भवानी प्रसाद मिश्र-
सीढ़ियाँ चढ़के सोना
-
अजित कुमार
जिस युग में हिन्दी की नयी कविता सार्वजनिक
मंच की व्यावसायिकता से क्षुब्ध हो पुस्तकों-
पत्रिकाओं के पृष्ठों में सिमट गई थी
और छोटी गोष्ठियों में भी काव्य-पाठ सीधे - सपाट ढंग से करने का प्रचलन बढ़ा था,
‘गीतफ़रोश’ के रचयिता भवानी प्रसाद मिश्र अपने
अनोखे, अद्भुत ढंग से श्रोताओं को नयी कविता
की ओर आकर्षित करने में समर्थ भर न हुए थे, बल्कि सस्वर- ओजस्वी कवितापाठियों के लिए भी चुनौती बन खड़े हो सके थे।
उनकी भाषिक सरलता और सीधी- बात को सीधे ढंग से कहने की अदा में उनकी नाटकीय शैली कुछ ऐसा
रंग भर देती थी कि बहुत बार मँजे हुए सम्मेलनी कवि भी अचम्भे में पड़ जाते थे। कुछ तो उनको “ड्रामेबाज़” तक कह देते थे, क्योंकि वे कविता सुनाते समय कभी रो और
कभी हँस पड़ते थे,
दूसरे यह भी पता न लगने देते थे कि
पहली कविता पूरी हो, कब अगली कविता शुरू या ख़त्म हो, नये सिलसिले में ढल गई है। शायद उन
कविताओं में ऐसा तारतम्य होता था और वे कवि के भीतर से इस प्रकार प्रवाहित होती
थीं कि श्रोता उनके तिलिस्म में खोये रह जाते थे।
इस समय मुझे उनकी ये पंक्तियाँ याद आ रही हैं,
इसलिए
भी कि किसी रहस्यपूर्ण विधि से वे हम सभी के जीवन में जुड़ गई जन पड़ती हैं-
कुछ लिख के भी,
कुछ पढ़ के सो।
तू जिस जगह जगा
सवेरे उस जगह से बढ़ के सो।
दिन भर इबारत पेड़-
पत्ती और पानी की
बंद घर की, खुले- फैले खेत धानी की
इस इबारत की अगरचे सीढ़ियाँ हैं, चढ़के सो।
इसके आगे वे देर तक
और दूर तक कविताओं की माला पिरोते ही चले जाते थे। लेकिन उनतक किसी कदर लौटने के लिए साठ साल पहले 1949
में जाना होगा,
जब प्रयाग विश्वविद्यालय के केपियुसी
हॉस्टल के मेरे सखा-
ओंकार, जीतेन्द्र, मनमोहन अचरज करते थे कि जबलपुर से लौटने के बाद अजित को यह
क्या हो गया की उठते- बैठते एक ही कवि भवानी मिश्र का जिक्र करते हैं,
जबकि उनमें से किसी ने उनका नाम तक
नहीं सुना था।
हुआ यह
था की संयोगवश जबलपुर जाने पर भवानी के मुख से उनकी कुछ कविताएँ सुन उनका
वैसा ही मुरीद बन बैठा था , जैसा दो वर्ष बाद, 1951 में, ‘गीतफ़रोश’कविता पहले “प्रतीक” में , फिर “दूसरा तार सप्तक” में प्रकाशित होने पर समूचा कविता-
प्रेमी हिंदी जगत्“भवानीमय’हो गया। संयोगवश, भवानी प्रसाद मिश्र कुछ समय बाद “कल्पना’के सम्पादक मंडल में चले गये जो ‘प्रतीक’बंद हो जाने के बाद हिन्दी नवलेखन की
सर्वप्रमुख पत्रिका हो गई थी और जिसमें मेरे समेत सभी युवा लेखक नियमित रूप से
लिखा करते थे। वहीं से भवानी का पहला कविता संग्रह ‘गीतफऱोश’छपा, जिसने उनकी ख्याति पर पक्की मोहर लगा दी तब से लेकर आज तक वह
मेरी प्रिय पुस्तकों में बनी रही है।
याद आता है, ‘कल्पना’ में ही मैंने, ‘शब्दों का समवेत स्वर’, नाम से उसकी समीक्षा भी लिखी थी और मिश्र जी से पत्र व्यवहार
शुरू हुआ,
जो आगे चल कर दिल्ली आ बसने पर
पारिवारिकता के सूत्र से जुड़ गया। जब वे आकाशवाणी में थे और मैं विदेश मंत्रालय
में,
तब भी हम दोनों के घर पास-पास थे, अनन्तर जब वे ‘सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय’में और मैं दिल्ली विश्वविद्यालय के
किरोड़ीमल कॉलेज में आया तो राजघाट सन्निधि में उनके और माडल टाउन में मेरे घर के
बीच अधिक दूरी न थी, इसलिए भी कि अपने स्कूटर से मैं उनके यहाँ कॉलेज के बाद पाँच-दस मिनट में पहुँच सकता था।
भवानी बाबू को मैं ‘मिश्र’ जी कहता था मैं उनके पत्र तो सँजोकर नहीं रख सका, लेकिन मन में मधुर स्मृतियाँ कितनी ही
संचित हैं। बात करने की उनकी शैली मनोहर थी, उनके शब्दों में कुछ फेरबदल करूँ तो लिख सकता हूँ, ‘जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख’ जैसा ही सच था उनके लिए- ‘जिस तरह तू लिख रहा है, उस तरह तू बोल’ और यह बात उनसे दूरदर्शन पर संवाद करते हुए मैंने कही भी थी
कि आपसे कविता सुनने का सुख तो अपूर्व है ही, आपसे बात करना भी उतना ही सुखकर है।
संयोगवश, मैं विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में निर्धारित उनकी कविताएँ
पढ़ाता था,
उन दिनों मिश्रजी की बहुतेरी कविताओं
पर नये सिरे से सोचने की प्रेरणा हुई। ‘सतपुड़ा के जंगल’ के पाठालोचन ने मुझे
सुझाया कि ‘स्थानीय रंग’ के लिहाज से अनुपम होने के अलावा इस
कविता की अन्यतम विशेषता यह है कि जंगल पहले तो हमें अपने जड़-निर्जीव स्वरूप से हमें डराता है,
फिर कीड़ों -मकोड़ों से ,
फिर छोटे-
मोटे जानवरों से,
लेकिन जब हम उसके भीतर धसते ही चले
जाते हैंतो वह अपना सुंदर मार्मिक स्वरूप हम पर उद्घाटित करता है। इस लिहाज से ‘सतपुड़ा के जंगल’हिंदी की सर्वाधिक संश्लिष्ट कविताओं
में से एक है और ख़ुशी की बात यह है कि भवानी मिश्र के पास,
सन्नाटा, जेल में बरसात, पहाड़ी, कमल के फूल जैसी अनेक नायाब कविताएँ हैं जो आज भी मार्मिक तथा
सार्थक प्रतीत होती हैं, यद्यपि ठीक यही बात आज ‘गीतफ़रोश’कविता के बारे में नहीं कही जा सकती।
भवानी बाबू ने मुझे
बताया था कि जिन दिनों वे नाम मात्र के वेतन पर गाँधी जी के आश्रम में अध्यापन
कार्य कर रहे थे,
घर से पत्र आया की छोटी बहन का विवाह
निश्चित हो गया है, खर्च के लियेरुपये भेजो। ऐसे में “स्वयंसिद्धा’फिल्म के लिए गीत लिख कर उन्हें दो हजार रूपये मिले थे,जो विवाह में काम आये। लेकिन यह ख़बर
चूँकि फैल गई थी,
इसलिए हिंदी की विशेषकर मध्यप्रदेश की
अनेक पत्र- पत्रिकाओं में यह विवाद छिड़ गया कि एक प्रतिभाशाली कवि किस
तरह कुछ रुपयों के वास्ते बिक गया।
उन दिनों जब भवानी बाबू फिल्म का काम पूरा कर
अपने मित्र रुद्रनारायण शुक्ल से मिलने के लिए लखनऊ में उनके घर के लिए रिक्शे से
जा रहे थे,
उन्होंने रिक्शेवाले के ट्रांजिस्टर पर
लौहपुरुष सरदार पटेल की मृत्यु की खबर सुनी, फिर तुरंत ही किसी कविता का प्रसारण हुआ-
शायद ओंकारनाथ श्रीवास्तव की,
‘हमने तो कोमलता का लोहा माना था’। इससे तुरंत उनके मन पर लगा वह घाव हरा हो गया,
जो फिल्मी गीत लिखने पर की गयी व्यंग्योक्तियों ने किया था।
पैसों के लिए सरदार पटेल का गुणगान हो सकता है तो, ज़रूरत के लिए फ़िल्मी गाने लिखना बुरा क्यों?
इसी द्वंद्व में से उस समय की सबसे उल्लेखनीय
कविता’ ‘गीतफ़रोश’ का जन्म हुआ था।
यह बात अलग है कि 1950
के आस-पास का समय कुछ ऐसा था कि कविता के लिए
पारिश्रमिक पाने की बात बेहद अटपटी समझी जाती थी और सामान्यत:
सोचा यह जाता था कि भावुक या निश्छल
हृदय से स्फुरित अभिव्यक्ति की कीमत पैसे से नहीं चुकाई जा सकती। किन्हीं एक-
दो कवियों के मामले में इसे अपवाद भले
ही माना गया हो,
लेकिन शेष सभी कवि अपनी रचना के लिए “पत्र- पुष्प”
तक लेने-
पाने-
माँगने या ग्रहण करने में सकुचाते थे।
यही कारण था कि सन् 1951 में जब अज्ञेय के मासिक पत्र ‘प्रतीक’में भवानी की वह कविता छपी तो छोटा-
मोटा भूचाल जैसा कविता प्रेमी हलकों
में नज़र आया,जो पहले पन्द्रह-
बीस बरसों तक चलता रहा और अनन्तर यदि
कुछ थमा भी,
तो उसी समय जब कविता से पारिश्रमिक
मिलने और इसके प्रति सहज हो सकने की सम्भावना हिंदी में किसी कदर बन चली।
यही क्यों,
यदि आज भी वह कविता अपना थोड़ा-
बहुत असर बचाए हुए है तो कारण यही
समझना चाहिए कि कवियों- पाठकों- सम्पादकों की बिरादरी रचना के वास्ते थोड़ा बहुत पारिश्रमिक
होना-
लेना-
स्वीकारना को उचित समझने लगी,
लेकिन कविता के विशुद्ध व्यवसायीकरण या
कविता की निर्लज्ज बिक्री को वह अब भी ख़ारिज करती है। सच तो यह है कि लगभग साठ साल
पहले लिखी इस कविता के प्रति समयानुक्रम में, दृष्टिकोण तेज़ी से बने -बदले-
प्रतिष्ठित हुए हैं।
अनुमान सहज ही लगाया
जा सकता है कि किसी भी अन्य क्षेत्र अथवा विषय की तुलना में-
यहाँ तक कि साधन सम्पन्न हो चले संगीत-
नृत्य-
नाट्य-
चित्र-
मूर्तिकला आदि कतिपय माध्यमों की अथवा
पैसा कमाऊ मंचीय “श्रव्य’कविता की तुलना में विपन्न छूट गयी गम्भीर “पाठ्य’कविता से सम्वेदनशील
समाज कहीं अधिक अपेक्षाएँ करने लगा कि वह मूल्यों की प्रतिष्ठा में सन्नद्ध
होगी। वह समाज उसे “साबुन- मंजन”जैसी रोजमर्रा वाली बिकाऊ चीजों जैसा
मानने को अब भी तैयार नहीं।
यही वजह है कि कवि सम्मेलन के जिस मंच पर एक समय
हिंदी के लगभग प्रत्येक गम्भीर और उल्लेखनीय कवि को देखा-
सुना -पाया जा सकता था,
वहाँ आज का मंच लगभग पूरी तरह से
गलेबाजों और प्रदर्शनपटु अभिनेताओं से पट गया है। हमारे कवि सम्मेलन अब उत्तम
कविता के 'कारक, प्रेरक, उद्बोधक’ माध्यम नहीं बचे, वे भोंडी-सस्ती मनोरंजन केन्द्रित मानसिकता को भुनाने -लुभाने में संलग्न हो,
चुटकुलेबाजी तक सीमित होने लगे हैं,
छोटे से लेकर बड़े पर्दे पर टीआरपी
बढ़ाने या बाक्स ऑफ़िस पर सफलता पाने के लिए किसी भी हद तक जाने को वे उतारू हैं।
एक वक्त था कि भवानी
अपने सुगम- सुबोध काव्यपाठ के बूते एक से एक दंगली-
लोकप्रिय कवियों के बीच भी सुने -सराहे जाते थे,
लेकिन इसे उनका सौभाग्य ही समझना होगा
कि मंच की परम दुर्गति के इस दौर में वे मौजूद नहीं वरना कभी के हूट किये जाकर
खदेड़ दिये गये होते। आज के माहौल में वे ‘सीढिय़ाँ चढ़ के सोने’का संदेश देने की जगह शायद ‘पायदान’पर उतर ‘धूल चाटने’का रास्ता अपनाने के लिए विवश कर दिए जाते।
हिन्दी कविता को इस
हद तक अवमूल्यित करने का दोषी किसे ठहराया जाए? बच्चन को? नीरज को? मुकुल को? काका को?- या उपभोग को ही जीवन का सारतत्व समझ बैठने वाले वर्तमान
युगधर्म को?
(पुस्तक ‘सात छायावादोत्तर कवि’ से, प्रेषक -पुष्पा मेहरा, Pushpa.mehra@gmail.com)
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