उदंती.com को आपका सहयोग निरंतर मिल रहा है। कृपया उदंती की रचनाओँ पर अपनी टिप्पणी पोस्ट करके हमें प्रोत्साहित करें। आपकी मौलिक रचनाओं का स्वागत है। धन्यवाद।

Nov 6, 2023

आलेखः पटाखों का ऐतिहासिक, सांस्कृतिक व न्यायिक पक्ष

 - राजेश पाठक

इतिहासकार परशुराम कृष्ण गोडे की एक पुस्तक - द हिस्ट्री ऑफ फायरवर्क्स इन इंडिया बिटवीन ए डी 1400 एंड 1900 - वर्ष 1950 में प्रकाशित हुई थी। यह भारत में पटाखों के इतिहास की एक प्रामाणिक पुस्तक है। उन्होंने पुस्तक में उल्लेख किया है कि पटाखों का प्रचलन भारत में विभिन्न उल्लास व उत्सवों पर बखूबी रहा है। सम्राट व लेखक गजपति रुद्रदेव (1497-1539) ने भी संस्कृत भाषा में लिखी पुस्तक -कौतुक चिंतामणि - में पटाखों के प्रचलन का विवरण प्रस्तुत किया है। वास्तव में देखा जाए, तो विश्व में पटाखों की शुरुआत चीन द्वारा की गई। आज से तकरीबन 2000 वर्ष पूर्व बिना गन पाउडर के पटाखे चीन में बनाए जाते थे। जब 9 वीं सदी में गन पाउडर का आविष्कार हुआ, तब जाकर पटाखों का यह प्रदूषणकारी स्वरूप सामने आया।

भारत में भी 15 वीं शताब्दी के लगभग मध्य में गन पाउडर विभिन्न युद्ध प्रणालियों में प्रयुक्त होने लगा। उसी दौरान लोगों ने विभिन्न उत्सवों, समारोहों एवं धार्मिक अवसरों पर इसके प्रयोग व उपयोग पर ध्यान देना शुरू किया। विभिन्न स्रोतों के अध्ययन से यह बात प्रमाणित हो चुकी है कि भारत में पटाखों के प्रचलन की शुरुआत वर्ष 1443 में विजयनगर साम्राज्य के राजा देवराय द्वितीय के दरबार में नियुक्त राजदूत अब्दुर रज्जाक ने की। शबे बरात जैसे पर्व में उस वक्त से ही इसके प्रचलन का इतिहास आसानी से ढूँढा जा सकता है।

वास्तव में देखा जाय तो दिवाली के अवसर पर पटाखे फोड़ने व रोशनी करने के ढेर सारे प्रयोजन भी और ढ़ेर सारे माध्यम भी रहे हैं, जिसके स्वरूप कालांतर में परिवर्तित होते चले गए।

आज संपूर्ण विश्व पर्यावरण संरक्षण की समस्याओं से जूझ रहा है। सतत विकास के लिए टिकाऊ पर्यावरण आज हर की आवश्यकता है। आज वायु की गुणवत्ता क्षीण हुई है जिसके कारण पर्यावरण प्रदूषणकारी कारकों के नष्ट करने की बात ही नहीं; बल्कि उससे उबरने के लिए सख्त से सख्त कानूनों का निर्माण व क्रियान्वयन किया जाने लगा है।

यह सत्य है कि न केवल हिंदू धर्मावलंबियों बल्कि अन्य धर्मों के उपासक भी अपने धार्मिक व सांस्कृतिक अवसरों पर पटाखों के प्रयोग को बढ़ावा देते आए हैं; इसलिए यह अब किसी खास धर्म व संस्कृति का मुद्दा नहीं रह गया है। दिवाली, छठ,शबे बरात,न्यू ईयर, क्रिसमस जैसे विभिन्न धार्मिक अवसरों के साथ - साथ विभिन्न धर्मावलंबियों के वैवाहिक समारोहों, राजनीतिक-सामाजिक हितलाभ प्राप्ति के अवसरों पर भी पटाखे छोड़ना आकर्षण का मुख्य केंद्र हो गया है। 

पटाखों का न केवल समाजिक व सांस्कृतिक पक्ष बल्कि आर्थिक पक्ष भी। आज इस उद्योग से लाखों लोगों को स्थायी/अस्थायी रोजगार प्राप्त हुआ है। तमिलनाडु का शिवाकाशी क्षेत्र जिसे भारत में पटाखों की राजधानी कहा जाता है अकेले ही देश में कुल पटाखा उत्पादन का लगभग 60प्रतिशत हिस्सा तैयार करता है। यहाँ का सालाना कारोबार लगभग 400 करोड़ रुपये का है। समय - समय पर पटाखों का विदेशों में निर्यात भी किया जाता है, जिससे देश को विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है। यह निर्यात मुख्यतया बुल्गारिया, बांग्लादेश, नेपाल जैसे देशों को किया जाता है, जहाँ पर भारतीय पटाखों की गुणवत्ता अच्छी मानी जाती है। यद्यपि भारत के विस्फोटक अधिनियम,2008 द्वारा पटाखों के व्यापार आदि पर कड़े प्रतिबंध लगाए गए हैं, तथापि सीमित उपयोग व सीमित व्यापार की अनुमति प्राप्त की जाती रही है। आयरलैंड व चिली जैसे देशों में तो इसके प्रयोग पर सख्त पाबंदी है। मलेशिया जैसे देश की बात करें, तो वहाँ माइनर आफेंस एक्ट, 1955 और विस्फोटक अधिनियम,1957 द्वारा प्राइवेट नागरिकों के लिए फायरवर्क्स पूर्ण प्रतिबंधित है। केवल सार्वजनिक प्रयोजनों में इसके सीमित प्रयोग की अनुमति है। एक और देश है- ताइवान। यहाँ पर्यावरण समस्याओं को देखते हुए वर्ष 2008 से पटाखों के प्रयोग को शहरी क्षेत्रों में पूर्णतया प्रतिबंधित कर दिया गया है। ग्रामीण क्षेत्र केवल प्रतिबंध से मुक्त है।

 इतने कुछ वास्तविकताओं के बावजूद पटाखों के कारण फैलने वाले प्रदूषण को ले इसके प्रयोग व निर्माण पर प्रतिबंध लगाने की माँग देश में कुछ वर्षों से उठते रही है। विभिन्न काल खंडों में न्यायालयों द्वारा भी पटाखे के प्रयोग व निर्माण पर सख्ती बरती जाती रही है। वर्ष 2017 में न्यायमूर्ति मदन बी लोकुर की अध्यक्षता वाली खंडपीठ पटाखों के निर्माण में प्रयुक्त नुकसान देह व प्रदूषणकारी धातुओं यथा लीथियम,पारा, आर्सेनिक, एंटीमनी,सीसा के प्रयोग पर पाबंदी लगाई थी। पीठ ने कहा था कि यह सुनिश्चित करना पेट्रोलियम एवं विस्फोटक सामग्री सुरक्षा संगठन की जिम्मेदारी है कि विशेषकर तमिलनाडु के शिवाकाशी में आदेश का पालन हो।

इस संबंध में और भी न्यायिक निर्णय हैं। गत वर्ष कोलकाता उच्च न्यायालय के पटाखों पर पूर्ण प्रतिबंध के निर्णय को खारिज कर इको फ्रेंडली मध्यम गुणवत्ता वाले ग्रीन पटाखों की अनुमति उच्चतम न्यायालय ने दी थी। न्यायालय का यह मानना रहा है कि ग्रीन पटाखों में पर्यावरण को नुक़सान पहुँचाने वाले केमिकल्स शामिल नहीं होते हैं, जिसके कारण लगभग 30-40 प्रतिशत तक कम प्रदूषण फैलता है।

सच कहा जाए, तो अब वक्त आ गया है कि हम स्वयमेव ही प्रदूषण से होने वाले खतरों के प्रति सचेष्ट रहें। हमें अब कानून की परिधि से बाहर निकल कर भी सोचना होगा कि भले ही पटाखे हमारी संस्कृति के हिस्सा रहे हों; परंतु आने वाली पीढ़ियों को एक सुरक्षित, सुदृढ़ व समेकित पर्यावरण देने के लिए इनके प्रयोग के सीमित पक्ष पर विशेष बल देना ही होगा तभी हमारी संस्कृति भी सुरक्षित रहेगी और भविष्य भी सुनहरा होगा। हमें समय - समय पर सरकार की एजेंसी पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड एवं नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के द्वारा जारी किए जाने वाले निर्देशों के प्रति भी अब गंभीर रहने की जरूरत है, जो पर्यावरण संरक्षण की दिशा में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान देते आए हैं।

सम्पर्कः सहायक सांख्यिकी पदाधिकारी, जिला सांख्यिकी कार्यालय, गिरिडीह, झारखंड - 815301मो नं 9113150917


No comments: