मौसमी बाल मृत्यु में लीची की भूमिका
मुजफ़्फरपुर
(बिहार)
देश का सबसे बड़ा लीची उत्पादक क्षेत्र
है। ताज़ा शोध बताता है कि यही लीची उस इलाके में मौसमी बाल मृत्यु का कारण है।
भारत के राष्ट्रीय रोग नियंत्रण केंद्र और यूएस के राष्ट्रीय रोग नियंत्रण व
रोकथाम केंद्रों ने संयुक्त रूप से मुज़्जफ़रपुर में होने वाले रहस्यमय तंत्रिका-रोग पर शोध किया है। यह रोग 1995
से हर वर्ष कई बच्चों की जान लेता आ
रहा है।
शोधकर्ताओं ने पाया
कि लीची फल पर दो विषैले पदार्थ चिपके होते हैं -
हायपोग्लायसीन-ए तथा मीथायलीन-सायक्लोप्रोपाइलग्लायसीन (एमसीपीजी)। यही तंत्रिका रोग व मृत्यु के लिए
जि़म्मेदार हैं। पहली बार मनुष्यों से लिए गए जैविक नमूनों में इन विषों के विघटन
से बने पदार्थों,
मानव चयापचय पर इन विषों के असर का
अध्ययन हुआ है। शोधकर्ताओं ने यह भी देखा कि इन विषों के प्रभाव पर शाम के समय
भोजन लेने का क्या असर होता है।
उपरोक्त दोनों संस्थाओं
के शोधकर्ताओं ने पहले तो अस्पतालों में प्रयोगशाला जांच के माध्यम से पता किया कि
क्या इस रहस्यमय रोग का कोई संक्रामक या गैर-संक्रामक कारक पता चलता है। इसके बाद
लीची की जांच की गई जिसमें रोगजनक सूक्ष्मजीवों, विषैली धातुओं तथा अन्य गैर-संक्रामक कारकों का विश्लेषण किया गया।
इनमें फल-आधारित विष हायपोग्लायसीन और एमसीपीजी
भी शामिल थे। 2014 में अस्पतालों में भर्ती 390
मरीज़ों की जांच से पता चला कि
एनसेफेलोपैथी के प्रकोप के पीछे इन्हीं दो विषों की भूमिका है। ये विष शरीर में
चयापचय को प्रभावित कर हायपोग्लायसेमिया की स्थिति निर्मित कर देते हैं।
हायपोग्लायसेमिया उस स्थिति को कहते हैं जब रक्त में ग्लूकोज़ का स्तर बहुत कम हो
जाता है।
उत्तरी बांगलादेश,
उत्तरी वियतनाम सहित दुनिया के कई
हिस्सों में इसी तरह के रोग के प्रकोप होते रहे हैं और वे सब लीची उत्पादक क्षेत्र
हैं।
शोधकर्ताओं का मत है
कि इस तंत्रिका रोग के प्रकोप के कारण होने वाली मत्यु से बचाव का तरीका यह है कि
लीची का उपभोग कम किया जाए, और रोग के लक्षण प्रकट होते ही बच्चों को शाम के समय अतिरिक्त
भोजन दिया जाए ताकि उनके खून में ग्लूकोज़ के स्तर को ठीक किया जा सके। (स्रोत फीचर्स)
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