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Jun 19, 2012

उदंती.com-जून 2012 इस अंक में

मासिक पत्रिका  वर्ष 2, अंक 10, जून 2012
प्रकृति को बुरा-भला न कहो। उसने अपना कर्तव्य पूरा किया, तुम अपना करो। - मिल्टन
अनकही: हसना मना है!  - डॉ. रत्ना वर्मा
पर्यावरण दिवस: अगली अचल संपत्ति पानी - एस. अनंतनारायणन     
खेती किसानी: कुछ मत करो - वेंडेल बॅरी 
प्रेरक कथा: लिबास
पर्यावरण दिवस: तप रही है धरती - के. जयलक्ष्मी
खेती किसानी: सतपुड़ा की अनूठी खेती उतेरा - बाबा मायाराम
ब्लॉग बुलेटिन से: एहसासों के हर कतरे संजोती - रश्मि प्रभा
वाह भई वाह
ग्राम सुराज अभियान: प्राकृतिक संसाधनों से ...  - चंद्रशेखर साहू
मिसाल: चंडीगढ़ के अन्नदाता
कालजयी कहानियाँ: सभ्यता का रहस्य - मुंशी प्रेमचंद   
लघुकथाएं: 1. बीमार 2. सहयात्री 3. वाकर  -सुभाष नीरव
हाइकु: लू के थपेड़े  - डॉ. सुधा गुप्ता
हास्य व्यंग्य: 'महा' की महती कथा - प्रेम गुप्ता 'मानी'
सआदत हसन मंटो की कालजयी लघु कहानियाँ
कविता: चौसर - पियूष कुमार मिश्रा
ग़ज़ल: क्या करें - गिरिजा कुलश्रेष्ठ   
सेहत: बस दो मिनट में बजेगी खतरे की घंटी 
पिछले दिनों
आपके पत्र
रंग- बिरंगी दुनिया

हसना मना है!

अनकही

हसना मना है!

टाइम्स ऑफ इंडिया 19 जून के अंक में प्रकाशित व्यंग्य चित्र
हम विश्व की प्राचीनतम संस्कृति और सभ्यता के वारिस हैं। हमारे संस्कृत नाटक भी विश्व में उत्कृष्ट साहित्य की धरोहर के रूप में जाने जाते हैं और हजारों वर्ष पहले की हमारे सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य को प्रतिबिम्बित करते हैं। उन अत्यंत प्राचीन ग्रंथों में जहाँ कहीं भी राजदरबार का वर्णन होता है उसमें विदूषक के क्रिया- कलाप एक अनिवार्य व महत्वपूर्ण अंग होते हैं। विदूषक राजा और मंत्रियों तथा राजपुरूषों का मजाक उड़ाता था। अकबर- बीरबल के किस्से भी उसी प्राचीन परम्परा की एक कड़ी है। जिसमें बीरबल, जो अकबर के नौ रत्नों में से एक थे, तरह- तरह से अकबर की हसी उड़ाते रहे हैं।
वास्तव में तो प्रभावशाली व्यक्तियों का मजाक बनाना मानव समाज के मनोरंजन का सदैव से लोकप्रिय साधन रहा है। सदैव से ऐसे चुटकुले बनाए जाते रहे हैं जिनमें राजाओं इत्यादि को मूर्ख दिखाया जाता है। इन चुटकुलों को दीवारों पर लिख देने और चित्रित कर देने के प्रमाण भी रोम, ग्रीस तथा हमारे प्राचीन काल के भग्नावशेषों में मिलते हैं। अखबारों की शुरूआत से यही मनोरंजन का लोकप्रिय पारंपरिक प्रथा कार्टून के नाम से जानी जाने लगी है।
संसार में आज जहां कहीं भी जनतांत्रिक शासन व्यवस्था है वहां कार्टून को सम्मानित राजनीतिक व्यंग्य की मान्यता प्राप्त है। हमारे यहाँ भी ऐसा ही है। जिसके कारण शंकर और आर. के. लक्ष्मण अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कार्टून रचयिता बने। इन्हीं के साथ सुधीर धर, राजेन्द्र पुरी, अबू और मारियो मिराण्डा ने भी अपने अविस्मरणीय कार्टूनों से पत्रकारिता को समृद्ध किया।
शासन तंत्र के भ्रष्टाचारपूर्ण और अविवेकपूर्ण  क्रियाकलापों पर रेखांकन द्वारा चुभती टिप्पणी करके कार्टून रचयिता इनसे जनता को होने वाले कष्ट पर हास्य का मलहम लगाते हैं तथा शासन तंत्र के सदस्यों को भी सही रास्ते पर चलने के लिए सचेत करते हैं। यही कारण है कि जन- कल्याण को ही राजनीति का उद्देश्य मानने वाले महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, सरदार पटेल, जयप्रकाश नारायण, डॉ. लोहिया, अटलबिहारी बाजपेयी इत्यादि जैसे नेता कार्टूनों को राजनैतिक- सामाजिक विमर्श का महत्वपूर्ण अंग मानकर सम्मान करते थे।
इस परिपेक्ष्य में विडम्बना यह है कि आज के अधिकांश राजनीतिक दल अपने आंतरिक संगठन और व्यवस्था में लोकतांत्रिक प्रणाली का पालन नहीं करते। ये राजनीतिक दल पारिवारिक धंधे के रूप में चल रहे हैं अत: इन दलों के नेताओं के लिए राजनीति का उद्देश्य जन- कल्याण नहीं है। इनके लिए राजनीति एक धंधा है जिसका एकमात्र उद्देश्य निजी समृद्धि है। ये लोग आलोचना और व्यंग्य को अपने ऊपर घातक हमला मानकर उसे जी- जान से कुचलने में जुट जाते हैं। यही कारण है कि पहले पश्चिम बंगाल में नई सरकार की सर्वेसर्वा ने कार्टून रचयिता प्रोफेसर को जेल में ठूंस दिया।  उसके बाद पिछले माह संसद में शंकर के जिस कार्टून को लेकर सांसदों ने जो बिना बात का बतंगड़ बनाया वह वास्तव में 1949 में 'शंकर्स वीकली' में छपा था। इसमें संविधान रचना की धीमी प्रक्रिया से जनता में व्याप्त असंतोष के फलस्वरूप डा. अम्बेडकर को संविधान रूपी घोंघे पर सवार दिखाया गया है। बगल में नेहरू जी खड़े हैं। दोनों ही हाथ में चाबुक लिए घोंघे को तेज चलने के लिए ठेल रहे हैं। ये कार्टून पिछले छह वर्षों से कक्षा 9 से 11 तक की राजनीति शास्त्र की पाठ्य पुस्तक में मौजूद था। अचानक शासक दल के एक सांसद ने लोकसभा में इस 64 वर्ष पुराने कार्टून को आपत्तिजनक घोषित करते हुए इसे प्रतिबंधित करने की मांग की तो सभी राजनीतिक दलों के सांसदों ने एक स्वर से इस अ-लोकतांत्रिक कदम का जोर- शोर से समर्थन किया। इस पर आनन- फानन में सरकार ने जितनी शीघ्रता से  घुटने टेकते हुए पुस्तकों से कार्टूनों को हटाने का निर्णय लिया वह देश की जनतांत्रिक व्यवस्था पर एक और शर्मनाक काला धब्बा है। कार्टूनों पर रोक आपातकाल की याद दिलाती है।
कार्टून पर रोक लगाने वाले लोगों को याद रखना चाहिए कि भारत की जागरूक जनता ने आपातकाल का कैसा करारा जवाब दिया था। कार्टूनों या अभिव्यक्ति के अन्य तरीकों पर राजनीतिक उठा- पटक में वोट बैंक की खातिर रोक लगाने को भी जनता स्वीकार नहीं करेगी।
जिसने भी जनता को राजनीतिक और प्रशासनिक व्यक्तियों की कमजोरी पर हसने से रोकने की कुचेष्टा की है उसे ऐसे रोना पड़ा है कि आँसू पोछने वाले भी नहीं मिले।
                                                                          -डॉ. रत्ना वर्मा

अगली अचल संपत्ति पानी

5 जून पर्यावरण दिवस

अगली अचल संपत्ति पानी

- एस. अनंत नारायणन

कृषि क्षेत्र फिलहाल पानी का सबसे बड़ा उपयोगकर्ता है और इसकी प्राथमिकता बरकरार रहेगी। मगर इसमें इस्तेमाल होने वाले तरीकों को बदलना होगा। पारंपरिक खेती में पानी की बहुत फिजूलखर्ची होती है।
पानी की समस्या हमारे सिर पर खड़ी है और हम इसके लिए मात्र ग्लोबल वार्मिंग को जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते। पृथ्वी के दो तिहाई हिस्से पर पानी है और यह सबसे प्रचुर संसाधन है। सामान्यत: ऐसा नहीं लगता कि यह समाप्त होने वाला है। मगर समस्या यह है कि यह सारा पानी हमारे उपयोग के काबिल नहीं है। ज्यादातर तो समुद्र का नमकीन पानी है। पूरे पानी का महज 3.5 प्रतिशत हिस्सा ही ताजा और पीने योग्य है और इस 3.5 प्रतिशत का बड़ा भाग ध्रुवों पर बर्फ के रूप में जमा है। केवल 0.01 प्रतिशत, यानी दस हजार में एक हिस्सा ही ऐसा है जिसका उपयोग हम पीने के लिए कर सकते हैं। यह जल धाराओं, नदियों, झीलों और जमीन के नीचे जमा पानी है। इसमें से भी आधा हमारी पहुंच से परे है या बाढ़ की भेंट चढ़ जाता है। ग्लोबल वार्मिंग की काली छाया बर्फ के रूप में जमे पानी के खजाने पर है। डर है कि गर्मी से ये ग्लेशियर पिघलकर बर्फ- पोषित नदियों में विनाशकारी बाढ़ों के जरिए समुद्र में पहुंच जाएंगे। कुछ लोग यह तर्क दे सकते हैं कि तापमान में यह इजाफा हम तक सीधे पहुंचने वाले पानी को तो नुकसान नहीं पहुंचा रहा है, इसकी चपेट में तो पानी का वह हिस्सा आ रहा है जिस तक हमारी पहुंच ही नहीं है। पर यह तर्क सही नहीं है। ग्लेशियरों के पिघलने से दो तरह से नुकसान होगा। एक तो इसके चलते देर- सबेर बर्फ- पोषित नदियां सूख जाएंगी और दूसरा, इन नदियों के सूखने से जमीन के नीचे के  जल के स्रोतों विलोप का खतरा उत्पन्न हो जाएगा।

भूजल स्तर की समस्या

लगातार बढ़ता औद्योगिकीकरण और जनसंख्या वृद्धि भूजल के बेतहाशा दोहन का कारण है। सतह पर चाहे जितना पानी हो, उससे भूजल की भरपाई की एक सीमा है। वह भूजल स्रोत जो हजारों वर्षों में तैयार हुआ था पिछले कुछ दशकों में ही खाली कर दिया गया। भूजल स्रोतों के खाली होने के असर स्थानीय भी हैं और वैश्विक भी क्योंकि भूजल स्तर सारे विश्व में घट रहा है। आमजन को पानी की आपूर्ति के स्रोत कुएं और झील- तालाब हैं जो भूजल से ही पोषित होते हैं। नदियों ने आमजन और व्यापारियों के लिए आवागमन का साधन मुहैया कराया और मनुष्यों की बसाहट भी नदी तटों से शुरू हुई। वैसे भूजल संसाधन की बदौलत मानव बसाहट नदी से दूर भी सम्भव हो सकी। यह भूजल संसाधन दूर- दूर तक अदृश्य किन्तु व्यापक भूजल धाराओं की मदद से पहुंचता है। यही भूजल आज अत्यधिक दोहन के कारण दुर्लभ हो चला है और जल्द ही राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय ध्यान आकर्षित करेगा।

देख- रेख की जरूरत

भूजल नजर नहीं आता, और इसी वजह से समाज ने इसे मुफ्त और सुगम वस्तु मान लिया। इसके समाप्त हो जाने की संभावना को लेकर समाज की आंखें हाल ही में खुली हैं। नदी जल के बहाव, तथा झीलों व अन्य जलाशयों के स्तर को लेकर बड़े- बड़े विवाद हुए हैं। सतह पर मौजूद पानी का नियमन करने के लिए राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय दोनों स्तरों पर वैधानिक ढांचे भी हैं। मगर भूजल के सम्बंध में न किसी नियम की कभी जरूरत महसूस की गई और न ही इसकी संभावना है। इस मामले में कानूनी समझ यह रही है कि 'किसी जमीन पर, उसके ऊपर उगने वाली हर चीज पर और उस जमीन की सीमा में पाई गई हर चीज पर अधिकार जमीन के मालिक का होगा'। इंग्लिश कॉमन लॉ (कब्जे का कानून) के तहत संसाधन उसे मिलेंगे जिसने उन्हें पहले हथिया लिया। इस कानून को तेल और पानी जैसे संसाधनों पर भी लागू किया गया। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि जिन संसाधनों का इस्तेमाल आप कर रहे हैं वे आप पड़ोसी की जमीन के नीचे से उलीच रहे हैं, क्योंकि पड़ोसी तभी उस संसाधन का हकदार हो सकता है, जब वह उसे पंप करके जमीन से बाहर निकाले। ऐसे उद्योगों से निपटने के लिए कोई स्पष्ट कानून नहीं है जो अपने आसपास की खेती की जमीन का पानी बेतहाशा खर्च करते रहते हैं और खेती सूखती जाती है। इस तरह की गतिविधि की वजह से पर्यावरण को होने वाले नुकसान से निपटने के लिए कानून बनना शुरू ही हुए हैं।
पर एक बात तो सच है कि इस क्षेत्र में कानूनी और प्रशासनिक नियम बनाने की सख्त जरुरत है क्योंकि यह जल्द ही दुनिया की पहली रणभूमि का रूप ले लेगा।

तेल से लें सबक

इस समस्या को लेकर एक पर्चा ओरगॉन स्टेट युनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने टोक्यो, जापान में हुए एक सम्मेलन में प्रस्तुत किया था। ओरेगॉन स्टेट युनिवर्सिटी के इंस्टीट्यूट फॉर वॉटर एंड वॉटरशेड के सह निदेशक टॉड जार्विस ने बताया कि ऐसे भूजल स्रोत तेजी से खत्म हो रहे हैं, जिन्हें जमा होने में 20,000 साल लगे हैं। कई स्थानों पर जलस्तर 50-60 वर्षों में 500 फीट तक नीचे गिर गया है। जार्विस का मानना है कि भूजल का ह्रास भी तेल स्रोतों के ह्रास के समान स्थायी हो सकता है। चट्टानों के बीच पाए जाने वाले छोटे- छोटे स्थान होते हैं जिनमें पानी इकट्ठा होता है पर कई बार तेजी से होने वाले दोहन से वे स्थान टूट जाते हैं और ऐसा होने पर उन जगहों पर पुनर्भरण की संभावना सदा के लिए खत्म हो जाती है क्योंकि अब वे स्थान ही खत्म हो चुके होते हैं। ओरेगॉन स्टेट युनिवर्सिटी द्वारा प्रकाशित पर्चे में विश्व भर में व्याप्त समस्याओं का लेखा- जोखा प्रस्तुत किया गया है। इसमें उन्होंने एक कानूनी ढाचां भी प्रस्तावित किया है जो तेल उद्योग ने बहुत मुश्किल से विकसित किया था और पानी के लिए यह एक शुरुआती चरण हो सकता है।

एकीकरण

जार्विस ने सम्मेलन में जो अवधारणा प्रस्तुत की थी उसका मूल मंत्र एकीकरण था। यह लोगों के अधिकारों और उद्देश्यों को एक करने पर आधारित है जिसके अंतर्गत हमें मिल- जुलकर सहयोग से काम करना होगा ताकि संसाधनों का लंबे समय तक उपयोग कर सकें और उसे कोई नुकसान न पहुंचे। जार्विस कहते हैं कि बाकी कुछ हो न हो, लेकिन भूजल स्रोतों का उपयोग कर रहे लोगों को वह बात हमेशा याद रखनी होगी जो तेल उद्योगों ने बरसों पहले ही समझ ली थी कि 'अधिकतम निकासी की होड़' किसी के हित में नहीं है- सरोकार चाहे संसाधन के समाप्त होने का हो, निकासी की बढ़ती कीमतों का हो या भूजल भंडारों के विनाश का हो।
ऐसे सारे संसाधन जो दुर्लभ की श्रेणी में है उनका उपयोग उस कार्य के लिए आरक्षित कर दिया जाए जो आर्थिक रूप से सबसे मूल्यवान है। इस बात को पानी के लिए अपनाने के लिए चीजों को सर्वथा नए नजरिए से देखना होगा- फिर चाहे नागरिक अधिकार हों या संपत्ति के अधिकार या सहयोग की बात। इनकी अनुपस्थिति के चलते ही पानी पर युगों से विवाद चले आ रहे हैं।
कृषि क्षेत्र फिलहाल पानी का सबसे बड़ा उपयोगकर्ता है और इसकी प्राथमिकता बरकरार रहेगी। मगर इसमें इस्तेमाल होने वाले तरीकों को बदलना होगा। पारंपरिक खेती में पानी की बहुत फिजूलखर्ची होती है। खेती के इलाके भी बदलेंगे और वे इलाके प्रमुख हो जाएंगे जो भूजल सुगमता से प्राप्त कर सकते हैं। इसके साथ ही पानी उपयोग का एक नया उद्योग सामने आएगा। नदियों के सिकुडऩे या सूख जाने से वे स्थान नए कृषि क्षेत्र बनेंगे जहां भूजल एकत्रित होता है। (स्रोत)

खेती- किसानी

 कुछ मत करो 
- वेंडेल बॅरी
यह किताब हमारे लिए खासतौर से मूल्यवान है। क्योंकि वह एक साथ ही व्यावहारिक और दार्शनिक दोनों है। खेती के बारे में यह एक आवश्यक और प्रेरणादायक किताब इसलिए भी है कि वह केवल खेती के बारे में ही नहीं है।
मासानोबू फुकूओका पर लिखी गई पुस्तक 'द वन स्ट्रा रेवोल्यूशन'
उन पाठकों को यह पुस्तक पढ़कर आश्चर्य होगा जो इसे मात्र कृषि पर लिखी हुई पुस्तक मानकर पढ़ेंगे। क्योंकि उसमें उन्हें आहार, स्वास्थ्य, सांस्कृतिक मूल्यों तथा मानवीय ज्ञान की सीमाओं के बारे में भी बहुत कुछ पढऩे को मिलेगा। दूसरे, यह उन पाठकों को भी चौंकाएगी जो इसके प्रति उसके दर्शन के बारे में दूसरों से सुनकर आकर्षित हुए क्योंकि वह एक जापानी फार्म पर चावल, जाड़े की फसलों, नींबू तथा सब्जियों की खेती के बारे में व्यावहारिक जानकारियों से भी ओतप्रोत है।
चूंकि हमें यह मानकर चलने की आदत सी पड़ गई है कि कोई भी पुस्तक आमतौर से एक ही विषय पर तथा उसी विषय के विशेषज्ञ द्वारा लिखी जाती है। हमें इस समय 'द वन स्ट्रा रिवोल्यूशन', एक तिनके से आई क्रांति' जैसी किताब की सख्त जरूरत है। यह किताब हमारे लिए खासतौर से मूल्यवान है। क्योंकि वह एक साथ ही व्यावहारिक और दार्शनिक दोनों है। खेती के बारे में यह एक आवश्यक और प्रेरणादायक किताब इसलिए भी है कि वह केवल खेती के बारे में ही नहीं है।
कृषि की जानकारी रखने वाले कुछ पाठकों को महसूस होगा कि श्री फुकूओका की तकनीकें हमारे अधिकांश फार्मों पर प्रत्यक्षत: लागू नहीं की जा सकेंगी। मगर इसी वजह से यह मान लेना भी भूल होगी कि इस पुस्तक के व्यावहारिक अंशों की कोई उपयोगिता नहीं है। पुस्तक के ये हिस्से इस दृष्टि से भी बहुत महत्वपूर्ण हैं कि वे इस बात की मिसाल है कि जब हम भूमि, जलवायु और फसलों का अध्ययन एक नई दिलचस्पी, स्पष्ट दृष्टि तथा सही सरोकारों के साथ करते हैं, तो कितना कुछ हासिल किया जा सकता है। यह व्यावहारिक जानकारी इसलिए उपयोगी है कि उसका लहजा सुझावात्मक और प्रेरणादायी है। जो भी पाठक इन्हें पढ़ेगा, उसका ध्यान बार- बार पुस्तक के पन्नों से अपने खेतों की तरफ खिंचेगा और वहां से वह उपयुक्त संबंध जोड़कर अपनी समूची कृषि प्रणाली पर विचार करने को बाध्य होगा।
हमारे देश में कई लोगों की तरह, मगर उनसे काफी पहले श्री फुकूओका की समझ में यह बात आ गई कि हम जीवन के विभिन्न पहलुओं को एक- दूसरे से अलग नहीं कर सकते। जब हम खाद्यान्न उगाने का अपना तरीका बदलते हैं तो उसके साथ ही हमारा आहार भी बदल जाता है, समाज और हमारे जीवनमूल्य भी। अत: यह किताब संबंधों, कारणों और परिणामों तथा जो कुछ हम जानते हैं, उसके बारे में जवाबदेह होने के बारे में है।
जो लोग जैवकृषि पर उपलब्ध साहित्य से परिचित हैं, उन्हें श्री फुकूओका तथा पश्चिम में जैवकृषि विज्ञान के संस्थापक सर आल्बर्ट हॉवर्ड के जीवन में कई समानताएं नजर आएंगी। हॉवर्ड की तरह ही फुकूओका ने भी शुरुआत एक प्रयोगशाला वैज्ञानिक के रूप में की और उन्हीं की तरह उनके सामने भी प्रयोगशाला की सीमाएं शीघ्र ही उजागर हो गयी। हॉवर्ड ने अपना कार्यक्षेत्र प्रयोगशाला से हटाकर खेतों में बनाया और अपनी जीवनशैली भी उसी हिसाब से बदली। क्योंकि उन्हें लगा कि उनकी यह जिम्मेदारी है कि अपनी सलाह दूसरों को देने के पूर्व वे स्वयं उसके अनुसार आचरण करें। इसी ढंग से श्री फुकूओका ने भी अपना रास्ता खुद तय किया। 'अंत में मैंने अपने विचारों को साकार रूप देने तथा उन्हें व्यावहारिकता की कसौटी पर कसने का फैसला किया, ताकि मुझे पता चल सके कि मेरी समझ सही है या गलत। खेती करते हुए ही अपना जीवन बिताना, यह था वह रास्ता जिस पर मैं चल पड़ा।' वे आगे कहते हैं, 'सैकड़ों हिदायतें देने से क्या यह बेहतर नहीं था कि अपने दर्शन को मैं खुद अपने ही जीवन में उतारूं? जब भी कोई विशेषज्ञ अपने परामर्श को खुद ग्रहण करने का निर्णय करता है तथा वैसा ही 'करना' शुरू कर देता है, जैसा वह 'कहता' है तो वह अपनी विशेषता की सीमाओं को तोड़ देता है। तभी हम उसकी बात पर कान देते हैं क्योंकि अब उसकी बात सिर्फ उसके ज्ञान पर आधारित न होकर ठोस प्रामाणिकता लिए होती है।'
जब श्री फुकूओका उन कृषि विधियों की बात करते हैं जिन्हें वे 'कुछ मत करो' विधि कहते हैं तो पश्चिम के लोगों को बरबस बाईबल में संत मॅथ्यू की किताब का यह उद्धरण (6:26) याद आता है: 'देखो आसमान में उड़ती उन चिडिय़ों को, वो ना कुछ बोती हैं ना काटती हैं, न कुछ खलिहानों में सहेजती हैं, फिर भी परमपिता ईश्वर उनका पेट भरता है।' इन दोनों ही मामलों में मेरे खयाल से, हमें आगाह किया जा रहा है कि हम ईश्वरीय व्यवस्था में अपनी सही जगह को पहचानें। हमने न तो यह दुनिया बनाई है न खुद को बनाया है हम जीवन का उपयोग करते हुए जिंदा हैं न कि उसकी रचना करते हुए। लेकिन जिस तरह परिंदों को भोजन खोजना तो पड़ता ही है, उसी तरह बेशक किसान भी बिल्कुल बिना कुछ किए खेती नहीं कर सकता। इस तथ्य को श्री फुकूओका भी अपनी सहज विनोदप्रियता के साथ स्वीकार करते हैं, 'मैं कुछ मत करो खेती की हिमायत करता हूं यह जानकर कुछ लोग यह सोच लेते हैं कि वे बगैर अपने बिस्तरों से उठे ही अपना जीवन जी लेंगे। निश्चय ही इन लोगों को चौंकाने के लिए मेरी विधि में काफी मसाला है।' यह तर्क 'काम' के विरुद्ध न होकर 'निरर्थक' काम के खिलाफ है। कई बार लोग अपनी इच्छित वस्तुएं पाने के लिए आवश्यकता से अधिक काम करते हैं। तथा कई बार ऐसी वस्तुओं की इच्छा भी करते हैं, जिनकी उन्हें जरूरत ही नहीं है।
और कुछ मत करो का उल्लेख हम हमारी उस सहजबुद्धि से उपजी मुद्रा के चलते भी कर रहे हैं। जब हम विशेषज्ञों के किसी फतवे के प्रत्युत्तर में पूछते हैं- 'यदि हम ऐसा न करें या वैसा करें तो भला क्या होगा?' मेरे सोचने का तरीका कुछ इसी प्रकार का है। यह आम बच्चों और कुछ वृद्धों की वही उलटी चलने की प्रवृत्ति है, जिसके चलते वे इस तरह के कूट तर्कों को ठुकराकर 'किसलिए' की उपेक्षा कर आगे बढ़ जाते हैं और ऐसा करते हुए वे गलत नहीं होते।'
श्री फुकूओका एक ऐसे वैज्ञानिक हैं जो विज्ञान या उसके नाम पर चलने वाली चीजों को ही शंका की नजर से देखते हैं। इसका मतलब यह भी नहीं है कि वे अव्यावहारिक हैं या ज्ञान को तिरस्कार की दृष्टि से देखते हैं। वास्तव में उनका संशयवाद उनकी व्यावहारिकता या जो कुछ वे जानते हैं उससे उपजा है।
सिर्फ अल्बर्ट हॉवर्ड की तरह ही वे ज्ञान को विशिष्टीकरण (स्पेशलाईजेशन) द्वारा टुकड़ों में बांटकर देखने की प्रवृत्ति का विरोध करते हैं। हॉवर्ड की तरह ही वे अपने विषय का अध्ययन उसकी समग्रता के साथ करना चाहते हैं। तथा उसमें वो जो जानते हैं तथा जो नहीं जानते हैं, वह दोनों ही शामिल हैं।
आधुनिक व्यावहारिक विज्ञान की जो बात उन्हें पसंद नहीं है वह है रहस्यमयता के प्रति उसकी विमुखता, जीवन को उसके ज्ञात पहलुओं तक ही सीमित कर देने की तत्परता तथा वह पूर्व धरणा कि जो कुछ विज्ञान को पता नहीं है उसे जाने बगैर भी उसका काम चल सकता है। वे कहते हैं, 'विज्ञान द्वारा जिस प्रकृति को हमने जाना है वह, प्रकृति है जिसे नष्ट कर दिया गया है। वह उस कंकाल की तरह है जिस पर किसी आत्मविहीन प्रेत ने कब्जा कर लिया है। 'कुछ ऐसी ही बात प्रकृतिवादी कवि वर्डस्वर्थ ने भी अपनी इन पंक्तियों में कही है:
'हमारी हस्तक्षेपकारी बुद्धि
उन सुंदर आकारों को विकृत कर देती है,
जिनकी हत्या हमने, अपने ही हाथों
उन्हें विच्छेदित करने के वास्ते कर दी।'
श्री फुकूओका के विज्ञान का आदि और अंत एक ऐसा सम्मान भाव है, एक ऐसी चेतना है जो जानती है कि मानव जिस किसी चीज को भी एक बार अपने हाथों से छूता है उसे वह अनिवार्य रूप से अवमूल्यित कर देता है। वे ऐसा कहते प्रतीत होते हैं कि हम में समग्रता का अहसास ज्ञान से नहीं बल्कि उस आनंद की आनंनभूति से प्राप्त होता है जो उस ज्ञान की अपूर्णता के अहसास मात्र से प्राप्त होती है।
इस विचित्र अनुभूति का समर्थन हमें बाइबल के कुछ प्रसंगों में तथा विलियम ब्लॅक की इन पंक्तियों में भी दिखलाई दे जाता है:
'वह जो अपने आप को बांध देता है
किसी सुख के साथ,
नष्ट कर देता है जीवन की स्वच्छंद उड़ान को,
अगर वह जो, उड़ते आनंद को ही,
चूम, छोड़ देता है, वह सर्वथा जीता है
अनंत के प्रभाव में।'
यही है वह गरिमा जो श्री फुकूओका की कृषि संबंधी अंतर्दृष्टियों के मूल में विद्यमान है: 'जब यह बात समझ ली जाती है कि हम सुख को हमेशा के लिए अपना लेने की कोशिश में खो देते हैं, तो हम प्राकृतिक कृषि के सार को हृदयंगम कर लेते हैं।'
और यही प्राकृतिक कृषि, जिसका उद्गम और समापन सम्मान भाव में है ही हर जगह मानवीय और कृपाशील भी है। मानव सबसे अधिक कार्यकुशल तभी होता है जब वह मानव- कृयाण के लिए काम करता है, न कि तब, जब वह और ज्यादा उत्पादन या 'और अधिक कुशलता' के लिए, जो कि औद्योगिक कृषि का लगभग अंतिम लक्ष्य है, के लिए काम करता है। 'कृषि का अंतिम लक्ष्य केवल फसलें उगाना नहीं है।' श्री फुकूओका कहते हैं, 'बल्कि इंसानों की परवरिश कर उन्हें संपूर्णता प्रदान करना है।' और कृषि के बारे में बातें करते हुए वे उसे 'यहां एक छोटे से खेत पर रहकर, उसकी देखभाल करते हुए पूरी आजादी के साथ, प्रतिदिन की विफलता को सभी दिनों में भोगते हुए जीने का रास्ता' मानते हैं। क्योंकि निश्चय ही कृषि- कर्म का मौलिक रास्ता भी यही रहा होगा। यह ऐसी खेती है जो सम्पूर्ण व्यक्ति का, सम्पूर्ण शरीर और आत्मा, दोनों का पोषण करती है। यह सही भी है क्योंकि मानव सिर्फ रोटी के लिए और रोटी के बल पर ही नहीं जिया करता है। (इंडिया वाटर पोर्टल) 

प्रेरक

 लिबास
बहुत पुरानी बात है। मिस्र देश में एक सूफी संत रहते थे जिनका नाम जुन्नुन था। एक नौजवान ने उनके पास आकर पूछा, 'मुझे समझ में नहीं आता कि आप जैसे लोग सिर्फ एक चोगा ही क्यों पहने रहते हैं? बदलते वक्त के साथ यह जरूरी है कि लोग ऐसे लिबास पहनें जिनसे उनकी शख्सियत सबसे अलहदा दिखे और देखने वाले वाहवाही करें'।
जुन्नुन मुस्कुराये और अपनी उंगली से एक अंगूठी निकालकर बोले, 'बेटे, मैं तुम्हारे सवाल का जवाब जरूर दूंगा लेकिन पहले तुम मेरा एक काम करो। इस अंगूठी को सामने बाजार में एक अशर्फी में बेचकर दिखाओ'।
नौजवान ने जुन्नुन की सीधी- सादी सी दिखनेवाली अंगूठी को देखकर मन ही मन कहा, 'इस अंगूठी के लिए सोने की एक अशर्फी!? इसे तो कोई चांदी के एक दीनार में भी नहीं खरीदेगा!'
'कोशिश करके देखो, शायद तुम्हें वाकई कोई खरीददार मिल जाए', जुन्नुन ने कहा। नौजवान तुरंत ही बाजार को रवाना हो गया। उसने वह अंगूठी बहुत से सौदागरों, परचूनियों, साहूकारों, यहाँ तक कि हज्जाम और कसाई को भी दिखाई पर उनमें से कोई भी उस अंगूठी के लिए एक अशर्फी देने को तैयार नहीं हुआ। हारकर उसने जुन्नुन को जा कहा, 'कोई भी इसके लिए चांदी के एक दीनार से ज्यादा रकम देने के लिए तैयार नहीं है'।
जुन्नुन ने मुस्कुराते हुए कहा, 'अब तुम इस सड़क के पीछे सुनार की दुकान पर जाकर उसे यह अंगूठी दिखाओ। लेकिन तुम उसे अपना मोल मत बताना, बस यही देखना कि वह इसकी क्या कीमत लगाता है'।
नौजवान बताई गयी दुकान तक गया और वहां से लौटते वक्त उसके चेहरे पर कुछ और ही बयाँ हो रहा था। उसने जुन्नुन से कहा, 'आप सही थे। बाजार में किसी को भी इस अंगूठी की सही कीमत का अंदाजा नहीं है। सुनार ने इस अंगूठी के लिए सोने की एक हजार अशर्फियों की पेशकश की है। यह तो आपकी माँगी कीमत से भी हजार गुना है!'
जुन्नुन ने मुस्कुराते हुए कहा, 'और वही तुम्हारे सवाल का जवाब है। किसी भी इन्सान की कीमत उसके लिबास से नहीं आंको, नहीं तो तुम बाजार के उन सौदागरों की मानिंद बेशकीमती नगीनों से हाथ धो बैठोगे। अगर तुम उस सुनार की आँखों से चीजों को परखने लगोगे तो तुम्हें मिट्टी और पत्थरों में सोना और जवाहरात दिखाई देंगे। इसके लिए तुम्हें दुनियावी नजर पर पर्दा डालना होगा और दिल की निगाह से देखने की कोशिश करनी होगी। बाहरी दिखावे और बयानबाजी के परे देखो, तुम्हें हर तरफ हीरे- मोती ही दिखेंगे'।
(www.hindizen.com से)

तप रही है धरती

- के. जयलक्ष्मी
यदि आंकड़ों पर भरोसा किया जाए तो एक और वैज्ञानिक अध्ययन ने साबित कर दिया है कि जलवायु परिवर्तन एक कड़वी सच्चाई है और धरती पर इसका खतरा मंडरा रहा है।
जलवायु परिवर्तन को नकारने वाले लोगों की बढ़ती संख्या के बीच बर्कले अर्थ सर्फेस टेम्परेचर प्रोजेक्ट ग्रुप को सच्चाई का पता लगाने का जिम्मा सौंपा गया था। इसके लिए ग्रुप को एक लाख डॉलर दिए गए थे। अमरीका में जलवायु परिवर्तन को नकारने वाले लोगों को इस फंडिंग के लिए मनाना ही एक भारी काम था।
अध्ययन के नतीजे बताते हैं कि जलवायु परिवर्तन का ग्राफ लगभग वैसा ही है जैसा विश्व के तीन बेहद अहम और स्थापित समूहों एनओएए, नासा और मेट ऑफिस एंड क्लाइमेट रिसर्च यूनिट ने प्रस्तुत किया है। हालांकि शंकालु लोगों ने इनके कार्यों को भी अविश्वसनीय और नाकारा करार दिया था।
धरती तप रही है, यह साबित करने के लिए प्रोजेक्ट ने 18वीं सदी से लेकर अब तक के तापमान के एक अरब से भी अधिक आंकड़ों का परीक्षण किया। ये आंकड़े दुनिया भर में 15 अलग- अलग स्रोतों से हासिल किए गए थे। पाया गया कि 1950 के बाद से धरती के औसत तापमान में करीब एक डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी हुई है। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि 20वीं सदी में तापमान में औसत बढ़ोतरी जहां 0.73 डिग्री सेल्सियस थी, वहीं 1960 से 2000 के बीच 2.76 डिग्री सेल्सियस और 1998 से 2010 के बीच 2.84 डिग्री सेल्सियस रही।
ग्रुप ने 'मीन- मेख निकालने वाले' ब्लॉगरों के उस दावे की भी पड़ताल की कि जलवायु स्टेशनों के तापमान सम्बंधी आंकड़े वैश्विक तापमान के सही ट्रेंड को प्रदर्शित नहीं करते। दावा यह था कि इन स्टेशनों पर अधिक तापमान रिकॉर्ड होता है, क्योंकि वे शहरों में या उनके निकट होते हैं। ये शहर लगातार बढ़ते जा रहे हैं और 'शहरी ऊष्मा टापू प्रभाव' में अपना योगदान दे रहे हैं। उनका मानना है कि शहरी ऊष्मा टापू प्रभाव तो सच्चाई है, लेकिन समग्र तापमान के ट्रेंड पर उसका असर काफी 'नगण्य' पड़ता है।
लगभग 97 फीसदी जलवायु वैज्ञानिक मानते हैं कि जलवायु परिवर्तन हो रहा है और इसकी मुख्य वजह मानवीय गतिविधियां ही हैं। लेकिन इस बात में संदेह ही है कि यह नया अध्ययन भी इससे आंख चुराने वालों को बदल सकेगा। अगर कोई चीज साफ दृष्टिगोचर नहीं है और उसे सीधे मापना संभव नहीं है, तो वहां निश्चित तौर पर दो मत होंगे और दोनों ही अपने- अपने तर्कों पर अडिग रहेंगे। जैसा कि नासा के जैम्स हैन्सेन कहते हैं, '... आंखें चुराने वाले लोग वैज्ञानिक जैसा नहीं, बल्कि वकील जैसा बर्ताव करते हैं। जैसे ही वे अपने मुवक्किल 'जीवाश्म ईंधन उद्योग' के खिलाफ कोई सबूत देखते हैं, वे उसे नकार देते हैं और वह सब कुछ प्रस्तुत करने की कोशिश करते जिससे कि जजों और जूरी को भ्रमित किया जा सके।'
यदि हम यह मानते हैं कि जलवायु परिवर्तन के मूल में मानव है, तो हमें एक और चुनौती से निपटना होगा। यह चुनौती है बढ़ती आबादी।
हम सात अरब की आबादी को पार कर चुके हैं। हम असंख्य जीवों के लिए खतरा बन गए हैं। वर्ष 1999 में हम छह अरब हुए थे। इस तरह छह से सात अरब होने में हमें महज 12 साल लगे। इससे 12 साल पहले 1987 में हमारी आबादी पांच अरब हुई थी। और साफ शब्दों में कहें तो पिछले पांच दशकों में ही हमारी आबादी में चार अरब की बढ़ोतरी हो चुकी है। अगले 12 सालों में हमारी आबादी के आठ अरब तक पहुंचने का अनुमान है। वर्ष 2050 तक 9.3 अरब और 2100 तक आबादी 10.1 अरब हो जाएगी।
लगभग 97 फीसदी जलवायु वैज्ञानिक मानते हैं कि जलवायु परिवर्तन हो रहा है और इसकी मुख्य वजह मानवीय गतिविधियां ही हैं। लेकिन इस बात में संदेह ही है कि यह नया अध्ययन भी इससे आंख चुराने वालों को बदल सकेगा।
वर्ष 2100 तक धरती पर ताजे पानी की मात्रा में 10 फीसदी तक की कमी हो सकती है। यही स्थिति खेती की हो सकती है, जो बर्फ रहित धरती के करीब 40 फीसदी हिस्से में होती है। अगर यही हालात बने रहते हैं या उनमें गिरावट आती है तो उसका मतलब है कि भोजन की आवश्यकता के लिए जंगलों का सफाया करना होगा ताकि अधिक से अधिक खेती की जा सके। इसका नतीजा कार्बन उत्सर्जन में बढ़ोतरी के रूप में सामने आएगा। साथ ही अन्य कई समस्याएं भी पैदा होंगी, जैसे मिट्टी का कटाव, नदियों का सूखना इत्यादि।
प्रख्यात अर्थशास्त्री जेफ्री सेचेस का कहना है कि सात अरब लोगों का पेट भरने के लिए हमें बहुत अधिक उर्वरकों की जरूरत है, ताकि कृषि का उत्पादन बढ़ाया जा सके। इस वजह से दुनिया के जल भंडार पहले से ही खतरे में हैं जिसके परिणाम नजर आने भी लगे हैं। सौ से भी अधिक नदियों के मुहाने सूखते जा रहे हैं, ऊर्जा की बहुत अधिक खपत और वनों के विनाश के कारण कार्बन की मात्रा भी बढ़ती जा रही है।
सवाल यह है कि जमीन तो सीमित है। तो ऐसे में 2050 में हम नौ अरब लोगों का पेट कैसे भर सकेंगे। कनाडा, अमरीका, स्वीडन और जर्मनी के शोधकर्ताओं की एक अंतर्राष्ट्रीय टीम ने दुनिया भर में होने वाली फसलों के आंकड़ों और उपग्रह तस्वीरों का संयोजन करके कृषि प्रणालियों व पर्यावरणीय प्रभावों के ग्लोबल मॉडल्स का इस्तेमाल यह योजना बनाने में किया है कि पर्यावरण पर विपरीत असर पड़े बिना खाद्य उत्पादन को किस तरह से दुगना किया जा सकता है। इन शोधकर्ताओं के अध्ययन पर कार्य करने वाले मैकगिल यूनिवर्सिटी में भूगोल के प्रोफेसर नवीन रामनकुट्टी ने नेचर पत्रिका में इस पांच सूत्रीय योजना की बात करते हुए इसे कुछ- कुछ नाटकीय करार दिया है, लेकिन टीम का दावा है कि इस लक्ष्य को पाना संभव है।
टीम ने जो उपाय सुझाए हैं, उनमें शामिल हैं-  कृषि के लिए जंगलों को साफ करने की प्रवृत्ति पर विराम लगाना, विकासशील देशों में कृषि की उत्पादकता में 60 फीसदी तक की बढ़ोतरी करके उसे विकसित देशों के समकक्ष लाना, उर्वरकों और अन्य कृषि रसायनों का आवश्यकतानुसार ही किफायत से इस्तेमाल करना, वनस्पति आधारित भोजन को बढ़ावा देना और पशु आहार या बायोफ्यूल के लिए अनाज का कम से कम उपयोग करना। साथ ही अनाज की बर्बादी को रोकना; अनाज के कुल उत्पादन का एक तिहाई हिस्सा यूं ही बर्बाद हो जाता है।
यह कवायद हमारे बचे- खुचे उष्णकटिबंधी वनों अथवा ऊपरी मृदा को नुकसान पहुंचाए बगैर दुनिया के एक बड़े हिस्से का पेट भरने का गणितीय समाधान सुझाती है। लेकिन कृषि में सुधार की राह में राजनीतिक और सामाजिक कारण सामने आएंगे। जंगलों को साफ करके खेती के लिए नई जमीन हासिल करने अथवा जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल वाले उपकरणों पर निर्भरता कम करने वाली प्रणाली की तरफ बढऩे के लिए एक दृष्टि तथा अभूतपूर्व वैश्विक प्रयासों की जरूरत होगी।
जलवायु परिवर्तन का सबसे पहला शिकार गरीब होंगे। ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रायोजित एक रिपोर्ट जलवायु परिवर्तन की वजह से संभावित मानवीय विपदा को लेकर आगाह करती है। रिपोर्ट चिंता जताती है कि जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाले पर्यावरणीय विनाश से लाखों तथाकथित 'जलवायु शरणार्थी' अपनी बंजर जमीनों को छोड़कर उन देशों में पलायन करेंगे जहां कम नुकसान होगा।
रिपोर्ट कहती है कि अभी से सक्रिय होना आर्थिक दृष्टि से भी लाभदायक होगा। स्थिति में सुधार करने के लिए हमें आज जो खर्च करना होगा, वह जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाले संघर्षों और जीवन की क्षति की तुलना में बहुत कम रहेगा। 'पलायन और वैश्विक पर्यावरणीय परिवर्तन सम्बंधी दूरगामी रिपोर्ट' मानव पलायन के पैटर्न के मुद्दे पर केंद्रित है। अगले 50 सालों में बाढ़, सूखा और समुद्र सतह के स्तर में बढ़ोतरी का मानव पलायन के पैटर्न पर क्या असर पड़ेगा, इस सम्बंध में इसमें विस्तृत अध्ययन किया गया है। यह रिपोर्ट कहती है कि तीन- चौथाई पलायन देशों के भीतर ही होगा। खासकर, लोग ग्रामीण से शहरी इलाकों में जाएंगे। इससे सबसे बड़ा मुद्दा यह खड़ा होता है कि आबादी के इतने व्यापक दबाव में इन शहरों का प्रबंधन कैसे होगा? कोलंबिया में जनसंख्या के प्रोफेसर जोएल कोहेन कहते हैं कि जनसंख्या विस्फोट को संभालने के लिए हमें अगले 40 सालों के दौरान हर पांच दिन में ऐसे एक- एक शहर का विकास करना होगा, जहां दस- दस लाख लोग रह रह सकें।
समस्या की जड़ या उसका समाधान हमारे अस्त- व्यस्त व्यवहार और प्रेरणाओं में समाहित है। लंदन स्थित युनिवर्सिटी कॉलेज में एक वरिष्ठ रिसर्च एसोसिएट जॉन बर्ड ने हाल ही में दक्षिण लंदन के तटीय शहर में ऐसे 17 परिवारों का समूह बनाया जो अपने घरों में बिजली के इस्तेमाल का रोजाना रिकॉर्ड रखने को तैयार हो गए। उनकी प्रगति को साफ- साफ चित्रित किया जा सके, इस उद्देश्य से उन्होंने पड़ोस के गोल्डस्मिथ कॉलेज के कुछ कलाकारों को सड़क पर विशालकाय ग्राफ बनाने के लिए भी राजी किया।
शुरु में सब कुछ योजनानुसार हुआ। तीन सप्ताह में नागरिकों ने अपने बिजली के बिल में 15 फीसदी तक की कटौती कर दी। लोग उनके प्रयासों की सराहना कर रहे थे। जो लोग प्रयास नहीं कर रहे थे, उनकी खिंचाई भी की जा रही थी। अगले तीन  सप्ताह के दौरान कुछ घर इससे अलग हो गए।
लेकिन अब भी 80 फीसदी परिवार इसे जारी रखे हुए थे। मगर छह सप्ताह के भीतर उनकी संख्या घटकर करीब 50 फीसदी रह गई। छह माह के बाद केवल तीन परिवार ही अपने मीटर की जांच रोजाना कर रहे थे। इनमें से भी दो ही बिजली की खपत को कम रखने में सफल रहे। लोगों के पास अगर आंकड़े हों तो उनके बर्ताव में बदलाव तो होता है। अगर साथ ही कुछ प्रेरणा मिल जाए तो बदलाव सकारात्मक भी होता है। लेकिन यह बदलाव लंबे समय तक नहीं चलता। कहते भी हैं, पुरानी आदतें मुश्किल से ही जाती हैं। सच तो यह है कि हम इंसान तब तक बदलाव को स्वीकार करने को तैयार नहीं होते हैं, जब तक कि समस्या हमारे सिर पर खड़ी नहीं हो जाती। और फिर हम कहते हैं, यह तो होना ही था। (स्रोत फीचर्स)

खेती- किसानी

 सतपुड़ा की अनूठी खेती उतेरा
- बाबा मायाराम
उतेरा से पूरा भोजन मिल जाता है। दाल, चावल, रोटी और तेल सब कुछ। इसमें दलहन, तिलहन और मोटे अनाज सब शामिल हैं। इन सबसे साल भर की भोजन की जरूरत पूरी हो जाती है। मवेशियों के लिए चारा और मिट्टी को उर्वर बनाने के लिए जैविक खाद मिल जाती है। यानी उतेरा से इंसानों के लिए अनाज, मवेशियों के लिए फसलों के डंठल, भूसा और चारा, मिट्टी के लिए जैविक खाद और फसलों के लिए जैविक कीटनाशक प्राप्त होते हैं।
इन दिनों खेती- किसानी का संकट गहरा रहा है। नौबत यहां तक आ पहुंची है कि किसान अपनी जान दे रहे हैं। पिछले 16 सालों में ढाई लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं। होशंगाबाद जिले में भी आत्महत्याएं होने लगी हैं। अब सवाल है कि क्या आज की भारी पूंजी वाली आधुनिक खेती का कोई विकल्प है। मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले में परंपरागत खेती में इस विकल्प के कुछ सूत्र दिखाई देते हैं, जो मैंने हाल ही में उन किसानों से जाने जिन्हें आदिवासी किसान सालों से करते आ रहे हैं।
सतपुड़ा घाटी के दतला पहाड़ की तलहटी में बसा है धड़ाव गांव। यहां की प्राकृतिक सुंदरता अपूर्व है। हाल ही में खेती- किसानी के अध्ययन के सिलसिले में मेरा यहां जाना हुआ। तब चने की फसल कट रही थी। यहां का किसान गनपत हंसिया से चने काट रहा था। खेत में एक मचान बना हुआ था जहां से वह सुअर और चिडिय़ा भगाता है, जंगली सुअरों व सांभर से फसल की रखवाली करता है।
होशंगाबाद जिला भौगोलिक रूप से दो भागों में बंटा है। एक है सतपुड़ा की जंगल पट्टी, दूसरा है नर्मदा का कछार। धड़ाव गांव जंगल पट्टी का है और दूधी नदी के किनारे स्थित है। यह नदी जिले की सीमा निर्धारित करती है। जंगल पट्टी में प्राय: सूखी और असिंचित खेती होती है जबकि नर्मदा के कछार में तवा बांध की नहरें हैं। कछार की जमीन काफी उपजाऊ मानी जाती है लेकिन अब यह लाजवाब जमीन भी जवाब देने लगी है।
सतपुड़ा की जंगल पट्टी में परंपरागत खेती की पद्धति प्रचलित है जिसे उतेरा कहा जाता है। इसमें 6-7 प्रकार के अनाजों को मिलाकर बोया जाता है। इस अनूठी पद्धति में ज्वार, धान, तिल्ली, तुअर, समा, कोदो मिलाकर बोते हैं। एक साथ सभी बीजों को मिला कर खेत में बोया जाता है और बक्खर चलाकर पेंटा लगा देते हैं। फसलें जून (आषाढ़) में बोई जाती हैं लेकिन अलग- अलग समय में काटी जाती हैं। पहले उड़द, फिर धान, ज्वार और अंत में तुअर कटती है। कुटकी जल्द पक जाती है।
60 की उम्र पार कर चुके गनपत बताते हैं कि इसमें किसी प्रकार की वित्तीय लागत नहीं है। खुद की मेहनत, बैलों का श्रम और बारिश की मदद से फसल पक जाती है। हर साल वे अगली फसल के लिए बीज बचाकर रखते हैं और उन्हें खेतों में बो देते हैं। उनके पास बैल हैं जिनसे खेतों की जुताई करते हैं। मवेशियों से गोबर खाद मिलती है जिससे खेतों की मिट्टी उपजाऊ बनती है। 
उतेरा से पूरा भोजन मिल जाता है। दाल, चावल, रोटी और तेल सब कुछ। इसमें दलहन, तिलहन और मोटे अनाज सब शामिल हैं। इन सबसे साल भर की भोजन की जरूरत पूरी हो जाती है। मवेशियों के लिए चारा और मिट्टी को उर्वर बनाने के लिए जैविक खाद मिल जाती है। यानी उतेरा से इंसानों के लिए अनाज, मवेशियों के लिए फसलों के डंठल, भूसा और चारा, मिट्टी के लिए जैविक खाद और फसलों के लिए जैविक कीटनाशक प्राप्त होते हैं।
गनपत की पत्नी बेटीबाई, गांव के पाजी और चन्द्रभान आदि किसानों का भी यही मानना था। रामख्याली ठाकुर तो इस खेती को रासायनिक खेती से भी अच्छा मानते हैं क्योंकि इसमें लागत बिलकुल नगण्य है। रासायनिक खाद और कीटनाशक भी नहीं के बराबर लगते हैं। रासायनिक खाद के बारे में चन्द्रभान ने कहा कि वे तो मछन्द्री (धरती) को भूंज (भून) रहे हैं। शायद इसका मतलब यह है कि रासायनिक खाद मिट्टी को उपजाऊ बनाने वाले सूक्ष्म जीवाणुओं को खत्म कर रही है।
जिला गजेटियर के अनुसार पहले इस इलाके में मिलवां फसलें होती थी। जिसमें मिट्टी में उपजाऊपन बनाए रखने के लिए फलीवाले अनाज बोए जाते थे। अलग- अलग अनुपात में मिलवां फसलें बोई जाती थीं। गेहूं और चना मिलाकर बिर्रा बोते थे। तिवड़ा और चना मिलाकर बोते थे। कपास, तुअर, तिल, कोदो और ज्वार मिलवां बोते थे। किसान यह भलीभांति जानते थे फलीदार फसलें मिट्टी को उर्वर बनाती हैं और उत्पादन बढ़ाने में मददगार होती हैं। कई फसलें एक साथ बोने से पोषक तत्त्वों का चक्र बराबर बना रहता है। अनाज के साथ फलीदार फसलें बोने से नाइट्रोजन आधारित बाहरी निवेशों की जरूरत कम पड़ती है। उतेरा पद्धति के बारे में किसानों की सोच यह है कि अगर एक फसल मार खा जाती है तो उसकी पूर्ति दूसरी फसल से हो जाती है। जबकि नकदी फसल में कीट या रोग लगने से या प्राकृतिक आपदा आने से पूरी फसल नष्ट हो जाती है जिससे किसानों को भारी नुकसान होता है। हाल ही में यहां सोयाबीन की फसल खराब होने से 3 किसानों ने आत्महत्या की है। मिश्रित और मिलवां फसलें एक जांचा-परखा तरीका है। इसमें फसलें एक- दूसरे को फायदा पहुंचाती हैं।
कुछ साल पहले हर घर में बाड़ी होती थी जिसमें उतेरा की ही तरह मिलवां फसलें हुआ करती थीं। बाड़ी में घरों के पीछे कई तरह की हरी सब्जियां और मौसमी फल और मोटे अनाज लगाए जाते थे। जैसे भटा, टमाटर, हरी मिर्च, अदरक, भिंडी, सेम (बल्लर), मक्का, ज्वार आदि होते थे। मुनगा, नींबू, बेर, अमरूद आदि बच्चों के पोषण के स्रोत होते थे। इनमें न अलग से पानी देने की जरूरत थी और न ही खाद। जो पानी रोजाना इस्तेमाल होता था उससे ही बाड़ी की सब्जियों की सिंचाई हो जाती थी। लेकिन इनमें कई कारणों से कमी आ रही है।
कुल मिलाकर, जंगल में रहने वाले लोगों की जीविका उतेरा खेती और जंगल पर निर्भर होती है। खेत और जंगल से उन्हें काफी अमौद्रिक चीजें मिलती हैं, जो पोषण के लिए नि:शुल्क और प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होती है। ये सभी चीजें उन्हें अपने परिवेश और आसपास से मिल जाती हैं। जैसे बेर, जामुन, अचार, आंवला, महुआ, मकोई, सीताफल, आम, शहद और कई तरह के फल- फूल, जंगली कंद, और पत्ता भाजी सहज ही उपलब्ध हो जाते हैं। ये सब पोषण और भोजन के प्रमुख स्रोत हैं। दूसरे शब्दों में कहा जाए, तो यह खेती एक जीवन पद्धति है जिसमें जैव विविधता का संरक्षण भी होता है, मिट्टी, पानी और पर्यावरण का संरक्षण भी होता है।
देखा जाए तो हमारे देश के अलग- अलग भागों में परिस्थति, आबोहवा और मौसम के अनुकूल परंपरागत खेती की कई पद्धतियां प्रचलित हैं। कहीं सतगजरा (7 अनाज), कहीं नवदान्या (9 अनाज) तो कहीं बारहनाजा (12) की खेती पद्धतियां हैं। इनकी कई खूबियां हैं। इनसे कीटों की रोकथाम होती है, मिट्टी का उपजाऊपन बना रहता है, खाद्य सुरक्षा होती है। यह सघन खेती की तरह है, जिसमें भूमि का अधिकतम उपयोग होता है।
चंूकि अलग- अलग समय में फसलें पकती हैं, इसलिए परिवार के सदस्य ही कटाई कर लेते हैं। इस कारण न तो अतिरिक्त मंहगे श्रम की जरूरत पड़ती है और न ही हारवेस्टर जैसे उपकरणों की। मशीनों के कम उपयोग से ग्लोबल वार्मिंग का खतरा भी घटता है। यानी यह परंपरागत खेती खाद्य सुरक्षा, मिट्टी के संरक्षण, पशुपालन, जैव विविधता व पर्यावरण संरक्षण, सभी दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। यह खेती की सर्वोत्तम विधि है जिसका कोई विकल्प अब तक नहीं है।

ब्लॉग बुलेटिन से


उदंती में हमने जो नयी श्रृंखला की शुरूआत की है उसके अंतर्गत निरंतर हम किसी एक ब्लॉग के बारे में आपको जानकारी दे रहे हैं। इस 'एकल ब्लॉग चर्चा' में ब्लॉग की शुरुआत से लेकर अब तक की सभी पोस्टों के आधार पर उस ब्लॉग और ब्लॉगर का परिचय रश्मि प्रभा जी अपने ही अंदाज दे रही हैं। आशा है आपको हमारा यह प्रयास पसंद आएगा। तो आज मिलिए... रचना जी के ब्लॉग पोयम्स से।                     - संपादक

एहसासों के हर कतरे संजोती

भावों की अभिव्यक्ति कविता कहलाती है.... यह कहना है रचना जी का। ब्लॉग तो यूँ कई हैं, पर मैंने भावों की गगरी उठाई है, जिसमें सृष्टि में बसी सारी खुशबू है- mypoemsmyemotions.blogspot.com मुझे इस ब्लॉग से दूर रहने का दु:ख है, क्योंकि मैं ब्लॉगों की परिक्रमा करती हूँ, दिल से जीए एहसासों के हर कतरे संजोती हूँ और एहसासों के शानदार रंगमंच पर आपके आगे रख देती हूँ।
10 जनवरी 2006 से रचना जी ने पश्मीने की तरह अपने ख्यालों को बुना है। एक बुनकर ही जानता है बुनने की कला। कविता हो या कहानी, गीत या गजल...जीकर ही तराशे जा सकते हैं और यह ब्लॉग तराशा हुआ है।  इसे पढ़ते हुए मैंने जाना और माना कि आग के अन्दर समंदर है- डुबकी लगाओ, जलोगे नहीं, बल्कि मोती पाओगे।
याद है आपको मुगलेआजम? संगतराश ने जीवंत मूर्ति रख दी थी अकबर के आगे... उसी संगतराश की याद आई है, जिसकी मूर्ति में प्राण थे!
http://mypoemsmyemotions.blogspot.com/2006/10/woh-cheekh-cheekh-kar-khati-hae-mae.html इसमें उस नारी का रूप मिलता है, जो सब कुछ जानती है, अपमान का गरल आत्मसात करती है, पर अपने वजूद को भी बताती है। स्वयं के चक्रव्यूह से निकलने का अदम्य प्रयास!
जिन्दगी की आड़ी तिरछी राहें, वक्र रेखाओं में उलझे सरल ख्वाब यही कहते हैं -
काश जिन्दगी भी एक स्लेट होती
जब चाहती लिखा हुआ पोछती
और नया लिख लेती
चलो जिन्दगी ना सही
मन ही स्लेट होता
पोछ सकती, मिटा सकती
उन जज्बातों को
जो पुराने हो गये हैं
पर जिन्दगी की चाक तो
भगवान के पास है
और मन पर पड़ी लकीरें हों
या सेलेट पर पड़ी खुंरसटे हों
धोने या पोछने से
नहीं हटती नहीं मिटती
पुरानी पड़ गयी स्लेट को
बदलना पड़ता है
विवश मन को
भुलाना होता है... यही सार क्यूँ रह जाता है जीवन में? तकदीरें बदलती हैं या नहीं, नहीं जानती- पर तद्बीर से बिगड़ी हुई तकदीर को बदलने के क्रम में यही ख्याल रह जाते हैं पन्नों पर -
कुछ साल ही सही
तुम्हारा साथ था
अब फिर वही दूरियां होगी
वही वक्त की कमी
वही परिवार के जिम्मेदारी
और मेरी जिन्दगी
एक बार फिर रुख बदलेगी
शायद ये ही आखरी मोड़ हो
विलीन होने से पहले
....जिन्दगी के हर पड़ाव को हर कोई जीना चाहता है, हथेलियों में बटोरना चाहता है एक घर, एक मीठी मुस्कान, एक मान- सम्मान, लेकिन.... आह! यही कथा शेष रह जाती है-
रिश्तों की जमा पूंजी से
जिन्दगी का खाता तो
हमेशा ही खाली था
पर
सुना था कि
प्यार रिश्तों का
मुहताज नहीं होता
फिर क्यों मैं
प्यार के सहारे
जिन्दगी की वैतरणी को
पार नहीं कर पायी
...यह सवाल ही पन्ने ढूंढता है। और भ्रम के पर्दों में ख़ुशी ढूंढता है...कुछ इस तरह-
रुकी हुई घड़ी को चलाने के लिये
हम डाल देते है घड़ी में बैटरी
और खुश होते है कि
हमने समय को चला दिया...
आँखों पर चश्मा चढ़ा लेने से, किस्म- किस्म के मुखौटों में छुप जाने से जीवन का सच कहाँ बदलता है... बगावत करके भी सलीम को अनारकली नहीं मिली। उसने भी सोचा होगा, तुमने भी सोचा होगा, कवयित्री की कलम भी यही कहती है-
कभी- कभी जिन्दगी में
ऐसा समय आता है
हर प्रश्न बेमानी हो जाता है
जिन्दगी खुद बन जाती है
एक प्रश्न बेमानी सा 
...कटु सत्य!
सत्य है इस भाव में भी
http://mypoemsmyemotions.com/2011/12/    blog-post.html
2012 की दहलीज भी एक मन के साथ है ...
तुम्हारे बिना मेरी जिन्दगी
ना पूरी हैं ना अधूरी हैं
क्या कहीं कोई कमी है
नहीं, आखों में बस
एक नमी हैं...
किसी को जानने समझने के लिए, उसके एहसासों के कमरे में एक पूरा दिन बिताइए। एक कमरा और है-
http://rachnapoemsjustlikethat.blogspot.com/
मैंने जिन्दगी को हमेशा करीब से देखना चाहा- कभी डूबते उतरते पार निकल गई, कभी चोट लगी, कभी जली भी, पर बिना गहरे उतरे समंदर की अमीरी कहाँ दिखती है।

प्रस्तुति- रश्मि प्रभा, संपर्क: निको एन एक्स,  फ्लैट नम्बर- 42,
         दत्त मंदिर, विमान नगर, पुणे- 14, मो. 09371022446
     http://lifeteacheseverything.blogspot.in

Jun 18, 2012

वाह भई वाह

सवारी

थ्री इडियट्स बाइक पर जा रहे थे!
ट्रैफिक वाले ने रोका- तुम्हें मालूम नहीं तीन सवारी गाड़ी चलाना मना है।
थ्री इडियट्स में से एक बोला- मालूम है, इसलिए तो एक को घर छोडऩे जा रहे हैं!

 गाड़ी उलट गई

पप्पू की अनाज से भरी गाड़ी उलट गई। पास के खेत में काम कर रहे किसान ने उससे कहा, पप्पू बेटा परेशान मत हो। आ पहले हमारे साथ खाना खा फिर मैं तेरी गाड़ी सीधी कर दूंगा।
आपका बहुत-बहुत शुक्रिया। पर मेरे पापा गुस्सा होंगे।
अरे पहले तू आ तो, किसान ने जोर देकर कहा। ठीक है, आप कहते हैं तो आता हूं। पर मुझे डर है कि पापा नाराज होंगे।
खूब जम कर खाना खाने के बाद पप्पू ने किसान का धन्यवाद अदा किया, अब मैं पहले से काफी अच्छा महसूस कर रहा हूं। पर पापा परेशान हो रहे होंगे।
किसान ने मुस्कराते हुए कहा, पर यह तो बताता जा कि तेरे पापा अभी होंगे कहां?
गाड़ी के नीचे, पप्पू ने जवाब दिया।

आठ का आधा...

मैडम ने कक्षा में शरारती टीटू से सवाल किया, बेटे, आप बताओ, आठ का आधा कितना
होता है...
टीटू ने तपाक से जवाब दिया, मैडम, अगर हॉरीजॉन्टली आधा करेंगे तो जीरो, और वर्टिकली आधा करेंगे तो तीन...

प्राकृतिक संसाधनों से परिपूर्ण है हमारा प्रदेश

प्राकृतिक संसाधनों से परिपूर्ण है हमारा प्रदेश

                                                                - चंद्रशेखर साहू
छत्तीसगढ़ राज्य कृषि आधारित राज्य है एवं प्रदेश की 80 प्रतिशत जनता कृषि एवं संबद्ध व्यवसाय से अपना जीवनयापन करती है तथा ग्रामीण जनता के आर्थिक विकास का आधार भी कृषि है। ग्राम सुराज अभियान के पूर्व छ.ग. राज्य में पहली बार अलग से कृषि बजट प्रस्तुत किया गया। इस संबंध में माननीय श्री चंद्रशेखर साहू (मंत्री- कृषि, पशुधन, मत्स्य पालन एवं श्रम विभाग) ने अपने विचार कुछ इस प्रकार व्यक्त किए-
'धान का कटोरा' के नाम से प्रसिद्ध छत्तीसगढ़ राज्य प्राकृतिक संसाधनों से परिपूर्ण है। उर्वरा भूमि, अनुकूल जलवायु एवं मेहनती कृषक हमारे राज्य की पूंजी है। राज्य सरकार के द्वारा प्रदेश के कृषि विकास एवं कृषकों के आर्थिक उत्थान हेतु विगत वर्षो में किये गये प्रयासों के सकारात्मक परिणाम प्राप्त हुए हैं। छत्तीसगढ़ शासन द्वारा संचालित कृषि योजनाओं के सफल क्रियान्वयन से प्रदेश में वर्ष 2010- 11 में धान का रिकार्ड उत्पादन हुआ जिसके लिए इस राज्य को भारत सरकार द्वारा 'कृषि कर्मण' पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। इस उपलब्धि के लिए मैं प्रदेश के कृषकों को बधाई देते हुए अपेक्षा करता हूं कि आगामी वर्षो में वे कृषि विकास के क्षेत्र में नवीन कीर्तिमान स्थापित करेंगे।
कृषि एवं कृषकों के समुचित विकास के लिए राज्य शासन द्वारा प्रदेश में पहली बार अलग से कृषि बजट प्रस्तुत किया गया है। जिसमें कृषि सेवा केन्द्र की स्थापना, श्री पद्धति से धान उत्पादन, राज्य पोषित सूक्ष्म सिंचाई योजना, वन ग्राम के पट्टाधारी कृषकों को नि:शुल्क प्रमाणित बीज एवं उर्वरक मिनीकीट प्रदाय तथा भूमि सुधार हेतु हरी खाद का उपयोग आदि नवीन योजनायें प्रारंभ की गई हैं। इसके अतिरिक्त नये कृषि बजट में वर्ष 2011- 12 में कृषकों से उपार्जित धान में 50 रुपए प्रति क्विंटल बोनस,  एक प्रतिशत सालाना ब्याज में फसल ऋण, सिंचाई पंप कनेक्शन हेतु 75000 रुपए अनुदान सिंचाई पंप में मीटर किराया एवं फिक्स चार्ज समाप्त करने की घोषणा तथा 700 नये उर्वरक गोदाम निर्माण जैसे योजनाओं को शामिल किया गया है।
ग्राम सुराज अभियान 2012 दो चरणों में 18 से 21 अप्रैल एवं 23 से 27 अपै्रल तक आयोजित हुई।

कृषि बजट

ग्राम सुराज अभियान में कृषि विभाग का मुख्य आकर्षण नया कृषि बजट का प्रावधान किया जाना रहा। वर्ष 2012- 13 के लिए 6244 करोड़ का कृषि बजट प्रस्तुत किया गया। जो कि कुल बजट का 17 प्रतिशत है। कृषि बजट में सिंचाई उपलब्धता में विस्तार को सर्वोच्च प्राथमिकता दी गई है एवं इसके लिए प्रावधानित राशि में गतवर्ष की तुलना में 16 प्रतिशत की वृद्धि की गई है। इस प्रकार वर्ष 2012- 13 में समय पर समुचित मात्रा में उर्वरक उपलब्ध कराने एवं धान खरीदी हेतु मार्कफेड एवं नागरिक आपूर्ति निगम को ऋण एवं अनुदान के रूप में 1452 करोड़ रुपए दिया जायेगा। एक प्रतिशत ब्याज दर से ऋण लेकर प्रदेश के 17 लाख कृषक परिवार लाभान्वित होंगें। समय से कृषि कार्य संपन्न कराने एवं मजदूरों की समस्या से निजात पाने के लिए 50 नये कृषि सेवा केन्द्र स्थापित किये जायेगें। कृषकों को रियायती दर पर प्रमाणित बीज उपलब्ध कराने हेतु धान के बीज उत्पादन हेतु देय अनुदान 300 को बढ़ाकर 500 रुपए प्रति क्विंटल तथा वितरण अनुदान 200 रुपए को बढ़ाकर 500 रुपए प्रति क्विंटल किया गया है। दलहन बीज उत्पादन करने वाले कृषकों को 1000 प्रति क्विंटल की दर से उत्पादन अनुदान दिया जायेगा। इससे बीज उत्पादक सहकारी समितियां भी लाभान्वित होंगी।

उद्यानिकी तकनीक

श्री पद्धति, खरीफ एवं रबी पद्धति आधारित, करीब 60 हजार प्रदर्शन डाले जायेगें। उद्यानिकी विकास के लिए नदी के कछार एवं तटों पर खेती करने वाले अनुसूचित जनजाति एवं अनुसूचित जाति तथा लघु, सीमांत, सब्जी उत्पादक को उन्नत उद्यानिकी तकनीकी की जानकारी देने एवं प्रोत्साहित करने का प्रावधान रखा गया है। इसी प्रकार गरियाबंद एवं बलरामपुर जैसे अनुसूचित जनजाति बाहुल्य जिलों में नवीन कृषि विज्ञान केन्द्र की स्थापना होगी तथा भाटापारा में नवीन कृषि महाविद्यालय की स्थापना किया जायेगा। पशु पालकों में उद्यमिता विकास को प्रोत्साहन हेतु ऋण भार को कम करने के उद्देश्य से राज्य शासन की ओर से केन्द्र शासन के बराबर क्रमश: 25 एवं 33 प्रतिशत अतिरिक्त अनुदान दिया जायेगा। ग्राम रामपुर, जिला कबीरधाम में नवीन 'बकरी पालन प्रक्षेत्रÓ की स्थापना की जायेगी तथा आगामी शिक्षण सत्र से कामधेनु विश्वविद्यालय प्रारंभ किया जायेगा। सिंचाई विभाग द्वारा निर्मित एनीकटों के जल संग्रहण क्षेत्र में फिंगर लिंग संचयन किया जायेगा तथा सहकारी समितियों को मत्स्याखेट के अधिकार दिये जायेगें इस प्रकार कृषि विभाग की कृषक कल्याणकारी योजनाओं के प्रचार- प्रसार ग्राम सुराज अभियान के दौरान किया गया।

किसान रथ

ग्राम सुराज अभियान का मुख्य आकर्षण विभाग का किसान रथ रहा। प्रदेश के 27 जिले से 4270 ग्रामों में किसान रथ का भ्रमण हुआ एवं हाटबाजार वाले ग्रामों में रथ भ्रमण के साथ- साथ 1393 स्थानों पर किसान सम्मेलन आयोजित हुए जिसमें प्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ. रमणसिंह, मंत्री कृषि, पशुधन, मत्स्य पालन एवं श्रम विभाग श्री चंद्रशेखर साहू जिले के प्रभारी मंत्री तथा जिला पंचायत, जनपद पंचायत एवं ग्रामपंचायत स्तर के जनप्रतिनिधियों ने कृषक सम्मेलन में अपनी सहभागिता दी। पंचायत स्तर के करीब 12 हजार,जनपद पंचायत स्तर के 2900 तथा जिला स्तर के 940 जन प्रतिनिधि ग्राम सुराज अभियान में शामिल हुए तथा कृषि विभाग के साथ- साथ अन्य विभाग को मिलाकर करीब 30 हजार अधिकारी/ कर्मचारियों ने ग्राम सुराज में भाग लिया एवं 4 लाख 88 हजार कृषक इससे लाभान्वित हुए हैं।
ग्राम सुराज अभियान के दौरान कृषि विभाग के द्वारा करीब 20 हजार क्विंटल धान बीज तथा 13900 टन उर्वरक कृषकों को उपलब्ध कराया गया एवं 13600 कल्चर पैकेट, 25780 मिनीकीट एवं 7 हजार बीजोपचार औषधि पैकेट का वितरण किया गया।

मिट्टी परीक्षण

कृषि यांत्रिकीकरण को बढ़ावा देने हेतु कुल 7800 हस्त चलित, 586 बैल चलित, 313 शक्ति चलित तथा 1145 अन्य कृषि यंत्र वितरित किये गये। फसल उत्पादन एवं उत्पादकता में वृद्धि करने के लिए मिट्टी परीक्षण कराने एवं इसके विश्लेषण प्रतिवेदन के आधार पर उर्वरक उपयोग करते हुए खेती करने को प्रोत्साहित करने के लिए ग्राम सुराज अभियान के दौरान करीब 14400 मिट्टी नमूने प्राप्त किये तथा 5755 मिट्टी नमूनों का विश्लेषण किया गया एवं 11390 कृषकों को स्वाईल हेल्थ कार्ड उपलब्ध कराया गया। राज्य सरकार के द्वारा लिये गये निर्णय कृषकों को कृषि कार्य संपादित करने के लिए एक प्रतिशत वार्षिक ब्याज दर पर अल्पावधि ऋण उपलब्ध कराने को मूर्त रूप प्रदान करने के लिए करीब 18 हजार कृषकों को किसान क्रेडिट कार्ड उपलब्ध कराया गया।

किसान दिवस

 ग्राम सुराज अभियान कृषि विभाग की विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं के प्रचार- प्रसार के साथ- साथ बीज मिनीकिट, कृषि यंत्र, किसान क्रेडिट कार्ड, विपूल आदि सौगातें कृषकों को प्रदान की गयी। माननीय मंत्री कृषि, पशुधन, मत्स्य पालन एवं श्रम विभाग श्री चंद्रशेखर साहू ने ग्राम सुराज अभियान के सफल आयोजन के लिए कृषकों को शुभकामना प्रेषित करते हुए आशा व्यक्त की कि प्रदेश के किसान भाई आगामी खरीफ एवं रबी में उन्नत कृषि तकनीकी अपनाकर तथा राज्य शासन के योजनाओं का लाभ लेकर अच्छी फसल उत्पादन प्राप्त करेंगे एवं छत्तीसगढ़ राज्य की 80 प्रतिशत कृषि आधारित जनता आर्थिक संबलता प्राप्त करेगी। ग्राम सुराज अभियान के दौरान माननीय मुख्यमंत्री एवं स्वयं के द्वारा अक्षय तृतीया को बीज दिवस के रूप में मनाने के लिए साधुवाद प्रेषित करते हुए आगामी हलषष्ठी को किसान दिवस के रूप मनाने का आह्वान किया।

चंडीगढ़ के अन्नदाता

चंडीगढ़ में 79 वर्षीय जगदीश लाल आहूजा जिन्हें सब प्यार से बाबा कहते हैं एक आदर्श परमार्थी सज्जन हैं। आहूजाजी नित्य हजारों दीन दुखियों को नि:शुल्क भरपेट भोजन कराते हैं।
हमारी सांस्कृतिक परंपरा में परमार्थ को मानवीय गुणों में सर्वोच्च स्थान दिया गया है। 'दोऊ हाथ उलीचिये यही सयानो काम' आज जबकि हमारे देश में भ्रष्टाचार के काले बादल दिन प्रतिदिन गहराते जा रहे हैं परमार्थ की मशाल के प्रकाश में नि:स्वार्थ जनकल्याण करने वाले मनुष्यों की बहुत जरूरत है।
चंडीगढ़ में 79 वर्षीय जगदीश लाल आहूजा जिन्हें सब प्यार से बाबा कहते हैं एक आदर्श परमार्थी सज्जन हैं। आहूजा जी नित्य हजारों दीन दुखियों को नि:शुल्क भरपेट भोजन कराते हैं। चंडीगढ़ में दो बड़े चिकित्सालय हैं एक है राष्ट्रीय महत्व की पोस्ट ग्रेजुएट मेडिकल इंस्टीट्यूट जिसमें देशभर से मरीज आते हैं। दूसरा है गवर्नमेंट मेडिकल कालेज। इन दोनों ही चिकित्सा संस्थान में अधिकांश मरीज सीमित आर्थिक साधनों वाले होते हैं। अत: मरीजों के साथ आए उनके परिवार वाले होटलों का खर्चा नहीं उठा सकते इसलिए इन दोनों चिकित्सालयों के आसपास की सड़कों की पटरियों पर भूखे प्यासे दिन- रात बिताते है।
इस परिप्रेक्ष्य में रोज दोपहर आहूजा बाबा अपनी गाडिय़ों में भोजन भरकर सहायकों के साथ मेडिकल कालेज पहुंचते हैं और मरीजों के संबंधियों की विशाल संख्या को नि:शुल्क स्वच्छ पौष्टिक भोजन स्नेहपूर्वक करवाते हैं। उसी प्रकार शाम को वे पीजीआई में भोजन वितरण करते हैं। ऐसा वे पिछले 11 वर्षों से लगातार कर रहे हैं। प्रत्येक व्यक्ति को तीन चपाती, आलू चना की सब्जी, हलवा, एक केला और एक पैकेट मिठाई या एक पैकेट बिस्कुट देते हैं। इस अन्नदाता ने इस पुनीत कार्य के लिए 12 कर्मचारी नियुक्त किए हैं जो रोज एक क्विंटल आटे से 5000 चपातियां तथा अन्य सामग्री तैयार करते हैं। इस कार्य का पूरा खर्चा आहूजा बाबा स्वयं उठाते हैं। इस कार्य के लिए किसी अन्य से वे किसी तरह की सहायता नहीं लेते।
जगदीश लाल आहूजा जी का जन्म पेशावर में हुआ था और विभाजन के समय इनका परिवार रिफ्यूजी के रूप में 1947 में पटियाला पहुंचा। तब आहूजा जी की उम्र 14 वर्ष की थी और इनकी जेब में सिर्फ 12 रुपए थे। 1950 में जब पंजाब की नई राजधानी के रूप में चंडीगढ़ का निर्माण हुआ तो उनका परिवार पटियाला से चंडीगढ़ आ गया। ठेलों में घूम घूमकर फल और सब्जी बेचना प्रारंभ करके 10 वर्षों में ही वे सब्जी और फल के थोक व्यापारी बन गए। 40 साल तक सफलता पूर्वक व्यापार करने के बाद व्यापार अपने पुत्रों को सौंप कर अब वे तन- मन- धन से गरीब रोगियों के संबंधियों के लिए अन्नदाता बने हुए हैं।
जहां तक इस कार्य में लगने वाले धन का प्रश्न है तो आहूजा जी बताते हैं कि 1950 से 1960 के बीच उन्होंने चंडीगढ़ में कई हजार रुपए जमीन के कुछ प्लाट खरीद लिए थे। आज उनकी कीमत करोड़ों में है। बस उन्हीं  को बेच-बेच कर यह जन- कल्याण करते रहते हैं। आहूजा जी कहते हैं कि उन्हें नहीं मालूम कि इसमें कितना पैसा खर्च होता है। ना ही वे इस ओर कभी ध्यान देते हैं।
बीच में आहूजा जी की आंतों में कैंसर हो गया। इसके लिए लंबे समय तक उनकी केमोथैरेपी होती रही। परंतु इस बीच भी यह मुफ्त भोजन सेवा निरंतर चलता रहा। आहूजा जी वास्तव में अन्नदाता है और समाज के लिए आदर्श है। आहूजा जी को हमारा शत् शत् नमन।

सभ्यता का रहस्य

सभ्यता का रहस्य

प्रश्न यह है कि सभ्य कौन है और असभ्य कौन? सभ्यता के लक्षण क्या हैं? सरसरी नजर से देखिए, तो इससे ज्यादा आसान और कोई सवाल ही न होगा।
यों तो मेरी समझ में दुनिया की एक हजार एक बातें नहीं आती- जैसे लोग प्रात: काल उठते ही बालों पर छुरा क्यों चलाते हैं? क्या अब पुरुषों में भी इतनी नजाकत आ गयी है कि बालों का बोझ उनसे नहीं सँभलता? एक साथ ही सभी पढ़े- लिखे आदमियों की आँखें क्यों इतनी कमजोर हो गयी है? दिमाग की कमजोरी ही इसका कारण है या और कुछ? लोग खिताबों के पीछे क्यों इतने हैरान होते हैं? इत्यादि- लेकिन इस समय मुझे इन बातों से मतलब नहीं। मेरे मन में एक नया प्रश्न उठ रहा है और उसका जवाब मुझे कोई नहीं देता। प्रश्न यह है कि सभ्य कौन है और असभ्य कौन? सभ्यता के लक्षण क्या हैं? सरसरी नजर से देखिए, तो इससे ज्यादा आसान और कोई सवाल ही न होगा। बच्चा- बच्चा इसका समाधान कर सकता है। लेकिन जरा गौर से देखिए, तो प्रश्न इतना आसान नहीं जान पड़ता। अगर कोट- पतलून पहनना, टाई- हैट कालर लगाना, मेज पर बैठकर खाना खाना, दिन में तेरह बार कोको या चाय पीना और सिगार पीते हुए चलना सभ्यता है, तो उन गोरों को भी सभ्य कहना पड़ेगा, जो सड़क पर बैठकर शाम को कभी- कभी टहलते नजर आते हैं, शराब के नशे से आँखें सुर्ख, पैर लडख़ड़ाते हुए, रास्ता चलने वालों को अनायास छेडऩे की धुन! क्या उन गोरों को सभ्य कहा जा सकता है? कभी नहीं। तो यह सिद्ध हुआ कि सभ्यता कोई और ही चीज है, उसका देह से इतना सम्बन्ध नहीं है जितना मन से।
मेरे इने- गिने मित्रों में एक राय रतन किशोर भी हैं। आप बहुत ही सहृदय, बहुत ही उदार, बहुत शिक्षित और एक बड़े ओहदेदार हैं। बहुत अच्छा वेतन पाने पर भी उनकी आमदनी खर्च के लिए काफी नहीं होती। एक चौथाई वेतन तो बँगले ही की भेंट हो जाती है। इसलिए आप बहुधा चिंतित रहते हैं। रिश्वत तो नहीं लेते- कम-से-कम मैं नहीं जानता, हालाँकि कहने वाले कहते हैं- लेकिन इतना जानता हूँ कि वह भत्ता बढ़ाने के लिए दौरे पर बहुत रहते हैं, यहाँ तक कि इसके लिए हर साल बजट की किसी दूसरे मद से रुपये निकालने पड़ते हैं। उनके अफसर कहते हैं, इतने दौरे क्यों करते हो, तो जवाब देते हैं, इस जिले का काम ही ऐसा है कि जब तक खूब दौरे न किए जाएँ रिआया शांत नहीं रह सकती। लेकिन मजा तो यह है कि राय साहब उतने दौरे वास्तव में नहीं करते, जितने कि अपने रोजनामचे में लिखते हैं। उनके पड़ाव शहर से पचास मील पर होते हैं। खेमे वहॉँ गड़े रहते हैं, कैंप के अमले वहाँ पड़े रहते हैं और राय साहब घर पर मित्रों के साथ गप- शप करते रहते हैं, पर किसी की मजाल है कि राय साहब की नेकनीयती पर सन्देह कर सके। उनके सभ्य पुरुष होने में किसी को शंका नहीं हो सकती।
एक दिन मैं उनसे मिलने गया। उस समय वह अपने घसियारे दमड़ी को डाँट रहे थे। दमड़ी रात- दिन का नौकर था, लेकिन घर रोटी खाने जाया करता था। उसका घर थोड़ी ही दूर पर एक गाँव में था। कल रात को किसी कारण से यहाँ न आ सका। इसलिए डाँट पड़ रही थी।
राय साहब- जब हम तुम्हें रात- दिन के लिए रखे हुए हैं, तो तुम घर पर क्यों रहे? कल के पैसे कट जायेंगे।
दमड़ी- हजूर, एक मेहमान आ गये थे, इसी से न आ सका।
राय साहब तो कल के पैसे उसी मेहमान से लो।
दमड़ी- सरकार, अब कभी ऐसी खता न होगी।
राय साहब- बक-बक मत करो।
दमड़ी- हजूर......
राय साहब- दो रुपये जुरमाना।
दमड़ी रोता चला गया। रोजा बख्शाने आया था, नमाज गले पड़ गयी। दो रुपये जुरमाना ठुक गया। खता यही थी कि बेचारा कसूर माफ कराना चाहता था।
 यह एक रात को गैरहाजिर होने की सजा थी! बेचारा दिन-भर का काम कर चुका था, रात को यहाँ सोया न था, उसका दण्ड! और घर बैठे भत्ते उड़ाने वाले को कोई नहीं पूछता! कोई दंड नहीं देता। दंड तो मिले और ऐसा मिले कि जिंदगी- भर याद रहे, पर पकडऩा तो मुश्किल है। दमड़ी भी अगर होशियार होता, तो जरा रात रहे आकर कोठरी में सो जाता। फिर किसे खबर होती कि वह रात को कहाँ रहा। पर गरीब इतना चंट न था।
दमड़ी के पास कुल छ: बिस्वे जमीन थी। पर इतने ही प्राणियों का खर्च भी था। उसके दो लड़के, दो लड़कियाँ और स्त्री, सब खेती में लगे रहते थे, फिर भी पेट की रोटियाँ नहीं मयस्सर होती थीं। इतनी जमीन क्या सोना उगल देती! अगर सब-के- सब घर से निकल मजदूरी करने लगते, तो आराम से रह सकते थे; लेकिन मौरूसी किसान मजदूर कहलाने का अपमान न सह सकता था। इस बदनामी से बचने के लिए दो बैल बाँध रखे थे ! उसके वेतन का बड़ा भाग बैलों के दाने-चारे ही में उड़ जाता था। ये सारी तकलीफें मंजूर थीं, पर खेती छोड़कर मजदूर बन जाना मंजूर न था। किसान की जो प्रतिष्ठा है, वह कहीं मजदूर की हो सकती है, चाहे वह रुपया रोज ही क्यों न कमाये? किसानी के साथ मजदूरी करना इतने अपमान की बात नहीं, द्वार पर बँधे  हुए बैल उसकी मान- रक्षा किया करते हैं, पर बैलों को बेचकर फिर कहाँ मुँह दिखलाने की जगह रह सकती है !
एक दिन राय साहब उसे सरदी से काँपते देखकर बोले- कपड़े क्यों नहीं बनवाता? काँप क्यों रहा है?
दमड़ी- सरकार, पेट की रोटी तो पूरा ही नहीं पड़ती, कपड़े कहाँ से बनवाऊँ?
राय साहब- बैलों को बेच क्यों नहीं डालता? सैकड़ों बार समझा चुका, लेकिन न- जाने क्यों इतनी मोटी- सी बात तेरी समझ में नहीं आती।
दमड़ी- सरकार, बिरादरी में कहीं मुँह दिखाने लायक न रहूँगा। लड़की की सगाई न हो पायेगी, टाट बाहर कर दिया जाऊँगा।
राय साहब- इन्हीं हिमाकतों से तुम लोगों की यह दुर्गति हो रही है। ऐसे आदमियों पर दया करना भी पाप है। (मेरी तरफ फिर कर) क्यों मुंशीजी, इस पागलपन का भी कोई इलाज है? जाड़ों मर रहे हैं, पर दरवाजे पर बैल जरूर बाँधेंगे।
मैंने कहा- जनाब, यह तो अपनी- अपनी समझ है।
राय साहब- ऐसी समझ को दूर से सलाम कीजिए। मेरे यहां कई पुश्तों से जन्माष्टमी का उत्सव मनाया जाता था। कई हजार रुपयों पर पानी फिर जाता था। गाना होता था, दावतें होती थीं, रिश्तेदारों को न्योते दिये जाते थे, गरीबों को कपड़े बाँटे जाते थे। वालिद साहब के बाद पहले ही साल मैंने उत्सव बन्द कर दिया। फायदा क्या? मुफ्त में चार- पाँच हजार की चपत खानी पड़ती थी। सारे कस्बे में बावेला मचा, आवाजें कसी गयीं, किसी ने नास्तिक कहा, किसी ने ईसाई बनाया लेकिन यहाँ इन बातों की क्या परवा! आखिर थोड़े ही दिनों में सारा कोलाहल शान्त हो गया। अजी, बड़ी दिल्लगी थी। कस्बे में किसी के यहाँ शादी हो, लकड़ी मुझसे ले! पुश्तों से यह रस्म चली आती थी। वालिद तो दूसरों से दरख्त मोल लेकर इस रस्म को निभाते थे। थी हिमाकत या नहीं? मैंने फौरन लकड़ी देना बन्द कर दिया। इस पर भी लोग बहुत रोये- धोये, लेकिन दूसरों का रोना- धोना सुनूँ, या अपना फायदा देखूँ। लकड़ी से कम-से-कम 500 रुपये सलाना की बचत हो गयी। अब कोई भूलकर भी इन चीजों के लिए दिक करने नहीं आता।
मेरे दिल में फिर सवाल पैदा हुआ, दोनों में कौन सभ्य है, कुल-प्रतिष्ठा पर प्राण देनेवाले मूर्ख दमड़ी या धन पर कुल- मर्यादा को बलि देनेवाले राय रतन किशोर!
राय साहब के इजलास में एक बड़े मार्के का मुकदमा पेश था। शहर का एक रईस खून के मामले में फँस गया था। उसकी जमानत के लिए राय साहब की खुशामदें होने लगीं। इज्जत की बात थी। रईस साहब का हुक्म था कि चाहे रियासत बिक जाय, पर इस मुकदमे से बेदाग निकल जाऊँ। डालियॉँ लगाई गयीं, सिफारिशें पहुँचाई गयीं, पर राय साहब पर कोई असर न हुआ। रईस के आदमियों को प्रत्यक्ष रूप से रिश्वत की चर्चा करने की हिम्मत न पड़ती थी। आखिर जब कोई बस न चला, तो रईस की स्त्री से मिलकर सौदा पटाने की ठानी।
रात के दस बजे थे। दोनों महिलाओं में बातें होने लगीं। 20 हजार की बातचीत थी! राय साहब की पत्नी तो इतनी खुश हुईं कि उसी वक्त राय साहब के पास दौड़ी हुई आयी और कहनें लगी—ले लो, ले लो
राय साहब ने कहा- इतनी बेसब्र न हो। वह तुम्हें अपने दिल में क्या समझेगी? कुछ अपनी इज्जत का भी खयाल है या नहीं? माना कि रकम बड़ी है और इससे मैं एकबारगी तुम्हारी आये दिन की फरमायशों से मुक्त हो जाऊँगा, लेकिन एक सिविलियन की इज्जत भी तो कोई मामूली चीज नहीं है। तुम्हें पहले बिगड़कर कहना चाहिए था कि मुझसे ऐसी बेहूदी बातचीत करनी हो, तो यहाँ से चली जाओ। मैं अपने कानों से नहीं सुनना चाहती।
स्त्री- यह तो मैंने पहले ही किया, बिगड़कर खूब खरी-खोटी सुनायीं। क्या इतना भी नहीं जानती? बेचारी मेरे पैरों पर सर रखकर रोने लगी।
राय साहब- यह कहा था कि राय साहब से कहूँगी, तो मुझे कच्चा ही चबा जायेंगे?
यह कहते हुए राय साहब ने गदगद होकर पत्नी को गले लगा लिया।
स्त्री- अजी, मैं न-जाने ऐसी कितनी ही बातें कह चुकी, लेकिन किसी तरह टाले नहीं टलती। रो-रोकर जान दे रही है।
राय साहब- उससे वादा तो नहीं कर लिया?
स्त्री- वादा? मैं रुपये लेकर सन्दूक में रख आयी। नोट थे।
राय साहब- कितनी जबरदस्त अहमक हो, न मालूम ईश्वर तुम्हें कभी समझ भी देगा या नहीं।
स्त्री- अब क्या देगा? देना होता, तो दे न दी होती।
राय साहब- हाँ मालूम तो ऐसा ही होता है। मुझसे कहा तक नहीं और रुपये लेकर सन्दूक में दाखिल कर लिए! अगर किसी तरह बात खुल जाय, तो कहीं का न रहूँ।
स्त्री- तो भई, सोच लो। अगर कुछ गड़बड़ हो, तो मैं जाकर रुपये लौटा दूँ।
राय साहब- फिर वही हिमाकत! अरे, अब तो जो कुछ होना था, हो चुका। ईश्वर पर भरोसा करके जमानत लेनी पड़ेगी। लेकिन तुम्हारी हिमाकत में शक नहीं। जानती हो, यह साँप के मुँह में उँगली डालना है। यह भी जानती हो कि मुझे ऐसी बातों से कितनी नफरत है, फिर भी बेसब्र हो जाती हो। अबकी बार तुम्हारी हिमाकत से मेरा व्रत टूट रहा है। मैंने दिल में ठान लिया था कि अब इस मामले में हाथ न डालूँगा, लेकिन तुम्हारी हिमाकत के मारे जब मेरी कुछ चलने भी पाये?
स्त्री- मैं जाकर लौटाये देती हूँ।
राय साहब- और मैं जाकर जहर खाये लेता हूँ।
इधर तो स्त्री-पुरुष में यह अभिनय हो रहा था, उधर दमड़ी उसी वक्त अपने गाँव के मुखिया के खेत से जुआर काट रहा था। आज वह रात-भर की छुट्टी लेकर घर गया था। बैलों के लिए चारे का एक तिनका भी नहीं है। अभी वेतन मिलने में कई दिन की देर थी, मोल ले न सकता था। घर वालों ने दिन को कुछ घास छीलकर खिलायी तो थी, लेकिन ऊँट के मुँह में जीरा। उतनी घास से क्या हो सकता था। दोनों बैल भूखे खड़े थे। दमड़ी को देखते ही दोनों पूँछें खड़ी करके हुँकारने लगे। जब वह पास गया तो दोनों उसकी हथेलियाँ चाटने लगे। बेचारा दमड़ी मन मसोसकर रह गया। सोचा, इस वक्त तो कुछ हो नहीं सकता, सबेरे किसी से कुछ उधार लेकर चारा लाऊँगा।
लेकिन जब ग्यारह बजे रात उसकी आँखें खुलीं, तो देखा कि दोनों बैल अभी तक नाँद पर खड़े हैं। चाँदनी रात थी, दमड़ी को जान पड़ा कि दोनों उसकी ओर उपेक्षा और याचना की दृष्टि से देख रहे हैं। उनकी क्षुधा- वेदना देखकर उसकी आँखें सजल हो आयीं। किसान को अपने बैल अपने लड़कों की तरह प्यारे होते हैं। वह उन्हें पशु नहीं, अपना मित्र और सहायक समझता। बैलों को भूखे खड़े देखकर नींद आँखों से भाग गयी। कुछ सोचता हुआ उठा। हँसिया निकाली और चारे की फिक्र में चला। गाँव के बाहर बाजरे और जुआर के खेत खड़े थे। दमड़ी के हाथ काँपने लगे। लेकिन बैलों की याद ने उसे उत्तेजित कर दिया। चाहता, तो कई बोझ काट सकता था, लेकिन वह चोरी करते हुए भी चोर न था। उसने केवल उतना ही चारा काटा, जितना बैलों को रात- भर के लिए काफी हो। सोचा, अगर किसी ने देख भी लिया, तो उससे कह दूँगा, बैल भूखे थे, इसलिए काट लिया। उसे विश्वास था कि थोड़े- से चारे के लिए कोई मुझे पकड़ नहीं सकता। मैं कुछ बेचने के लिए तो काट नहीं रहा हूँ; फिर ऐसा निर्दयी कौन है, जो मुझे पकड़ ले। बहुत करेगा, अपने दाम ले लेगा। उसने बहुत सोचा। चारे का थोड़ा होना ही उसे चोरी के अपराध से बचाने को काफी था। चोर उतना काटता, जितना उससे उठ सकता। उसे किसी के फायदे और नुकसान से क्या मतलब? गाँव के लोग दमड़ी को चारा लिये जाते देखकर बिगड़ते जरूर, पर कोई चोरी के इलजाम में न फँसाता, लेकिन संयोग से हल्के के थाने का सिपाही उधर जा निकला। वह पड़ोस के एक बनिये के यहाँ जुआ होने की खबर पाकर कुछ ऐंठने की टोह में आया था। दमड़ी को चारा सिर पर उठाते देखा, तो सन्देह हुआ। इतनी रात गये कौन चारा काटता है? हो न हो, कोई चोरी से काट रहा है, डाँटकर बोला- कौन चारा लिए जाता है? खड़ा रह।
दमड़ी ने चौककर पीछे देखा, तो पुलिस का सिपाही। हाथ-पाँव फूल गये, काँपते हुए बोला- हुजूर, थोड़ा ही-सा काटा है, देख लीजिए।
सिपाही- थोड़ा काटा हो या बहुत, है तो चोरी। खेत किसका है?
दमड़ी- बलदेव महतो का।
सिपाही ने समझा था, शिकार फँसा, इससे कुछ ऐंठेगा, लेकिन वहाँ क्या रखा था। पकड़कर गाँव में लाया और जब वहाँ भी कुछ हत्थे चढ़ता न दिखाई दिया तो थाने ले गया। थानेदार ने चालान कर दिया। मुकदमा राय साहब ही के इजलास में पेश किया।
राय साहब ने दमड़ी को फँसे हुए देखा, तो हमदर्दी के बदले कठोरता से काम लिया। बोले- यह मेरी बदनामी की बात है। तेरा क्या बिगड़ा, साल-छ: महीने की सजा हो जायेगी, शर्मिन्दा तो मुझे होना पड़ रहा है। लोग यही तो कहते होंगे कि राय साहब के आदमी ऐसे बदमाश और चोर हैं। तू मेरा नौकर न होता, तो मैं हलकी सजा देता, लेकिन तू मेरा नौकर है, इसलिए कड़ी-से- कड़ी सजा दूँगा। मैं यह नहीं सुन सकता कि राय साहब ने अपने नौकर के साथ रिआयत की।
यह कहकर राय साहब ने दमड़ी को छ: महीने की सख्त कैद का हुक्म सुना दिया।
उसी दिन उन्होंने खून के मुकदमे में जमानत ले ली। मैंने दोनों वृत्तान्त सुने और मेरे दिल में यह ख्याल और भी पक्का हो गया कि सभ्यता केवल हुनर के साथ ऐब करने का नाम है। आप बुरे-से-बुरा काम करें, लेकिन अगर आप उस पर परदा डाल सकते हैं, तो आप सभ्य हैं, सज्जन हैं, जेन्टिलमैन हैं। अगर आप में यह सि$फत नहीं तो आप असभ्य हैं, गँवार हैं, बदमाश हैं। यह सभ्यता का रहस्य है।
प्रेमचंद बहुमुखी प्रतिभा संपन्न साहित्यकार थे। उनकी रचनाओं में तत्कालीन इतिहास की झलक साफ दिखाई देती है। यद्यपि प्रेमचंद के कालखण्ड में भारत कई प्रकार की प्रथाओं और रिवाजों, जो समाज को छोटे- बड़े और ऊंच-नीच जैसे वर्गों में विभाजित करती है, से परिपूर्ण था इसीलिए उनकी रचनाओं में भी इनकी उपस्थिति प्रमुख रूप से शामिल होती है। उन्होंने अपनी रचनाओं में जन साधारण की भावनाओं, परिस्थितियों और उनकी समस्याओं का मार्मिक चित्रण किया था। उनकी कृतियाँ भारत के सर्वाधिक विशाल और विस्तृत वर्ग की कृतियाँ हैं। इस अंक में पढि़ए उनकी कहानी सभ्यता का रहस्य।

लघुकथाएँ

 बीमार

चलो, पढ़ो।
तीन वर्षीय बच्ची किताब खोलकर पढऩे लगी- अ से अनाल... आ से आम... एकाएक उसने तुतलाते हुए पूछा- पापा, ये अनाल क्या होता है ?
यह एक फल होता है, बेटे। मैंने उसे समझाते हुए कहा, इसमें लाल- लाल दाने होते हैं, मीठे- मीठे!
पापा, हम भी अनाल खायेंगे... बच्ची पढऩा छोड़कर जिद-सी करने लगी। मैंने उसे डपट दिया, बैठकर पढ़ो। अनार बीमार लोग खाते हैं। तुम कोई बीमार हो! चलो, अंग्रेजी की किताब पढ़ो। ए फार एप्पिल... एप्पिल माने...
सहसा, मुझे याद आया, दवा देने के बाद डाक्टर ने सलाह दी थी- पत्नी को सेब दीजिये, सेब।
लेकिन मैं मन ही मन पैसों का हिसाब लगाने लगा था। सब्जी भी खरीदनी थी। दवा लेने के बाद जो पैसे बचे थे, उसमें एक वक्त की सब्जी ही आ सकती थी। बहुत देर सोच- विचार के बाद, मैंने एक सेब तुलवा ही लिया था- पत्नी के लिए।
बच्ची पढ़े जा रही थी, ए फार एप्पिल... एप्पिल माने सेब...
पापा, सेब भी बीमाल लोग खाते हैं ? जैसे मम्मी ?...
बच्ची के इस प्रश्न का जवाब मुझसे नहीं बन पड़ा। बस, उसके चेहरे की ओर अपलक देखता रह गया था।
बच्ची ने किताब में बने सेब के लाल रंग के चित्र को हसरत-भरी नजरों से देखते हुए पूछा- मैं कब बीमाल होऊँगी, पापा?

 सहयात्री

बस रुकी तो एक बूढ़ी बस में चढ़ी। सीट खाली न पाकर वह आगे ही खड़ी हो गयी। बस झटके के साथ चली तो वह लडख़ड़ा कर गिर पड़ी। सीटों पर बैठे लोगों ने उसे गिरते हुए देखा। जब तक कोई उठकर उसे उठाता, वह उठी और पास की एक सीट को कस कर पकड़कर खड़ी हो गई।
जिस सीट के पास वह खड़ी थी, उस पर बैठे पुरुष ने उसे बस में चढ़ते, अपने पास खड़ा होते और गिरते देखा था। लेकिन अन्य बैठी सवारियों की भाँति वह भी चुप्पी साधे बैठा रहा।
अब बूढ़ी मन ही मन बड़बड़ा रही थी- कैसा जमाना आ गया है! बूढ़े लोगों पर भी लोग तरस नहीं खाते। इसे देखो, कैसे पसरकर बैठा है। शर्म नहीं आती, एक बूढ़ी- लाचार औरत पास में खड़ी है, लेकिन मजाल है कि कह दे, आओ माताजी, यहाँ बैठ जाओ...।
तभी, उसके मन ने कहा, क्यों कुढ़ रही है?... क्या मालूम यह बीमार हो, अपाहिज हो? इसका सीट पर बैठना जरूरी हो। इतना सोचते ही वह अपनी तकलीफ भूल गयी। लेकिन मन था कि वह कुछ देर बाद फिर कुढऩे लगी, क्या बस में बैठी सभी सवारियाँ बीमार-अपाहिज हैं ?... दया- तरस नाम की तो कोई चीज रही ही नहीं।
इधर जब से वह बूढ़ी बस में चढ़ी थी, पास में बैठे पुरुष के अन्दर भी घमासान मचा हुआ था। बूढ़ी पर उसे दया आ रही थी। वह उसे सीट देने की सोच रहा था, पर मन था कि वहाँ से दूसरी ही आवाज निकलती, क्यों उठ जाऊँ ? सीट पाने के लिए तो वह एक स्टाप पीछे से बस में चढ़ा है। सफर भी कोई छोटा नहीं है। पूरा सफर खड़े होकर यात्रा करना कितना कष्टप्रद है। और फिर, दूसरे भी तो देख रहे हैं, वे क्यों नहीं इस बूढ़ी को सीट दे देते?
इधर, बूढ़ी की कुढऩ जारी थी और उधर पुरुष के भीतर का द्वंद। उसके लिए सीट पर बैठना कठिन हो रहा था। क्या पता बेचारी बीमार हो?.. शरीर में तो जान ही दिखाई नहीं देती। हड्डियों का पिंजर। न जाने कहाँ तक जाना है बेचारी को! तो क्या हुआ?.. न, न! तुझे सीट से उठने की कोई जरूरत नहीं।
माताजी, आप बैठो। आखिर वह उठ ही खड़ा हुआ। बूढ़ी ने पहले कुछ सोचा, फिर सीट पर सिकुड़ कर बैठते हुए बोली- तू भी आ जा पुत्तर, बैठ जा मेरे संग। थक जाएगा खड़े- खड़े।

 वाकर

सुनो जी, अपनी मुन्नी अब खड़ी होकर चलने की कोशिश करने लगी है। पत्नी ने सोते समय पास सोयी हुई मुन्नी को प्यार करते हुए मुझे बताया।
पर, अभी तो यह केवल आठ ही महीने की हुई है! मैंने आश्चर्य व्यक्त किया।
तो क्या हुआ? मालूम है, आज दिन में इसने 3-4 बार खड़े होकर चलने की कोशिश की। पत्नी बहुत ही उत्साहित होकर बता रही थी, लेकिन, पाँव आगे बढ़ाते ही धम्म से गिर पड़ती है।
मुन्नी हमारी पहली सन्तान है। इसलिए हम उसे कुछ अधिक ही प्यार करते हैं। पत्नी उसकी हर गतिविधि को बड़े ही उत्साह से लेती है। मुन्नी का खड़े होकर चलना, हम दोनों के लिए ही खुशी की बात थी। पत्नी की बात सुनकर मैं भी सोयी हुई मुन्नी को प्यार करने लग गया।
एकाएक पत्नी ने पूछा, सुनो, वाकर कितने तक में आ जाता होगा?
यही कोई सौ-डेढ़ सौ में...। मैंने अनुमानत: बताया।
कल मुन्नी को वाकर लाकर दीजियेगा। पत्नी ने कहा, वाकर से हमारी मुन्नी जल्दी चलना सीख जायेगी।
मैं सोच में पड़ गया। महीना खत्म होने में अभी दस-बारह दिन शेष थे और जेब में कुल डेढ़-दौ सौ रुपए ही बचे थे। मेरे चेहरे पर आई चिन्ता की शिकन देखकर पत्नी बोली, घबराओ नहीं, सौ रुपए मेरे पास हैं, ले लेना। वक्त- बेवक्त के लिए जोड़कर रखे थे। कल जरूर वाकर लेकर आइएगा।
सुबह तैयार होकर दफ्तर के लिए निकलने लगा तो पत्नी ने सौ का नोट थमाते हुए कहा, घी बिलकुल खत्म हो गया है और चीनी, चाय-पत्ती भी न के बराबर हैं। शाम को लेते आना। परसों दीदी और जीजा जी भी तो आ रहे हैं न!
मैंने एक बार हाथ में पकड़े हुए सौ के नोट को देखा और फिर पास ही खेलती हुई मुन्नी की ओर। मैंने कहा, मगर, वह मुन्नी का वाकर...।
अभी रहने दो। पहले घर चलाना जरूरी है।
मैंने देखा, मुन्नी मेरी ओर आने के लिए उठकर खड़ी हुई ही थी कि तभी धम्म से नीचे बैठकर रोने लगी।

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लू के थपेड़े

- डॉ. सुधा गुप्ता
1
तन्दूर तपा
धरती- रोटी सिंकी
दहक लाल

2
आग का गोला
फट गया सुबह
बिखरे शोले
3
लपटों घिरा
अगिया बैताल-सा
लू का थपेड़ा
4
आग की गु$फा
भटक गई हवा
जली निकली
5
धूप से तपा
देह पर फफोले
ले, दिन फिरा
6
धूप- दरोगा
गश्त पर निकला
आग- बबूला
7
फटा पड़ा है
हजार टुकड़ों में
पोखर- दिल
8
जेठ की आँच
हवाएँ खौल रहीं
औटते जीव
9
कुपिता धरा
अगन- महल में
आसन- पाटी
10
धधक रही
लाल- पीली कनेर,
सड़कों पर
11
हत शोभा श्री
निर्जला उपासी है
जेठ की धरा
12
उबल रहे
ब्रहाण्ड के देग में
चर- अचर
13
वन- अरण्य
जाले रूई मानिन्द
लपटें, धुँआ
14
अंगारे बिछा
सोने चली धरती
लपटें ओढ़
15
लू के थपेड़े
बिखेरता अंगार
जेठ गुस्साया
16
लाल छाता ले
घूमती वन- कन्या
जेठ धूप में

संपर्क-  'काकली', 120/2, साकेत मेरठ- 250 003 (उ प्र)
          मो. 09410029500

'महा' की महती कथा

- प्रेम गुप्ता 'मानी'
यह छोटा सा शब्द चाहे तो आदमी को सम्मानित कर ऊँचे आकाश पर बैठा दे और अगर बिगड़ जाए, तो क्षणांश में जमीन की धूल चटा दे। आदमी खुश होकर किसी को भी महाराज, महारानी, महायोगी, महापंडित, महाज्ञानी कह कर महान बना सकता है, पर अगर किसी कारणवश कुढ़ गया तो देर किस बात की...? महाअधरमी, महापापी, महाअघोरी आदि कहने की स्वतन्त्रता तो है ही...।
हिन्दी व्याकरण का क्षेत्र वैसे भी बहुत विशाल है। कुछ महाज्ञानियों ने ऐसे- ऐसे शब्दों की रचना की है कि अगर उसके बारे में बात करने बैठें तो एक महाकथा की रचना हो जाए...। खैर! यहाँ जिस शब्द की महती कथा की महक- लहक महसूस की है, वह है 'महा' शब्द...। इस शब्द की हमारी जिन्दगी में कितनी महत्ता है, यह हमें भी नहीं पता पर इतना अहसास है कि यह छोटा सा शब्द चाहे तो आदमी को सम्मानित कर ऊँचे आकाश पर बैठा दे और अगर बिगड़ जाए, तो क्षणांश में जमीन की धूल चटा दे। आदमी खुश होकर किसी को भी महाराज, महारानी, महायोगी, महापंडित, महाज्ञानी कह कर महान बना सकता है, पर अगर किसी कारणवश कुढ़ गया तो देर किस बात की...? महाअधरमी, महापापी, महाअघोरी आदि कहने की स्वतन्त्रता तो है ही...। यह शब्द जब तक ईजाद नहीं हुआ था, तब तक सब ठीक था, पर इसके जन्मते ही सब गुड़ गोबर हो गया और उस गोबर में आदमी मुँह तक डूब कर ऐसा जिनावर बन गया है कि महाज्ञानियों को अब महाप्रलय होने का अंदेशा लगने लगा है। वैसे मेरे विचार से यह 'महा' शब्द महानया नहीं है। यह सिकन्दर के जमाने में भी था और 'महा- भारत' के समय भी था...। खैर! इस शब्द के जन्म और इतिहास से मुझे क्या लेना- देना...। मैं तो सिर्फ अपने एक रिश्तेदार के कारण इस शब्द से रिश्ता जोड़ बैठा...।
दरअसल मेरे बहुत दूर के एक फुफेरे भाई हैं, जिनका तन तो गाँव में निवास करता है, पर मन हमेशा महानगर में भटकता है। वे कर्म से महाजन हैं और गरीबों के लिए महा- सूदखोर...। मैं भी उनसे दूर भागता हूँ, पर सत्यानाश हो इस 'महा' शब्द का, जिसके कारण मुझे इन महानुभाव को बर्दाश्त करना पड़ा। कानपुर को वैसे तो 'महानगर' का दर्जा प्राप्त किए एक अर्सा गुजर गया, पर मेरे रिश्तेदार के ज्ञान- चक्षु इस सम्बन्ध में जरा देर से ही खुले। उनकी जानकारी में जैसे ही यह बात आई कि इसे 'नगर' की जगह अब 'महानगर' का दर्जा मिल चुका है, वैसे ही इसकी महारौनक की कल्पना करते हुए वे महानुभाव किसी महामारी की तरह अचानक ही टपक पड़े मेरे घर और बोले- अरे भई, हमें तो पता ही नहीं था कि यह नगर अब 'महानगर' हो गया है...। अरे, इत्ता बड़ा सहर है.. इत्ते बड़े- बड़े लोग हैं यहाँ...इत्ते बड़े मन्दिर...होटल...और वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में...हाँ...माल...
माल नहीं, मॉल... मैंने उन्हें तुरन्त सुधारा। हाँ- हाँ, वही...जब इतनी सारी महान चीजे होंगी, तो यह महानगर न होगा तो क्या हमारा गाँव 'दुन्दौवा' महा-दुन्दौवा होगा...? भई, हमें तो जैसे ही पता चला, हम अपने को रोक नहीं पाए...। अगर किसी और महानगर की सैर का मन बनाते तो उसके खर्चे- पानी में ही हमारी 'महायात्रा' हो जाती, पर यह कानपुर महानगर...? अरे यहाँ तो तुम रहते हो, फिर खर्चे- पानी की काहे को चिन्ता...? दस- पन्द्रह दिन घूमेंगे, फिर चले जाएँगे... कह कर महायोगी की मुद्रा में आँख बन्द कर, पालथी मार कर बोले- हाँ तो भैय्येऽऽऽ, यहाँ क्या- क्या देखने लायक खास है...? मैंने महाचिन्ता में डूबते हुए कहा- इस महानगर में देखने लायक खास चीजें तो बस चार ही हैं...सुअर, भैंस, टैम्पो और टूटी सड़कें विद खुले मेनहोल...। वे हँसे, बड़ी मसखरी करता है...फिर दूसरे ही क्षण महाक्रोधित हो गए, इस महानगर में विराज क्या गया, सब को महामूर्ख ही समझता है? हम तो घूमेंगे इस सहर में...। अरे, तेरे रहते हम वंचित रह गए तो तुझे महापाप लगेगा...तू तो महाब्राह्मण है, इसी से और महापाप...तू महाकुम्भीपाक में वास करेगा...। अरेऽऽऽ, रिश्ते की इतनी सी लाज नहीं रख पाया...। उनके 'महा' के प्रति घोर प्रेम ने मुझे ब्राह्मण से 'महाब्राह्मण' बना दिया। मैं मरता क्या न करता...। वे और क्रोधित न हों अत: तुरन्त दूसरे दिन उन्हें महानगर की सैर कराने का वायदा कर लिया। सुबह सैर को निकले भाई साहब महाप्रसन्न थे, पर शाम गहराते ही जब घर लौटे, तो महायोगी की मुद्रा में...। थकान के कारण उनका पूरा बदन इस कदर चूर था कि महाकष्ट के कारण उनके मुँह से बोल ही नहीं फूट पा रहे थे। उनके इस कष्ट में मैं 'महासुख' का अनुभव कर रहा था। बच्चू ने जब तक महानगर के दर्शन नहीं किया था, तभी तक चहक रहे थे, पर दर्शन मिलते ही सारे हौसले पस्त...। मुझे लग रहा था कि अब वह यहाँ ठहरने वाले नहीं...।
पत्नी ने उन्हें इस हाल में देखा तो दु:खी होकर बोली- अरे, क्या हुआ इन्हें...? अरे भई, कुछ नहीं हुआ...। बस, इस महानगर की खूब सैर की है और इस दौरान दो बार खुले मेनहोल में गिरे, एक जगह सुअर के साथ दौड़ लगाई...और दो जगह भैंसों ने इन्हें धमकाया...। इसके बाद तो ये उछलते- कूदते...दम घुटाते बस चले ही आ रहे हैं...। अरे, तो आप इन्हें इस महानगर की सड़कों पर चलने- फिरने का ढंग समझा देते...। भाई साहब का कष्ट देख कर पत्नी बहुत कष्ट में थी। मैंने उसे आश्वस्त किया- अच्छा भई, अगर कल ये चले तो ठीक से समझा दूँगा...। सुबह वे महाशय सोकर उठे तो उनका पूरा बदन लाल चकत्तों से भरा था। उन्हें देख कर पत्नी फिर से महाकष्ट में आ गई- रात को आपने इनके शरीर पर ओडोमॉस नहीं मला...? मैंने ध्यान नहीं दिया तो भाई साहब फिर क्रोधित हो गए- कैसा है तुम्हारा यह महानगर भैय्येऽऽऽ, किस महामूर्ख ने इसे महानगर का दर्जा दिया है..? मैं गाँव वापस लौट कर इसकी अव्यवस्था के खिलाफ वहीं से एक महाआन्दोलन छेड़ूँगा...। अरे, सड़क पर पैदल चलो तो पहाड़ पर चढऩे का अहसास होता है...। भूल से कचरे पर चढ़ जाओ तो उसके नीचे छिपे गढ्ढे में औंधे मुँह गिरो...। अगर गाड़ी में भी चलो तो ऊँट की पीठ पर चढ़ कर लचकते- मचकते चलने का अहसास होता है...। कोई भी चीज इस महानगर में अपने स्थान पर नहीं है...। जहाँ वाहनों को चलना चाहिए वहाँ भैंसे चलती हैं और जहाँ भैंसों का ठौर है, वहाँ इंसान पसरे पड़े हैं...। और तो और, यहाँ तो आदमी और सुअर के बाड़े का भेद भी नहीं दिखता...। हम तो भई बाज आए...। इस सहर में तो यह समझ ही नहीं आता कि कौन आदमी है और कौन औरत...। जिसे मरद समझो, वह औरत निकलती है और कन्धे तक के बाल देख कर जिसे औरत समझो, वह मरद निकलता है...धत्त तेरे की...। उनके टूटे-फूटे कलपुर्जे देख कर अन्दर से मैं महाप्रसन्न था पर ऊपर से रिश्ते का लिहाज कर बोला- अरे नहीं भाई साहब, यहाँ देखने लायक अच्छी जगहें भी हैं...आप एक दिन आराम कर लीजिए, फिर वहाँ भी घुमा दूँगा...। उन पर तत्काल प्रतिक्रिया हुई और वे महाप्रसन्न हो उठे। 'महा' शब्द के प्रति प्रेम की उनके भीतर जो 'महा-लत' थी, उसने उनकी समस्त पीड़ा को हर लिया। वे चहक कर बोले- भाई हो तो तुम्हारे जैसा...कभी गाँव आओगे तो तुम्हारे सम्मान में महाभोज दूँगा...। दूसरे दिन अलस्सुबह ही वे तैयार होकर बैठ गए। मेरे पास एक धेला भी नहीं था सो मैंने उन्हीं से कर्ज लिया और फिर उसी धन के साथ उन्हें सैर कराने निकल पड़ा। घर से निकलते वक्त वे पूरी तरह सतर्क थे, भैय्येऽऽऽ, इस बार जरा ठीक- ठाक घुमा देना...। पत्नी ने भी सख्त हिदायत दी- इस बार जरा संभल कर घुमा दो ताकि ये यहाँ से जल्दी से चले जाएँ। कल की तरह अगर जरा-सी भी गलती हुई तो समझो तुम्हारा महाभोज कराने का इनका सपना तो धरा रह जाएगा...उल्टे हमें ही यहाँ इनका महाभोज देना होगा...। इस मुई मँहगाई के जमाने में कोई करज- वरज भी नहीं देगा...।
मेरी पत्नी काफी बुद्धिमान थी इसीलिए घर के हर कोने में उसकी महानता की छाप थी। उसमें मैं भी शामिल था। अत: इस बार पत्नी के निर्देशानुसार मैं उन्हें कुछ चुनिन्दा जगहों पर ले गया...और ऐसे रास्तों से ले गया जो सचमुच का रास्ता था। एक ऐसा रास्ता जिस पर से मौके- बेमौके नेता लोग गुजरा करते थे...। उनके गुजरने का ही असर था कि वह रास्ता बन गया था और अवसर पडऩे पर कइयों को गुजार सकता था। खैर! यह रास्ता- प्रकरण तो बाद की बात है। इससे पहले की खास बात है, इस महानगर की सुरक्षित सैर...।
इस बार मैंने उन्हें खूब सैर कराई। इससे वे अति- प्रभावित हुए और इत्ते हुए कि अपने मन में उन्होंने इस महानगर की एक अनोखी छवि बसा ली। पर इस महासुख के एवज में उन्होंने थोड़ा- बहुत गँवाया भी...। मसलन अपने आगे के दो दाँत...जेब में पड़े कुछ हजार के नोट...अपनी कीमती घड़ी...गले की चेन, वगैरह- वगैरह...।
वे अपने आप को काफी खो चुके थे, अब मैं उन्हें पूरी तौर से खोना नहीं चाहता था, सो उनकी इस महायात्रा के अन्तिम चरण में मैं उन्हें एक होटल में ले गया। अन्दर घुसते ही एक बार फिर वे महाप्रसन्न हो गए- भई, यह होटल तो किसी फिल्मी होटल जैसा महासुन्दर है...। वैसी ही सज्जा, वैसे ही सुन्दर खाते- पीते लोग...वाह भाई वाह...!
नीचे के साथ- साथ ऊपर बैठने की भी पूरी व्यवस्था थी। भीड़ से बचने के लिए मैं उन्हें ऊपर ले गया, पर यह क्या...? पल भर में ही वे नीचे आ गए...। मैं एकदम हतप्रभ...खुद नीचे आ जाते, उन्हें किसने रोका था, पर साथ में सीढ़ी की रेलिंग लेकर क्यों गए...? खैर! किसी तरह उनसे रेलिंग लेकर उन्हें जमीन से उठाया और फिर नीचे सही स्थान पर बैठा दिया। मैनेजर ने पहले तो आँखें तरेर कर, हमें घूर कर देखा, फिर अपना क्रोध दबा कर मुस्कराया भी...प्रत्युत्तर में मुस्करा कर हमने खाने का ऑर्डर दिया...। खाना आते ही वे युद्धस्तर पर उस पर टूट पड़े और इस कदर टूटे कि उन्हें अस्पताल पहुँचाना पड़ा। गलत न समझें, उन्हें किसी ने मारा-वारा नहीं, बल्कि मेरे लाख मना करने के बावजूद उन्होंने काँटे- चम्मच का भरपूर प्रयोग किया और इस प्रक्रिया में उन्होंने खुद ही अपने होंठ और जीभ लहुलुहान कर लिए। इस हादसे से अबकी उनकी आत्मा भी लहुलुहान हो गई। गाँव वापस जाने लगे तो एक महायोगी की मुद्रा में थे- किसी भी चीज या स्थान का मोह नहीं करना चाहिए... मोह ही महानाश का कारण है...। अब कुछ दिन विश्राम करने के पश्चात इस जीवन में गाँव वापस लौट आने की खुशी में एक महायज्ञ करूँगा...। शेष जीवन अब एक महात्मा की तरह गुजारूँगा...। तृष्णा में पड़ कर मैंने न जाने कितने महापाप किए, जिसके कारण महाकष्ट उठाए...।
शब्दों के इस महाभेदी बाण का संधान करके वे तो गाँव पधार गए, पर बाद में कर्ज अदायगी के कारण मुझे अपने व अपने परिवार के सुखों का जो महानाश करना पड़ा, उससे मुझे लगा कि अगर वे थोड़े दिन और ठहरते तो उनका महाघाती होने से मैं अपने आप को रोक नहीं पाता...।

मेरे बारे में

शिक्षा- एम.ए समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र,  जन्म- इलाहाबाद। 1980 से लेखन, लगभग सभी विधाओं में रचनाएं प्रकाशित मुख्य विधा कहानी और कविता, प्रकाशित क्रितियाँ- अनुभूत, दस्तावेज़, मुझे आकाश दो, काथम (संपादित कथा संग्रह) लाल सूरज (17 कहानियों का एकल कथा संग्रह) शब्द भर नहीं है जिन्दगी (कविता संग्रह), अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो (कविता संग्रह), सवाल-दर-सवाल (लघुकथा संग्रह) यह सच डराता है (संस्मरणात्मक संग्रह) शीघ्र प्रकाश्य- चिडिय़ा होती माँ (कहानी संग्रह) कुत्ते से सावधान (हास्य-व्यंग्य संग्रह) हाशिए पर औरत (लेख-संग्रह) आधी दुनिया पर वार (लेख संग्रह)
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