- उर्मिल कुमार थपलियाल
दिन भर धरना, रैली, प्रदर्शन और नारेबाजी के बाद वह जब रात को घर लौटा, तो बेहद थक गया था। जैसे वो एक दर्द हो, जो निकास नहीं पा रहा हो। घर जाकर उसने बड़ी दिक्कत से अपनी दोनों टाँगें फेंक दीं। एक टाँग मेज के पास और दूसरी बाथरूम के दरवाजे के पास जाकर गिरी। अपने दर्दीले कंधे उचकाकर उसने दोनों हाथों से अपना भारी- सर अलग किया। वो तकिए और बिस्तर के नीचे लुढ़क गया। अपने दोनों हाथ उसने झटके से अलग किए। वे पलंग के इधर–उधर जा गिरे। उसका धड़ बिस्तर के बीचों–बीच जाकर अटक गया। अब वह कमरे में कहीं नहीं था। उसकी एक विभाजित सी उपस्थिति थी। आँखों की पलकें बंद थीं। जैसे किसी ने उन्हें सी दिया हो। वह लगभग अभंग था।
सवेरा होते ही उसके दरवाजे की साँकल खटकी। खटकने की आवाज सुनने से पहले एक तरफ पड़े चेहरे की पलकें खुलीं। दरवाजे पर कोई बड़ी हड़बड़ी में चिल्ला रहा था- ‘‘उठो, जल्दी उठो, समाजवाद आ गया है।’’ वो अस्व- व्यस्त था। दरवाजे की साँकल फिर बजी और चिल्लाने वाला अगले मकान की तरफ बढ़ गया। पाँव पहने। कंधे पर सर टिकाया और सड़क की तरफ दौड़ पड़ा। कहीं कुछ नहीं था। चिल्लाने वाला किसी दूसरे मकान की साँकल बजा रहा था। पागलों की तरह। मुड़–मुड़कर कुछ उसे देख रहे है, कुछ हैरत में है। कुछ चकित, कुछ देर के बाद लोगों के हँसने की आवाज उसे सुनाई देने लगी। उसे रोना आने लगा।
उसे लगा कुछ गड़बड़ जरूर है, क्योंकि जब वो रोने लगा तो उसके आँसू उसकी पीठ पर बह रहे थे।
1 comment:
आईना दिखाती बहुत सुंदर लघुकथा। सुदर्शन रत्नाकर
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