- प्रेम जनमेजय
बाहर से आवाजें आ रही थीं- भिंडी ले लो, कद्दू ले लो और मेरे फोन पर आवाजें आ रही थीं- क्रेडिट कार्ड बनवा लो, लोन ले लो। चुनावकाल में भी तो तरह -तरह के फेरीवाले आवाजें लगाते हैं। फेरीवालों का तो दंगल चलता है। (दंगा शब्द क्या दंगल से बना है?) । मैं झल्लाया हुआ था जैसे आजकल आमजन समाचार चैनलों की काँव- काँव से झल्लाता है। संपादक मित्र का फोन आ गया और मेरा चैनल बदल गया। मित्र के फोन ने ऐसा सकून दिया जैसे कौन बनेगा प्रधानमंत्री की कालरात्रि समाप्त हो गई हो।
संपादक ने फोन पर कहा- कबीरा खड़ा बाजार में।
मैंने पूछा- क्यों खड़ा ?
-तुम बताओ, तुम तो लेखक हो। मैं तो संपादक हूँ और मुझे इस विषय पर अंक निकालना है ।
- इस विषय पर अंक क्यों निकालना है, कुछ तो सोचा होगा?
- बहुत कुछ सोचा है ।
- तो बताएँ कि क्या सोचा है?
- वो सब मैं अपने संपादकीय में लिखूँगा, तुम तो व्यंग्य लिख दो, जल्दी।
हर संपादक जल्दी में ही होता है। पठानी संपादक की जल्दी के समक्ष लेखक विवश होता है। प्रकाशक भी पठानी हो सकता है। प्रकाशक पठानी ही होता है। प्रकाशक भी जल्दी नामक हथियार का प्रयोग करता है। पर संपादक की जल्दी और प्रकाशक की जल्दी में अंतर होता है। प्रकाशक से लेखक, डरते-डरते पूछता है कि किताब कब तक छापेंगे ? प्रकाशक का उत्तर होता है कि बस जल्दी। और ये जल्दी दो वर्ष तक नहीं आती है। लेखक में साहस नहीं होता कि वह प्रकाशक को उसकी जल्दी याद दिलाए। पर संपादक की जल्दी हफ्ते दो हफ़्ते वाली होती है। संपादक जल्दी की तलवार लटका सकता है और तलवार का सम्मान तो सबको करना पड़ता है।
कबीर सुखी थे कि उनके समय में प्रकाशक और संपादक नहीं थे। शायद इसलिए कबीर ‘आँखन देखी कह लेते थे। शायद इसलिए कबीर को लताड़ने के लिए ये नहीं देखना पड़ता था कि जिसे वो लताड़ रहे है< वो किस धर्म-जाति का है। कबीर को कोई चुनाव थोड़े ही लड़ना होता था। कबीर को बल्क में अपनी पुस्तक भी नहीं बिकवानी होती थी।
पर यदि संपादक आपका मित्र हो तो... मित्र संपादक, पठानी संपादक से भी अधिक खतरनाक होता है। वो मित्रता की दोधारी आत्मीय तलवार का सदुपयोग करता है। वो सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे वाले हथियार का प्रयोग करता है।
अतः मैंने संपादक से कहा - जो आज्ञा मित्र संपादक!
पर मन में उठे प्रश्न आज्ञा नही दे रहे थे और शत्रुवत् मेरे हृदय को मथ रहे थे।
संपादक को इस विषय पर अंक निकालने की जल्दी क्या है? कहीं ऐसा तो नहीं कि इसका संबंध आने वाले आम चुनाव से हो। चुनाव आते हैं तो हर धर्म के ईश्वर याद आते हैं। पहले गांधी जैसे महापुरुष याद आते थे। आजकल धार्मिक महापुरुष याद आते हैं। हर धर्म के धर्मात्मा याद आते हैं। कबीर भी याद आते हैं। कबीर का ‘न काहू से दोस्ती न काहू से बैर’ याद आता है। याद आते ही चुनाव की मैराथन दौड़ने वाले, चुनावकाल के लिए, कबीर का चुनाव करते हैं। चुनावकाल में वे ‘न काहू से दोस्ती और न काहू से बैर’ वाला भजन गाते हैं। और सरे आम, गले पड़ने जैसा गले मिलते हैं। होली पर पड़ोसी भी तो गले मिलता है और होली के अगले ही दिन गला भी पकड़ लेता है।
पर कबीर ऐसे नहीं थे। वो किसी भी युग में आएँ, चुनाव तो कम से कम नहीं लड़ेंगे। हाँ चुनाव लड़ने वाले का पर्दाफाश जरूर कर सकते हैं। कबीर के अनुयायी तो चुनाव के लिए बाजार में खड़े हो सकते हैं पर कबीर चुनाव के लिए बाजार में खड़े नहीं हो सकते हैं।
संपादक का कहना है कि कबीरा बाजार में खड़ा है और मेरा सोचना है कि क्यों खड़ा है?
मैं फिर सोचने लगा; क्योंकि मैं केवल सोच ही सकता हूँ। लेखक जो हूँ। कबीर के समय में तो ये प्रश्न उचित था कि कबीर बाजार में खड़े क्या कर रहे हैं। कबीर के समय में तो लोग, बाजार में बस सौदा लेने जाते थे। वो बाजार में खड़े नहीं होते थे। उन दिनों बाजार खरीदने के लिए होता था, खड़े होने के लिए नहीं। उन दिनों लोग खड़े-खड़े बतियाते भी नहीं थे। बतियाने के लिए उनके पास चौपाल होती थी। उन दिनों बाजार सुंदर भी नहीं होता था कि खड़े होकर भकुवे -सा उसे देखने लग जाओ। बाजार लुभाने के लिए भी नहीं होता था। बाजार सजता नहीं था। अस्त-व्यस्त बालों और वेशभूषा वाला पुरुष दूकानदार अपनी आत्मीयता से आपके जेब का पैसा खींचता था। दुकान में ए सी, पंखा तक नहीं। जरूरतें कम होती थीं; इसलिए जरूरत की हर चीज मिल जाती थी। लाइन भी नहीं लगानी पड़ती थी। खरीदने और बेचने वाला एक दूसरे को जानता था। एक दूसरे के हाल-चाल पूछने का समय होता था।
आज तो बड़े-बड़े सजे-धजे मॉल हैं। जिस शोरूम के आगे चाहें, खड़े होकर नारी के अंग- अंग की शोभा निहार सकते हैं। सवस्त्र नारी, कम वस्त्र नारी और ...। और बाजार में सजी- धजी नव यौवनाएँ बाजार की शोभा बढ़ाती हैं। ये शोभा खरीददार को लुभाने के लिए बढ़ाई जाती है। जो नहीं भी खरीदना चाहता वो भी खरीदार बन जाता है। दुकानें शोरूम हो गई हैं। इस शोरूम में पुरुष दुकानदार कम मिलते हैं, सजी -धजी मनमोहक मुस्कान बिखेरती नवुयवतियाँ अधिक होती हैं। इन सबका लक्ष्य बाजार को लुभावना बनाना होता है। कुछ नौजवान अधिक लुभ जाते हैं, तो दुष्कर्म हो जाता है। इस बाजार में तो आप घंटों खड़े रह सकते हैं। पर क्या इस बाजार में कबीर एक पल भी खड़े रह सकते थे?
संपादक ने तो कबीर को बाजार में खड़ा कर दिया है। संपादक चुनौती भी दे रहा है कि हे लेखक ! बता कबीर बाजार में क्यों खड़े हैं और क्या कर रहे है ? संपादक बैताल बन कह रहा है कि तू यदि मेरे प्रश्नों के उत्तर नहीं देगा, तो तेरा सर टुकड़े - टुकड़े हो जाएगा। इधर मेरा समय मुझे डरा रहा है कि यदि तूने कबीर के बारे में कुछ कहा, तो तेरा सर टुकड़े-टुकड़े हो जाएगा। मुझे कुछ भी कहने का साहस नहीं हो रहा है। कबीर सार्वजनिक रूप से सवाल दाग सकते थे; पर आज क्या कबीर पर सवाल दागे जा सकते हैं? कबीर पर सार्वजनिक रूप में कुछ भी कहना सुरक्षित है क्या ? मैं कायर लेखक हूँ इसलिए कबीर पर कुछ भी कहने से डरता हूँ। कबीर पर तो कोई निर्भीक ही कुछ कह सकता है।
कबीर बाजार में सार्वजनिक रूप से खड़े हैं पर मैं सार्वजनिक कुछ नहीं कह सकता।
मैंने कबीर पर कभी कुछ लिखा भी नहीं है। हाँ कबीर को क्लास में पढ़ा और पढ़ाया जरूर है। क्लास में कबीर क्या तुलसी सूर आदि किसी को भी पढ़ना-पढ़ाना सुरक्षित होता है। हमारे समय में पढ़ना और पढ़ाना दोनो सुरक्षित होते थे। क्लास में सवाल पूछने के खतरे कम थे। मास्टर जी अधिक से अधिक मुर्गा बनाते थे या बेंत मारते थे। उन दिनों पिटना एक सांस्कृतिक कर्म था। स्कूल में पिटना मास्टर के मूड पर निर्भर था। मास्टर जी का मूड पीटने का है, तो पिटना ही पड़ता था। गलत सवाल करो, तो पिटो, सही करो तो भी। घर में जाकर मास्टर की शिकायत करो, तो बाप से पिटो- तूने ही कुछ किया होगा।
पीटने की संस्कृति आज भी फल- फूल रही है। आप कमजोर हैं तो किसी भी चौराहे पर पिट सकते हैं। चौराहे पर पिटने की शिकायत माई -बाप थानेदार से करेंगें तो, वहाँ पिटेंगे। वैसे आजकल तो पुलिसवाले भी सरेराह ,सरेआम पिट रहे हैं, तो बेचारे, मास्टर की औकात क्या! केवल पिट , तो जान बची और लाखों पाते हैं। पर जब श्रीमान स्टूडेंट जी कहते हैं कि ले गोली खा, तो घीघी बँध जाती है और ‘घीघा’ जी, राम- राम जपने लगते हैं।
मैंने जिनको कॉलेज में पढ़ाया है, वो मेरी ओर ऐसे घूरके देखा करते थे कि मास्टर हिम्मत है, तो हमें पढ़ाके दिखा। मैंने जिनको कबीर पढ़ाया, उनको मतलब नहीं होता था कि कबीर पर क्या कह रहा हूँ। उन्हें तो मतलब होता था कि इक्जाम में कौन- सा क्वेश्चन आएगा और उन्हें कितने नंबर मिलेंगे।
बाजार को जितना नई पीढ़ी जानती है उतना संपादक या मैं नहीं जानते। इसलिए कबीर के दोहे को पढ़ाने मैं अपनी क्लास में चला गया। बच्चों पर पढ़ाई का अधिक बोझ न पड़े, इसलिए मैंने दोहे की पहली पंक्ति पढ़ी-कबीरा खड़ा बाजार में, माँगे सबकी खैर ।
मैंने पूछा- कोई बता सकता है कि कबीर कहाँ खड़ा है और क्या माँग रहा है। बहुत ईजी है। इसी दोहे में मीनिंग छुपा हुआ है।’ क्लास में साँप नहीं था पर सबको सूँघ गया।
मैंने छात्रा से पूछा- यू टेल मी कबीर बाजार में क्यों खड़ा है?
-हाऊ कुड आई नो? आई एम नॉट कबीरा। आई एम सायना। और ये रेलेवेन्ट क्वेश्चन नहीं है। 500 ईयर बिफोर कबीरा मार्केट में क्यों खड़ा था ? रिडिकल्यूस... दिस इज आउट ऑफ कोर्स हैं। किसी हेल्प बुक में नहीं मिलता है। हा हा, व्हाई कबीरा स्टैंडिंग इन बाजार। वाज देयर बिग बाजार ....
इस बार क्लास ने हा हा किया।
मैंने क्लास के ब्रिलियंट लड़के से पूछा - यू... तुम बताओ।
- यस सर! यू नो ...कबीर इज थोड़ा कन्फयूजड । वो मार्केट में स्टैंड है। या तो गर्ल फ्रेंड का वेट कर रहा है... या एनी टाइप ऑफ सेल का...। वो सेलर नहीं है, बॉयर है, माँग रहा है। मार्केट में सेल लगा है... एण्ड ... एण्ड उसके पास कार्ड नहीं है... वो सबसे खैर... खैर... खैरात, खैरात माँग रहा है। एण्ड सर उसको खैरात नहीं मिलता, तो वो कबीरा हो जाता है। आपने ‘हेरा फेरी’ मूवी देखा होगा। क्या धाँसू आवाज में बोलता है- हैलो, कबीरा स्पीकिंग।’’ एण्ड उसका डॉयलाग- तेरी पोती के छोटे-छोटे टुकड़े करके कुत्तों को डाल दूँगा।’ क्लास के लड़के -लड़कियाँ इस डॉयलाग डिलिवरी पर ताली बजाते हैं ।
अब आप समझ गए होंगे कि हिंदी पढ़ाने के लिए अंग्रेजी आनी क्यों आवश्यक है। कबीर के बारे में नौजवान पीढ़ी के अद्भुत ज्ञान को समझने के लिए अंग्रेजी का ज्ञान कितना आवश्यक है।
नौजवान पीढ़ी बाजार में खड़ी नहीं होती है। इसके पास इतना समय ही नहीं है। वो तो सीधा लक्ष्य साधती है। नेट पर सर्च किया, शोरूम में घुसे, बाप के क्रेडिट कार्ड से खरीदा, कैब पकड़ी और डेट पर निकल गए।
कबीर के समय बाजार खुले में लगता था; पर खुला बाजार नहीं था। आज खुला बाजार है पर वो चारदीवारी में बंद, एयरकंडिशंड मॉल में लगता है।
तो हे सम्पादक ! कबीर को बाजार में मत खड़ा करें। कबीरों को नाहक परेशान मत करें। ये बाजार कबीर जैसों के लिए नहीं बना है। बाजार जो चाहता है वो ले लेता है। वो मँगता नहीं है; इसलिए माँगता नहीं है। मँगते तो आप हैं। बाजार सबकी खैर भी नहीं माँगता है, केवल अपनी खैर चाहता है। इस बाजार में यदि कबीर अधिक देर रहे तो उनकी खैर नही, हे संपादक!
सम्पर्कः -73 साक्षर अपार्टमेंट्स , ए-3 पश्चिम विहार नई दिल्ली- 110063 मोबाइल-98111-54440