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Jun 18, 2012

ग़ज़ल: क्या करें

- गिरिजा कुलश्रेष्ठ
1.
मौसम बदल रहा है हर शाम क्या करें।
उपवन उजड़ रहा है सरेआम क्या करें।
है कौन किसके आगे यह जंग सी छिड़ी है।
हरसूँ सुनाई देता कोहराम क्या करें।
बैठे रहे वो अब तक हाथों पे हाथ रख कर।
अब रोपते हथेली पे आम क्या करें।
कारण कोई न समझे तह तक कोई न जाए।
सब देखते हैं केवल अंजाम क्या करें।
वोटों की भीख माँगी कितने करार करके
भूले वो जीत कर जो आवाम क्या करें।
निर्माण में भवन के बस एक ईंट रख कर   
अखबार में छपाते वो नाम क्या करें।
काँधों पे जिनके सदियों से यह जमीं टिकी है।   
वे ही सदा रहे हैं गुमनाम क्या करें।

2.
खबरों के लिये जुर्म कुछ संगीन चाहिये।
टीवी सभी को अपना रंगीन चाहिये।
यह भेद और विभाजन हम में रहा सदा से
हाँ एकता को पाक या फिर चीन चाहिये।
चलते रहे हैं लेकर वो साथ में हमें भी
मीठे के साथ कुछ तो नमकीन चाहिये।
सुख कर रहे हैं अपनों को आदमी से दूर
लाने करीब माहौल गमगीन चाहिये।
तिकड़म से कामयाबी मिलती है चन्द दिन ही   
कुछ कर दिखाने ईमानो -दीन चाहिये।

मेरे बारे में- 

जीवन के पाँच दशक पार करने के बाद भी खुद को पहली कक्षा में पाती हूँ । अनुभूतियों को आज तक सही अभिव्यक्ति न मिल पाने की व्यग्रता है। दिमाग की बजाय दिल से सोचने व करने की आदत के कारण प्राय: हाशिये पर ही रहती आई हूँ। फिर भी अपनी सार्थकता की तलाश जारी है।
संपर्क:  मोहल्ला- कोटा वाला, खारे कुएँ के पास,
ग्वालियर(मप्र) girija.kulshreshth@gmail.com

1 comment:

सुधाकल्प said...

उपवन उजड़ रहा है सरेआम क्या करें -बहुत खूब लिखा है |भावनाओं की अभिव्यक्ति सुन्दर बन पड़ी है |