नये
पुराने का फेर
पत्थर हों या मनुष्य, सृष्टि में हर वस्तु
या जीव का अस्तित्व कुछ समय के लिए ही होता है। यदि दशकों या युगों-युगों का
जीवनकाल हमें क्षणभंगुर नहीं भी लगे तो भी अरबों वर्ष से मौजूद ब्रह्माण्ड के
सामने तो यह क्षणभंगुर ही कहलायेगा.
प्रकृति हमें बूढ़ा कर
देती है। सभी प्राणी जन्म लेने की कीमत अपनी मृत्यु से चुकाते हैं। पूरे जीवनकाल
में हम जो कुछ भी संचय करते हैं वह भी चिरस्थाई नहीं होता। बच्चों के खिलौने टूटते
हैं, शादी के
जोड़े भी कभी तार-तार हो जाते हैं, राजप्रासादों की अट्टालिकाएँ भग्नावशेष में बदल
जाती हैं। फिर भी मानव-मन बूढ़े होते संबंधों और पुरानी पड़ती वस्तुओं से ऊबता
रहता है और सदैव नवीनता की आकाँक्षा करता है।
हम अब अपने घरों में
उपस्थित साजोसामान को पुराना नहीं होने देते। दो-तीन दशक पहले तक तो हम चीज़ों को
बेहद टिकाऊ जानकर लंबे अरसे तक काम में लाते थे। उन दिनों चीज़ें निस्संदेह बहुत
टिकाऊ बनती थीं। उनमें कोई खराबी आ जाने पर हम तत्परता से उन्हें ठीक कराते थे।
फिर ऐसा दौर आया जब चीजों में durability का स्थान changeability ने ले लिया।
अब किसी चीज़ में
मामूली खराबी या खोट निकल आने पर हमारी प्रतिक्रिया यह होती है।
ठीक कराने की क्या
ज़रुरत है? नया
ले लो!
इतने में तो नया आ
जाएगा!
इसमें दाग लग गया है।
ये शर्ट बेकार हो गयी है!
मैं इससे बोर हो गया
हूँ! चलो नया ले लें!
इसमें कुछ ख़ास फीचर
नहीं हैं।
इसे किसी को दे देंगे।
हम नया ले लेते हैं।
जो भी लोग नया खरीद
रहे हैं वे बेवकूफ हैं क्या?
कितने भी पैसे जोड़ लो, साथ कुछ नहीं जाता।
तो... आप अपनी चीज़ों
को कितना पुराना होने देते हैं?
मेरे कुछ मित्र तो
लगभग हर महीने नए वस्त्र खरीदते हैं। ऐसा नहीं हैं कि उनकी क्रयशक्ति बहुत है या
मेरे पास रुपयों की तंगी है पर हर छ: महीने में वे मोबाइल बदल लेते हैं। एक गाड़ी
दो-तीन साल से ज्यादा नहीं चलाते। क्यों? क्या वे जो चीज़ें खरीदते हैं वे मेरी चीज़ों
की तुलना में जल्दी पुरानी पड़ जाती हैं? तकनीकी सामान (मोबाइल/कम्प्युटर) को छोड़ दें
तो कपड़े-जूते, यहाँ
तक कि वाहन आदि जैसी वस्तुएँ इतनी जल्दी चलन(?) से बाहर नहीं होतीं और न ही उनमें कोई गंभीर
खराबी आती है।
असल बात तो यह है कि
नित नई वस्तुओं का उपभोग करना आजकल एक व्यसन में बदल गया है। अब हमसे बारम्बार यह अपेक्षा
की जाती है कि हम विभिन्न अवसरों पर हमेशा ही अपनी दो-जोड़ी शर्ट-पैंट में नज़र
नहीं आयें अन्यथा लोग हमारे बारे में अवाँछित धारणाएँ बना लेंगे। यही कारण है कि
अब लोग हर अवसर पर अलग-अलग वस्त्र पहनकर
जाते हैं। वे नहीं चाहते कि कोई उन्हें यह याद दिलाये कि 'पिछली बार भी आप यही पहनकर
आये थे न’।
मुझे आपने चार साल पुराने मोबाइल के कारण आये दिन लोग टोकते रहते हैं। बाहर वालों
से तो मैं निपट लूँ पर श्रीमती जी का क्या करूँ? मेरे प्रति उनकी चिंता जायज़ है।
फिर भी मेरा दिल है कि
पुरानी चीज़ों को अपने से दूर करना नहीं चाहता। पुरानी चीज़ों से मेरा मतलब है
बेहद टिकाऊ और काम में आ रही चीज़ें। बहुत से लोग आमतौर पर घर में अनेक कारणों से
बाबा आदम के ज़माने की वस्तुएँ भरके रखते हैं जिसे मैं जंजाल (clutter) मानता हूँ। हमारा
परिवेश जंजाल मुक्त होना चाहिए। यह कोई वैज्ञानिक तथ्य भले न हो पर मेरा मानना है
कि अव्यवस्था और जंजाल में रहने से हमारी सकारात्मक ऊर्जा और कार्यक्षमता घटती है।
हमारी जितनी ज़रूरतें हों उससे कुछ अधिक मात्रा में वस्तुओं की उपलब्धता ठीक है पर
एक सीमा से अधिक उनकी खरीद और उपयोगिता पर निर्भरता को मैं सही नहीं मानता। पुराने
पड़ते साजो-सामान और संबंधों के प्रति मेरा दृष्टिकोण यह है कि-
कम्प्यूटर पुराना हो
जाने पर खुलने में समय लेता है, मुझे इससे कोई दिक्कत नहीं है।, पुरानी बाइक और कार
कुछ ज्यादा देखभाल माँगती है जो कि उसका हक है।, कुर्सियों और मेजों पर पड़ी खरोंचें बचपन की
शरारतों की याद दिलातीं हैं। पूजा के आले में पुरानी मूर्तियाँ और चित्र
प्राण-प्रतिष्ठित से जान पड़ते हैं। ,नए व्यक्तियों से मिलते रहने पर भी पुराने
दोस्त जि़ंदगी से बाहर नहीं चले जाते।
यह तो सच है कि
कभी-कभी कोई चीज़ इतनी बिगड़ जाती है कि उसे ठीक नहीं कराया जा सकता। ऐसे में उसे
त्याग कर नया लेने में समझदारी है। हमें यह समझना चाहिए कि हम पुरानी पड़ती
वस्तुओं के प्रति आपने मन में गहराते व्यर्थ के असंतोष को बढ़ाते आये हैं। हम जिस
उपभोगितावादी काल में रह रहे हैं उसमें हमें हर समय यह याद दिलाया जाता है कि अपनी
अंटी ढीली करने से ही सुख की प्राप्ति होती है। टीवी और अन्य प्रचार माध्यम हमपर
विज्ञापनों की बौछार करके आवश्यकता सृजित करते हैं और इससे बहुत से लोगों में हीन
भावना उदित होती है।
आपका क्या कहना है? (हिन्दी नेस्ट से)
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