महिला लेखन-
अंतस् की पड़ताल
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डॉ.
अंजु दुआ जैमिनी
पुस्तक:
महिला लेखन-
चुनौतियाँ और सम्भावनाएँ
सम्पादक:
डॉ.
प्रीत अरोड़ा
प्रकाशक:
भावना प्रकाशन
मूल्य:
300 रुपये
डॉ.
प्रीत अरोड़ा द्वारा संपादित स्त्री विमर्श आधारित पुस्तक 'महिला लेखन-चुनौतियाँ और संभावनाएँ’एक नए कलेवर में उपस्थित हुई है जो आधी
आबादी की स्वीकारोक्तियों को नगाड़े बजाकर प्रस्तुत करती है। प्रीत पंजाब के एक
महाविद्यालय मेंहिन्दी की प्रवक्ता हैं और एक लेखिका भी। उन्होंने लेखन की दुनिया
में सधे कदमों के साथ आगे बढ़ती सताईस लेखिकाओं के निजी कक्ष में झाँकते हुए उनकी
रचनात्मकता की धरा पर बीजारोपण से लेकर पादप से पेड़ बनने की समूची साहित्यिक-यात्रा को पाठकों के लिए संकलित किया
है। इन सताईस लेखिकाओं ने भी ईमानदारी से अपने संघर्षों को अपने पाठकों के समक्ष
उधेड़ कर रख दिया है। लगभग प्रत्येक
लेखिका ने स्वीकार किया है कि उनके लिए लेखन पुरुष लेखकों की बनिस्बत कठिन रहा।
संकलन की प्रथम
लेखिका डॉ. अहिल्या मिश्र ने स्वीकारा कि शिक्षा की अदम्य लालसा ने पति
से मुँह दिखाई के रूप में उच्च शिक्षा की माँग करवा दिया। यह अभयदान और इसके
सदुपयोग ने उन्हें डॉ. अहिल्या मिश्र बना दिया। उसके बावजूद उनके संघर्ष कम नहीं
हुए। निष्कर्ष यह निकला कि स्त्री का हमसफर उसका साथ दे तो उसके लिए रास्ते आसान
हो जाते हैं।
डॉ.
अनिता कपूर ने ईमानदारी से स्वीकारा कि
उन्हें लेखन करते हुए घर से ताने सुनने पड़ते थे। उन्हें कहा गया था कि तुम उड़ तो
सकती हो लेकिन पति और ससुराल के बनाए सीमित आकाश में। वे मानती हैं कि वे अपने
जीवन की सह-लेखिका हैं। डॉ. अंजु दुआ जैमिनी यानी मैं स्वीकार करती हूँ कि अपनों का विरोध
मुझे आहत कर गया। साथ ही अपनों के सहयोग से ही मैं आगे बढ़ी हूँ। जब शौक हद से
गुजर जाता है तो जुनून बन जाता है और जुनून फिर किसी भी हद से गुजर जाता है। मेरा
मानना है कि किसी भी स्त्री के लिए लिखना उतना सहज नहीं होता जितना पुरुष के लिए
होता है।
अर्चना पैन्यूनी मानती
है कि महिला पुरुष की तरह आजाद नहीं होती। उसे बच्चे,
घर-परिवार को प्राथमिकता देनी पड़ती है।
अर्चना चतुर्वेदी शिकायत करती हैं कि बहुत कम लेखिकाओं को घर से सहयोग मिलता है।
डॉ.
किरण वालिया मानती हैं कि स्त्री को
चुनौतियों से लडऩे की शक्ति मिलती है। जब बेडिय़ों को तोड़कर,
काट कर, खोल कर कदम निकल पड़ते हैं, तो रास्ते स्वयं बन ही जाते हैं।
शिखा वार्ष्णेय ने
अपने आलेख की शुरूआत इन पंक्तियों से की- “महिला लेखन की चुनौतियाँ कहाँ से शुरू होती हैं और कहाँ खत्म
होंगी कहना बेहद मुश्किल है। एक स्त्री जब लिखना शुरू करती है तब उसकी सबसे पहली
लड़ाई अपने घर से शुरू होती है। उसके अपने परिवार के लोग उसकी सबसे पहली बाधा बनते
हैं और उसकी घरेलू जिम्मेदारियाँ और कंडीशनिंग उसकी कमजोरी।
गीता पंडित
परिस्थितियों को बदलने की जिद् को स्त्री-लेखन का कारण मानती हैं। नीना पॉल महिला-लेखन को कठिन डगर मानती हैं। डॉ.
मुक्ता संकल्प-शक्ति को महत्त्व देती हैं। वे मानती
है कि पुरुष वर्चस्व और नारी दमन का इतिहास लैंगिक विभेद और संरचना की दास्तान है।
रजनी गुप्त ताल ठोक कर कहती हैं कि आधी नहीं, पूरी दुनिया हमारी है। लावण्या दीपक शाह लेखन को साधना मानती
हैं। शिखा ने साजिशों के बावजूद लेखन जारी रखा। डॉ.
सूर्यबाला के लिए सफर आसान नहीं था।
हरकीरत वर्जनाओं को तोड़कर लिखती हैं। सविता चड्ढा ने चुनौतियों में संभावनाओं की
तलाश की है।
डॉ.
सुषम बेदी अपनी राय जाहिर करती हैं कि
महिलाएँ अपनी लेखकीय संभावनाओं को पूरी तरह तभी संपन्न कर सकती हैं जबकि वे अपने
लिए उस स्पेस व समय की माँग करें जो उनको चाहिए, जो उनके लेखन के लिए जरूरी है और तब यह समय व स्थान फैलता
जाएगा खुद-ब-खुद ! पुस्तक के अंतिम पृष्ठ पर अंतिम पैराग्राफ में इला कुमार ने
मानों संग्रह का निचोड़ उतार कर रख दिया। वे कहती हैं-“कई बार जाने-अनजाने स्त्री कुछ इस प्रकार मान्यताओं को ढोती है कि लिखने
का तारतम्य टूट-सा जाता है। इस तत्व से स्त्री-लेखन को उबरकर संभावनाओं के विस्तृत
आकाश पर अपने कलम को टिका देना होगा, तभी स्त्री-लेखन अपने सौंदर्यित स्वरूप में प्रतिष्ठा पा सकेगी।
तात्पर्य यह कि लगभग
प्रत्येक लेखिका ने अपने लेखन की दोधारी तलवार पर चलने का जोखिम उठाया क्योंकि
उसके लिए अभिरुचि जुनून बन गई।
लगभग हर लेखिका
अभिव्यक्ति के रास्ते तलाशती है, पन्नों पर उन्हें उतारने के लिए संघर्ष करती है। कितना कुछ
समेट पाती है और कितना कुछ छूट जाता है। शिकवा करना चाहे भी तो उसकी कोई सुनवाई
नहीं। बिखरी अनुभूतियों को सहेजने का समय चुराती है फिर कभी-कभी जिम्मेदारियों के निर्वहन में जरा
सी चूक हो जाए तो अपराध बोध से युक्त हो जाती है। इसी कशमकश को प्रीत अरोड़ा ने
पुस्तकाकार रूप दिया जिसे निश्चित ही साहित्यिक जगत में खूब-खूब सराहा जाएगा। इससे भी बढ़ कर
शोधार्थियों के लिए यह पुस्तक मार्गर्शक की भूमिका निभाएगी।
इस संपूर्ण पुस्तक
को आत्मसात करते हुए यह बात दीगर हो आई कि स्त्री के लिए उसकी अभिरुचियों को पूरा
कर पाना हमेशा से चुनौती भरा रहा है क्योंकि उसकी किसी अभिरुचि को पुरुष सत्तात्मक
समाज ने कभी संजीदगी से नहीं लिया। उस पर सदैव जिम्मेदारियों का बोझ रखा गया। उसे कभी
खुल कर हँसने की आजादी नहीं दी गई। उसके लिए घर-परिवार की परिधि तय कर दी गई। आर्थिक
स्वतन्तत्रता के नाम पर उसका खुलकर शोषण किया गया। आज भी कुछ नहीं बदला,
सब कुछ यथावत् है,
उल्टा उस पर घर-बाहर दोनों की जिम्मेदारियाँ डाल दी
गई।
प्रीत अरोड़ा स्वयं
एक लेखिका हैं फिर उन्होंने अपना लेखन संघर्ष सबसे छिपाए रखा। कारण वही जानती हैं।
इस पुस्तक में “लेखिका’की जगह “महिला लेखिका’शब्द का प्रयोग किया,
अनेक लेखिकाओं ने किया जो गलत है। इसके
अतिरिक्त कुछ लेखिकाओं ने अपने व्यक्तिगत संघर्ष को अवगुंठन में रख कर संपूर्ण
स्त्री-जाति के संघर्ष पर अपने विचार व्यक्त
किए हैं। इस एकाध कमी के बावजूद पुस्तक मील का पत्थर साबित होगी,
इसमें कोई संदेह नहीं।
सम्पर्क: 839, सेक्टर-21 सी, फरीदाबाद
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