हिन्दी
लोक गीतों में बसंत
कोयलिया
बोले डारि-डारि
- सुरेश चन्द्र शर्मा
'लोकगीत’ मन की सहज और सुन्दर
अभिव्यक्ति है। सच तो यह है कि 'लोकगीत’ लोकमन की धड़कन और अनुगूँज है। लोक कवि लोक
सौन्दर्य का व्याख्याता होता है। लोकगीतों में लोकांचल की छाप दिखाई देती है। सोहर, नकटा ,गारी, लचारी, फाग, चैता, उठान, कजरी आदि विविध नामों
से हम लोकगीतों की सत्ता को स्वीकार करते
हैं। फाग अथवा वासन्ती लोकगीतों का अपने
में एक विशिष्ट स्थान है। भारतीय जनमानस में उत्सव का बड़ा प्रभाव है। ग्रामीण जीवन
में उत्सव के प्रति काफी मोहन भाव दिखाई पड़ता है। भारतीय लोक जीवन के विविध
स्वरूपों में होली के रंग बिखरे पड़े हैं। लोकगीतों और लोक नृत्यों में होली के
रंग अपनी निराली छटा में परिलक्षित होते हैं। ब्रज के किसी गाँव में कदम्ब की छाँव
में बैठी भोली राधा जब सखियों के साथ गाती है- मत मारै दृगन की चोट रसिया होरी में
, मेरे लग
जाएगी तो गाँव के रसियों के स्वर भी जवाब
में कहते हैं- होरी रे रसिया, बरजोरी रे रसिया, आज बिरज में होरी रे रसिया।‘ गाँव की गोरियाँ, रसियों से होरी खेलने
की मनुहार पर ध्यान नहीं देती तो वे कह ही
उठते हैं- होरी में लाज न कर गोरी ठीक ही कहा गया है- होली में काहे की लाज? राधा और कृष्ण भी तो
जी भरकर रंगों की मन भावन फुहारों में होली खेले थे।
'वसन्त’ एक जीवन्त कविता और
प्राणवान् साकार प्रतिमा है। वसन्त हृदयों का मिलनोत्सव है। वसन्त काल में समूची
सृष्टि ही पुलकित हो जाती है। जीवन में
नवजीवन का संचार होता है। फूलों की खुशबू से दिशाएँ गमक उठती हैं। मीलों से सरसों
की पीतिमा मन को मोह लेती है। आम के बौर की भीनी गन्ध से वातावरण महक उठता है, किशोरी मंजरियाँ भी
फूटने लगती हैं और कलियाँ भी यौवन-भार से बोझिल होकर चटक पड़ती हैं। यह वसन्त, महामिलन का सन्देश
लेकर आता है। यह अपनी सुरम्यता से जड़-चेतन को अभिभूत कर देता है।
हिन्दी लोक गीतों में
वसन्त का बड़ा ही महत्त्व है। लोकगीत
लोकमन की सहज और मोहक प्रस्तुति है। लोक रचनाकार अपनी हुलस एवं पुलक को
लोकगीतों के माध्यम से व्यक्त करता है।
वसन्त से जुड़े लोकगीतों में प्राकृतिक सौन्दर्य की प्रमुखता होती है। इस ॠतु की
सबसे बड़ी विशेषता यही होती है कि उसमें
वसुन्धरा नववधू की भाँति कोमल लगती है। वह अनेक रंगों के पुष्पों से अपना शृंगार
करती है। कोयल का कोमल कण्ठ वातावरण में अमृत घोल देता है। ऐसा प्रतीत होता है
मानो नववधू के आगमन पर मधुर शहनाई बज उठी हो-
नीक लागे फगुनई बयार
कोयलिया बोले
डारि-डारि
अमिया की बगिया में
सोहे बउरवा
दुलहा के माथे पर सोहे सेहरवा
भुइयाँ नाचे ला मनवा
हमार कोइलिया
लोक कवि बड़ी ही
पैनी दृष्टि रखता है। वह सौन्दर्य का पारखी और चितेरा भी होता
है। प्रकृति के हर परिवर्तन को वह देखता रहता है और उसी रूप
में उसका चित्रण भी करता है। वसन्त
में भावुक मन आनन्द से थिरक उठता है और ऐसी रस भरी ऋतु में वह पुष्पाभरणों से गोरी
को सजाने की इन्द्रधनुषी कल्पनाएँ करता
है। इस ऋतु में चारों ओर पकी फसल का सौन्दर्य और मन्द-मन्द मदमाती हवा लोगों को
आनन्दित कर देती है। समय बीतने के साथ वसन्त रूपी नायक और अधिक मनमोहक लगता है तभी
तो लोक कवि इस रूप में कीर्तिगान करता है-
लेके सिनेमवा पहुँचल
पहुनवाँ
गोरिया के जाए के बारे
गवनवाँ
खूब कर ले सिंगार पटार
कोयलिया
वसन्तकाल में चहुँ ओर नैसर्गिक सौन्दर्य छाया रहता है। मानव-मन
सौन्दर्य- प्रेमी और उत्सव -प्रेमी होता है। वसन्त ऋतु में होलिकोत्सव की अपनी
निराली छटा होती है। संयोग और वियोग की बाँसुरी ब्रज के गाँवों की गलियों में आज
भी तरंगित होती है। यहाँ के लोक जीवन में राधा-कृष्ण अपने अमिट रूप में समाहित हैं। ब्रज के लोक गीतों में
राधा-कृष्ण के इसी रागमय स्वरूप का मोहक चित्रण हुआ है। केसर का रंग, गुलाल की महक, पग के नूपुर-जहाँ
संयोगिनियों को प्रफुल्लित करते हैं, वहीं ऐसे अवसरों पर वियोगिनियों के मन पर दु:ख
के बादल भी छा जाते हैं। पिया बिन काहे का वसन्त और किस बात की होली! मन की होली
तन-बदन में आग लगा जाती है। वह बार-बार अपने मन से कहती है- अरे यह काहे को फागुन
मास आ लगा है। मैं तो पिया के बिना जल रही हूँ-
'कुमकुम
चीर रंगौ उमंगयौ,पिचकारी
भरी-भरी खेलत होरी,
लाल गुलाल की धूलि
उड़ै, मनौ रंग भरी रस से सर बौरी।
फागुन के दिन श्याम
बिना अब कैसे जिएँ बृषभानु किसोरी
व्याकुल बाल धरै नहीं
धीर, इतै जरै
आप उतै जरै होरी।
राधा और कृष्ण की इस
होली ने बृज के करील -कुंजो को पार कर सम्पूर्ण देश को अपने रंगों में रँगा है।
चाहे इस देश का काव्य हो या चित्रकला, संगीत हो या मूर्तिकला, सभी में राधा और कृष्ण
की होली जी भरकर उभरी है। ब्रज के लोक गीतों में भी राधा और कृष्ण ने जीभरकर होली
खेली है नन्द गाँव की सँकरी खोरों से निकलकर कृष्ण होली खेलने आए तो उधर राधा के
मन में भी हलचल मच गई। वह भी चल दी प्रीत की गैल पर, लेकिन जब कृष्ण ने राधा को देखा तो राधा की भी कृष्ण पर नज़र पर गई। ब्रजश्वरी राधा बेसुध होकर
कृष्ण पर गुलाल फेंकने लगी। गुलाल की मूठ, कृष्ण पर मूठ बनकर लगी और वे खो गए एक-दूसरे में -
' वे
नन्दगाँव तै आये इत उत,
आई सुता वह कौनहूँ
ग्वाल की
त्यौ पद्माकर होत जुए-जुरी,
दोऊन फाग रची इक ख्याल
की।
दीठि परी इनकी उनपै, उनकी इनपै,
परी मूठ उताल की
दीठि से दीठि लगी इनके,
उनकै लगी मूठि-सी मूठि
गुलाल की।
वासन्ती किरणें जब फागुनी बयार के साथ यौवन का
संस्पर्श करती हैं, तब
प्रकृति का सौन्दर्य अपने चरमोत्कर्ष पर होता है और रूपसियों के यौवन तथा सौन्दर्य
की लालिमा हृदयों को रससिक्त कर देती हैं।
शिशिर से दुखी नायिका जब वसन्त में अपने नायक को प्राप्त करती है, तो उसकी तपस्या का फल
उसे मिल जाता है -
रंगइबै हम चुनरी यहीं
फागुन माँ, फागुन
मास पिया घर अइलन
हमरे सेजिया के फूल
मुसकइलन, मगन
तन-मन री यहि फागुन माँ
नायिका की प्रसन्नता
की सीमा नहीं रहती और आम के बाग में कोयल का मधुर स्वर सोने में सुगन्ध का काम
करता है। पुरवाई का मन्द-मन्द झोंका नायिका के मिलन और उससे उत्पन्न भावों को और
अधिक प्रभावित करता है। वह हर्षित होकर कहती है-
सखी आयल मधुमास
अँगनवाँ,
साँच भैल जिनगी के
सपनवाँ
छपावे पच लुगरी यही
फागुन माँ
इस प्रकार हम देखते
हैं कि वसन्त नर-नारी की मधुर भावनाओं का पूरक और प्रेरक दोनों है। महुआरी और
अमराई की हरीतिमा और सुन्दरता के मध्य
वसन्त के कौतुक को देखकर मन पुरानी स्मृतियों में खो जाता है। महुआ की डालियों पर
गदराए हुए कूँच मन को बरबस लुभा लेते हैं। लोकरस
में पगा मेरा अन्तर्मन थिरकने लगता है और होंठों से एक रसीला गीत छलक पड़ता
है-
बसन्ती झुर-झुर झुरके
बयार
बयरिया झूमे हर घर
द्वार
नए-नए कोंपल में
नया-नया फूल खिलल
बाग बगीचा में रस के
फुहार मिलल
रस-भीनी आइल बहार।
बसन्ती...
भोरवै में हँसि-हँसि
के हमके जगावै
गूँ-गूँ भँवरवा कै
गितिया सुनावै
चिरई भी गावै मल्हार।
बसन्ती...
महुअल की डारिन पै
कूँच गदरइलै
कौनो वियोगिन को पिया
घर अइले
पिहकत पपीहा बार-बार
बसन्ती झुर-झुर झुरके
बयार।
बसन्त यदि किसी के लिए
सुखदायी है तो किसी के लिए दुखदायी भी है। नायिका का नायक यदि कहीं दूर हो तो
विलगाव की घड़ी असह्य बन जाती है। सच ही कहा गया है कि पति-वियोग स्त्री के लिए
अभिशाप के समान होता है ऐसे में वह नायक
के विदेश जाने पर उपालम्भ देती है। उसका उपालम्भ देना उचित है। बसन्त अपने मनमोहक
कौतुक से विरहिणी के मदन-कलश को छलकाने लगता है। छलकाव की इस स्थिति में उसका इस
प्रकार का कथन सर्वथा सत्य ही प्रतीत होता है-
छलकत गगरिया मोर
निरमोहिया
छलकत गगरिया मोर
रहि-रहि चन्दनिया
चन्दा के निहारे
धई-धई अँचरवा के छोर
पनघट पपीहा पिउ-पिउ
पुकारे
पियवा गइल कौनी ओर
निरमोहिया
छलकत गगरिया मोर...
वसन्त जड़-चेतन सभी को
अभिभूत कर देता है। वन-पाखी भी प्रेमराग गाने लगते हैं। सच तो यह है कि फाग के
रागों से छलकती हुई मादकता जड़-चेतन को रागमय बना देती है और रसिक हृदय को
भारतीयता का स्नेहिल एवं सौन्दर्ययुक्त सौरभ भी प्रदान प्रदान करती है। वसन्त-मिलन
का सन्देश ही लेकर नहीं आता ,वरन् दो विलग हुए दिलों को
जोड़ता भी है। नर-नारी ही नहीं, पशु-पक्षी भी इस काल में कामासक्त होकर
प्रणयालाप करते हैं। प्रणयराग की मधुर रागिनी छेड़ते हैं, तभी तो लोक रचनाकर को
इस प्रकार लिखना ही पड़ा-
मोरवा के ठोरवा
मोरिनिया सिखावे,
भरि-भरि ठोखा के लेल
भँवरा लुभाइल कमलनी
अँगवा ,
कइसन सनेहिया क जोर
निरमोहिया
छलकत गगरिया
कोयल की 'कूक’ और
पपीहा की 'पी
कहाँ’ की आवाज
नायिकाओं के तन-मान को रसमय बना देती है। आम्रबौर
की भीनी गमक एवं महुआ के कूँचों की मदिर रस छलकाती गन्ध वातावरण में एक
अजीब प्रकार का नशा घोल देती है। महुआरी
के कूँचों से मदन-रस नायिका को भी सराबोर कर देता है और उसके अधरों से यह लोकगीत
छलक ही पड़ता है-
महुआ के कुँचवा मदन-रस
टपके
बहै पुरवइया सजोर
निरमोहिया
छलकत गगरिया मोर
विभिन्न लोक
सस्कृतियों के प्रदेश हरियाणा में फागुनी
संवेदना का सुखद अहसास वहाँ के लोकगीतो से स्पष्ट मिलता है। फागुनी मस्ती में यवक
युवतियाँ झूम उठते हैं। ललनाओं का नूर दो
गुना बढ़ जाता है। गाँव-गाँव, गली-गली फागुन के गीत गूँज उठते हैं। इस मस्ती
को उजागर करता एक लोकगीत बड़ा ही हृदयस्पर्शी है -
कच्ची अम्बली गदराई
सामण में
बूढ़ी री लुगाई मस्ताई
फागण में
कहियो री उस ससुर मेरे
नै
बिन घाली ले ज्या फागण
मै
कहियो री उस बहुए
म्हारी नै
चार बरस डट ज्या पीहर
मै
कहियो री उस जेठ मेरे
नै
बिन घाली ले ज्या फागण
मै
लोक-जीवन से
अविच्छिन्न रूप से जुड़े हुए इन गीतों के
द्वारा हास -परिहास एवं आन्तरिक भावनाओं
को व्यक्त करने के अवसर मिलते हैं। बिहार अपनी सांस्कृतिक विरासत के लिए प्रसिद्ध
है । बिहार के विभिन्न अंचलों के लोक गीतों में होली के रंग अपनी विषिष्ट पहचान
रखते हैं। मिथिला की खुशबू से समाहित यह वासन्ती गीत मन को गुदगुदाता है-
ब्रज के बसइया कन्हैया
गोआला
रंग भरी मारै पिचकारी
मध्यप्रदेश के
बुन्देलखण्ड में लोक कवि इसुरी की फागें इतनी प्रचलित हैं कि परिवार का प्रत्येक
सदस्य इन्हें मस्ती में गाता है। इनकी फागों में नायक के
नख-शिख का वर्णन तथा रमणी के नयनों और उससे निकले बाणों का वर्णन बड़ी
सूक्ष्मदर्शिता से किया गया है -
ऐसे अलबेले नयना मुख
से कात बने ना
तामे परे साऊ छिदू
जावे, अगल-बगल
बरके ना
लागत चोट निसाने ऊपर, पंछी पड़त बचे ना
जियरा लेत पराए ईसुर
जे निरई किसके ना
पूर्वांचल की अपनी अलग
ही मनमोहक संस्कृति है । पुरवा हवा तो नायिकाओं को जीने नहीं देती-बसन्त में। बहती
हुई पुरवाई उसकी विरह-वेदना को और भी अधिक बल प्रदान करती है -
सखी फागुन का अजब बहार
है
अँचरवा फहरल करे
साँझ-सकारे घर के
दुआरे
भीतर-बाहर अरू पिछवारे
कोइलिया गावै
मल्हार... अँचरवा...
वसन्त के अवसर पर देश
के विविध अंचलों में गाए जाने वाले ये लोकगीत हमारी संस्कृति की अमूल्य धरोहर है।
आज जबकि शहरी
जीवन में वासन्ती रंग फीके पड़ते जा रहे हैं, ऐसे
में लोकगीतों को सहेजकर रखना नितान्त आवश्यक है।