तीर्थनगरों की 

साझी सौगात हैं

 

आज भी आता है तीर्थ

लाख के सुन्दर गिट्टों,

सुगढ़ गंगाजलियों

लकड़ी के लुभावने खिलौनों 

शंख की सुन्दर 

मालाओं के साथ

 

तीर्थ के साथ आते हैं पिता


कहानीः दहेज की रकम

  - प्रियंका गुप्ता

जाने कब किस मुहूर्त से शन्नो ज़िद पकड़े बैठी थी कि वह शादी करेगी, तो सिर्फ़ एहसान से, वरना ज़िंदगी भर कुँवारी बैठी रहेगी। घरवालों ने कितना समझाया, साम, दाम, दंड, भेद, हर फंडा अपनाकर देख लिया; पर लड़की को न मानना था, वह न मानी। गाहे- बगाहे माँ ने घूँसे थप्पड़ लगाए, भाइयों ने गालियाँ दीं...बाप चप्पल उतारकर मरने-मारने पर उतारू हो गया, पर मज़ाल है, करमजली टस से मस हुई हो। बात घर परिवार के बीच तक रहती, तो भी ग़नीमत थी, पर बेशर्म ने तो पूरे समाज में ढिंढोरा पीटकर रख दिया था। 

कितना अच्छा लड़का मिला था, उसके लिए...। दान-दहेज भले थोड़ा हैसियत से बढ़कर देना पड़ता, पर घरवाले अपनी इकलौती लाडली के लिए, ये भी करने को तैयार थे। थोड़ा कर्ज़ा चढ़ भी जाता, तो क्या, सिर से बोझ तो उतर जाता...और फिर किस बेटी के ब्याह पर थोड़ा बहुत जोड़-तोड़ नहीं बिठाना पड़ता? वह कोई अनोखी तो थी नहीं। न ही कहीं की राजकुमारी... न कोई हूर की परी, जिसे देखते ही कहीं का राजकुमार अपना दिल हार बैठे और मुफ़्त में ही उसे अपनी रानी बना ले...। 

पर शन्नो को तो मानो बहाना मिल गया उस लड़के को भगाने का...। पूरे परिवार को वो पसंद आ गई थी, पर जहाँ लेनदेन की बात शुरू हुई, एकदम बेहया की तरह लड़की बीच मे कूद पड़ी- सुनिए आप लोग, माँ-पिताजी चाहते थे कि मैं एक बार आपका लड़का देख लूँ, सो देख लिया...। आप लोगों ने मुझे पसंद कर लिया, इसका मतलब ये थोड़े न कि आपका ये छछून्दर जैसी पैदाइश मुझे भी पसंद है। ऊपर से आप लोग जितने दहेज की डिमांड कर रहे न, उतने में तो कोई अपनी दो बेटियों की शादी अच्छे तरीके से निपटा दे...। बेहतर होगा, अपनी तशरीफ़ का टोकरा अपने सिर पर रखिए और चुपचाप चलते-फिरते नज़र आइए।

शन्नो के माँ-बाबा ‘हें-हें, अरे-अरे’ करते हुए उसे रोकने की कोशिश करते रहे, पर उसे न रुकना था, न वह रुकी...। बंदी ने अपनी बात पूरी करके ही दम लिया। उसके बाद वे लोग लड़के वालों से हाथ जोड़-जोड़कर माफ़ी माँगते रहे, पर अपने औलाद के लिए ‘छछुन्दर’ और खुद के लिए ‘महा लालची’ जैसे सम्बोधन सुनने के बाद भला कौन माफ़ी देता है या रुकता है?

लड़के वाले तो जवाबी गालियाँ देते और उसकी सात पुश्तों को चिर कुँवारा मरने का शाप देते चले गए, पर उसके बाद शन्नो ने एहसान नाम रूपी जो एटम बम फेंका, उसका प्रहार झेल पाने में घरवालों को बहुत समय लगा जैसे...।

इकलौती लड़की ने नाक के नीचे से छुपकर नैन-मटक्का कर डाला, इतना बड़ा चैलेंज माँ को गश देकर गिराने के लिए काफी था। पिता शेर की तरह दहाड़ना चाहते थे, पर एक तो उनकी शेरनी बेहोश थी...दूसरे अभी-अभी रुख़सत हुए लड़के वालों के ज़ोर-ज़ोर से गरियाने की आवाज़ अभी भी फ़िज़ाओं में इस क़दर घुली थी कि आस-पड़ोस वालों ने सर्द मौसम की ज़रा भी परवाह किए बिना, न केवल अपने घरों की खिड़कियाँ खोल रखी थी; बल्कि कुछ अति-उत्साही लोगों ने 'हेल्थ इज़ वेल्थ' का अक्षरशः पालन करने के विचार से रात्रिकालीन भोजन के पश्चात् बाहर टहलकर उसे पचाने का भी अटल इरादा कर लिया था। शन्नो के दोनों बड़े भाइयों का खून तो शायद दो सौ डिग्री सेंटीग्रेड तक खौल गया था। पहली बात तो यह कि जो काम इतने दिनों से वे दोनों न कर सके, वह उनकी बहन ने जाने कब कर लिया...दूसरे, उससे भी बड़ी बात यह कि, इश्क़ किया सो किया...मुसलमान से काहे किया? उन दोनों का वश चलता, तो अभी ही शन्नो और उसके प्रेमी दोनों के हाथ पैर तोड़ डालते, पर एक तो अम्मा लुढ़की पड़ी थी, दूसरे बाऊजी का रवैया थोड़ा कंफ्यूजिंग था। किसी भी झमेले में सबसे पहले तो उनकी चिंघाड़ सुनाई पड़ जाती थी, लेकिन इतने बड़े मसले पर चुप्पी साधे वे सिर झुकाए अम्मा के सिरहाने बैठे थे।

जब घर का मुखिया ही ऐसे सन्नाटे में बैठा था, तो वो दोनों काहे फ़िज़ूल में उछल-कूद मचाते? पहले ये भी तो देखना था कि तेल किधर है और तेल की धार किधर है? पता चला वो दोनों बवाल मचा दें और इधर बाऊजी एकदम चुप्पे बने हुए, सिर झुकाए हुए अपनी लाडली की बात मान लें। फालतू में वे लोग ही दोनो तरफ की गुड बुक्स से बाहर हो जाएँ। यही सब सोचकर दोनों भाइयों ने आँखों ही आँखों में एक दूसरे को चुप रहने का इशारा किया और जल्दी जल्दी अम्मा के हाथ पैर मलकर उन्हें होश में लाने की जुगत में लग गए।

असली बवाल तो अम्मा के होश में आने पर हुआ, जब उन्होंने आँख खोलते ही शन्नो को सामने देखा और चीते की फुर्ती से बिस्तर से उठते ही, उस पर लपक पड़ी। घर के तीनों पुरुष सदस्य भी उनकी ऐसी लपक-चमक देख के जैसे मुँह बाये रह गए। माँ ने आव देखा न ताव, जो हाथ में समाया, उसका निशाना ताक- ताककर लड़की पर मारा। क्या जूता-चप्पल, क्या कुशन तकिए या फिर क्या गिलास कटोरी...हरेक चीज़ उस पर अस्त्र बनाकर फेंकी...। 

कुछ पल तो सब हतप्रभ थे, पर इससे पहले कि पड़ोसियों का पूरा जत्था यह फैमिली म्यूजिकल देखने उनके घर घुस आए, उन तीनों ने मिलकर उन्हें सम्हाल लिया। शन्नो इतने हमलों से जाने थोड़ा सदमे में थी, या ज़िद में...पर वो बिना हिले-डुले वहीं बैठी रही। पिता से ‘सुबह उससे बात करता हूँ, तुम चिंता न करो...’ का आश्वासन पाकर ही माँ सोई। न भी सोई हो, तो किसे पता, पर अभी दुनिया के सामने घर का तमाशा न बने, पिता की इतनी बात और मानकर वह चुपचाप आँख बंद करके लेट गईं। भाई लोग भी अपने कमरे में चले गए और शन्नो वहीं मूर्ति बनी हुई चुपचाप आँसू बहाती बैठी रही।

दूसरे दिन पिता अपनी आदत के विपरीत सचमुच शांत रहे। शन्नो को प्यार से समझाया, फिर थोड़ा कड़ाई से डाँटा... और उसके बाद भी जब वह न मानी, तो समाज की ऊँच-नीच समझाते हुए एहसान को लड़की बरगलाने के आरोप में जेल भिजवा देने की भी धमकी दे डाली; लेकिन शन्नो पर किसी बात का कोई असर नहीं हो रहा था। वो अपनी जिद पर अड़ी थी। वो और अहसान दोनों बालिग़ थे, सो कानून कुछ नहीं कर पाएगा। समाज में बदनामी की उसे कोई चिंता नहीं थी। घर परिवार छोड़ने को भी वो पूरी तरह तैयार थी... और अगर एहसान पर हल्की- सी आँच भी आई, तो वो सबको खुद जेल भिजवा देगी, पिता के डराने पर उसने बेधड़क यह धमकी भी दे डाली। 

"आप लोग हमें नहीं रोक सकते। ज़्यादा ज़ोर-जबरदस्ती कीजिएगा, तो पहला मौका मिलते ही भाग जाएँगे हम दोनों...कहीं दूर अनजान जगह जाकर शादी कर लेंगे। मेरी शक़्ल देखने तक को तरस जाइएगा... बता दे रहे बस...।" शन्नो अब तक इकलौती होने के कारण पिता के दिए लाड़ का नाजायज़ फायदा उठाने पर तुल आई थी।

बात सच भी थी। पूरे खानदान में दो पीढ़ियों बाद कोई लड़की हुई थी, तो वो थी शन्नो...। पर अगर वो बहुत दुलारी थी, तो खानदान की इज्ज़त उससे भी ज़्यादा अजीज़ थी उनको...। कोई तो हल निकालना ही पड़ेगा, जिससे साँप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। 

दूसरा दिन बीता, फिर तीसरा भी बीत गया। घर में मनहूसियत छाई हुई थी। इस बीच भाई लोगों ने एहसान का भी पता लगा लिया था। कहाँ रहता है, क्या करता है, घर में कौन-कौन है...सारी कुंडली एकदम डिटेल में...। अब रात को माँ -बेटी जब चुप्पी की चादर ओढ़े सो जातीं, बाप और दोनों भाई सिर से सिर जोड़कर बैठ जाते। कई सुझाव रखे जाते और तीनों में से कोई न कोई उसमें कोई ख़ामी निकालकर खारिज़ कर देता। जैसे जैसे दिन ख़त्म होते जा रहे थे, शन्नो की ज़िद बढ़ती जा रही थी। खानदान की इज्ज़त पर सरेआम बट्टा लगने का भी ख़तरा दुधारी तलवार की तरह पिता के सिर पर लटक रहा था। जिस तरफ भी झुके, घायल तो होना ही था।

आखिरकार क़िस्मत ने ही एक दिन इसका हल निकाल दिया। सुबह- सवेरे जब मोहल्ले वालों को उनके घर से माँ के रोने-पीटने की आवाज़ सुनाई दी, तो दरयाफ़्त करने पर पता चला, रात में जाने कब बिटिया रसोई में पानी पीने के लिए अपने कमरे से नीचे आ रही थी कि पैर फिसला और वो हमेशा के लिए सबको छोड़कर बहुत दूर चली गई। सुबह माँ जब सोकर उठी, तब  बेटी की जगह उसकी ठंडी लाश देखकर अपने होशो-हवास खो बैठी।

सुनने वालों के दिल से आह निकल गई। जवान-जहान बेटी की डोली की जगह घर से अर्थी निकलने की नौबत आए, तो भला कौन ऐसा पत्थर दिल होगा जिसका कलेजा चाक न हो जाए...?

दस्तूर और कायदे के हिसाब से दुनियावाले भी आए और पुलिस भी...। सब काम नियमानुसार निपटने के बाद पुलिस ने भी इसे महज एक एक्सीडेंट मानते हुए केस बंद कर दिया। कुछ दिन बीतते-बीतते सब कुछ सामान्य हो गया। 

शन्नो की मौत के बारे में पता चलने पर एहसान उसे आखिरी विदा देने आया या नहीं, इस पर मोहल्ले वालों की दबी जुबान में अलग-अलग राय थी...।

एहसान वाली बात तो चाहे कुछ भी रही हो, पर उससे भी ज़्यादा विश्वास के साथ कुछ भरोसेमंद लोगों की एक राय तो बिल्कुल पक्की थी...भले ही आपस में फुसफुसाहट के रूप में वह राय बाहर आती हो कि सीढ़ियों पर पुलिस को तेल के निशान मिले तो थे, पर आखिरकार दहेज की जोड़ी हुई रकम उसी के काम निपटाने में ही काम आई...।

सम्पर्कः ‘प्रेमांगन’, एम.आई.जी-292, कैलाश विहार, आवास विकास योजना संख्या-एक, कल्याणपुर, कानपुर- 208017 (उ.प्र) ,  मो. 09919025046

कविताः सुनो स्त्री!

  
- डॉ. शिप्रा मिश्रा 

कब तक दौड़ोगी 

कब तक भागोगी

कब तक उड़ोगी


सुनो स्त्री!

अपनी बाहों में 

क्या सृष्टि बाँध लोगी?


फुनगियों पर बैठने की 

ख्वाहिश लिए 

कब तक जियोगी?


नीचे तो उतरो

अपनी जड़ों से मिलो


तुम्हें पता है न

संचार नीचे से 

ऊपर की ओर होता है


केवल विस्तार ही 

उद्देश्य नहीं

जीवन का

संक्षिप्त होना भी है


अंधेरी सुनसान रातों में 

अकेला सफर और 

तमाम अनसुलझे सवाल


चौराहे पर खड़ी ज़िन्दगी 

दिशा बताए कौन

कुछ प्रश्न सोने नहीं देते 


काश कुछ दिन और ठहर जाते

शायद बुझ जाती 

सारी जिज्ञासाएँ


बहुत कुछ है अनकहा

कह दूँ तो विवाद हो जाए

न कहूँ तो 

अंतर्मन छलनी होता है


रीत गईं

रिक्त कर गईं

मेरी हथेलियों के

वे सभी भाव- पुष्प


क्या अब भी

कुछ शेष है!

मेरी संवेदनाएँ..


व्यंग्यः आरोप के कारोबार में संभावनाएँ बहुत है

 - अखतर अली

जो युवा बिलकुल भी पढ़े लिखे नहीं है और वो किसी क्षेत्र में कैरियर बनाना चाहते हैं तो उन्हें आरोप निर्माण के क्षेत्र में किस्मत आज़माना चाहिए । इसमें शिक्षा और प्रशिक्षण की कोई ज़रूरत नहीं हैं आपको बस बकवास करना आना चाहिए।

यह जो आरोप है यह लगाने के काम आता है । जैसे दीवार पर पोस्टर , गिफ्ट पैकेट में स्टीकर लगाया जाता है, चलिए बात को मैं और स्पष्ट कर देता हूँ जैसे चूना लगाया जाता है, वैसे ही आरोप लगाया जाता है । सियासत की मंडी में बारहों महीना आरोप की अच्छी मांग रहती है ।

आरोप ज़्यादातर नेताओं पर लगाए जाते हैं । असली नेता वही है जो आरोपों से लदा हो । वह नेता भी कोई नेता है जिस पर आज तक कोई आरोप न लगा हो । अगर नेता को दोनों सिरे से पकड़ कर निचोड़ा जाए , तो उसमें से आरोप ही आरोप निकलेंगे । यह बिलकुल शतरंज के खेल की तरह का खेल होता है इसे दो लोग मिल कर खेलते हैं एक वह जो आरोप लगाता है और एक वह जिस पर आरोप लगता है ।

जिस पर आरोप लगाया जाता है वह हमेशा आरोप को नकार देता है और चुनौती देता है कि अगर आरोप सच साबित हो गया तो वह पद से स्तीफा दे देगा । कोई ज़्यादा जोश में आ जाता है तो कहता है राजनीति से सन्यास ले लूँगा । कभी ऐसा भी होता है कि जिस पर आरोप लगता है, वह कोई स्पष्टीकरण तो नहीं देता, उल्टा पलटवार करते हुए कहता है पहले अपना घर संभालों ।

आरोप के उत्पादन में बिक्री की कोई समस्या नही है। इसका बाज़ार बहुत बड़ा है । ज़मीन के जिस जिस हिस्से में नेता बसते हैं वहाँ- वहाँ आरोप की खपत होती है और ज़मीन का ऐसा कोई हिस्सा नही हैं जहाँ नेता न रहते हो । इसके उत्पादन में क्व़ालिटी मेंटेन करने की कोई समस्या नही क्योंकि आरोप जितना घटिया रहेगा वह उतना ही अच्छा माना जाता है ।

आरोप के उत्पादन के साथ- साथ आरोप लगाने की ट्रेनिंग भी देने का काम शुरू किया जा सकता है । पार्टी में कुछ लोगों की नियुक्ति सिर्फ़ आरोप लगाने के लिए  ही की जाती है । दिन निकलते ही वो चार विरोधियों पर पहले आरोप लगा देते हैं फिर ब्रश करने जाते हैं । आरोप लगाने में प्रेजेंटेशन का महत्त्व होता है, जो आरोप सही समय, पर सही आदमी पर लगाए  जाते हैं। बस वही आरोप, आरोप कहलाते हैं । आरोप लगाने में टाइमिंग का सही इस्तेमाल होना चाहिए। आरोप टाइम बम की तरह होता है, जिसमें उसके फटने का टाइम सेट कर दिया जाता है। बम की तरह आरोप में भी बुद्धि नही होती। ये दूसरे की बुद्धि के अनुसार काम करते हैं ।

हर आरोप एक बयान होता है और हर बयान में एक आरोप मौजूद होता है । आरोप की ज़मीन बहुत बड़ी होती है। नफ़रत, अलगाव, हिंसा, जांच, इस्तीफ़ा सब इसी इलाके में बसे हैं । आरोप के रूप में उपेक्षितों को एक सहारा मिला है ज़िंदगी के लिए  ।

जब किसी नेता पर कोई ज़बरदस्त आरोप लगता है तो अन्य नेता तड़प जाते है और मन ही मन सोचते हैं काश यह आरोप मेरे पर लगा होता तो इलेक्ट्रानिक मीडिया, प्रिंट मीडिया, सोशल मीडिया चारो तरफ़ बस मैं ही मैं होता । इस आरोप से मेरे मरुस्थली जीवन में बहार आ सकती थी ।

ऐसा कोई भी नेता, जिसके ऊपर कभी कोई आरोप नही लगा हो, उसे योग्य नेता नही माना जाता । ऐसी साफ़- सुथरी छवि वालों को पार्टी भी महत्त्व नही देती;  क्योंकि पार्टी को चाहिए  चलता पुर्जा । अतः जब किसी नेता पर बहुत दिनों तक कोई आरोप नही लगता और इससे उसकी छबि धूमिल होने लगती है तो वह पेमेंट देकर अपने ऊपर कोई ऐसा आरोप लगवाता है कि चारों दिशाओं में बस उसी के चर्चे होते हैं ।

बीमार नेता पर जब कोई दवा असर नहीं कर रही थी, तब उनके सचिव ने कहा- अब तो बस आरोप का ही सहारा है । इस समय इन पर कोई गंभीर आरोप लग जाए तो इन्हें नया जीवन मिल सकता है । नेता का आरोप से रिश्ता वही होता है जो रिश्ता प्यासे से पानी का होता है ।

आरोप लगाने में बेहतर प्रबंधन का प्रदर्शन होता है । आरोप कद नापने का यंत्र भी है । अनाड़ी आरोपकर्ता छोटे नेता पर बड़ा आरोप और बड़े नेता पर छोटा आरोप लगा देते हैं यह अच्छा प्रदर्शन नहीं है । इसीलिए  मैंने ऊपर प्रशिक्षण की बात कही है ।

यौन शोषण का आरोप .... यह आरोप की दुनिया की कालजयी कृति है । इसे किसी भी उम्र के नेता पर सुगमतापूर्वक लगाया जा सकता है। इसमें करियर तबाह हो जाने की गारंटी है, बस इसमें प्रबंधन ज़बरदस्त होना चाहिए, ताकि जिसकी सहमति थी वही इसे ज़बरदस्ती कहे । आरोप को मुख्यतः दो भागों में बाटा जाता है - चुनाव के पहले के आरोप और चुनाव के बाद के आरोप । मुँह पर लगे आरोप के धब्बों को आँसुओं से धोने की परम्परा नहीं है । कार्यकर्ता, समर्थक, विचारधारा, पार्टी में बदलाव होता रहता है लेकिन तमाशा सियासत के मदारी का खत्म नहीं होता ।

यदि आरोप मैनुफेक्चरिंग कम्पनी स्टॉक मार्केट में सूचीबद्ध हो गई तो बढ़िया रिटर्न की गारंटी दी जा सकेगी। आप तो खुले आम आरोप बनाओ और बेचो व्यंग्यकार के अतिरिक्त कोई और आप का कुछ नहीं बिगाड़ सकता।

सम्पर्कः निकट मेडी हेल्थ हाँस्पिटल, आमानाका, रायपुर (छत्तीसगढ़) 492010, मो.न. 9826126781


रत्नकुमार साँभरिया की दो लघुकथाएँ

1. फूल
ओह! आज तो मन्दिर जाने में देर हो गई ।दादी माँ ने दीवार घड़ी की ओर देखा। वे उतावली में गमले में लगे गुलाब के फूल को तोड़ने के लिए आगे बढ़ीं, तो उनका पाँचेक साल का पोता जिद कर बैठा कि फूल वह लेगा । दादी माँ ने जब उसे फूल न लेने के लिए कहा, तो वह रो-रोकर जिद पकड़ गया। वे उसको दुलारती हुई कहने लगीं-बेटे ,मैं तुम्हें ऐसे ही फूल मँगवा दूँगी; लेकिन ये अपने घर के गुलाब हैं, मैंने इनको भगवान् के लिए रखा हुआ है।”

रोते-रोते बच्चे की साँस फूलने लगी थीं। दादी माँ की पूजा और बच्चे की ज़िद को लेकर पूरा परिवार दो खेमों में बँट गया था । कुछ का मानना था -बच्चे भगवान् का रूप होते हैं । फूल…। परिवार के दूसरे लोग कुपित थे कि दादी माँ की पूजा में विघ्न पड़ा तो, भगवान् नाराज़ होंगे ।

दादी माँ ने जब फूलों की ओर देखा, तो उनकी आँखें वहीं रुक गईं। फूलों का व्यथित मन मानों कह रह था-आदमी भी कितना नासमझ है ! वह अपने हाथों बनाए भगवान् के सामने खुद गिड़गिड़ाता है, हमें सूख-सूखकर मरने के लिए उसके चरणों में फेंक आता है ।

दादी माँ मानो सोकर जागीं । फूल लेकर बच्चे के हाथ में थमाया। और आँसुओं से धुले उसके गालों को चूमने लगी।




2. अन्तर

घोड़े की पीठ पर दिनभर पड़ी चाबुकें नील बनकर उभर आईं थीं। उसके एक–एक रोएँ में लहू चुहचुहा रहा था। वह टीस के मारे बार–बार पैर पटकता था, गर्दन झटकता था। घोड़ा पीठ के असहनीय दर्द को आँसुओं में बहा देना चाहता था, भूखी कुलबुलाती अंतड़ियों ने उसे चारे में थूथन गड़ाने के लिए विवश कर दिया।

एकाएक घोड़े की गीली आँखें अपने मालिक की ओर घूमीं। वह घोड़े के पास ही चारपाई डाले बैठा था और चाबुक से छिली अपनी हथेली पर मेहंदी लगा रहा था। घोड़े का मन व्यथित हो गया। उसकी आँखें डबडबा आईं। वह चारा छोड़कर थोड़ा आगे बढ़ा। घोड़ा चाबुक से आहत अपने मालिक की हथेली को अपनी नर्म–नर्म जीभ से सहलाने लगा था।