सात चीजें हमारा जीवन बर्बाद कर देती हैं- बिना
मेहनत के धन,
बिना विवेक के सुख, बिना सिद्धांतों की राजनीति, बिना चरित्र के ज्ञान, बिना
नैतिकता के व्यापार, बिना मानवता के विज्ञान, बिना त्याग के पूजा। -महात्मा गाँधी
Apr 20, 2017
पहला सुख नीरोगी काया...
नीरोगी
काया...
- डॉ. रत्ना वर्मा
कहते हैं- अच्छे शरीर में अच्छे मन का वास
होता है। आपके पास स्वस्थ शरीर है तो, आप सब कुछ कर सकते हैं। सवाल यही उठता है कि स्वस्थ शरीर पाएँ
कैसे?
आजकल लोग बहुत
ज्यादा हेल्थकॉन्सस हो गए है। कोई जिम जा रहा है, तो कोई योगा क्लास, कोई करेले का जूस पी रहा है, तो कोई लौकी का। कहने का तात्पर्य यही कि सबको अपनी सेहत की
चिंता है। दरअसल यह चिंता पिछले कुछ दशकों की ही देन है;
अन्यथा हमारे दादी- नानी के ज़माने की
बात करें तो सेहत को लेकर कहीं और भागने की जरूरत ही नहीं पड़ती थी। वातारवरण
स्वच्छ था। सुबह ताजी हवा मिल जाती थी। घर का शुद्ध खाना मिलता था। घी,
दूध, दही घर में ही बनता था। घर की बाड़ी से सब्जी आ जाती थी,
घर की चक्की का पिसा आटा और घर में ही
कूटा- पीसा चावल और गेहूँ, दाल सब मिल जाता था। भला ऐसा खान- पान और रहन-सहन हो तो
बीमारी तो कोसो दूर ही भागेगी।
यह सब शुद्धता इसलिए
थी ;क्योंकि तब जैविक खेती से अन्न की
पैदावर होती थी ,
तब हर किसान के घर में जानवर पाले जाते
थे। किसानों के घर में गोबर के खाद के लिए एक कुएँ जैसा बड़ा गढ्ठा होता था ,जिससे खेती के लिए गोबर का खाद आसानी
से उपलब्ध हो जाता था। तब धन- सम्पदा के नाम पर गाय, बैल, भैंस पाले जाते थे। दूध दही की तो कोई कमी होती ही नहीं थी।
जमकर मेहनत करते थे और शुद्ध, सात्विक भोजन करके काया को नीरोगी रखते थे।
पर
आज यह सब कहाँ उपलब्ध है ! आज हम जो अनाज
खा रहे है,
जो साग-सब्जी हम तक पहुँच रही है,
वह सब रासायनिक खाद से पैदा की जा रही
है,
जब मिट्टी ही सेहतमंद नहीं है,
तो उससे होने वाली उपज को कैसे सेहतमंद
कह सकते हैं। जब सेहत के अनुकूल भोजन नहीं मिलेगा तो बीमारियाँ तो शरीर को घेरेंगी
ही। तभी तो हम अपनी सेहत को लेकर चिंतित हो जाते हैं। अलसी खाओ,
सरसो के तेल से सब्जी बनाओ,
फल और सब्जी को आधे घंटे पानी में डूबो
कर रखो ताकि केमिकल धुल जाए.... ये खाओ वो न खाओ उफ... कितने सारे उपाय....
कुल मिलाकर सार यही
है कि यदि हमें स्वस्थ रहना है तो नई तकनीक के साथ पुरानी परम्पराओं को अपनाना
होगा। यानि जैविक खेती की ओर लौटना होगा। आज भले ही किसान अधिक उत्पादन की चाह में
रासायनिक खेती कर रहे हैं, पर वे भविष्य में होने वाले नुकसान से अनजान है। पहले कृषि
उत्पादकता को बढ़ाने के लिए पशुपालन पर जोर दिया जाता था। उनके मल-मूत्र से जमीन
की उपजाऊ शक्ति को कायम रखा जाता था। पारम्परिक खेती में अदल-बदल कर खेती की जाती
थी,
गोबर व अन्य जैविक खादों का उपयोग किया
जाता था। इन सबका प्रभाव हमारे पर्यावरण पर पड़ता था। इससे न वायु प्रदूषित होती
थी,
न मिट्टी खराब होती थी,
न धरती के अन्य जीव- जन्तु तथा
मनुष्यों पर भी इसका कोई दुष्प्रभाव पड़ता था।
आज मौसम बदल गया है।
अब तो रासायनिक खाद डालो और अधिक अन्न उपजाओ का नारा है,
सबकुछ आँकड़ों का खेल है। सरकारें खुश
होती हैं कि हमारे प्रदेश की पैदावर पढ़ गई है, हम प्रगति कर रहे हैं, पर वे यह नहीं जानते कि इस बढ़ते पैदावर के बदले वे क्या खो
रहे हैं।
दरअसल साठ के दशक
में हरित क्रांति की शुरुआत के साथ ही देश में रासायनिक उर्वरकों,
कीटनाशक दवाओं,
संकर बीजों आदि के इस्तेमाल में भी
क्रांति आई थी। केन्द्रीय रासायनिक और उर्वरक मंत्रालय के रिकॉर्ड के अनुसार सन्
1950-51 में भारतीय किसान मात्र सात लाख टन रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल करते थे
,जो अब बढ़कर 240 लाख टन हो गया है।
इससे पैदावार में तो खूब इजाफा हुआ, लेकिन खेत, खेती और पर्यावरण चौपट होते चले गए।
रासायनिक खाद से की
गई खेती ज्यादा पानी माँगती है। जबकि आज भी हमारे देश में 75प्रतिशत खेती मानसून
पर ही निर्भर है। हमने तो अपनी धरती में रासायनिक खाद का छिड़काव करके उसके सारे
प्राकृतिक तत्त्वों को खत्म कर दिया है। वैज्ञानिकों का कहना है कि यदि जल्दी ही
रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल बंद नहीं किया गया ,तो हमारी कृषि योग्य सारी उपजाऊ भूमि बंजर हो जाएगी। यह सब
जानते हुए भी सरकार इन रासायनिक खादों पर हजारों करोड़ों रुपये की सब्सिडी देती
है। यही स्थिति बीजों को लेकर भी है। अब तो संकर बीजों का ज़माना है। इसके इस्तेमाल
से पैदावर जरूर बढ़ गई है पर इससे हमारी परंपरागत देसी नस्ल लुप्त होती जा रही
हैं। याद कीजिए कभी धान, गेहूँ की दर्जनों
प्रजातियाँ हुआ करती थीं, पर आज गिनी-चुनी किस्में ही बाजार में मिलती हैं।याद कीजिए-
पहले जब घर में जब चावल पकता था, तब उसकी महक से ही चावल की किस्म का पता चल जाता था। अब चावल
में वह खूशबू कहाँ? लुप्त होते चले जा रहे इन देसी बीजों पर आज न कोई शोध हो रहा
है न इन्हें बचाने की दिशा में कोई प्रयास।
प्रसिद्ध
पर्यावरणविद् गोपाल कृष्ण कहते हैं -‘कृषि पूरी तरह से पर्यावरण से जुड़ा उपक्रम है। पर्यावरण की
छोटी से छोटी बात भी कृषि को प्रभावित करती है। लेकिन अपने देश में पानी,
मिट्टी से लेकर बीज तक संक्रमित हो गए
हैं। दोषपूर्ण नीतियाँ कृषि के भविष्य को अन्धकारमय करती जा रही हैं। रासायनिक
उर्वरकों और कीटनाशकों के इस्तेमाल से पहले मिट्टी खराब हुई फिर पैदावार घटी,
अब हम जो अन्न उपजा रहे हैं,
वह भी संक्रमित है।’
बात शुरू हुई थी -
नीरोगी काया से और समाप्त हो रही है संक्रमित हो चुके खाद्य पदार्थों पर,
जिसकी वजह से हमारी नीरोगी काया रोगी
बनती जा रही है। कम शब्दों में निष्कर्ष यही है कि समय रहते चेत जाना होगा,
अन्यथा न नीरोगी काया रहेगी,
न सुख।
वर्षा जल की साझेदारी
- अनुपम मिश्र
पानी के बारे में कहीं भी कुछ भी लिखा जाता
है तो उसका प्रारम्भ प्राय: उसे जीवन का आधार बताने से होता है। -जल अमृत है,
जल पवित्र है,
समस्त जीवों का,
वनस्पतियों का जीवन,
विकास -
सब कुछ जल पर टिका है। -
ऐसे वाक्य केवल भावुकता के कारण नहीं
लिखे जाते। यह एक वैज्ञानिक सच्चाई है कि पानी पर ही हमारे जीवन का,
सारे जीवों का आधार टिका है। यह आधार
प्रकृति ने सर्व सुलभ, यानी सबको मिल सके, सबको आसानी से मिल सके- कुछ इस ढंग से ही बनाया है। पानी हमें बार-बार मिलता है,
जगह-जगह मिलता है और तरह-तरह से मिलता है। हम सबका जीवन ही जिस
पर टिका है,
उसका कोई मोल नहीं,
वह सचमुच अनमोल है,
अमूल्य है,
बहुमूल्य है।
प्रकृति ने इसे
जीवनदायी बनाने के लिए अपने ही कुछ कड़े कठोर और अमिट माने गए नियम तोड़े हैं।
उदाहरण के लिए प्रकृति में जो भी तरल पदार्थ जब ठोस रूप में बदलता है, तो वह अपने तरल रूप से अधिक भारी हो
जाता है और तब वह अपने ही तरल रूप में नीचे डूब जाता है। पर पानी के लिए प्रकृति
ने अपने इस प्राकृतिक नियम को खुद ही बदल दिया है और इसी में छिपा है इसका
जीवनदायी रूप।
पानी जब जम कर बर्फ
के रूप में ठोस बनता है ,तब यह अपने तरल रूप से भारी नहीं रहता;बल्कि हल्का होकर ऊपर तैर जाता है। यदि
पानी का यह रूप ठोस होकर भारी हो जाता तो वह तैरने के बदले नीचे डूब जाता, तब कल्पना कीजिए हमारी झीलों का ठंडे
प्रदेशों में तमाम जल स्रोतों का क्या होता? उनमें रहने वाले जल जीवों का, जल वनस्पतियों का क्या होता? जैसे ही इन क्षेत्रों में ठंड बढ़ती,
तापमान जमाव बिंदु से नीचे जाता तो
झीलों आदि में पानी जमने लगता और तब जमी हुई बरफ नीचे जाने लगती और देखते ही देखते
उस स्रोत के सभी जलचर, मछली वनस्पति आदि मर जाते और यदि यही क्रम हर वर्ष ठंड के
मौसम में हजारों वर्षों तक लगातार चलता रहता तो संसार में जल के प्राणी तो समूचे
तौर पर नष्ट हो चुके होते। उनकी तो पूरी प्रजातियाँ सृष्टि से गायब हो जातीं या
शायद अस्तित्व में ही नहीं आ पातीं और साथ ही कल्पना कीजिए उन क्षेत्रों की,
उन देशों की ,
जहाँ वर्ष के अधिकांश भाग में तापमान
जमाव बिंदु से नीचे ही रहता है। वहाँ जल-जीवन नहीं होता और उस पर टिका हमारा जीवन भी संभव नहीं हो
पाता। इसलिए यह जल का प्राणदायी रूप हमें सचमुच प्रकृति की कृपा से,
उदारता से ही मिला है।
प्रकृति ने जल का
वितरण भी कुछ इस ढंग से किया है कि वह स्वभाव से साझेपन की ओर जाता है। आकाश से
वर्षा होती है। सब के आंगन में, खेतों में, गाँवों में, शहर में, और तो और निर्जन प्रदेशों में घने वनों में,
उजड़े वनों में,
बर्फीले क्षेत्रों में,
रेगिस्तानी क्षेत्रों में सभी जगह बिना
भेदभाव के,
बिना अमीर-गरीब का, अनपढ़-पढ़े लिखे का भेद किए-सब जगह वर्षा होती है। उसकी मात्रा क्षेत्र विशेष के अनुरूप
कहीं कुछ कम या ज्यादा जरूर हो सकती है, पर इससे उसका साझा स्वभाव कम नहीं होता। जल का यह रूप वर्षा
का और सतह पर बहने ठहरने वाले पानी का है। यदि हम उसका दूसरा रूप भूजल का रूप
देखें तो यहाँ भी उसका साझा स्वभाव बराबर मिलता है। वह सब जगह कुछ कम या ज्यादा
गहराई पर सबके लिए उपलब्ध है। अब यह बात अलग है कि इसे पाने,
निकालने के तरीके मानव समाज ने कुछ ऐसे
बना लिए हैं ,जहाँ वे जल का साझा स्वभाव बदलकर उसे
निजी सम्पत्ति में बदल देते हैं। इस निजी लालच,
हड़प की प्रवृत्ति के बारे में इसी
पुस्तक में अन्यत्र पर्याप्त जानकारी मिल सकेगी।
इस अध्याय में हम जल
की इस साझा सम्पत्ति के उपयोग की विस्तार से चर्चा करेंगे। कोई भी समाज
अपनी इस प्राकृतिक धरोहर को किस हद तक सामाजिक रूप देकर उदारतापूर्वक बाँटता है और
किस हद तक उसे निजी रूप में बदलकर कुछ हाथों में सीमित करना चाहता है,
वह किस हद तक इन दोनों रूपों के बीच
सन्तुलन बनाए रखता हैएवं स्वस्थ तालमेल जोड़े रखता है-
इसी पर निर्भर करता है उस समाज का
सम्पूर्ण विकास और कुछ हद तक उसका विनाश भी।
जल-उपयोग -
परंपरागत और आधुनिक तकनीकी
राजस्थान के
परिप्रेक्ष्य में हम देखें तो एक तरफ परंपरागत स्रोतों में सतह पर बहने वाले जल का
संग्रह करने वाली संरचनाएँ हैं तो दूसरी तरफ भूजल का उपयोग करने वाले कुएँ,
बेरा, झालरा, बावड़ी जैसे ढाँचे हैं। इन दो तरह के स्रोतों,
संरचनाओं के अलावा एक तीसरा भी तरीका
है और यह तरीका बहुत ही अनोखा है। यह है रेजानी पानी पर टिका ढांचा,
जिसे कुँई कहते हैं।
आज हमारी सारी नई
पढ़ाई-लिखाई में पानी के सिर्फ दो प्रकार
माने गए हैं। एक सतही पानी और दूसरा भूजल। पहला वर्षा के बाद जमीन पर बहता है,
या कहीं तालाबों,
झीलों या बहुत-सी छोटी-बड़ी संरचनाओं में रोक लिया जाता है।
यहाँ से यह सतही पानी धीरे-धीरे नीचे रिसता है और जमीन के नीचे के स्रोतों में भूजल की
तरह सुरक्षित हो जाता है। इसे बाद में कुओं, ट्यूबवेल या हैंडपंपों आदि की मदद से फिर से ऊपर उठा कर काम
में लाया जाता है।
लेकिन केवल राजस्थान
के समाज ने पानी के इन दो प्रकार में अपने सैकड़ों वर्षों के अनुभव से एक तीसरा
प्रकार भी जोड़ा था। इसे रेजानी पानी का नाम दिया गया है। रेजानी पानी न तो सतही
पानी है और न भूजल ही। यह इन दोनों प्रकारों के बीच का एक अनोखा और बहुत ही
व्यावहारिक विभाजन है।
पीढिय़ों की जल-सूझ
इसे ठीक से समझने के
लिए हमें पहले राजस्थान के मरु क्षेत्रों की संरचना को समझना होगा। राजस्थान के
रेतीले भागों में कहीं-कहीं प्रकृति ने पत्थर या जिप्सम की एक पट्टी भी रेत के नीचे
चलाई है। यह बहुत गहरी भी है तो कहीं-कहीं बहुत ऊपर भी। ऐसे भू-भागों पर बरसने वाला वर्षा का जल यहाँ
पर गिर कर रेत में धीरे-धीरे नीचे समाता जाता है और इस पट्टी पर जाकर टकराकर रुक जाता
है। तब यह नमी की तरह पूरे रेतीले भाग में सुरक्षित हो जाता है। यह नमी रेत की ऊपर
की सतह के कारण आसानी से वाष्प बनकर उड़ नहीं पाती और नीचे की तरफ जिप्सम की पट्टी
के कारण भी अटक जाती है। वर्षा का यह मीठा पानी नीचे खारे भूजल में जाकर मिल नहीं
पाता। पर इसका रूप तरल पानी की तरह न होकर रेत में समा गई नमी की तरह होता है।
यह राजस्थान के
अनपढ़ माने गए सर्वोत्तम ग्रामीण इंजीनियरों का कमाल ही माना जाना चाहिए कि
उन्होंने खारे पानी, खारे भूजल से अलग, रेत में छिपी इस मीठी नमी को भी पानी के तीसरे प्रकार की तरह
खोज निकाला और फिर उस नमी को पानी में बदलने के लिए कुँई जैसे विलक्षण ढाँचे का
आविष्कार कर दिखाया। कुँई के इस विचित्र प्रयोग का वर्णन इस पुस्तक में अन्यत्र
किया गया है। अभी तो यहाँ बस हमें इतना ही देखना है कि पानी के दो सर्वमान्य
प्रकारों में राजस्थान ने एक तीसरा भी प्रकार अपनी सूझ-बूझ से जोड़ा था। यह बड़े अचरज की बात
है कि इस विलक्षण प्रतिभा को जितनी मान्यता आज के नए पढ़े-लिखे समाज से,
भूगोल विषय पढ़ाने-पढऩे वालों से,
शासन और स्वयंसेवी संस्थाओं से मिलनी
चाहिए थी,
उतनी कभी नहीं मिल पाई।
तो इस तरह परंपरागत
तरीके पानी के तीनों प्रकारों का भरपूर उपयोग करने के लिए बनाए गए थे। इस उपयोग को
ठीक से समझने से पहले एक बार हम परंपरागत तरीकों की परिभाषा भी देख लें। परंपरागत
का अर्थ प्राय: पुराने और एक हद तक पिछड़े तरीके ही माना जाता रहा है। पर सन्
2004 में छह साल तक चले अकाल के बाद बहुत
से लोगों को,
स्वयंसेवी संस्थाओं को और एक हद तक
शासन को भी पहली बार यह आभास हुआ कि ये पिछड़े माने गए तरीके ही संकट में कुछ काम
आए हैं। इसे और स्पष्ट समझने के लिए हम राजस्थान के पिछड़े माने गए क्षेत्र के
बदले गुजरात के एक सम्पन्न क्षेत्र भावनगर का उदाहरण ले सकते हैं। गुजरात भी अकाल
के,
कम वर्षा के उन वर्षों में अकाल की
चपेट में आया था। यहाँ भावनगर का सम्पन्न माना गया क्षेत्र भी अकालग्रस्त था। पूरा
क्षेत्र सूरत में हीरों का महँगा काम करने वाले अपेक्षाकृत अमीर गाँवों का इलाका
था। पैसे की कोई कमी नहीं थी। सब जगह खूब सारे ट्यूबवेल थे। पर लगातार चले अकाल ने
ज्यादातर ट्यूबवेल बेकार कर दिए। इनसे जुड़ी नलों की व्यवस्था भी सूख गई थी और
कहीं जो हैंडपंप थे, वे भी जवाब दे चुके थे।
राजस्थान में जल-संरक्षण इसी सम्बन्ध में हमें एक और तथ्य की तरफ ध्यान देना चाहिए।
प्रकृति ने कुछ हजारों वर्षों से यदि पानी गिराने का,
वर्षा का,
जलचक्र का तरीका नहीं बदला है तो समाज
पानी रोकने का,
जलसंग्रह का तरीका भी नहीं बदल सकता।
समाज को जल-संग्रह ठीक वैसे ही करते रहना होगा।
हाँ जल वितरण के तरीके समय के साथ, विज्ञान की प्रगति के साथ बदलते रहेंगे। इस तरह से देखें तो
हमें समझ में आ जाएगा कि ट्यूबवेल आदि जल- संग्रह की नहीं, बल्कि जल-वितरण की आधुनिक प्रणालियाँ हैं। जल-संग्रह के लिए भूजल रिचार्ज के लिए
हमें काफी हद तक उन्हीं तरीकों की ओर लौटना होगा, जिन्हें परंपरागत कहकर बीच के वर्षों में भुला दिया गया था।
मानव समाज का इतिहास,
उसका विकास और उसकी सारी गतिविधियाँ
पानी पर टिकी हैं। पानी ज्यादा गिरता है या कम गिरता है इस बहस में पड़े बिना समाज
ने अपने-अपने हिस्से के पानी को जितना हो सके
उतना रोकने के तरीके विकसित किए थे। बँध-बँधा, ताल-तलाई, जोहड़-जोहड़ी, नाड़ी-नाड़ा, तालाब, सर, झील, देई बँध, खड़ीन जैसे अनेक प्रकार हमारे समाज की परंपरा ने सैकड़ों
वर्षों के अपने अनुभव से खोजे थे। सैकड़ों वर्षों के अनुभव से समाज ने इन्हें
परिष्कृत किया था।
राजस्थान में वर्षा-जल संरक्षण
राजस्थान के संदर्भ
में देखें तो ये सब संरचनाएँ वर्षा के पानी को, जिसे यहाँ पालर पानी कहा जाता है-
रोकने के तरीके हैं। ये सब तरीके इस
तरह से तालाब के ही छोटे और बड़े रूप हैं। इनमें सबसे छोटा प्रकार है-
नाड़ी। सम्भवत:
आज हम जिस किसी छोटी-सी जगह को तालाब के लिए पर्याप्त न
मानकर छोड़ देना पसंद करेंगे, उसी छोटी जगह पर पहले का समाज नाड़ी जैसा ढाँचा बना लेता था।
जहाँ बहुत छोटा जल-ग्रहण क्षेत्र हो, फिर भी बरसने वाले पानी की आवक ठीक हो,
वहाँ रेत और मिट्टी की पाल से नाड़ी
बनाकर वर्षा का जल समेट लिया जाता था। ये नाडिय़ाँ कच्ची मिट्टी से बनने के बाद भी
बहुत पक्की बनाई जाती थीं। नाडिय़ों में पानी दो-तीन महीने से लेकर सात-आठ महीने तक जमा रहता है। मरुभूमि के
कई गाँवों में 200-300 सौ साल पुरानी नाडिय़ाँ अभी भी समाज का
साथ और उसको जरूरत पूरी करते हुए, निभाते हुए मिल जाएगी।
तलाई या जोहड़ में
पानी नाड़ी से कुछ ज्यादा देर तक और कुछ अधिक मात्रा में टिका रहता है,
क्योंकि इन ढाँचों में पानी की आवक कुछ
ज्यादा बेहतर होती है। इनमें मिट्टी के काम के अलावा थोड़ा बहुत काम पत्थर का
आवश्यकतानुसार किया जाता है। ऐसे ढाँचों में संग्रह किया गया जल नौ-दस महीने और कभी-कभी तो पूरे बारह महीने चलता है। यानी
एक वर्षा का मौसम अगले वर्षा के मौसम तक साथ देता है। इन ढाँचों की एक उपयोगिता या
महत्त्वपूर्ण योगदान यह भी है कि इन सबसे भूजल यानी पाताल पानी का संवर्धन भी हो
जाता है। सूख चुका तालाब आस-पास के न जाने कितने कुओं को गर्मी के कठिन दिनों के लिए अपना
पानी सौंप देता है और यही महीने समाज के लिए सबसे कठिन दिन माने जाते हैं।
वर्षा के पानी को
सतह पर संचित करने के इन सब तरीकों में हर स्तर पर बाकायदा हिसाब-किताब रखा जाता है। कितनी दूर से,
कितने मात्रा में पानी आएगा,
उसे कितनी ताकत से कैसे रोक लेना है और
वह रुका हुआ पानी कितने भू-भाग में कितनी गहराई में फैलेगा,
भरेगा और फिर यदि ज्यादा पानी आ जाए ,
तो उसे कितनी ऊँची जगह से पूरी सावधानी
के साथ बाहर निकालना है ताकि तालाब की मुख्य संरचना टूट न सके आदि अनेक बारीकियों
का ध्यान बिना लिखा-पढ़ी के पीढ़ियों से संचित अनुभव और अभ्यास के कारण सहज ही रखा
जाता रहा है।
इसे और विस्तार से
समझने के लिए आप जिस किसी भी क्षेत्र में काम करते हों,
रहते हों या आते-जाते हों-
उन क्षेत्रों में बने ऐसे ढाँचों का
बारीकी से अध्ययन करके देखें। तालाब आदि से जुड़े हर तकनीकी अंग का अलग-अलग विवरण और नाम भी एकत्र करने का
प्रयास करें। ऐसे अभ्यास से हमें पता लगेगा कि परंपरागत ढाँचों में जल संग्रह की
पूरी तकनीक उपस्थित है। जहाँ से वर्षा का पानी आता है,
उस हिस्से को आगोर कहा जाता है। जहाँ
पानी रुककर भरता है उस अंग का नाम आगर है। जिस हिस्से के कारण पानी थमा रहता है
उसे पाल कहा जाता है। जहाँ से अतिरिक्त पानी बहता है उसे अपरा कहा जाता है।
तालाबों से जुड़ी ऐसी तकनीकी शब्दावली बहुत बड़ी और समृद्ध है। आप इनका संग्रह
करेंगे,
इन्हें लोगों के साथ बैठकर समझने का
प्रयत्न करें तो अपने क्षेत्र के ज्ञान को समझने का एक नया अनुभव होगा।
दोहरा लाभ
परंपरागत जल संग्रह
में मुख्य प्रयास सतही पानी को रोकने का रहा है। इसलिए हमें तालाबों के इतने सारे
छोटे-बड़े रूप देखने को मिलते हैं। परंपरागत
समाज यह भी जानता रहा है कि सतही पानी को रोक लेने के उसके ये तरीके दोहरी भूमिका
निभाते हैं। वर्ष के अधिकांश महीनों में इनमें संग्रह हुआ पानी लोगों के सीधे काम
आता है। इसमें खेती और पशुओं के लिए पानी जुटाने की मुख्य जरूरत पूरी हो जाती है।
दूसरी भूमिका में ये तालाब भूजल को रिचार्ज करते हैं और पास तथा दूर के कुओं को
हरा करते हैं। इन कुओं से पेयजल और ऐसे खेतों की सिंचाई भी की जा सकती है,
जो तालाब आदि के कमांड क्षेत्र में
नहीं आते।
जल संग्रह के मामले
में वही समाज समझदार माना जा सकता है, जो सतही और भूजल के बीच के बारीक और नाजुक रिश्ते को बखूबी
पहचान सकता है। भूजल जितना रिचार्ज हो उससे ज्यादा उसका उपयोग तात्कालिक तौर पर
फायदेमंद दिखे ,तो भी दीर्घकालिक रूप में हमेशा
नुकसानदेह साबित हुआ है। इसे बिल्कुल सरल भाषा में कहें तो 'आमदनी अठन्नी खर्चा रुपैया’कहा जा सकता है। आज देश के अधिकांश
जिले इसी प्रवृत्ति का शिकार हुए हैं और इसीलिए जिस किसी भी वर्ष मानसून औसत से कम
हो तो ये सारे क्षेत्र पानी के संकट से जूझने लगते हैं।
इसमें कोई शक नहीं
कि पिछले दौर में आबादी बहुत बढ़ी है। पानी का उपयोग न सिर्फ उस अनुपात में बल्कि
नई फसलों और नए उद्योगों में उससे भी ज्यादा बढ़ा है। फिर भी इतना तो कहा जा सकता
है कि जल का यह नया संकट हमारी अपनी गलतियों का भी नतीजा है। पिछले 50 वर्षों में सारा जोर भूजल को बाहर
उलीचने पर रहा है और उसकी भरपाई करने की तरफ जरा भी ध्यान नदीं दिया गया था। अब उन
गलतियों को फिर से दुहराने के बदले सुधारने का दौर आ गया है।
राजस्थान में जल
संरक्षण बिल्कुल सरल उदाहरण लें तो हमारी यह सारी पृथ्वी मिट्टी की बनी एक बड़ी
गुल्लक है। इसमें जितना 'पैसा’डालेंगे उतना ही निकाल पाएँगे। लेकिन हमने देखा है कि पिछले
दौर में सारा जोर 'पैसा’निकालने की तरफ रहा है। संचय करके गुल्लक के इस खजाने को
बढ़ाने की भूमिका लगातार कम होती चली गई है।
परंपरागत जल संवर्धन
के तरीकों में तालाब का तरीका इसी दोहरी भूमिका को पूरा करता रहा है। अकाल के दौर
में फिर से इन बातों की तरफ शासन का, संस्थाओं का ध्यान गया है। यह एक अच्छा संकेत हैं। हमें अब
अपने सारे कामों में, विकास योजनाओं में इसे अपनाना चाहिए।
ऊपर के हिस्सों में
हमने तालाब की दोहरी भूमिका का उल्लेख किया है। कुछ क्षेत्रों में तालाबों को
सिंचाई के लिए भी बनाया जा रहा है। इसमें अर्धशुष्क क्षेत्र शामिल हैं। कहीं-कहीं तालाब के आगर यानी तल को सीधे खेत
में बदल दिया जाता है। वर्षा के समय जमा हुआ पानी अगले कुछ समय में उपयोग में आ
जाता है। फिर तालाब के भीतर जमा हुआ नमी को अगली फसल के लिए काम में ले लिया जाता
है। कुछ क्षेत्रों में पानी को पूरे वर्ष बचाकर मछली पालन भी किया जाता है।
(शेष आगामी अंक में)
पुस्तक-
जल संग्रहण एवं प्रबंध से साभार
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