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Jul 7, 2024

कविताः आखिर... प्रेम ही क्यों?

 


 -  अर्चना राय

अक्सर ये सुनती हूँ कि

तुम्हारी कविता का विषय

प्रेम ही क्यों होता है?

क्या इससे इतर

कुछ लिखने- कहने नहीं होता ?

 

कहीं ऐसा तो नहीं...

 कि तुमने प्रसिद्धि

 का रास्ता, प्रेम  को ही

तो नहीं मान लिया

 

तुमने ऐसा

तो  नहीं मान लिया है न?

प्रेम में बसी शीतलता...

 समर्पण की भावना ... और

स्नेहिल स्पर्श....

जिसे पढ़ने वाला

नशेड़ी की तरह

लती बनकर..

 प्रेम के सिवा

कुछ और पसंद ही नहीं करता

कहीं तुमने....

इसी लत को

सफलता का रास्ता तो

नहीं मान लिया है ? 

 

तुम जरा गौर तो करो

थोड़ा-सा तो चिंतन और करो

दुनिया में क्या कुछ नहीं है

प्रेम के सिवा...

कभी नजर उन पर  भी

डालो... लिखो उन पर भी

जो आज की सबसे बड़ी

विडंबनाएँ हैं

 

मैंने पूछा, कहाँ है कुछ

मुहब्बत के सिवा..

मैं देखती हूँ जहाँ- जहाँ

बिखरा दिखता है

प्रेम हर उस जगह... 

 

सुनकर मेरी बात..

जोर का ठहाका लगा

वे बोले...

 

राजनीति के हथकंडे है...

आतंकवाद के अंगारे...

गरीबी के मारे तो

कहीं... परिवार के दुत्कारे भी हैं

संकट में धरती है...

मानवता हर जगह घटती दिखती है...

और भी बहुत कुछ है...

 क्योंकर इन पर कोई कविता

नहीं रचती? ....

प्रेम के छद्म संसार को नहीं

हकीकत के धरातल को 

क्यों नहीं रचती

 

मानकर उनकी बात

आज लिखने बैठी हूँ

प्रेम से अलग विषय

पर कोई  नई कविता

 

जैसे ही प्रेम से नजरें हटाकर

कुछ और विषय

पर लिखने... दृष्टि उठाती हूँ

न जाने क्यों... अचानक से

पूरी सृष्टि ही बंजर

और बेरंग... सी नजर आई

और घबराकर आँखें मुँद जाती हैं

अचानक...

मुँदी आँखों मैंने देखा....

 

सृष्टि ही नहीं स्रष्टा भी

प्रेम के इर्दगिर्द घूमता नज़र

आता है....


- भेड़ाघाट जबलपुर


2 comments:

विजय जोशी said...

बहुत सुंदर

Anonymous said...

बहुत बढ़िया। सुदर्शन रत्नाकर